पूँजीवादी क्रूरता, त्रासदी एवं अमानवीयता को उघाड़ती कविता / महेश चंद्र पुनेठा

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हम सभ्य हो चुके हैं। हमने सीख लिए हैं- रहन-सहन के नए-नए तरीके, नई-नई भाषाएं, आचार-व्यवहार के नए रूप।उड़ चले हैं दूर आसमान तक। लाँघ लिये हैं सात समुंद्र। जीत ली हैं सारी भौगोलिक दूरियाँ। लिख डाली हैं बड़ी-बड़ी पोथियाँ।स्थापित कर लिये हैं हजारों हजार स्कूल, मदरसे, कॉलेज, विश्‍वविद्यालय, संग्रहालय, पुस्तकालय, अप्पूघर, पार्क, मैदान, बाग-बगीचे बावजूद इसके एक बड़ी शर्मनाक बात है हमारे लाखों करोड़ों नन्हे-नन्हे बच्चे काम करने को विवश हैं । कुछ पीठ पर अपने से बड़ा बोरा लटकाए कूड़े के ढेर में रोटी तलाश रहे हैं, कुछ होटल में कोमल-कोमल हाथों से बरतनों को चमका रहे हैं, कुछ अपनी कमीज खोलकर ट्रेन का फर्श या लोगों के जूते साफ कर रहे हैं तो कोई दन-कालीन, माचिस, बीड़ी-सिगरेट, पटाखे, बल्ब-ट्यूब या चूडि़याँ बनाने जैसे खतरनाक कामों में लगे हैं, कुछ गोबर, लीद ढूँढते रहने के बाद अंधेरे में दुबक रहे हैं । ये छोटे-छोटे मासूम बच्चे घरों, ढाबों, होटलों, कारखानों, खादानों, भट्टियों, खेतों हर जगह काम करते हुए देखे जा सकते हैं । शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहाँ बच्चे काम करते नहीं दिखाई देते हों। ये सभी बच्चे गरीब, किसान और मजदूर परिवारों के होते हैं। थोड़े से बच्चे हैं जो सही अर्थों में अपना बचपन जी रहे हैं बाकी के लिये तो जैसे बचपन किसी उड़ती चिडि़या का नाम हो । वे उन मेमनों जैसे होते हैं जिन्हें गड़रिये जल्द बना लेते हैं ऊन के पेड़ जो शैशव में ही बन जाते हैं अधेड़।…जो खेलते नहीं कभी खिलौनों से पर जिनका बचपन रहता है खिलौना। बचपन की इस त्रासाद एवं शर्मनाक स्थिति का वरिष्ठ कवि चंद्रकांत देवताले की कविता, ‘थोड़े से बच्चे और बाकी बच्चे’ सटीक चित्रण करती है । इस कविता में वर्ग विभाजित समाज के दोनों वर्गों के बच्चों की जीवन-स्थिति के दृश्य एक साथ प्रस्तुत कर कवि ने इस भयावह स्थिति को बड़े ही प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया है। कविता की शुरूआत ही इन दृश्यों से होती है-

