पुराना किला जेल बनी संविधान कोर्ट! / बुद्धिनाथ मिश्र
विश्व हिन्दी सम्मेलन के दूसरे दिन सायंकाल आयोजित सांस्कृतिकसंध्या अद्भुत थी और जोहांसबर्ग स्थित भारतीय उच्चायोग और भारतीय सांस्कृतिक सम्बंध परिषद के दीर्घकालिक संयुक्त प्रयास की परिचायक थी। इसमें दक्षिण अफ्रीका और भारतीय मूल के लोक कलाकारों ने दोनो देशों की कला-संस्कृतियों का मिला-जुला रंग प्रस्तुत किया। वहाँ की संस्था ‘अनुव्रता ग्रूप’ की संचालिका अनुसूया पिल्लई के निर्देशन में 20 से अधिक अफ्रीकी युवा-युवतियों ने 11प्रकार के नृत्य प्रस्तुत किये, जिनमें कथक और भरत नाट्यम भी था, असम का बिहू और पंजाब का भांगड़ा भी था और बॉलीवुड और दक्षिण अफ्रीका के फ़्यूजन संगीत पर आधारित नृत्य भी थे। कल की शाम का एकल आज ‘बहुस्याम’ में परिवर्तित हो गया था। उन युवा कलाकारों ने विभिन्न देशों से आये हिन्दीप्रेमियों को मंत्रमुग्ध कर दिया। उसके बाद सभागार के बाहर ही सबके लिए रात्रिभोज की व्यवस्था थी। सबने रुचिकर व्यंजनों का छककर आनंद लिया।
भोजन के दौरान ही डॉ. कर्ण सिंह के निजी सचिव श्री गंगाधर शर्मा, जो दो दिनों के सान्निध्य में ही मेरे आत्मीय अनुज हो गये थे, मुझसे बोले कि कल सबेरे नाश्ते के बाद हम, आप और माथुर जी एक कार से ‘ओल्ड फ़ोर्ट’ चलेंगे। श्री अमित माथुर आइसीसीआर के महानिदेशक श्री सुरेश कुमार गोयल के निजी सचिव हैं। दोनो युवकों ने अपने साथ घूमने के लिए मुझे चुना, यह मेरे लिए विस्मयकारक था, यानी मैं उन्हें जोशो-खरोश में समवयस्क लगा! मुझे यह भी नहीं मालूम था कि यह ‘ओल्ड फ़ोर्ट’ है क्या? मुझे लगा कि शहर के बाहर किसी पहाड़ी पर यह कोई किला होगा, जिसपर चढ़ना होगा। मेरी दृष्टि से इससे अच्छा ‘कांस्टिच्य़ूशन कोर्ट’ जाना होता, मैंने मन ही मन सोचा, मगर चुप रहा, क्योंकि योजना उन दोनों की थी। मैं तो सिर्फ़ द्रष्टा था। बाद में पता चला कि मैं अगर ‘कांस्टिच्य़ूशन क्लब’ जाता, तब भी वहीं पहुँचता। दरअसल वह शहर के बीच एक पुराना किला था, जिसके परिसर का उपयोग बाद में विचाराधीन कैदियों को रखने के लिए किया जाने लगा। इस प्रकार सौ वर्ष पहले वह किला कारागार बन गया, जिसमें 1906 में महात्मा गांधी रखे गये और उनके पदचिह्नों पर चलकर देश को स्वतंत्र करनेवाले महानायक नेल्सन मंडेला इसमें कई दशकों तक रहे। इस ओल्ड फ़ोर्ट जेल को ‘नम्बर फ़ोर’ भी कहा जाता था।
बाद में जब देश स्वतंत्र हुआ, तब उसे त्याग और बलिदान की पवित्र भूमि मानकर वहीं संविधान सदन बनाया गया, जिससे उसे एक साथ ‘ओल्ड फ़ोर्ट प्रिज़न’ और ‘कांस्टिच्यूशन कोर्ट’ या ‘कांस्टिच्यूशन हिल’ कहा जाता है। किला पूरी तरह नष्ट हो चुका है, जेल के अवशेष आनेवाली पीढ़ियों को पुराने दिनों की याद कराने के लिए रखा गया है। ‘पुराना किला कारागार परिसर’ कभी यातनाओं और अत्याचारों के लिए कुख्यात था। 1994 में देश के प्रथम आम चुनाव के बाद उस सौ एकड़ क्षेत्र को 50 करोड़ रैंड( अफ़्रीकी मुद्रा, जो इस समय सात रु. का एक है) की लागत से सरकारी भवनों का पॉश इलाका बना दिया गया है। इसी परिसर में बैठकर देश के नेताओं ने लोकतांत्रिक व्यवस्था का संविधान बनाया और इसी स्थल पर अब संविधान की आत्मा के संरक्षण के लिए कटिबद्ध सर्वोच्च न्यायालय है। यह ‘कांस्टिच्य़ूशन कोर्ट’ यानी सर्वोच्च न्यायालय सर्वाधिकार सम्पन्न है। देश की संसद भी इसके अधीन है। इस प्रकार, आजाद भारत के संविधान में जो चूक हुई (जिसके कारण आज संसद निरंकुश हथिनी बनकर शहीदों के खून से सिंचित ‘गुलिस्ताँ’ को उजाड़ रही है) उसे आजाद द.अफ्रीका ने अपने संविधान में सुधार लिया।
