पुरुषों का मनोविज्ञान: स्त्री कितनी अनजान / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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पिछले दिनों एक परिचित से मुलाक़ात हुई जिनकी दो बेटियाँ हैं। वे उनके विवाह के लिए फिक्रमंद हैं। बेटियाँ पढ़ी-लिखी हैं और घर से बाहर रहकर काम भी करती हैं। दोनों ही बेटियाँ विवाह नहीं करना चाहतीं। उनकी माँ का मानना है कि ज़माना बहुत खराब है; आजकल अच्छे लड़के नहीं मिलते। आजकल सभी लड़के पत्नियों को गुलाम बनाना चाहते हैं। विवाह में सिर्फ लड़कियों को समझौता करना पड़ता है, अपने सपनों को छोड़ना पड़ता है। इससे बात मत करो यहाँ मत जाओ, वहाँ मत जाओ आदि। आगे जो उन्होंने कहा वह सन्न करने वाली बात थी। वे बोली कि मैंने तो बेटियों से कह दिया है विवाह तो कर लो, न जमे तो छोड़ देना।

सुनकर मैं अवाक् रह गई! क्या विवाह करना कोई मज़ाक है? खेल है? अगर तोड़ना ही है तो जोड़ना ही क्यों? और पुरुष बुरे है, फरेबी है, कठोर, गैर-जिम्मेदार है; ये बातें अगर कोई माँ अपनी बेटी को सीखा रही है तो बेटियों के मन में हमेशा पुरुषों के छवि गलत ही बनेगी न।

अक्सर महिलाओं को कहते-सुनते देखा है कि पुरुष बहुत बुरे होते हैं। लड़कियों और महिलाओं को उनसे हमेशा एक दूरी बनाकर रखनी चाहिए। पुरुष हमेशा महिलाओं की देह पाने की ताक़ में रहते हैं। बहुत ही लापरवाह और गैर-जिम्मेदार होते हैं। यही नहीं जब भी किसी महिला का किसी पुरुष से मतभेद या झगड़ा होता है तो वह सबसे पहले कहती है, "मैं तुम्हे अच्छी तरह से जानती हूँ"। महिलाएँ अक्सर इस बात पर भी गर्व करती देखी गई हैं कि उनमें पुरुष की मंशा जान लेने की अद्भुत शक्ति है। वे हर पुरुष की रग-रग से वाकिफ़ होती हैं।

लेकिन क्या यह एकतरफा सोच नहीं है? क्या है पुरुष का मनोविज्ञान? क्या वे सच में बहुत कठोर, लम्पट, गैर-जिम्मेदार और रूखे हैं? क्या विवाह में हमेशा महिलाएँ ही समझौते करती है? क्या पुरुष अपनी पत्नी द्वारा पीड़ित नहीं हो सकते?

परिवार परामर्श केंद्र में रोज़ कई मामले आते हैं जिनमे पति-पत्नी के बीच अनबन और तलाक की बात होती है। महिलाओं की समस्याओं और समाधानों को ध्यान में रखकर स्थापित किए गए इन केन्द्रों में अब पुरुष भी गुहार लगा रहे हैं। देखिये कुछ उदहारण:

केस नंबर एक: मिस्टर कुलकर्णी एक अधिकारी हैं और उनकी पत्नी बैंक में मैनेजर हैं। मिस्टर कुलकर्णी ने पिताजी की बात मानकर एक विकलांग महिला से विवाह कर लिया और पच्चीस बरस अपनी पत्नी के टार्चर सहते रहे। उनके बीच कभी प्रेम नहीं पनप पाया। मिसेस कुलकर्णी ने हमेशा उनपर अपने पद और रुपयों का रुतबा जमाया। बच्चों के विवाह के बाद अब पति अपनी कर्कशा और झगडालू पत्नी से निजात चाहते हैं। लेकिन पत्नी तलाक नहीं देना चाहती भरसक कोशिश करने के बाद भी जब तलाक नहीं मिला तो एक दिन पति एक खत छोड़ कर चुपचाप घर से चले गए। खत में लिखा था “संध्या, मैंने सारी उम्र समझौते किए; तुम्हारे साथ बच्चों के साथ, समाज के साथ; अब बर्दाश्त नहीं होता। मैं अपना सब कुछ तुम्हे देकर जा रहा हूँ। मुझे सिर्फ तुम्हारा प्रेम चाहिए था और कुछ नहीं –अतुल।“

वे कहाँ गए किसी को नहीं पता। इस उम्र में उन्हें कौन-सी चीज़ परिवार से दूर ले गई?