थोड़े से बच्चों के लिए

एक बगीचा है

उनके पाँव दूब पर दौड़े रहे हैं

असंख्य बच्चों के लिए

कीचड़-धूल और गंदगी से पटी

गलियाँ हैं जिनमें वे

अपना भविष्य बीन रहे हैं।

कविता में आगे दो दृश्य और आते हैं-

एक मेज है

सिर्फ छह बच्चों के लिए

और उनके सामने

उतने ही अंडे और सेव हैं

एक कटोरदान है सौ बच्चों के लिए

और हजारों बच्चे

एक हाथ में रखी आधी रोटी को

दूसरे से तोड़ रहे हैं ।

वास्तव में यह विडम्‍बना है कि पूँजीवादी समाज में जहाँ एक ओर एक वर्ग तो तमाम सुख-सुविधाओं का उपभोग करता है, यहाँ तक कि उसके पास संसाधन उसकी आवश्यकता से कई गुना अधिक होते हैं, वहीं दूसरी ओर एक बड़ा वर्ग ऐसा होता है जिसके पास अपनी जरूरी आवश्यकताओं के लिये भी संसाधन उपलब्ध नहीं रहते हैं। उसे भूख के कारण आत्महत्या करने को मजबूर होना पड़ता है। कविता की उक्त पंक्तियों में जिस स्थिति को दिखाया गया है आज समस्या उससे भी अधिक जटिल एवं त्रासद हो चुकी है। आज एक ओर कुछ के लिये अनगिनत सेव और अंडे हैं तो दूसरी ओर अनगिनत के लिए आधी रोटी भी नहीं है। बहुत सारे बच्चे ‘अपना भविष्य बीन रहे हैं’ कहकर कवि गरीब वर्ग के जीवन की इस त्रासदी को उसकी सारी भयावहता के साथ उघाड़ता है। गरीब लोगों का जीवन इतना अनिश्चित होता है कि भविष्य को सजाने-सँवारने जैसी कोई बात उनके पास होती ही नहीं है । वे तो अभावों में जीते हुए भविष्य को केवल बीन ही सकते हैं। इन बच्चों के कठिन जीवन संघर्ष के माध्यम से कवि पूँजीवादी व्यवस्था में अमीर और गरीब के बीच की खाई और संसाधनों के असमान वितरण को पाठकों के सामने बड़े ही मार्मिक ढंग से रखता है। यहाँ कवि की पक्षधरता किस वर्ग के प्रति और कितनी गहरी है साफ-साफ देखी जा सकती है। कविता की ये पंक्तियाँ गरीब वर्ग के प्रति कवि की गहरी सम्‍वेदनशीलता का प्रमाण हैं-

ढेर सारे बच्चे होटलों में

कप-बसियाँ रगड़ रहे हैं

उनके चेहरे मेमनों की तरह दयनीय हैं

और उनके हाथों और पाँवों की चमड़ी

हाथ और पाँव का साथ छोड़ रही है।

कितनी दुःखद स्थिति है कि जिस उम्र में उच्च-मध्य वर्ग के बच्चे अपने खाए बर्तनों को अपनी मेज से खिसकाते तक नहीं, उसी उम्र में बहुत सारे बच्चे होटल में बर्तन माँजने तथा दूसरे के द्वारा तय की गई मजदूरी पर अपनी इच्छा के विरुद्ध कठोर श्रम करने के लिये मजबूर हैं। कैसा क्रूर समाज है-

अखबार के चेहरे पर जिस वक्त

तीन बच्चे आइसक्रीम खाते

हँस रहे हैं

उसी वक्त

बीस पैसे में सामान ढोने के लिए

लुकाछिपी करते बच्चों के पुट्ठों पर

पुलिस वालों की बेतें उमच रही हैं।

कविता की ये पंक्तियाँ पूरी व्यवस्था की कलई खोल कर रख देती हैं। बेतों की उमच सीधे दिल में चोट करती है। मन घृणा से भर उठता है। ऐसा लगता है जैसे ये बेत बच्चों के पुट्ठों में न पड़कर हमारी सभ्यता और संस्कृति के पुट्ठों पर पड़ रहे हों। शर्म आती है ऐसे ‘सभ्य समाज’ पर। ऐसी असम्‍वेदनशील परिस्थितियों में जी रहे बचपन से कैसे एक सम्‍वेदनशील नागरिक बनने की आशा कर सकते हैं। इन हालातों में पल -बढ़कर निकलने वाला बच्चा आगे एक सभ्य, सुशील और विवकेशील मनुष्य बनेगा यह सोचना भी किसी यूटोपिया से कम नही लगता। यदि ये बच्चे दिवारों पर गालियाँ लिखते हैं, बीड़ी के अद्धे ढूँढते हैं, नशाखेारी करते हैं तो इसमें बहुत अधिक आश्चर्य नहीं होना चाहिए। उसके लिये वे बच्चे नहीं वरन उनका परिवेश जिम्मेदार है । यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि बच्चे के मन के निर्माण में उसके सामाजिक वातावरण और आर्थिक स्थिति की प्रमुख भूमिका होती है । जैसा कि कवि एकांत श्रीवास्तव अपने एक निबंध में लिखते हैं, ‘बचपन की आँख से देखा गया जीवन स्मृति में अमर रहता है । यह समय मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण का समय है ।संस्कार यहाँ आकार लेते हैं जो बाद में समग्र जीवन और विचार को संचालित करते हैं।’