24 सितम्बर की सुबह हम तीनो होटल सदर्न सन के रेस्तराँ में नाश्ता करके विशेष कार से ओल्ड फ़ोर्ट के लिए रवाना हुए। उसका ड्राइवर हमलोगों से जल्दी हिलमिल गया। रास्ते में उसने एक अफ़्रीकी लोककथा सुनाई जो अश्वेतों के मन में श्वेतों के प्रति घृणा को दरशाती है। बताया उसने कि ईश्वर ने जब मनुष्य को बनाया, तब उसकी नकल में यूरोपवासियों के पूर्वज ने भी मनुष्य बनाने की ठानी। इसमें वह सफल भी हो गया। उसने तमाम गोरे-चिट्टे मनुष्य बना लिये। आकार-प्रकार में बिल्कुल आम आदमी की तरह ही। मगर जब वह उन आकृतियों में दिल की धड़कन पैदा करना चाहा, तब वह विफल हो गया। इसीलिए गोरे लोग आदमी तो होते हैं, खूब शक्तिशाली भी होते हैं, दिमागवाले भी होते हैं, मगर उनके शरीर में धड़कनेवाला दिल नहीं होता! इस लोककथा में श्वेतों की असंवेदनशीलता पर कितना बड़ा कटाक्ष है!
और सचमुच, गोरे शासकों द्वारा अश्वेत कैदियों को अस्थायी रूप से रखने के लिए बनाये गये इस जेल के परिसर में पहुँचकर हमें लगा कि ड्राइवर की लोककथा शत-प्रतिशत सच है। मैने एक बार अंडमान निकोबार की सेन्ट्रल जेल जाकर वहाँ ब्रिटिश शासकों द्वारा भारतीय कैदियों पर किये गये अमानवीय अत्याचारों की करुण-कथा सुनी थी। मेरे साथ गीतकार ठाकुर प्रसाद सिंह थे, जो अपने पूर्वजों पर हुई यातना के लोमहर्षक किस्से सुनकर रो बैठे थे। मुझे लगा कि ओल्ड फ़ोर्ट जेल और अंडमान की सेंट्रल जेल में कैदियों के साथ होनेवाले अमानुषिक अत्याचारो और अपमानों की कथाएँ एक-सी हैं। जेल की काल कोठरियाँ आज भी दहशत पैदा करती हैं। वहाँ दीवारों पर उन दिनों की तस्वीरें लगी हैं, जिनमें कैदियों को नंगा खड़ा कर आदेश सुनाया जाता था। मैने वह सामूहिक शौचालय भी देखा, जिसमें एक दूसरे के बीच कोई पर्दा नहीं था और दरवाजे पर गोरा वार्डर बैठा रहता था। मैंने ‘विजिटर सेंटर’ नामक वह लम्बा कमरा भी देखा, जहाँ लम्बा-लम्बी तीन खाने बने हुए थे। पहले खाने में कैदी खड़ा रहता था, तीसरे में उससे मिलनेवाला और दूसरे में वार्डर खड़ा होकर निगरानी करता था। हर कैदी को 15 मिनट का समय मिलता था और एक समय में 20 कैदी और उनके 20 आगन्तुक एक साथ आमने-सामने खड़े होकर बात करते थे। एक कैदी का अनुभव वहाँ दीवार पर लिखा था-‘मेरी माँ बहरी थी। उससे बात करने के लिए पूरी ताकत से मैं चिल्लाता था, फिर भी वह नहीं सुन पाती थी, क्योंकि सभी लोग चिल्ला रहे थे। उस भारी शोर-शराबे में निजी बातें तो हो ही नहीं सकती थीं। ’ कैदी मौका पाकर, राहत और मनोरंजन के लिए गीत भी गाते थे, जिसमें अपनी एकता और शासकों के विरुद्ध संदेश भी होता था। लेकिन कभी-कभी वार्डर उन्हें दंड देने या नियंत्रित करने के लिए भी गाने का आदेश देते थे। दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत नागरिकों के लिए इतिहास के वे ब्रिटिशकालीन दिन हमसे कम कष्टदायक नहीं थे। बल्कि, सदियों से पराधीन भारत में शूद्रों की स्थिति उन अफ़्रीकी अश्वेतों से कहीं बेहतर थी।
