पुराण समझने को समझ चाहिए / प्रताप नारायण मिश्र
इस शताब्दी के लोगों की समझ में यह बड़ा भारी रोग लग गया है कि जिन विषयों का उन्हें तनिक भी ज्ञान नहीं है उनमें भी स्वतंत्रता और निर्लजतापूर्वक राय देने में संकोच नहीं करते। विशेषत: जिन्होंने थोड़ी बहुत अंगेरजी पढ़ी है अथवा पढ़नेवालों के साथ हेलमेल रखते हैं वा किसी नए मत की सभा में आते-जाते रहते हैं उनमें यह धृष्टता का रोग इतना बढ़ा हुआ दिखाई देता है कि जहाँ किसी अपनी सी बतीयत वाले की शह पाई वहीं जो बात नहीं जानते उसमें भी चायं-चायं मचाना आरंभ कर देते हैं।
बरंच भली प्रकार जानने वालों से भी विरुद्ध वाद ठानने में आगा पीछा नहीं करते। यह हमने माना कि पढ़ने से और पढ़े लिखों की संगति से मनुष्य की बुद्धि तीव्र होती है किंतु इस के साथ यह नियम नहीं है कि एक भाषा वा एक विद्या सीखने से सभी भाषाओं और विद्याओं का पूर्ण बोध हो जाता हो। देखने से इसके विरुद्ध यहाँ तक देख पड़ता है कि एक ही विषय का यदि एक अंग आता हो तो दूसरा अंग सीखे बिना नहीं आता। साहित्य में जो लोग गद्य बहुत अच्छा लिखते हैं उन्हें भी पद्य रचना सीखनी पड़ती है और जिन्हें छंदोनिर्माण में बहुत अच्छा अभ्यास होता है वे भी गद्य लिखना चाहें तो बिना परिश्रम नहीं लिख सकते। दृश्यकाव्य के सुलेखक श्रव्यकाव्य में और श्रव्यकाव्य के सुलेखक हृदयकाव्य में सहसा प्रवेश कभी नहीं करते यद्यपि सब साहित्य ही के अंग हैं। फिर हम नहीं जानते हमारे नौसिखिया बाबू लोग क्यों बिना जानी बातों में टँगड़ी अड़ा के हास्यापद बनने में धावमान रहा रकते हैं। उनके इस साहस का फल सिवा इसके और क्या हो सकता है कि जिस विषय में वे ऐसी बैलच्छि करते हैं उसके तत्ववेत्ता लोग उन्हें हँसै थूकैं वा अपने जी में कुढ़ के रह जायँ और इतर जन धोखा खा के सच झूठ का निर्णय न कर सकें। विचार कर देखिए तो यह भी देश का बड़ा भारी दुर्भाग्य है कि पढ़े लिखे लोग ऐसा अनर्थ कर रहे हैं जिससे आगे होने वाली पीढ़ी के पक्ष में भ्रमग्रस्त होकर बड़े भारी अनिष्ठ की संभावना है। सरकार में हमें स्वतंत्रता क्या इसलिए दी है हम ढिठाई सहित अपनी मूर्खता का पक्ष करके देशभाइयों की बुद्धि को भ्रष्ट करें? हमारे संस्कृत एवं भाषा के प्रसिद्ध विद्वानों को उचित है कि इस प्रकार के निरंकुश लोगों को रोकने का यत्न करें जिसका उपाय हमारी समझ में यह उत्तम होगा कि इस प्रकार के अनगढ़ स्तंत्राचारियों को अपने-अपने नगरों में किसी प्रतिष्ठित सज्जन व राजपुरुष की सहायता लेकर और सर्वसाधारण को समझा कर लेक्चर न देने दिया करें और ऐसों के पुत्र पुस्तकादि का प्रचार रोकने के लिए अपने हेती व्यवहारियों को समय-समय पर समझाते रहा करें। यदि संभव हो तो जाति के मुखियों को इन्हें जातीय दंड देने में भी उत्तेजित करते रहे नहीं तो यह मनमुखी लोग धर्म और देशभक्ति की आड़ में भारत को गारत करने में कसर न करेंगे।
