पुलिस का छापा / कुबेर

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मुखबिर ने हवलदार के कान में फुसफुसाते हुए कहा - “सा’ब, वो रही वह जगह, नाले के पास, बेशरम की झाड़ियों में।”

हवलदार ने मुखबिर के जमीन के समानांतर उठे हुए हाथ की तर्जनी की दिशा में देखने का प्रयास करते हुए दबे स्वर में, धीरे से पूछा - “अबे, किधर?” आवाज में तीव्रता नहीं थी पर रौब तो था ही।

“हाँ, सा’ब वो देखो, रोशनी टिमटिमा रही है न, वहीं।”

अब की बार शायद हवलदर साहब ने भी वह टिमटिमाती रोशनी देख ली थी। आश्वस्त होकर सिर हिलाने लगा। “हूँ..... तो यहाँ जमे हैं मा ....द .. लोग।” एक गंभीर पुलिसिया गाली से उन्होंने अपनी आश्वस्ति प्रमाणित की।

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मौका पाकर मुखबिर वहाँ से खिसक गया। पुलस ने भी इसका कोई नोटिस नहीं लिया, उसका मतलब तो सध चुका था। आधी रात का समय। दीवाली की रात। पुलिस गस्ती दल अपनी ड्यूटी पर थी। शहर के बाहर खेतों के आगे एक नाला है। मुखबिर की निशानदेही पर वे वहाँ पहुँचे थे। मुखबिर की सूचना पर अब उन्हें पूर्ण इत्मिनान हो चुका था। क्यों न हो?

दीपावली के पूर्व लिये अग्रिम वेतन और बीवी के गहने इस फड़ में हार जाने के बाद ईर्ष्यावश उस व्यक्ति ने पुलिस में जाकर मुखबिरी की थी।

जुआरी अक्सर ऐसे ही होते हैं।

पुलिस गस्ती दल में हबलदार साहब के अलावा पुलिस का एक सिपाही और नगर-सेना के दो जवान थे। हबलदार साहब कमान संभाले हुए थे। योजना बनी कि कुछ दूर आगे बढ़ने के पश्चात् एक जवान दाएँ से, दूसरा जवान बाएँ से और सिपाही दाएँ वाले जवान के साथ कुछ दूर चलकर सामने की ओर से हमला करेगा। हबलदार स्वयं सीधा चलेगा। घेराबंदी चारों ओर से, मुस्तैदी के साथ होना चहिये। ध्यान रहे, जरा भी आवाज नहीं होना चाहिये।

योजना अनुसार सबने अपना-अपना मोर्चा संभाल लिया। सिपाही ने साथी जवान के साथ कानाफूसी की - “मूर्ख समझता है हम लोगों को? हम लोग दूर से घेरा बनाकर आएँ, ताकि वह खुद हमसे पहले पहुँच कर सारा माल हथिया ले। चल उधर से तू आ, इधर से मैं चलता हूँ।”

जुआरियों की घ्राण शक्ति शायद कुत्तों के समान होती होगी। पुलिस की गंध बखूबी भांप जाते हैं। जवान फड़ तक पहुँचे भी नहीं थे और वहाँ हड़कंप मच गई। किसी ने ढिबरी फूँकी और जिसके हाथ में जो आया, समेट कर सौ मीटर दौड़ की प्रतियोगिता के लिये दौड़ पड़े।

आगे-आगे जुआरी और पीछे-पीछे उन पर टॉर्च की रोशनी फेकते जवान। गजब की स्टेमिना होती है दोनों में। बाएँ वाले जवान के हिस्से में कार्ल लुईस का चेला आया था। दौड़ते-दौड़ते जवान की साँसें फूलने लगी। जुआरी को अपनी स्टैमिना पर विश्वास था। अब तक पुलिस के किसी जवान ने उसकी बराबरी नहीं की थी। जवान से अब दौड़ा नहीं जा रहा था। जुआरी को धर दबोचने में विफल हो जाने पर उसे कोई शर्मिंदगी नहीं होने वाली थी। फिर भी अपनी जान की बाजी लगाकर वह उसके पीछे दौड़ रहा था। इसे उसकी देशभक्ति समझने की भूल आप न करें। उसके लिये यह पुलिस की प्रेस्टिज का सवाल नहीं था, सरकारी काम के लिये भला कौन साला अपनी जान आफत में डाले? सवाल यहाँ पैसों का था, जो उस जुआरी से मिलने वाला था। बच्चों के लिये पटाखों और कपड़ों की व्यवस्था करना जरूरी था। पर यह क्या, न घोड़ी रुक रही थी, न दूल्हा उतर रहा था। रेस जारी था।

जवान इससे पहले ऐसे जीवट जुआरी के पल्ले कभी नहीं पड़ा था। पैर जैसे दो-दो मन भारी हो गए थे। कदम लड़खड़ाने लगे थे। अब गिरा तब गिरा, परंतु किस्मत ने साथ दिया। जुआरी का पैर संभवतः किसी गड्ढे पर पड़ गया होगा। वह क्रिकेट के फील्डर की तरह गोता खा गया। दूसरे ही क्षण जवान के हाथ उसकी गिरेबान में था।