यदि बच्चों को गाली-गलौच, नशाखोरी, चोरी-डकैती या अन्य कुप्रवृत्तियों से बचाना है तो उसके आधारभूत कारणों का उपचार करना होगा । जिसमें पहला है गरीबी और शोषण आधारित व्यवस्था का अंत। यह साफ देखा जाता है जिस व्यक्ति की आर्थिक स्थिति ठीक-ठाक होती है वह व्यक्ति अपने और अपने बच्चों के भविष्य के प्रति सजग होता है। उसे अपने और अपने बच्चों के भविष्य को सजाने-सँवारने की चिंता होती है । निश्चित रूप से वह अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के प्रति गम्भीर होता है । यहीं से शुरुआत होती है एक स्वस्थ एवं संतुलित विकास की । एक और बात आज गरीब बच्चों के अभिभावकों को यह कह कर गरियाया जाता है कि सरकार द्वारा बच्चों की शिक्षा के लिये तमाम सुविधाएं निःशुल्क उपलब्ध कराने के बावजूद वे अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते । वे बच्चों को पढ़ाना ही नहीं चाहते । दरअसल सच्चाई यह नहीं है। गरीब की सबसे बड़ी समस्या है दो वक्त की रोटी। अगर वह अपने एक बच्चे को स्कूल भेजता है तो इसका सीधा मतलब है कमाने वाले दो हाथों का कम पड़ जाना । कुछ इसी तरह का मामला बालश्रम का है । इसे केवल कानून बनाकर नहीं रोका जा सकता है। फिर ऐसे कानून से तो बिल्कुल ही नहीं जिसकी खाल बच्चों के पुट्ठों में बेतें बरसाकर खुद सरकारी कारिंदे ही उधेड़ते रहते हैं। इसके लिये उन हालातों को दूर करना जरूरी है जिनके फलस्वरूप बच्चे अपने श्रम को बेचने को विवश होते हैं। उस व्यवस्था को बदलने की आवश्यकता है जिसमें राज्य, कानून, पुलिस, सेना जैसे प्रबंध आम आदमी के हित में न होकर एक वर्ग विशेष के हित में होते हैं। इस कविता में कवि का मंतव्य भले यह कहना रहा हो या नहीं पर यहाँ ‘बीस पैसे में सामान ढोने के लिये/लुकाछिपी करते बच्चों के पुट्ठों पर उमच रही पुलिस वालों की बेतों से’ कहीं न कहीं यह बात भी उभर कर आती है कि आखिर राज्य, पुलिस, सेना आदि समाज के किस वर्ग के हित के लिये होती है। कविता यह सोचने को भी प्रेरित करती है कि गरीब बच्चों में जो तमाम कुप्रवृत्तियाँ घर कर जाती हैं उसके लिये कौन-कौन से कारक उत्तरदायी होते हैं? एक बड़ी कविता की खासियत होती है कि वह केवल उसी बात को नहीं कहती है जो सीधे शब्दों में कही गयी हो, बल्कि उसमें बहुत सारी बातें शब्दों और वाक्यों के बीच से ध्वनित होती हैं। यह बात इस कविता के संदर्भ में भी कही जा सकती है।

यह कविता गहरी पीड़ा और बेचैनी से पैदा कविता है। दिखावटी गुस्से और सहानुभूति से ऐसी कविता सम्‍भव नहीं है। बहुसंख्यक बच्चों के साथ होने वाले इस दर्दनाक एवं शर्मनाक व्यवहार को देख कवि मन इतना व्यथित हो जाता है कि वह कह उठता है-

