पुस्तक, भाषा और कविता-पाठ / जयप्रकाश मानस

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1-पाँच सौ प्रतियाँ और करोड़ों के प्रतिनिधि

कभी-कभी सोच कर देखिए - यह हिंदी साहित्य की ताक़त है या कमजोरी कि किसी लेखक की किताब 500 या ज़्यादा से ज़्यादा 1000 प्रतियों में छपती है (अब तो इसमें भी कलाकारी दिखाने की तकनिक मौजूद है), और उसी के बाद उसे समूची हिंदी का प्रतिनिधि लेखक घोषित कर दिया जाता है। रातों रात ! 500 प्रतियों का यह संसार, किसी छोटे कमरे की तरह है - जहाँ दरवाज़ा खुलता है, पर हवा बाहर नहीं जाती।

किताबें छपती हैं, पर पाठकों तक नहीं पहुँचतीं।

कई बार तो यह किताबें अपने शहर से भी बाहर नहीं निकल पातीं।

प्रकाशक कुछ प्रतियाँ आलोचकों को भेजता है, कुछ लेखकों को, कुछ अपने परिचितों को - और शेष कुछ दिनों में गोदाम की धूल में सो जाती हैं। फिर भी उन्हीं किताबों पर संगोष्ठियाँ होती हैं, पुरस्कारों के लिए अनुशंसाएँ जाती हैं, और वही नाम रातों रात 'समकालीन हिंदी का महत्त्वपूर्ण स्वर' बन जाता है। अजीब है कि यह सब एक ऐसे देश में होता है, जहाँ करोड़ों लोग हिंदी बोलते हैं, सुनते हैं, गाते हैं; पर शायद पढ़ते नहीं।

शायद उन्हें कोई नहीं बताता कि वे भी इस साहित्य के हिस्सेदार हैं या शायद साहित्य ने ही उन्हें अपने घेरे से बाहर रख दिया है।

फिर भी, यह तस्वीर पूरी तरह निराशाजनक नहीं है; क्योंकि यही हिंदी की ज़िद भी है कि इतने छोटे दायरे में भी वह जीवित रहती है।

कभी किसी स्कूल के बच्चे के निबंध में, किसी मज़दूर की बोली में, किसी माँ के लोकगीत में। वहाँ कोई आलोचक नहीं होता, कोई समीक्षक नहीं; पर भाषा जीवित रहती है। शायद यही हिंदी की सबसे बड़ी ताक़त है कि वह अपने औपचारिक साहित्य से ज़्यादा, अपने असंगठित जीवन में साँस लेती है।

500 प्रतियों की किताबें मर जाती हैं, पर वह एक माँ के मुँह से निकला शब्द, किसी अनाम कवि की पंक्ति बनकर सदियों तक चलता रहता है।

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2-तुतलाहट : भाषा का प्रथम संगीत

हर भाषा के आरंभ में एक अस्फुट स्वर होता है - जैसे कंठ से नहीं, आत्मा से निकलता कोई अधूरा राग। वही तुतलाहट है। बच्चे का पहला बोलना, जीवन की पहली कविता है, जो किसी व्याकरण में नहीं आती, लेकिन सबके भीतर छिपी होती है। शायद मनुष्य का सबसे सच्चा बोलना वही है, जिसमें सार्थकता से पहले स्नेह होता है।

बच्चे के पहले शब्द किसी पुस्तक से नहीं, जीवन से निकलते हैं। वे तुतलाहटें हैं - जैसे किसी झरने ने अभी-अभी बोलना सीखा हो। उनमें अर्थ नहीं, आकांक्षा बोलती है।

हर अधूरा शब्द एक छोटे ब्रह्मांड की तरह है, जहाँ भाषा जन्म नहीं लेती; बल्कि घटती है - धीरे-धीरे, अपने ही भीतर से उजागर होती हुई। जब हम बच्चे के साथ तुतलाते हैं, तो उसके बोलने की नकल नहीं करते - बल्कि भाषा के जन्म में सहभागी बनते हैं। जैसे कोई कवि अपनी कविता के बनने की आहट सुनता है। वह पल शिक्षण का नहीं, 'साक्षात्कार' का होता है - जीवन के उस आरंभ का, जहाँ शब्द और मौन अब तक एक ही चीज़ हैं।

तुतलाहट भाषा से पहले का संगीत है। यह उस काल की ध्वनि है, जब शब्द अभी अर्थ नहीं बने, वे केवल धड़कन थे। बच्चे की बोली में व्याकरण नहीं, लय होती है। उसके साथ तुतलाना, उस लय में सम्मिलित होना है - बिना किसी श्रेष्ठता के भाव के। उस क्षण में संवाद नहीं, सहभागिता होती है। संचार का सबसे सुंदर रूप वह है, जो शब्द बनने से पहले घटता है।

