पुलिस की निंदा क्यों की जाती है? / प्रताप नारायण मिश्र
जबकि सरकार ने यह मुकदमा प्रजा की शांति रक्षा के मानस से नियत किया है तो इसकी निंदा लोग क्यों किया करते हैं? हम ऐसे बहुत ही थोड़े देखते हैं जिनकी जिह्वा वा लेखनी बहुधा पुलिस वालों की शिकायत न किया करती। यह क्यों? तिसमें भी सौ पचास की तनख्वाह पाने वाले ऊँचे अधिकारियों की शिकायत इतनी नहीं सुन पड़ती क्योंकि उन्हें निर्वाह योग्य वेतन मिलने से तथा प्रतिष्ठा भंग के भय से निंदनीय काम करने का अवसर थोड़ा मिलता है और यदि मिला भी तो साधारण लोग उनके डर से जब तक बहुत ही खेद न पावें तब तक छोटी मोटी शिकायतें मुँह पर नहीं लाते। मन की मन ही में रहने देते हैं। किंतु पाँच सात दस रुपया महीना के चौकीदार कांसटेबिलों की शिकायत जब देखो तभी जिसके देखो उसी के मुँह पर रखी रहती है।
इसका क्या कारण है? क्या यह मनुष्य नहीं हैं? क्या यह इतना नहीं जानते कि हम सर्वसाधारण में शांति रखने के लिए रक्खे गए हैं न कि सताने कुढ़ाने वा चिढ़ाने के लिए? यदि यह है तो फिर यह लोग क्यों ऐसा बर्ताव करने से नहीं बचे रहते जिसमें निंदा बात-बात में धरी है। संसार की रीति के अनुसार अच्छे और बुरे लोग सभी समुदायों में हुआ करते हैं तथा बहुत ही अच्छे बुरे लोग बहुत थोड़े होते हैं। इस नियम से पुलिस वालों में से भी जो कोई दुष्ट प्रकृति के बंश अपने अधिकार को बुरी रीति से व्यवहृत करके किसी के दु:ख का हेतु हो उसको निंदा एवं उसके विरुद्ध आचरण रखने वालों की स्तुति होनी चाहिए। पर ऐसा न होकर अनेकांश में यही देखा जाता है कि इस विभाग के साधारण कर्मचारियों में से प्रशंसा तो कदाचित् कभी किसी बिरले ही किसी के मुख से सुन पड़ती हो, पर निंदा सुनना चाहिए तो जने जने से सुन लीजिए।
इसका कारण जहाँ तक विचार कीजिए यही पाइएगा कि इन लोगों को वेतन बहुत ही थोड़ा मिलता है। दूसरी रीति से कुछ उपार्जन करने का समय मिलता ही नहीं है। प्रकाश्य रूप से सहारे की कोई सूरत नहीं रहती। इसी से 'वुभुक्षित: किं न करोति पापम्' का उदाहरण बने रहते हैं। हिंदुस्तानी भले मानसों के यहाँ कहार चार रुपया पाते हैं पर कभी जूठा कूठा अन्न, कभी तिथि त्योहार की त्योहारी, कभी फटा पुराना कपड़ा जूता इत्यादि मिलता रहता है और आवश्यकता पड़ने पर रुपया धेली यों भी दे दी जाती है।
इधर स्त्रियाँ भी दो चार घर में चौका बरतन करके कुछ ले आती हैं। इससे साधारण रीति से गरीबामऊ निवाह होता रहता है। पर चौकीदार की तनख्वाह चार रुपया और कांस्टेबिल की पाँच रुपया बँधी है, ऊपर से प्राप्ति होने का कोई उचित रास्ता नहीं है, बरंच उरदी साफा लाठी जूता आदि के दाम कटते रहते हैं। सो भी यदि वे अपने सुभीते से खरीदते पावैं तो कुछ सुभीते में रहें, किंतु वहाँ ठेकेदार के सुभीते से सुभीता है। इससे अधिक नहीं तो एक के ठौर सवा तो अवश्य ही उठता है। इस रीति से पूरा वेतन भी नहीं हाथ आता और काल कराल का यह हाल है कि चार-पाँच रुपया महीना एक मनुष्य के केवल सामान्य भोजनाच्छादन को चाहिए।
