पुल / सुकेश साहनी

Gadya Kosh से
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फैजाबाद की ओर जाने वाली किसान एक्सप्रेस रद्द थी। इसके बावजूद इलाहाबाद पैसेंजर में, जिसे हम प्यार से लढ़िया कहते थे, अधिक भीड़ नहीं थी। घर से चलते समय हमें इस बात का कतई अनुमान नहीं था कि राजनीतिक हो–हल्ले का इतना अधिक असर दिखाई देगा। बहुत से लोगों ने आज एहतियातन अपनी यात्राएँ स्थगित रखी थीं।

हमारे डिब्बे में डेली पैसेंजर अधिक थे। माहौल भी रोज जैसा ही था। कुछ पैसेंजर ऊपर वाली सीट पर चढ़कर सो गए थे, कुछ अखबार पढ़ रहे थे और कुछ ताश में मशगूल थे।

प्रभात अपनी आदत के मुताबिक किसी पत्रिका के पन्नों में डूबे हुए थे। डेली पैसेंजरी के मामले में वे मेरे गुरु थे। उन्हें इस रूट पर चलते हुए दस वर्ष हो गए थे; जबकि मेरा यह तीसरा साल था। उनके गम्भीर स्वभाव के चलते सभी उनका सम्मान करते थे और प्रभात भाई कहकर पुकारते थे।

बरेली से चलकर ट्रेन चनेहटी पर रुकी।

एक मुस्लिम परिवार डिब्बे में चढ़ा––पति–पत्नी और उनके साथ एक गोरी, सुन्दर, नाजुक–सी लड़की। वे तीनों हमारे सामने वाली सीट पर बैठ गए.

गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली थी। मुझे यह देखकर हैरानी हुई कि प्रभात भाई मैगज़ीन के पन्नों से निकलकर उस लड़की में खो गए थे। जिस तरह वे लगातार लड़की को देखे जा रहे थे, वह सभ्यता के दायरे में नहीं आता था।

"प्रभात भाई!" मुझे टोकना पड़ा।

"अ...हाँ।" वह अचकचाकर सीधे हो गए.

"आप भी छोकरियों में रमने लगे?" मैंने दबी आवाज में कहा।

"नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, ज़हीर मियाँ," वे खिड़की के बाहर देखते हुए धीरे से बोले, "इस लड़की को देखकर अपनी पाँचवीं बेटी याद आ गई."

"पाँचवीं बेटी!" मुझे हैरत हुई. इन तीन सालों में मैं उन्हें बहुत करीब से जान गया था। उनकी चार ही बेटियाँ हैं और चारों की शादी उन्होंने कर दी है। तो फिर? क्या वह किसी दूसरी औरत से...?

"इस पाँचवीं बेटी के बारे में आपने कभी कुछ नहीं बताया?"

"कभी कोई संदर्भ ही नहीं आया," वे बोले, "लेकिन इस बुरे मौसम में अक्सर मेरा ध्यान उसकी ओर चला जाता है।"

"कहाँ है आपकी यह पाँचवीं बेटी?"

"पता नहीं अब वह कहाँ होगी?" प्रभात बोले, "बरसों पहले जे़बा लखनऊ में थी।"

"जे़बा! ...यह क्या गड़बड़झाला है? साफ–साफ बताइए न, भाई."

ट्रेन पिताम्बरपुर पहुँच गई थी। उस मुस्लिम परिवार को वहीं उतरना था। प्रभात उस लड़की को स्नेहभरी नजरों से तब तक देखते रहे जब तक वह ट्रेन से उतरकर नजरों से ओझल नहीं हो गई.

मैं उनकी 'पाँचवीं बेटी' के बारे में जानने को कितना उतावला था, इसे वे अच्छी तरह समझ रहे थे। गाड़ी के स्टेशन से छूटते ही उन्होंने कहना शुरू किया...