हर तुतलाहट एक बीज है - भविष्य की भाषा का बीज। हम जब उसे सुनते हैं, तो उसके बोलने में सहायता नहीं करते; बल्कि उसके भीतर सुनने की शक्ति को जगाते हैं; क्योंकि भाषा की जड़ बोलने में नहीं, सुनने में है; इसीलिए शायद बच्चे की हर भूल में एक नयी सृष्टि की झलक होती है। कभी-कभी अधूरे शब्द ही सबसे पूरा अर्थ कहते हैं।

तुतलाहट मौन और भाषा के बीच की वह सीढ़ी है, जिस पर हर मनुष्य एक बार अवश्य चढ़ता है। हर गलत उच्चारण, हर हँसी, हर झिझक — उस सीढ़ी का एक पायदान है। जब हम उसके साथ तुतलाते हैं, तो सिखाते नहीं, साथ चलना सीखते हैं। क्योंकि मनुष्य पहले साथ बोलना सीखता है, फिर अलग अलग भाषाएँ बोलने लगता है। और शायद यही तुतलाने का सबसे गहरा अर्थ है कि भाषा का जन्म हमेशा दो आवाज़ों से होता है - एक बच्चे की, और दूसरी हमारे भीतर के बच्चे की।

जब हम किसी बच्चे के साथ तुतलाते हैं, तो हम उस आरंभ की ओर लौटते हैं, जहाँ भाषा अभी किसी राष्ट्र या धर्म की नहीं थी — बस मनुष्यता की थी। हर ‘पा-पा’, हर ‘मा-मा’ में वही आदिम संवाद छिपा है, जो पृथ्वी के पहले मनुष्य ने हवा से किया होगा।

तुतलाना, दरअसल, स्मरण का कर्म है - उस प्रथम सृजन का, जब शब्द अबोध थे; पर मनुष्य सबसे बुद्धिमान

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3-कविता पढ़ाने की कला सबको नहीं आती

जैसे माँ-बाप अपने बच्चों की सारी प्रतिभा, उनकी क्षमता और भीतर छिपी संभावनाओं को पूरी तरह नहीं जान पाते, वैसे ही एक कवि भी अपनी कविताओं के बारे में सब कुछ नहीं जानता। वह जब कोई कविता रच रहा होता है, तब उसे यह भी नहीं मालूम होता कि वह कौन-सी पंक्ति किस भावलोक से आई है - और किस दिशा में जाकर अर्थ का नया संसार रचेगी।

कविता दरअसल किसी योजनाबद्ध बुद्धि की नहीं, बल्कि किसी भीतर से फूटने वाली अंतःप्रेरणा की देन होती है। यह कवि के अवचेतन में धीरे-धीरे पकती है और जब शब्दों के रूप में बाहर आती है, तो खुद कवि को भी चकित कर देती है। कई बार वही पंक्तियाँ, जो उसे मामूली लगीं, बाद में पाठकों के लिए अमर अर्थों में बदल जाती हैं।

दुर्भाग्य जैसा यह भी कि हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था इस अद्भुत प्रक्रिया को समझने की कोशिश नहीं करती। वह कविता को एक ‘पाठ्यांश’ की तरह पढ़ाती है, न कि एक अनुभव की तरह। वह विद्यार्थियों की रुचि को परिष्कृत करने, उनकी संवेदनशीलता को जाग्रत करने का माध्यम नहीं बन पाई। हमारे शिक्षक और प्राध्यापक कविता को सिखाने से पहले स्वयं उसे महसूस करना भूल गए हैं।

वे कविता की व्याख्या तो करते हैं, पर उसके ताप और स्पर्श से अनजान रहते हैं। आलोचकों में भी ऐसे कम ही हैं, जो कविता को पढ़ाने की कला जानते हों — जो यह समझते हों कि कविता को समझाना नहीं, 'अनुभव कराना' होता है।

गंभीर आलोचक और कवि डॉ. सदाशिव श्रोत्रिय जी की आलोचना की पुस्तक - 'कलि की पिचकारी' उसी भूले हुए रस की याद दिलाती है - वह बताती है कि कविता को केवल समझा नहीं जा सकता, उसे जीना पड़ता है। यह पुस्तक जैसे पाठ्यक्रम की ठंडी मेज़ों पर रखे हुए शब्दों में फिर से जीवन का ताप भर देती है - और यही उसका असली अर्थ है, यही उसका उत्तर भी।

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