केस नम्बर दो: शहर की जानी मानी प्रोफ़ेसर जो मनोविज्ञान पढ़ाती है; बेहद क्रोधी, बेहद मुंहफट महिला, पूरा स्टाफ उनसे डरता था। एक दिन प्यून ने बताया कि इनके इसी खराब स्वभाव के कारन 20 बरस पहले इनके पति ने घर में फांसी लगा ली थी। इसके बाद भी मेम का स्वभाव नहीं बदला।

केस नम्बर तीन: इंदौर में एक डाक्टर दम्पति के बीच झगड़े की वजह उनकी पांच महीने की बच्ची बनी। डॉक्टर माँ के पास अपनी बेटी के लिए समय नहीं था और वह चाहती थी कि पति उसका ख्याल रखे। आखिर झगड़ा इतना बढ़ा कि माँ ने अपनी पांच महीने की बेटी का गला घोंट दिया। इससे आहत होकर पति ने पत्नी, अपने सास-ससुर और अंत में खुद को भी मार डाला।

केस नम्बर चार: मुरैना के एक अस्पताल में एक दाई ने मात्र सौ रुपये का नेग न मिलने पर नवजात शिशु को उसकी माँ की गोद से छीन कर जमीन पे पटक कर मार डाला।

केस नम्बर पाँच: इंदौर शहर के एक परिवार में सास ने अपनी बहू को मार डाला और उसके बहुत-से टुकड़े करके उन्हें प्लास्टिक बैग में भरकर अपनी एक्टिवा से फेंकने जा रही थी। किसी की नजर में पड़ी और तब वे पुलिस के हत्थे चढ़ी। महिला बहुत संभ्रांत परिवार की थी। जब पुलिस ने पूछा ये सब कैसे किया तो जानते है उसका क्या जवाब था? वह महिला बोली कि "अभी मैं आपके भी सौ टुकड़े कर सकती हूँ"

केस नम्बर छह: एक मित्र को उसकी महिला मित्र ने पहले तो अपने प्रेम-जाल में फंसाया और उसके बाद उनके साथ दैहिक सम्बन्ध बनाए। फिर ब्लैकमेल करना शुरू किया कि अब मैं तुम्हारे मेल और हमारे वीडियो इंटरनेट पर उजागर कर दूंगी। मित्र इस मानसिक बलात्कार से इतने दुखी हुए की उन्हें पुलिस के अलावा साइकोलोजिस्ट की भी सहायता लेनी पड़ी। इस दुखद घटना को भुलाने में उनके पांच साल बर्बाद हुए। अब वह प्रेम और महिलाओं के नाम से भी खौफ खाते हैं।

ये सभी वे महिलाएं है जो हमारे आसपास ही रहती हैं। ये भी हत्या करती हैं। ये भी पुरुषों को टार्चर करती है और देह का न सही पर मानसिक बलात्कार करती हैं। और उनके चहरे पर कोई शिकन नहीं होती।

ये सिर्फ कुछ उदाहरण हैं जिनमे महिलाएँ ही जिम्मेदार थी। पुरुष यहाँ बहुत बेबस और लाचार-सा था। यहाँ किसी भी पुरुष ने महिला को न तो आहत किया और न ही उसका शोषण किया। फिर हमेशा पुरुषों को ही दोषी क्यों ठहराया जाए?

अब बात पुरुष मनोविज्ञान की करते हैं। पुरुष को हमेशा ही इस तरह से पाला जाता है कि वह बहादुर है। मर्द को कभी दर्द नहीं होता, पुरुष कभी रोते नहीं, पुरुष महिलाओं जैसे नहीं है आदि। ऐसी भ्रामक बातें फैलाकर हमने और हमारे समाज ने पुरुष को महिलाओं से अलग बिरादरी का बना दिया है। जबकि पुरुष भी इन्सान ही है। उसे भी दर्द होता है। वह भी कोमल मन वाला है। वे चुप रहते हैं इसका मतलब ये तो नहीं कि उन्हें तकलीफ नहीं होती।

बस फ़र्क बस इतना है कि महिलाएँ जहाँ रो-रो कर, चिल्लाकर अपने दुःख जता देती हैं; पुरुष वहीं खुद को असहाय पाते हैं। वो अपनी बात ठीक से कह नहीं सकते इसलिए हमेशा वे गलत समझे जाते हैं। और पुरुष मन ही मन घुटता रहता है। अगर वे किसी से अपने मन की बात साझा करना चाहते हैं तो उन्हें भी समाज और सबसे पहले घर परिवार में ही शक की नजर से देखा जाता है। जबकि पुरुष हमेशा अपनी जिम्मेदारी बखूबी समझते हैं। बच्चों का ख्याल पुरुष ही ज्यादा रखते हैं। वे कभी चुगली नहीं करते, कभी राजनीति नहीं करते और वे हमेशा एक अच्छे दोस्त साबित होते हैं। पुरुष हमेशा अपनी महिला सहकर्मी या साथी या दोस्त की भावनाओं को भलीभांति समझते हैं। हमेशा मदद को तत्पर रहते हैं। अपवाद हर कहीं होते हैं; लेकिन हमें दोनों पक्षों को समझना चाहिए।

स्त्री बदल क्यों गई?