उन दिनों मेरी पोस्टिंग लखनऊ में थी। मैं तीन बेटियों का पिता था और इसी वजह से घर–बाहर वालों की नजर में बहुत बेचारा था। इस बेचारगी के दंश से मुक्ति पाने के लिए पत्नी ने चौथी बार गर्भधारण किया था। इस बार हमें बेटे की उम्मीद थी, बेटी हुई तो हम सभी को बहुत रंज हुआ। पत्नी को तो बहुत ही ज्यादा। मैंने पत्नी को तसल्ली दी, "रंज ना करो, रंजना आई है।" इस तरह हमारी चौथी बेटी का नाम रंजना पड़ गया। मुझे दो महीने से तनख्वाह नहीं मिली थी। दूसरे नियमित खर्चों के साथ–साथ पत्नी की डिलीवरी के खर्च की वजह से जेब बिलकुल खाली हो गई थी। इस आर्थिक संकट से उबरने के लिए मैंने पत्नी की सोने की चूड़ी को बेचने का निर्णय लिया था।

उस दिन मैं चौक के सराफ़ा से चूड़ी बेचकर लौट रहा था। रिक्शे के पैसे बचाने के लिए मैं चौक से पैदल ही घर आ रहा था। खलील जिब्रान ने लिखा है–सड़कों के बारे में जानना है तो कछुओं से पूछिए, खरगोश इस बारे में आपको अधिक कुछ नहीं बता पाएँगे। आर्थिक संकट के चलते कछुआ बनना मेरी नियति थी जबकि मेरे अगल–बगल सब खरगोश ही खरगोश थे। यही वजह थी कि पाण्डेगंज से गुजरते हुए मेरे अलावा किसी ओर की नजर उस लड़की पर नहीं पड़ी थी।

वह दो–ढाई साल की रही होगी, शरीर पर मैली–कुचैली फ़्राक, उलझे बाल, रोते–रोते सूज गई आंखें, खुश्क फटी–फटी त्वचा, कुछ–कुछ बंजारों जैसा हुलिया। वह घर वालों से बिछुड़ गई लगती थी। व्यस्त सड़क पर तेजी से दौड़ते वाहनों के बीच उसका इस तरह भटकना खतरे से खाली नहीं था। मैं उसे सड़क के किनारे ले गया। मेरे हाथ लगाते ही वह जोर–जोर से रोने लगी थी। नजदीक की दुकान से मैंने उसे टॉफी और बिस्कुट लेकर दिए. टॉफी पाते ही वह चुप हो गई. थोड़ी–थोड़ी देर बाद कुछ याद आते ही वह सिसक पड़ती थी। मैंने उससे उसका नाम–पता जानने की कोशिश की, पर वह कुछ नहीं बोलती थी। मैंने आसपास पूछताछ की पर इसके बारे में कोई कुछ नहीं बता पाया। उस क्षेत्र में रहने वाला कोई भी व्यक्ति उसका जिम्मा लेने को तैयार नहीं था।

अंतत: मैंने वहाँ से गुजर रहे एक रिक्शेवाले को रोका और लड़की को लेकर थाना नाका हिण्डोला की ओर चल दिया।

गेट पर खड़े संतरी ने एक कमरे की ओर इशारा किया। वहाँ एक बड़ी-सी मेज के गिर्द तीन पुलिस वाले बैठे थे। मेज पर बहुत–सी फाइलें, सिगरेट के पैकेट और दूसरी चीजें पड़ी थीं। थोड़ा हटकर डेस्क पर एक दीवान जी लिखा–पढ़ी कर रहे थे। बच्ची को रिक्शेवाले ने उठा रखा था। उस समय टॉफी चूसते हुए वह बिलकुल चुप थी।

"सर! यह लड़की पाण्डेयगंज में खड़ी रो रही थी।" मैंने वहाँ बैठे दारोगा से कहा।

"तुम वहाँ क्या कर रहे थे?"

"जी, चौक से लौट रहा था।"

"चौक क्या करने गए थे?"

"घरेलू काम था, सर!"

"तो इसे यहाँ क्यों उठा लाए?"

"खो गई लगती है, सर।"

"वही तो! फिर इसे यहाँ लाने की बेवकूफी क्यों की? इसके घर वाले तो वहीं ढूँढेंगे न जहाँ गुम हुई थी, समाज सेवा के जोश में होश भी खो बैठते हो तुम लोग।"

"सर, वहाँ ये किसी गाड़ी की चपेट में आ जाती, ..."

"बाबूजी," रिक्शेवाला उस पूछताछ से घबराकर बोला, "मुझे मेरे पैसे दे दो, मैं जाऊँ। बोहनी भी नहीं हुई अभी तलक!"