संविधान कोर्ट को जेल परिसर में रखने का कारण यही है कि द. अफ्रीका दुखद अपने अतीत को कभी भुलाना नहीं चाहता। वह अतीत इस नवोदित राष्ट्र को आगे सही दिशा में बढ़ने की शक्ति भी देता है और बुद्धि भी। भवन के प्रवेश द्वार पर वहाँ की 11 भाषाओं में रंग-बिरंगे रोमन अक्षरों में ‘संविधान न्यायालय’ लिखा है। 1996 में लागू ‘दक्षिण अफ्रीका गणतंत्र’ के संविधान की प्रस्तावना को बाहर भी दर्शाया गया है, जिसमें अंग्रेज़ी में लिखा है : ‘हम दक्षिण अफ्रीका के लोग, अतीत में हुए अन्यायों को स्वीकारते हैं, जिन्होने देश की आज़ादी और न्याय के लिए यातनाएँ सहीं, उनका सम्मान करते हैं; जिन्होने देश के निर्माण और विकास के लिए काम किया, उनका आदर करते हैं; और विश्वास करते हैं कि दक्षिण अफ्रीका उनका है, जो यहाँ रहते हैं, अनेकता में एकता की मिसाल बनकर। इसलिए अपने स्वतंत्र रूप से निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से हम इस संविधान को अपने गणतंत्र की सर्वोच्च शक्ति के रूप में अंगीकार करते हैं, जिससे यह अतीत के विभेदों को मिटा सके और लोकतांत्रिक मूल्यों, सामाजिक न्याय और मौलिक मानवाधिकारों पर आधारित समाज का निर्माण कर सके। साथ ही, ऐसे लोकतांत्रिक और खुले समाज की आधारशिला रख सके, जिसमें सरकार जनमत के अनुसार काम करे और कानून प्रत्येक नागरिक का समान रूप से संरक्षण करे। सभी नागरिकों के जीवन-स्तर में सुधार लाए और प्रत्येक व्यक्ति की संभावनाओं को उन्मुक्त करे; और संघटित व लोकतांत्रिक दक्षिण अफ्रीका का निर्माण करे जिससे यह राष्ट्रों के परिवार में एक सार्वभौम राष्ट्र के रूप में समुचित स्थान पा सके। ’ इस प्रस्तावना को पढ़कर बहुत देर तक मैं खड़ा होकर सोचता रहा--कुछ इसी तरह का सपना हमारे राष्ट्रनायकों ने स्वतंत्र भारत के भविष्य के बारे में देखा होगा, मगर उन सपनों को तितर-बितर होने से हमारा संविधान क्यों नहीं रोक पाया? जिन्हें जिस जगह बैठना चाहिए था, क्यों नहीं बैठ पाये? संविधान ने जिन्हें जो भूमिका दी थी, उसके विपरीत काम क्यों करने लगे? क्यों स्वतंत्र भारत में अंग्रेज़ी के सेक्युलर, सर्विस, लीडर जैसे मूलभूत बीज-शब्द विपरीतार्थक बन गये?
महात्मा गांधी ने हम सबसे अपेक्षा की थी ‘एक ऐसे भारत के निर्माण की जिसमें निर्धनतम व्यक्ति भी इसे अपना समझें और इसके निर्माण में उसकी आवाज़ प्रमुख हो। एक ऐसा भारत जिसकी जनता में न उच्च वर्ग हो न निम्न वर्ग। एक ऐसा भारत जिसमें सभी समुदाय सम्पूर्ण सौहार्द के साथ रहें। ’ हमने उन अपेक्षाओं को कहाँ पूरा किया! उसी ‘संविधान कोर्ट’ परिसर में काले प्रस्तर की निर्मित महात्मा गांधी की आवक्ष प्रतिमा भी है, जिसे भारत की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने मई, 2012 में लोकार्पित किया था। हम तीनो ने परिसर के प्रबंधक के साथ मिलकर गांधी जी की प्रतिमा के साथ फोटो खिंचाया, जो हम जैसे लोगों के जीवन की बड़ी उपलब्धि थी। दक्षिण अफ्रीकी सरकार ने गांधी जी के प्रति अपनी श्रद्धा प्रदर्शित करते हुए जेल में गांधी जी द्वारा प्रयुक्त वस्तुओं, उनके दुर्लभ चित्रों और यातना गृह में उनके द्वारा पढ़ी गयी पुस्तकों का एक सुरुचिपूर्ण संग्रहालय भी बनाया है, जो देखने योग्य है। लगभग एक घंटा वहाँ रहकर हम सम्मेलन स्थल पर आ गये, जो पास में ही था। ‘ओल्ड फ़ोर्ट प्रिज़न’ आये बिना अगर हम चले जाते, तो रंगभेद और गुलामी के कारण उस देश के लोगों द्वारा सही गयी यातनाओं को नहीं जाने पाते। हमारे लिए यह सुखद अनुभूति थी कि इस लड़ाई में गांधी जी के रूप में न केवल हमने हिस्सा लिया, बल्कि अगुआई भी की। हमारा यह साझा चूल्हा भविष्य में भी बना रहे, इसके लिए दोनो देशों की सरकारों को निरन्तर प्रयत्न करना होगा।