पुलिस के सिपाही / कांग्रेस-तब और अब / सहजानन्द सरस्वती
इस प्रकार जहाँ एक ओर शिक्षकों की गरीबी और बेबसी के साथ मखौल की जाती है तहाँ दूसरी ओर पुलिस के सिपाहियों , जमादारों , हवलदारों और जेल के वार्डरों के साथ भी बेरुखी का ही बर्ताव होता है। क्या हमारे स्वराजी शासक बताएँगे कि चीनी की मिलों के मजदूरों से भी हलकी मेहनत और कम जिम्मेदारी इन पुलिसवालों और वार्डीरों पर है ? दिन-रात की पहरेदारी और चोर-बदमाशों के भाग जाने की जवाबदेही किन पर है ? 50 रु. या 60 रु. मासिक पाकर कौन सिपाही भरपेट रोटी और घी-दूध खा सकेगा और इस प्रकार तगड़ा बन कर अपने सामने से भागनेवाले चोर-डकैत को ललकार कर पकड़ लेगा ? ऐसी दशा में उनके लिए 50 रु. या 60 रु. वेतन रखने में शर्म न आए तो दोषी कौन ? और यदि इसी वेतन को बढ़ाने तथा आत्मसम्मान के रक्षार्थ वे कुछ भी करें तो बागी करार दिए जाएँ! अफसरों का जो बर्ताव उनके साथ है वह तो झल्लाहट पैदा करता है , कलेजे में डंक मारता और टीस लाता है। फिर भी जुबान खोलने की , चीखने की , कराहने की भी मनाही है। यदि ऐसा करने की गुस्ताखी की तो फाँसी का तख्ता और जेल के सीखचे तैयार पड़े हैं , खबरदार! बस , खून की घूँट पीकर रह जाना पड़ता है! उनके दिलों पर क्या गुजरती है , कौन बताएगा ?