"अबे...क्या खुसुरफुसुर लगा रखी है?" एकाएक मुंशी हमें घूरते हुए चिल्लाया।

"कहाँ रहते हो?" दरोगा ने पूछा।

"जी, आर्य नगर में।"

"ठीक है," दरोगा ने मुझसे कहा, "तुम बच्ची को अपने घर ले जाओ. जैसे ही इसके घर वाले आएँगे, हम तुम्हें खबर कर देंगे," फिर जोर से बोला, "मुंशी जी, इनका नाम पता नोट कर लो और जाने दो।"

सुनकर मेरे होश उड़ गए.

"सर, मेरे घर के हालात ऐसे नहीं हैं कि मैं इसे रख सकूं।" मैंने विनती की।

"तो थाने में कौन-सी आया बैठी हैं।"

"अबे ओये...क्या नाम है तेरा," पीछे बैठा मुंशी दहाड़ा, "चल इधर, नाम पता लिखा और फूट! फोकट में साहब को तंग कर रखा है।"

"साहब, अगर इसे लेने कोई नहीं आया तब क्या होगा?" मैंने दारोगा से पूछा।

"तब?" जवाब में मुंशी खिलखिलाया, "तुम पाल लेना, यह तो बहुत पुण्य का काम होगा, मेरे भाई."

"इंस्पेक्टर साहब," मैं दरोगा के आगे गिड़गिड़ाने लगा था, "मेरी पहले ही चार बेटियाँ हैं। चौथी बेटी परसों ही जन्मी है। घरवाली अभी बिस्तर पर ही है। कौन सँभालेगा इस नन्हीं जान को। मैं सच कह रहा हूँ। मैं सरकारी महकमे में काम करता हूँ। यह रहा मेरा पहचान–पत्र।"

सुनकर दरोगा पिंघल गया।

"यह तुम्हारे साथ कौन है?" उसने पूछा।

"जी, रिक्शेवाला है।"

"साहब," मुंशी रिक्शेवाले को घूरता हुआ बोला, "मुझे तो यह बच्चे उठाने वाले गिरोह का आदमी लगता है।"

"बाबूजी, आप बच्ची को सँभालो, मुझे जाना है।" रिक्शेवाला डर गया और पैसे लिए बिना जाने को हुआ, "बेमतलब आपके चक्कर में टैम खराब हो गया।"

"अबे, भागता किधर है, हँय?" मुंशी अपनी जगह पर खड़ा होकर चिल्लाया, "क्या नाम है तेरा?"

"जी, असलम।" वह पसीने–पसीने हो गया था, "साब, मैं तो सवारी लेकर आया था।"

"यह सच कह रहा है," मैंने रिक्शेवाले का बचाव किया, "मैं दो रुपए में इसे यहाँ लेकर आया हूँ। सर! ऐसे बच्चों को बालगृह में भी तो रखा जाता है?"

"चोप्प बे सत्यवादी! साहब को सिखाता है?" मुंशी मुझपर चिल्लाया, फिर दरोगा से बोला, "साहब मुझे तो ये दोनों मिले हुए लगते हैं।"

"तुम्हारे घर में कौन–कौन है?" दरोगा ने मुंशी को शांत कर असलम से पूछा।

"हुजूर, घरवाली है और एक बेटा है–पांच साल का।"

"असलम, घबराओ नहीं," दरोगा ने बहुत प्यार से कहा, "फिलहाल इस बच्ची को लेकर तुम घर जाओ. हम तुम्हारा नाम पता नोट कर लेते हैं। बेफिक्र होकर जाओ, जल्दी ही हम इसे तुम्हारे यहाँ से मँगवा लेंगे।"

मुझे असलम पर दया आ रही थी। उस बेचारे को इस स्थिति में डालने के लिए मैं ही जिम्मेवार था। मुंशी के अंदाज से लग रहा था कि अब हमने ज़रा भी चूँ–चपड़ की तो वह हमें किसी भी केस में अंदर कर देगा।

नाम पता लिखाकर बाहर आते ही असलम मुझ पर बिफरा, "मुझ गरीब को फँसाकर क्या मिल गया आपको। जब आप जैसे पैसे वाले इस बच्ची को नहीं रख सकते तो भला हमारी क्या औकात है। हमें तो कई बार मजदूरी न मिलने पर भूखे ही सोना पड़ता है।"

