पुरस्कार / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
आज बीरपाल बहुत खुश था। जमाखोरी के आरोप में उसने सेठ दुलीचन्द को गिरफ्तार कर लिया था। शहर–भर में उसका नाम हो जाएगा। उसे तरक्की भी मिल जाएगी। पुरस्कार भी मिल सकता है।
थाने पहुँचने पर सभी लोग दौड़कर आए. दारोगा जी ने सामने दुलीचन्द को देखा तो मन–ही–मन उन्होंने बीरपाल को गाली दी–"स्साला, ईमानदार की पूँछ बना फिरता है।"
उसने बीरपाल को अकेले में बुलाकर कहा–"सेठजी को क्यों गिरफ्तार कर लाए?"
"जमाखोरी के इल्जाम में।"
"यह मन्त्रीजी का आदमी है, तुम्हें इतना पता है या नहीं?"
"पता क्यों नहीं है, इसीलिए तो ससुरे को धर लिया।" वह दृढ़ता से बोला।
"उसको मैंने अभी–अभी छोड़ दिया है, समझे।"
"आपने ठीक नहीं किया। ऐसे लोगों को तो गोलीमार देनी चाहिए. इलाके में अकाल पड़ा है और ये सेठजी गोदाम में अनाज भरे हुए हैं।"
"वह अनाज न मेरा है, न तुम्हारा। उसने पैसे देकर खरीदा है।"
"अनाज ही तो खरीदा है, हम लोगों को तो नहीं खरीद लिया।"
"अब तुम जाओ," दारोगा जी गरजे–"मुझे शिक्षा मत दो।"
बीरपाल चुपचाप चला गया।
अगले दिन समाचारपत्र में छपा था–"डाकुओं के साथ मुठभेड़ में सिपाही बीरपाल घटनास्थल पर ही मारा गया। डाकू बच निकले।"