ईश्‍वर होता तो इतनी देर में उसकी देह कोढ़ से

गलने लगती, सत्य होता तो वह अपनी

न्यायाधीश की कुर्सी से उतर

जलती सलाखें आँखों में

सुपस लेता, सुंदर होता तो वह अपने चेहरे

पर तेजाब पोत अंधे कुँए में कूद

गया होता……….।

पर यहाँ तो ईश्‍वर के नाम पर सिर्फ कुछ छपे हुए शब्द, सत्य के नाम पर चापलूसी की नॉद में लपलपाती जुबानें और सुंदरता के नाम पर सख्त चेहरे हैं। उक्त पंक्तियाँ न केवल कवि के आक्रोश को व्यक्त करती हैं बल्कि समाज में व्याप्त इस अमानवीयता को और अधिक तीव्रता से सामने रखती है। कविता की इन पंक्तियों में भाषा की आक्रामकता और व्यवस्था के प्रति तीखा व्यंग्य है। इन पंक्तियों को पढ़ने के बाद कोई भी सम्‍वेदनशील व्यक्ति बैचेन हुए और तिलमिलाए बिना नहीं रह सकता । न ही इस अन्याय के प्रति चुप बैठ सकता है । व्यवस्था के प्रति उसके मन में गुस्सा अवश्य पैदा होगा । अधिक न कर सके भले वह पर स्वयं तो कभी भी बच्चों के प्रति असम्‍वेदनशील नहीं हो सकता । बाल शोषण और विषमता भरे समाज के प्रति आँखें मूँदे नहीं रह सकता। एक अच्छी कविता से यह आशा भी की जाती है कि वह पाठक को वैसा नहीं रहने देती है जैसा वह उस कविता को पढ़ने से पूर्व था।

जिस समाज में इतनी विषमता और अभाव हैं, क्या वह समाज बनावटी समानता, किताबी जुमलों तथा सुभाषित वाक्यों से इस असमानता को ढक सकता है? कविता प्रकारांतर से यह प्रश्‍न भी खड़ा करती है। समाज में व्याप्त इस विषमता और अभावों को ढकने का प्रयास इस व्यवस्था द्वारा निरंतर किया जाता रहता है । गरीबी और असमानता को पूर्वजन्म के कर्मों, दैवीय कृपा या भाग्य के साथ जोड़ कर उन्हें भ्रमित किया जाता है । धर्म, शिक्षा एवं संचार के माध्यमों को इस कार्य में लगाया जाता है । बड़े-बड़े धर्म ग्रंथों में छपी सुंदर-सुंदर बातों, झूठी स्तुतियों, दीवारों पर सुलेख में लिखे सुभाषित वाक्यों से क्या इस असमानता को ढका जा सकता है? बिल्कुल नहीं। जमीनी वास्तविकता अधिक दिनों तक छुपी नहीं रह सकती है । देर-सबेर प्रतिरोध खड़ा होना निश्चित है।कवि की भी इस पर गहरी आस्था है। उसका यह विश्‍वास विल्कुल सही है कि-