"भाई!" मैं शर्मिंदा था, "मैंने तुम्हारे लिए कोशिश की थी, पर वह मुंशी बहुत काइयाँ था। कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था।"

"बाबूजी," असलम बोला, "मैं अब इस बच्ची को लेकर घर कैसे जाऊँ! मेरी घर वाली बहुत ज़ालिम है। वह इसे नहीं रखने देगी। अपने बेटे के हिस्से का एक निवाला भी वह इसे नहीं देने देगी। हो सकता है वह मुझे घर में घुसने ही न दे।"

मैंने एक गुमशुदा बच्ची को पुलिस थाने में पहुंचाने के दायित्व का निर्वाह किया था, पर हालात ऐसे हो गए थे कि मैं असलम के सामने खुद को गुनहगार महसूस कर रहा था। असलम की गोद में बच्ची बिलकुल चुप थी। उसकी आंखों में नींद उतरने लगी थी। उसने बिस्कुट के पैकेट को मजबूती से पकड़ रखा था। उसको देखते ही दिल को कुछ होने लगता था।

पतलून की जेब में मेरा हाथ चूड़ी बेचकर जुटाए गए रुपयों को टटोल रहा था। अंतत: मैंने दिल को कड़ा किया और पचास रुपए असलम को दे दिए. उसे आशा बंधाई कि जल्दी ही बच्ची के घर वाले लेने आ जाएँगे और वह इस जिम्मेवारी से मुक्त हो जाएगा। साथ ही उसे यह वचन दिया कि अगर बच्ची के घर वाले नहीं आते हैं, तो जब तक लड़की उसके पास रहेगी, उसके पालन–पोषण में सहयोग के रूप में पचास रुपए प्रति माह देता रहेगा। मैंने उसे अपना घर दिखा दिया था और वह बच्ची को लेकर अपने घर चला गया था।

ट्रेन टिसुआ स्टेशन पर रुकी तो डिब्बे में हिजड़े चढ़ आए. तालियाँ पीटते हुए वे यात्रियों से वसूली करने लगे। डिब्बे में हो रहे शोर–शराबे की वजह से बात करना मुश्किल हो गया।

डिब्बे में शोर कुछ कम हुआ तो वे बोले...

घर से निकले मुझे काफी देर हो गई थी जब लौटा तो सभी परेशान थे। मैंने उन्हें पूरी घटना बताई. पचास रुपए देने वाली बात किसी को नहीं जँची।

"रुपए देने की क्या ज़रूरत थी?" पत्नी ने कहा, "हम खुद कितने तंग हैं! इस बार तो बच्चों की गुल्लकें तक खाली हो गई हैं।" पत्नी ने कहा।

"पापा बहुत सीधे है, ' बड़ी बेटी राधिका बोली," इन्हें तो जो चाहे मूँड़ ले। "

"पापा, आपको शुरु में दस पंद्रह रुपए से अधिक नहीं देने चाहिए," रेखा ने भी रद्दा जमाया, "अगर बच्ची के घर वाले आज ही आ जाते हैं तो पचास रुपए मुफ्त में ही रिक्शे वाले के हो जाएँगे। उसके तो मजे हो गए."

"पापा, यह भी हो सकता है कि बच्ची असलियत में रिक्शेवाले की हो और उसने उसे चारे के रूप में, आपको फँसाने के लिए, इस्तेमाल किया हो।" जासूसी उपन्यासों की शौकीन राखी बोली, "ऐसी घटनाएँ रोज देखने में आ रही हैं।"

मैंने पत्नी की गोद में लेटी अपनी छोटी बेटी की ओर देखा। मुझे लगा अगर वह बोल सकती तो आज वह भी मुझे नसीहत दिए बिना न छोड़ती।

मैं बहुत थका हुआ था। घर घुसते ही पचास रुपए को लेकर जिस तरह सब मेरे पीछे पड़ गए थे, उससे मैं बिलकुल पस्त हो गया था। ताज्जुब इस बात पर हो रहा था कि पत्नी समेत सभी की सोच पचास रुपए के गिर्द घूम रही थी। उस नन्हीं बच्ची को लेकर किसी ने कुछ नहीं कहा था। मैं मन ही मन इस बात को लेकर भी फिक्रमंद था कि अगर रिक्शे वाले की जालिम बीवी ने बच्ची को नहीं स्वीकारा तो क्या होगा। उस दिन जब रिक्शेवाला मेरे पास नहीं लौटा तो मैं समझ गया कि उसने अपनी घरवाली को जैसे–तैसे मना लिया है।