स्त्रियाँ हमारे यहाँ की प्राय: कोई धंधा करती नहीं हैं। उसका सारा भार पुरुषों ही पर रहता है। और ऐसे पुरुष शायद सौ पीछे पाँच भी न होंगे जिनके आगे पीछे कोई न हो। प्रत्येक पुरुष को अपनी माता, भगिनी, स्त्री आदि का भरण-पोषण केवल अपनी कमाई से करना पड़ता है। हमने माना कि सबको सब चिंता न हो तथापि कम से कम एक स्त्री का पालन तो सभी के सिर रहता है। यदि कोई संबंधिनी न होगी तौ भी प्राकृतिक नियम पालनार्थ कोई स्त्री ऐसी ही होगी जिसका पूरा बोझा नहीं तो आधा ही भार उठाना पड़ता हो। अब विचारने का स्थल है कि पौने चार अथवा पौने पाँच रुपए में दो प्राणियों का निर्वाह कैसे हो सकता है जब तक कुछ और मिलने का सहारा न हो। सो यहाँ तरक्की का आसरा मुमद्दिमें लाने और अफसरों को प्रसन्न रखने पर निर्भर ठहरा। काम कम से कम दस घंटे करना चाहिए। ऊपर से अवसर पड़ने पर न दिन छुट्टी न रात छुट्टी।
दैवयोग से कोई दैहिक दैविक आपदा आ लगे तो जै दिन काम न करें तै दिन पूरी तनख्वाह एवजीदार को दें। इससे दूसरा धंधा करने का ब्योंत नहीं। काम चलाने भर को पढ़े ही होते अथवा घर में खेती किसानी का और किसी बृत्ति का सुभीता होता तो विदेश में आके इतनी छोटी तनख्वाह पर नौकरी ही क्यों करतेᣛ? फिर भला बिचारे करें तो क्या करें? अपने उच्चाधिकारियों को खुश न रक्खें तो तरक्की कैसी नौकरी ही जाती रहे। और उनका खुश रहना तभी संभव है जब दूसरे चौथे एक आधा मुकद्दिम आता रहे और सबूते कामिल मिलता रहे। क्योंकि इसी में अफसर की मुस्तैदी की तारीफ और मातहत की भाग्यमानी है।
इस दशा में सर्वसाधारण को प्रसन्न करें कि अपनी उम्मेद की जड़ सींचैं? हाकिम और रईयत दोनों का खुश रखना बड़े भारी नीतिज्ञ का काम है न कि चार पाँच रुपए के पियादे का। और गृहस्थी के भ्रमजाल वह हैं जो बड़े-बड़े धनवानों, विद्वानों और बुद्धिमानों का मन डावाँडोल कर देते हैं यह बिचारे क्या हैं। तथा दुनिया का कायदा यह है कि सीधी तरह एक पैसा माँगों तो न मिले पर कोई डर या लालच दिखा के आडंबर करके लेना आता हो तो एक के स्थान पर चार मिल जाए। एवं आवश्यकता जब दबाती है तब न्याय अन्याय का विचार भूल जाता है, केवल काम निकालने की सूझती है। इन सब बातों पर ध्यान देकर बतलाइए कि वर्तमान काल की व्यवस्था में यह क्यों कर सर्वसाधारण लोगों में आजकल का साधन संकोच न था। इससे अपने निर्धन स्वदेशियों की शक्ति सहारा पहुँचाने में लोगों को रुचि थी। पर वह जमाना अब नहीं है।
सारी चीजें महँगी हैं और धन तथा व्यापा दिन-दिन घटता है। इससे अनेक लोग 'क्षीणा नरा निष्करुणा भवंति' वाले वाक्य को सार्थक कर रहे हैं। ऐसे समय में पुलिस ही कहाँ तक फूँक-फूँक पाँव धर सकती है। हाँ नए नौकरों को कम से कम दस 20 मासिक मिला करे फिर तरक्की चाहे बीस बरस तक न हो, तब दस ही पाँच वर्ष में देख लीलिए कि इन्हीं वर्तमान सेवकों में से कितने लोग सज्जनता का परिचय देते हैं और कितने नए भेले मानस भरती हो के इस विभाग का कलंक मिटाने की चेष्टा करते हैं तथा राजा प्रजा दोनों की प्रसन्नता के पात्र बनते हैं। नहीं तो विचारशक्ति सदा यही कहा करेगी कि पुलिस की निंदा क्यों की जाती है?