पुराने समाज की झाँकी / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती
बेशक, इस जमाने में यह बात ताज्जुब की मालूम होगी चाहे हजार पुराने दृष्टांत दिए जाएँ, या महापुरुषों के वचन उद्धृत किए जाएँ। आज तो ऐसे लोग नजर आते ही नहीं। जीते-जी सदा के लिए हमारी माया-ममता मिट जाए और हम किसी को भी शत्रु-मित्र न समझें, यह बात तो इस संसार में इस समय अचंभे की चीज जरूर है। गीता ने इस पर मुहर दी है अवश्य। मगर इससे क्या? दिमाग में भी तो आखिर बात आए। ज्यों-ज्यों सभ्यता का विकास होता जाता है, मालूम होता है, यह बात भी त्यों-त्यों दूर पड़ती और असंभव-सी होती जाती है। असल में दिन पर दिन हम इतना ज्यादा भौतिक पदार्थों में लिपटते जाते हैं कि कोई हद नहीं। इसीलिए यह बात असंभव हो गई है। मगर पुराने जमाने के समाज में माया-ममता का त्याग इतना कठिन न था। गीता ने जिस समय यह बात कही है उस समय यह बात इतनी कठिन बेशक नहीं थी। उस समय का समाज ही कुछ ऐसा था कि यह बात हो सकती थी। और तो और, यदि हम बर्बर एवं असभ्य कहे जाने वाले लोगों का प्रामाणिक इतिहास पढ़ें तो पता लग जाएगा कि उनके लिए यह बात कहीं आसान थी। उनकी सामाजिक परिस्थिति तथा रहन-सहन ही ऐसी थी कि वे आसानी से इस ओर अग्रसर हो सकते थे।
जीसुइत संप्रदायवादी शारलेवो नामक फ्रांसीसी पादरी ने एक पुस्तक लिखी है जिसका नाम है 'हिस्तोरिया द ला नूवेल फ्रांस' (Historia dela Nouvelle France)। वह अमेरिका के रक्तवर्ण आदि वासियों में घूमता और प्रचार करता था। उसने तथा लहोतन नामक विचारशील पुरुष ने अपने अनुभव एवं दूसरों को भी जानकारी के आधार पर उस पुस्तक के अनेक पृष्ठों में उन असभ्य रक्तवर्ण लोगों के बारे में लिखा है, जिसे पाल लाफार्ग ने अपनी (Evolution of Property) के 32-33 पृष्ठों में यों उद्धृत किया है:-
'The brotherly sentiments of the Redskins are doubtless in part, ascribable to the fact that the words 'mine and thine', 'those cold words;' as Saint John Chrysostomos calls them, are all unknown as yet to the savages. The protection they extend to the orphans, the widows and the infirm, the hospitality which they exercise in so admirable a manner, are, in their eyes, but a consequece of the conviction which they hold that all things should be common to all men.'
'The free thinker Lahotan saya in his 'Voyage de Lahetan II,' Savages do not distinguish between mine and thine, for it may be affirmed that what belongs to the one belongs to the other. It is only among the Christain savages, who dwell at the gates of cities, that money is in use. The other will neither handle it nor even look upon it. They call it : the serpent of the white-men. They think it strange that some should possess more than others, and that those who have most should be more highly esteened than those who have least. They neither quarrel nor fight among themselves; they neither rob nor speak ill of one another.'
'बेशक रक्तवर्ण असभ्य लोगों में जो परस्पर भ्रातृभाव पाया जाता है वह किसी हद तक इसीलिए है कि उन लोगों को अब तक 'मेरा और तेरा' का ज्ञान हई नहीं - वही 'मेरा' और 'तेरा', जिन्हें महात्मा जौन्क्रिसोस्तमो ने 'ठंडे शब्द' ऐसा कहा है। अनाथों, विधावाओं एवं कमजोरों की रक्षा वे लोग जिस तरह करते हैं और जिस प्रशंसनीय ढंग से वे लोग आगंतुकों का आदर-सत्कार करते हैं वह उनकी नजरों में इसलिए अनिवार्य और स्वाभाविक है कि उनका विश्वास है कि संसार की सभी चीजें सभी लोगों की हैं।'
'स्वतंत्र विचारक लहोतन ने अपनी 'द्वितीय लहोतन की समुद्रयात्रा' पुस्तक में लिखा है कि असभ्य लोगों में 'मेरे' और 'तेरे' का भेद होता ही नहीं। क्योंकि यह बात उनमें देखी जाती है कि जो चीज एक ही है वही दूसरे की भी है। जो असभ्य लोग क्रिस्तान हो गए हैं और हमारे शहरों के पास रहते हैं केवल उन्हीं लोगों में रुपये-पैसे का प्रचार पाया जाता है। शेष असभ्य न तो रुपया-पैसा छूते और न उनकी ओर ताकते तक हैं। उन्हें यह बात विचित्र लगती है कि कुछ लोगों के पास ज्यादा चीजें होती हैं बनिस्बत औरों के, और जिनके पास ज्यादा हैं उनकी ज्यादा इज्जत होती है बनिस्बत कम रखने वालों के। वे असभ्य न तो आपस में झगड़ते और न लड़ते हैं। वे न तो किसी की चीज चुराते और न एक दूसरे की शिकायत ही करते हैं।'
कितनी आदर्श स्थिति है! कैसी उच्च भावनाएँ हैं! खूबी तो यह है कि ये लोग निरे अपढ़ और निरक्षर हैं! यह ठीक है कि सभ्यता की हवा उन्हें लगी नहीं है। आज से डेढ़ सौ वर्ष पहले तक जिनने उनकी यह बातें खुद देखी हैं उन्हीं के ये बयान हैं, न कि हजार-दो हजार साल पहले वालों के! इसलिए जो लोग ऐसा समझते हैं कि अहंता-ममता के त्याग की बातें कोरी गप्पबाजी है उन्हें होश संभालना चाहिए। वे आँखें खोलें और देखें कि हकीकत क्या है। पुरानी पोथियों में जो बातें ऋषि-मुनियों के लिए, आदर्श एवं वांछनीय मानी गई हैं वही असभ्य लोगों में पाई जाती हैं! बेशक, इस मामले में हम सभ्यों से वे असभ्य ही भले हैं! हमने तो अपने-पराए के इस मर्ज के चलते समूचे समाज को ही नरक बना डाला है - सारे संसार को जलती भट्ठी जैसा कर दिया है!