गाड़ी कटरा स्टेशन पर खड़ी हुई तो भीड़ का रेला–सा भीतर घुसा। डिब्बा खचाखच भर गया। ज्यादातर सवारियाँ तिलहर और शाहजहाँपुर की थीं।

"बच्ची के घर वाले मिले?" गाड़ी के चलते ही मैंने पूछा।

नहीं, बच्ची को लेने कोई नहीं आया था, न ही पुलिसवालों ने उसकी सुध ली थी। रुपए लेने के लिए असलम हर महीने की पहली तारीख को आ धमकता था। हमारे घर में उसे कोई पसन्द नहीं करता था। मुझे तनख्वाह छह तारीख के आस–पास मिलती थी। पहली तारीख आते–आते हाथ बहुत तंग हो जाता था। ऐसे में असलम को पचास रुपए देना बड़ा भारी पड़ता था। आखिर मुझे उससे कहना ही पड़ा कि वह रुपए लेने दस तारीख के बाद आया करे। बच्ची के बारे में जानने की इच्छा तो होती थी, पर वह अँगुली पकड़कर अब पहुँचा न पकड़ ले, इस डर से मैं उसे बिलकुल लिफ्ट नहीं देता था। वैसे भी पत्नी और बच्चों की निगाह में हर महीने पचास रुपए देकर मैं बेवकूफी कर रहा था।

दस महीने तक वह लगातार तय तारीख पर आता रहा, फिर एकाएक उसका आना बंद हो गया। शुरू में हम सोचते रहे कि बीमार हो गया होगा या कहीं बाहर चला गया होगा लेकिन जब छह महीने से ऊपर हो गए तो हम सोच में पड़ गए. बच्ची के हिस्से के पचास रुपए हम अलग ही रखते जा रहे थे। ज़रूरत पड़ने पर भी इस्तेमाल नहीं करते थे। हमें लगता था कि किसी भी दिन वह रुपए लेने आ धमकेगा। पर दिन गुजरते गए और वह नहीं आया।

उस दिन मैं आईटी चौराहे पर खड़ा था, तभी मेरी नजर असलम पर पड़ी थी। उसने भी मुझे देख लिया था, पर अनदेखा कर तेजी से पैडल मारता हुआ डालीगंज की ओर बढ़ गया था। मैं उसके पीछे लपका था, दो तीन आवाजें भी दी थीं। पर वह नहीं रुका था। उसकी इस हरकत ने मुझे चिन्तित कर दिया था। तरह–तरह की आशंकाएँ जन्म लेने लगी थीं।

घर आकर पत्नी और बच्चों को इस बारे में बताया तो वह भी परेशान हो गए. सभी को असलम के रुपए लेने न आने और मुझे देखकर खिसक जाने के पीछे किसी बड़े षडयंत्र की गंध महसूस हो रही थी।

"मुझे लगता है उसने लड़की को बेच दिया है।" मेरी जासूस बेटी ने धमाका किया।

"पापा, इसकी बात में दम है," राधिका बोली, "हम तो उसे पचास रुपए महीना दे ही रहे थे और हमने कौन–सा उसके घर लड़की को चैक करने जाना था। मुफ्त में मिल रहे रुपए कौन छोड़ता है। ज़रूर उसने कोई बड़ा क्राइम किया है।"

"मुझे तो शक्ल से ही क्रिमिनल लगता था।" पत्नी बोली।

"पापा वह लड़की हिन्दू थी या मुसलमान?" राखी के गुप्तचर दिमाग ने फिर करवट ली।

"पता नहीं, यह तो उसके घरवालों के मिलने पर ही पता चलता। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है..."

"आज के हालात में फर्क पड़ता है, पापा जी!" राखी ने जोर देकर कहा, "क्या पता उसे पता चला हो कि लड़की हिंदू है और तभी उसने..."