कुछ क्षण दोनों ही हाफते खड़े रहे। बोल सकने लायक ऊर्जा किसी में शेष नहीं थी। साँसों के कुछ व्यवस्थित हो जाने के बाद जवान को अपने पुलिसिया कर्तव्य का स्मरण हो आया। इतना दौड़ लगाने के लिये मजबूर किया गया था, सो गुस्सा अलग। जवान के प्रशिक्षित और अभ्यस्त हाथ-पैर अब जुआरी के शरीर पर चलने लगे थे। मुँह से पुलिसिया वेद मंत्रों की जाप अलग चल रही थी। रही-सही ऊर्जा जब खतम हो गई, बेवजह दौड़ की वजह से पैदा हुआ गुस्सा भी जब ठंडा पड़ गया, और जुआरी की अकड़ भी जब खतम हो गई तब कहीं जाकर जवान ने समझा कि उन्होंने अपना आधा कर्तव्य निभा लिया है और अब आगे की कार्यवाही करना चाहिये।

जवान ने एक गंभीर पुलिसिया आप्त वचन से शुरू करते हुए कहा - “ला बेटा निकाल, माल कहाँ रखा है। नहीं तो सड़ा दूँगा साले जेल में।”

जुआरी ने गिड़गिड़ते हुए कहा - “नहीं है साहब, मैं तो पूरा हार गया। बचा-खुचा वहीं रह गया। देख लो ये जेब, ये लो, ये लो।” उसने अपनी सारी जेबें उलट दी।

जवान का एक और तमाचा जुआरी के गाल को झनझना गया। - “बनाता है साला, निकाल वर्ना ......।”

“सच कहता हूँ सा’ब! सिर्फ पाँच रूपिये बचे हैं, ये लीजिये।” जुआरी ने आत्म-समर्पपण करते हुए कहा।

फिर से एक भरपूर तमाचा जड़कर जवान ने कहा - “पाँच रूपये दिखाता है साला।” और न जाने जुआरी के कपड़े के किस गुप्त जेब में से मुड़े-तुड़े मुट्ठी भर नोट निकालकर अपनी जेब में ठूसते हुए उसने कहा - “हमको बनाता है साला।”

जुआरी गिड़गिड़ाता रहा, कलपता रहा - “सा’ब, मेरे बच्चे भूखों मर जायेंगे सा’ब। कल दीवाली है सा’ब।” जिसके अंदर संवेदना हो, वह भी कैसा पुलिस वाला? जवान के ज्ञानेन्द्रियों के सभी दरवाजे किसी भी संवेदना के लिये पूरी तरह बंद हो चुके थे।

जुआरी के शरीर में और किसी गुप्त जेब की प्रत्याशा में जवान के हाथ चलते रहे, और जब और कुछ भी मिलने की कोई उम्मीद न रही तब जुआरी को अपनी पकड़ से मुक्त करते हुए और लगभग परे ढकेलते हुए, उसने धमकाकर कहा - “भाग साले यहाँ से।”

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जवान की सारी थकान जाती रही। शरीर हल्का होकर जैसे हवा में उड़ने लगा। मन में लड्डू फूटने लगे। आज की मेहनत सार्थक जो हुई थी। दीपावली आराम से मनेगी अब। बच्चों के कपड़ों और पटाखों के लिये अन्य जुगाड़ करने की अब काई जरूरत नहीं रही। परंतु चेहरे पर उभर आए मन की खुशियों की तरंगों को दबाते हुए, और असफलता जनित निराशा और थकान का मुखौटा लगाते हुए वह मिलन हेतु पूर्व निर्धारित स्थल की ओर रवाना हुआ। रास्ते में उनके दोनों साथी भी मिल गये। एक ने पूछा - “क्यों भाई, कितना झटके?” कुछ हाथ लगा?”

“अब तुमसे क्या झूठ बोलना यार। पता नहीं, कहाँ गायब हुआ साला। मिला ही नहीं, फिर झटकना कैसा? तुम अपनी बताओ।” पता नहीं, जवान की अवाज हताशा और निराशा की न जाने कितनी गहरी खाई से निकलकर आ रही थी।

“अरे मिया! जो हालत तुम्हारी, वही हमारी। साला ऐसा बोगस रेड तो कभी नहीं गया।” पहले वाले की हताशा और निराशा की गहरी खाई से भी अधिक गहरी खाई से निकलने की कोशिश करता हुआ दूसरे जवान ने कहा।

तीसरे ने भी उन दोनों का ही अनुशरण किया।

फड़ वाली जगह से शायद कुछ बरामद हो जाय, इस प्रत्याशा में तीनों उसी ओर चल पड़े। संभावनाएँ बहुत थी। लेकिन उम्मीदों पर पानी फिर गया। मुंशी जी पहले से ही वहाँ मुस्तैद नजर आये।

मुंशीजी ने देखा, मुजरिम एक भी पकड़ा नहीं गया है। मतलब साफ है। लंबे हाथ पड़े हैं। गब्बर की तरह बरस पड़ा वह - “क्यों, चले आये खाली हाथ? तीन-तीन मिलकर एक भी नहीं पकड़ सके?”

इसके पहले कि मुशी जी आगे और कुछ कहता तीनों ने अपनी-अपनी मुट्ठियाँ उसकी ओर बढ़ दी। मुंशी जी की बोलती वहीं की वहीं बंद हो गई।

अब तो चारों हँसते हुए, और एक-दूसरे को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ देते हुए अपने डग्गे की ओर चल पड़े।

उनकी भाषा में रेड पूरी तरह सफल रहा। पर पुलिस रिकार्ड में इसका उल्लेख आपको कहीं नहीं मिलेगा।