कौन बदला महिला या पुरुष? ----परिवर्तन के इस दौर में जब सब कुछ बदल रहा है तो पुरुष भी बदले और महिलाएं भी; लेकिन पुरुष ने खुद को महिलाओं की तरह नहीं बनाया। वह पुरुष ही बना रहा लेकिन एक अजीब बात यह हो गई कि महिलाएँ पुरुष बन गयी। वे पुरुष हो जाना चाहती थी और हो गईं। पुरुषों की तरह पहनावा, चाल-चलन और सोच भी।


अब उसे बाहर देर रात तक काम करना भाता है और घर के काम या बच्चे संभालना उसे गुलामी लगते हैं। अब उसे बच्चों के लिए अपनी नींद खराब नहीं करनी। हाँ, वह देर रात तक पार्टियों में नशे में धुत हो सकती है।

अब बाहर से स्त्री-पुरुष अलग-अलग दिखते हैं। सिर्फ शरीर के तल पर अलग है लेकिन सोच अब एक जैसी हो गई है। भीतर से कुछ भी अलग नहीं है। इसलिए अब रिश्ते सिर्फ देह के स्तर पर बन रहे हैं। पुरुष स्त्री के पास आता तो है लेकिन देह के अलावा उसे कुछ भी नया नही मिलता। भीतरी जुड़ाव हो ही नहीं पाते।

देह कब तक आकर्षित करेगी? भीतरी जुड़ाव के बिना कभी कोई रिश्ता गहरा नहीं हो सकता। स्त्री आज भीतर से रीती-सी है सूखी-सूखी-सी अब वह प्रेम, आत्मीयता और त्याग की बात ही नहीं करती। वह आज अपने हक, अपनी छवि, अपने सपनों की चिंता करती है। इसमें कुछ गलत भी नहीं लेकिन सिर्फ खुद के बारे में सोचना तो स्वार्थ है। और वो भी किस कीमत पर यह भी तो देखना होगा न।

यह बात हर स्त्री को सोचनी होगी। चूँकि स्त्री को ईश्वर ने एक बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है और विशेष गुण देकर भेजा है। अगर उसने प्रेम, त्याग, सहनशीलता, आत्मीयता खो दी तो उसके पास उसका विशेष क्या बचा?

अगर वो भीतर से खाली हो गई, रीत गई, तो पुरुष को क्या देगी और अपनी संतानों को क्या सौंपेगी?

ऊपर जो उदाहरण हमने देखे उन्हें देख यही समझ आता है कि स्त्री ने अपने सभी गुणों की गठरी जिसमें त्याग, ममता, धीरज और आत्मीयता थी; उसे वह पिछले स्टेशन पर ही छोड़ आई है। अब उसके हाथ ख़ाली है और अंतर्मन सूखा पड़ा हुआ है।

पुरुष उसकी मीठी बातों में उलझकर उसके पास आता तो है लेकिन वो मिठास उसे नहीं मिलती जो उसे तृप्त करे। यह ऐसा ही अनुभव होता है जैसे कि कोई कड़वी गोली पर मीठी चाशनी की परत लगी हो। जरा देर में वह मिठास गायब हो जाती है और दोनों अपने कैसेलेपन के साथ आमने–सामने आ जाते हैं।

इतना टकराव क्यों?

दोनों एक जैसे हो गए तो जुड़ाव नहीं हो पा रहा। यही टकराव का कारण भी बन रहा है। पुरुष इस असंतुष्टि से हिंसक और निराश हो रहे हैं और महिलाएं अब अकेली हो रही हैं। दोनों ही अकेले और कुंठित हैं। दोनों तरफ अविश्वास, भय और असुरक्षा है।

लेख की शुरुआत में मैंने अपनी एक परिचित का उदहारण दिया था। वे सारी उम्मीदें पुरुषों से ही कर रही हैं। अपनी बेटी को कुछ नहीं सौंप रहीं।

स्थिति कितनी भी बुरी हो पहल महिलाओं को ही करनी होगी। उसे पुरुषों के मनोविज्ञान को समझना होगा। उसे सिर्फ जान लेने से काम नहीं चलेगा उन्हें समझना भी होगा। सिर्फ देह के स्तर पर ही नहीं बल्कि मन के स्तर पर भी उन्हें समझना होगा।