"वो कहता था उसकी घरवाली बहुत ज़ालिम है," सबकी बातें सुनकर मैंने भी अपने दिमागी घोड़े दौड़ाए, "हो सकता है किसी बात पर उसने लड़की को बेरहमी से पीट दिया हो और बच्ची मर गई हो।"

"हे भगवान!" पत्नी बुदबुदाई, "काश! हम बच्ची को अपने पास रख लेते।"

"वह नन्हीं जान कितना खा लेती?" राधिका ने कहा।

"पापा, आपसे बहुत बड़ी गलती हुई," रेखा बोली, "आपको उसे सीधे घर ले आना था, हम उसे अपनी पाँचवी बहन के रूप में बहुत प्यार से रखते।"

"आप का दिल तो मोम जैसा है," पत्नी ने उलाहना दिया, "फिर उस दिन आप को क्या हो गया था! हम भी उस कसाई के पाप में भागीदार बन गए!"

"मुझे क्या पता था कि वह ऐसा निकलेगा।" मेरे दिल को भी कुछ होने लगा था।

हम सब उदास हो गए थे। मैं पुलिस थाने जाकर असलम की शिकायत कर सकता था, पर पिछले अनुभव को देखते हुए मेरी हिम्मत नहीं पड़ रही थी। दूसरे घर में कोई भी इस बात के लिए राजी नहीं था।

ताश खेलने वालों ने पत्ते समेट लिए थे। पैसों के लेन–देन को लेकर उनमें झाँय–झाँय हो रही थी। यह तो रोज का किस्सा था और हमें इसकी आदत पड़ गई थी। तिलहर आते ही वे उतर गए. डिब्बे में शान्ति छा गई.

प्रभात कह रहे थे...

दिन यूँ ही गुजर रहे थे कि एक दिन अमीनाबाद की भीड़ भरी गली में मेरा असलम से सामना हो गया। वह सवारी उतार कर लौट रहा था, उसका रिक्शा जाम में फँस गया था। मैं मौके का फायदा उठाकर उसके रिक्शे पर बैठ गया था। मुझे देखते ही उसका चेहरा फक पड़ गया।

"थाने चलो!" मैंने कड़ककर कहा, "क्या किया तुमने बच्ची के साथ?"

"बच्ची?" मुझे असलम की आँखें साफ–सुथरी–सच्ची लगीं, "अब जे़बा है वह, हमारी बेटी!"

"रुपए लेने क्यों नहीं आए?"

"अब उसकी ज़रूरत नहीं, अपनी औलाद को पालने की ताकत है मुझमें।" बोलते हुए उसका चेहरा तमतमा गया।

"फिर उस दिन मुझे देखकर रुके क्यों नहीं?"

"बाबूजी, मेरी घरवाली बड़ी चुड़ैल है। जे़बा अब उसके कलेजे का टुकड़ा है, बेटे से ज़्यादा प्यार करती है उसे। जे़बा की वजह से ही दूसरा बच्चा जनने को तैयार नहीं हुई. उसकी बेटी किसी दूसरे के टुकड़ों पर पले, यह उसे मंजूर नहीं। अगर उसे पता चल जाता कि मैं आपसे मिलता हूँ, पैसे लेता हूँ तो मुझे घर में घुसने ही नहीं देती। वह बड़ी ज़ालिम औरत है, बाबूजी."

ज़हीर मियाँ, मैं आपको बता नहीं सकता कि उस दिन मैं कितना खुश था। घर में पत्नी, बच्चे सभी चहकने लगे थे। असलम की 'ज़ालिम' घरवाली की वजह से मैंने फिर कभी उससे मिलने की कोशिश नहीं की। मियाँ, इन औरतों को समझना बड़ा मुश्किल है। हमारी घरवाली को ही ले लीजिए–लखनऊ छोड़े सालों हो गए, असलम और जे़बा का कहीं अता पता नहीं है, पर ये हैं कि अपनी पाँचवीं बेटी की शादी के लिए रुपए जमा किए जाती हैं...

शाहजहाँपुर आने वाला था। तेज गड़गड़ाहट के साथ ट्रेन गर्रा नदी के पुल पर से गुजर रही थी और मैं सोच रहा था कि यदि ये पुल न होते तो यात्राएँ करना कितना दुष्कर हो जाता।

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