इन्हें हम यह तो नहीं कह सकते कि देश और जाति से आंतरिक बैर रखते हैं पर इतना अवश्य कहेंगे कि कोई सामाजिक भय न देखकर स्वतंत्रचित्तता को उमंग में आकर, नामवरी आदि के लालच से, बिना समझे बूझे केवल अपनी थोड़ी-सी बुद्धि और विद्या का सहारा ले के हमारे पूर्वजों की उत्मोतम रीति, नीति, विद्या, सभ्यतादि को दूषित ठहरा के सर्वसाधारण के मन में भ्रमोत्पादन करते रहते हैं। अत: यह निरक्षर स्त्रियों और अपठित ग्रामवासियों से भी अधिक मूर्ख है क्योंकि हमारी स्त्रियाँ और गंवार भाई और कुछ समझें वा न समझें पर इतना अवश्य समझते हैं कि हमारे पुरखे मूर्ख न थे। हमारी समझ में उनकी बातें आवैं वा न आवैं किंतु हमारा भला उन्हीं की चाल चलने में है। इस पवित्र समझ की बदौलत यदि अधिक नहीं तो इतना देश का हित अवश्य हो रहा है कि ग्रामों में और घरों के भीतर हमारी सनातनी मर्यादा आज भी बहुत कुछ बनी हुई है। किंतु बाबू साहबों को सभाओं, लेक्चरों, पुस्तकों और पत्रों में जहाँ ईश्वर, धर्म और दो हितैषितादि ही के गीत बहुतायत से गाए जाते हैं वहाँ भी आर्यत्व की सूरत कोट ही बूट पहिने हुए देख पड़ती है।
फिर क्यों न कहिए कि इन देशोद्धारकों को पूर्ण प्रयत्न के साथ रोकना चाहिए जो पढ़ लिखकर भी इतना नहीं समझते कि सहस्त्रों रिषियों की, सहस्त्रों वर्ष के परिश्रमोपरांत स्थिर की हुई, पुस्तकें तथा मर्यादा, जिन्हें सहस्त्रों वर्ष से विद्वान मानते चले आए हैं, वह केवल थोड़े से विदेशियों तथा विदेशीय ढर्रे पर चलने वाले स्वदेशियों को समझ में न आने से क्योंकर दूषणीय और त्याज्य हो सकती है। जब हम देखते हैं कि दूसरे देश वाले कैसे ही क्यों न हो जाएँ किंतु अपनी भाषा, भोजन, भेष, भाव, भ्रातृत्व को हानि और कष्ट सहने पर भी नहीं छोड़ते और हमारे नई खेप के हिंदुस्तानी साहब इनकी जड़ काटने ही में अपनी प्रतिष्ठा और देश की भलाई समझते हैं, तब यही कहना पड़ता है कि यदि यह लोग रोके न जाएँगे तो एक दिन बड़ा ही अनर्थ करेंगे, जातित्व का नाश कर देंगे और देश का सत्यानाश। क्योंकि हमारे देश की राजनैतिक, सामाजिक, शारीरिक, लौकिक, पारलौकिक भलाई का मूल हमारा धर्म है और धर्म के परमाश्रय वेद शास्त्र पुराण इतिहास तथा काव्य हैं।
किंतु बाबू साहबों की छुरी इन्हीं वेदादि पर अधिक तेज रहा करती है और मंडन खंडन में चाहे कुछ संकोच भी आ जाए किंतु धर्मदेव की निंदा स्तुति में तनिक भी नहीं हिचकते। इनसे तो मौलवी साहब के विद्यार्थियों को हम अच्छा कहेंगे। बड़े भाई, पिता, गुरु आदि मान्य पुरुषों का दोष सिद्ध हो जाने पर भी उनके लिए अप्रतिष्ठता का शब्द मुँह से कभी नहीं निकालते बरंच ऐसे अवसर पर 'खताए बुजुर्गा गिरफ्तन्खतास्त' वाले वाक्य से सभ्यता का संरक्षण करते रहते हैं। किंतु हमारे सुसभ्य सुपठित महाशय बाप दादों के बाप दादों की बड़ी-बड़ी और बड़े-बड़े भावों से भरी हुई पुस्तकों को तुच्छ कहते जरा भी नहीं शर्माते। परमेश्वर यदि नितांत दयालु हों तो उन जिह्मओं और हाथों को भस्म कर दें जिनके द्वारा सभाओं में बका और कागजों पर लिखा जाता है कि वेद जंगलियों के गीत हैं, पुराण पोपों के जाल हैं, इतिहास का कोई ठिकाना ही नहीं है, काव्य में निरी झूठ और असभ्यता ही होती है इत्यादि। यदि हमारा सा सिद्धांत रखने वाले सहस्र दो सहस्र लोग भी होते तो ऐसों की बात-बात का दंतत्रोटक उत्तर प्रतिदिन देते रहते। पर यत: अभी ऐसा नहीं है इससे जो थोड़े से सनातन धर्म के प्रेमी हैं उनसे हमारा निवेदन है कि यथासंभव ऐसों का साहस भंग करने में कभी उपेक्षा न किया करें। जिस विषय को भली भाँति जानते हों उसकी उत्तमता सर्वसाधारण पर विदित करते रहना और उससे विरोधियों का मान मर्दन करते रहना अपने मुख्य कर्तव्यों में से समझें। तभी कल्याण होगा, नहीं तो जमाने की हवा तो बिगड़ ही रही है, इसके द्वारा महा भयंकर रोगों की उत्पत्ति क्या आश्चर्य है। इतना भार हम अपने ऊपर लिए रखते हैं कि पुराणों की श्रेष्ठता समय-समय दिखाते रहेंगे और यदि भलमंसी के साथ कोई शंका करेगा तो उसका समाधान भी संतोषदायक रूप से करते रहेंगे।
हमारे सहकारी हमारा हाथ बँटाने में प्रस्तुत हों और विरुद्धाचारी इस अखंडनीय वाक्य को सुन रक्खें कि पुराण अत्युच्च श्रेणी के साहित्य का भंडार है और भारतवासियों के पक्ष में लोक परलोक के वास्तविक कल्याण का आधर है। उनके समझने को समझ चाहिए। सो भी ऐसी कि भारतीय सुकवियों की लेख प्रणाली और भारतीय धर्म कर्म, रीति नीति, आचार व्यवहार के तत्व को समझ सकती हो तथा इस बात पर दृढ़ विश्वास रखती हो कि हमारे पूर्वपुरुष त्रिकाल एवं त्रिलोक के विद्वानों, बुद्धिमानों के आदि गुरु और शिरोमणि थे। उनकी स्थापना की हुई प्रत्येक बात सदा बस प्रकार से सर्वोत्तम और अचल है। उनकी प्रतिष्ठा सच्चे मन और निष्कपट बचन से यों तो जो न करेगा वही अपनी बुद्धि की तुच्छता का परिचय देगा, किंतु आर्य कहला कर जो ऐसा न करे वह निस्संदेह उनसे उत्पन्न नहीं है, नहीं तो ऐसा किस देश का कौन सा श्रेष्ठ वंशज है जो बाप की इज्जत न करता हो और बाप से अधिक प्रतिष्ठित बाबा को न समझता हो तथा यों ही उत्तरोत्तर पुरुषों की अधिकारिक महिमा न करता हो। इस नियम के अनुसार पुराणकर्ता हमारे सैकड़ों सहस्रों पुरखों के पुरखा होते हैं। उनकी बेअदबी करना कहाँ की सुवंशजता है? बस इतनी समझ होगी तो पुराणों की महिमा आप से आप समझ जाइएगा। यदि कुछ कसर रहेगी तो हमारे भविष्यत लेखों से जाती रहेगी नहीं तो संस्कृत पढ़े बिना अथवा पढ़ के भी साहित्य समझने योग्य समझ के बिना जब पुराणों के खंडन का मानस कीजिएगा तभी अपनी प्रतिष्ठा खंडित कर बैठिएगा, किमधिकं।