वे पृथ्वी के बाशिंदे हैं करोड़ों

और उनके पास आवाजों का महासागर है

जो गुब्बारे की तरह

फोड़ सकता है किसी भी वक्‍त

अंधेरे के सबसे बड़े बोगदे को।

कवि देवताले के शिल्प के लिए कहा जाता है कि वह चौंकाने वाले काव्य शिल्प के जरिए कविता की बनावट और कविता की जमीन को अपने क्रोध से तोड़ते हैं, पर इस कविता का शिल्प चौंकाने वाला न होकर सहज संप्रेषणीय है, जिसमें विपरीत स्थितियों के संयोजन से एक संश्लिष्ट दृश्य उपस्थिति किया गया है। न भाषा की दुरूहता है और न ही अंतर्वस्तु की । वह संप्रेषणीय शिल्प में अपनी बात को रखते हैं । पाठक को उलझना या शब्दों के जाल में भटकना नहीं पड़ता है। शिल्प कवि के मंतव्य को सही-सही पाठक तक पहुँचाने में समर्थ है। साथ ही कवि कर्म की इमानदारी को व्यक्त करता है। कवि की दृष्टि में कहीं कोई उलझाव नहीं दिखाई देता । वह वर्गों में बँटी दुनिया को बिल्कुल साफ-साफ देखते हैं और करोड़ो-करोड़ उपेक्षित व उत्पीडि़त लोगों की ताकत को पहचानते हैं । कवि का दृढ़ विश्‍वास है कि यदि यह वर्ग संगठित और चेतनाशील हो जाय तो अंधेरे के सबसे बड़े बोगदे को तोड़ने में भी सक्षम है। ‘पर वे शायद जानते नहीं’ कहकर कवि उनमें राजनीतिक चेतना के अभाव की ओर भी संकेत कर देता है । इस तरह वह कह देते हैं कि आज जो करोड़ों-करोड़ बाशिंदे शोषण और उत्पीड़न के शिकार हैं उसके पीछे इनका अपनी ताकत को नहीं पहचानना और असंगठित होना है। यहाँ यह उस ओर भी ध्यान खींचते हैं कि थोड़े और बाकी के अंतर को समाप्त करने के लिए कहीं न कहीं शोषित-पीडि़त बहुसंख्यक जनता को राजनीतिक चेतना से लैस करने की आवश्यकता है। यह बात जितनी उस समय सत्य थी जब यह कविता लिखी गई उससे ज्यादा कहीं आज हैं । जातिवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद जैसी तमाम संकीर्णताओं में जकड़ी यह बहुसंख्यक जनता आज भी विभाजित है । फलस्वरूप आवाजों का यह महासागर उमड़ नहीं पा रहा है। उनको अपनी ताकत का अहसास कराने की जरूरत है। लेखकों व संस्कृतिकर्मियों का भी यह एक कार्यभार है।

यह कविता कवि के सामाजिक सरोकारों और काव्य सम्‍वेदना को परिलक्षित करती है । एक प्रतिबद्ध कवि की विशेषता होती है कि वह चीजों को द्वंद्वात्मक दृष्टि से देखता है । किसी धुंध या कुहासे से भ्रमित नहीं होता । उसे चीजें साफ-साफ दिखाई देती हैं । वह जितनी स्पष्टता से खुद देखता है उतनी स्पष्टता के साथ दूसरों को भी दिखाता है। उन्हें किसी तरह से भरमाने की कोशिश नहीं करता है । प्रस्तुत कविता में यह स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है । कवि वर्तमान में ही नहीं, अतीत के पन्नों में भी चीजों को देखता है । सामाजिक-आर्थिक असमानता केवल आज की ही बात नहीं है, बल्कि युगों-युगों से थोड़े और बाकी का यह अंतर बरकरार है । जिसे कवि कल की छीना-झपटी और भागमभाग के पैबंद इतिहास के रूप में देखता है।

उनकी स्मृतियों में फिलवक्त

चीख और रुदन

और गिड़गिड़ाहट की हिंसा है

उनकी आँखों में कल की छीना-झपटी

और भागमभाग का पैबंद इतिहास है।

इस कविता में शब्दों और मुहावरों का सटीक एवं संतुलित प्रयोग किया गया है। भविष्य बीन रहे हैं, टपरों के नसीब में उलझ गया है, बेतें उमच रही हैं, सुपस लेता, काले गणित के पैबंद, अंधेरे के बोगदे, गिड़गिड़ाहट की हिंसा, शब्द रहित भय, जख्मी आज, जैसे प्रयोग कवि की अद्भुत भाषायी सामर्थ्‍य को बताते हैं। इन शब्दों या मुहावरों की जगह अगर हम अन्य शब्दों का प्रयोग करें तो कविता की तासीर ही समाप्त हो जाएगी । कविता वह सब कुछ नहीं कह पाएगी जो कहना चाहती है। इन शब्दों को पाकर कविता जैसे बोलने लगती है । ये शब्द कविता को नया अर्थ-सौंदर्य प्रदान करते हैं। कथ्य के अनुकूल शब्दों का ऐसा सटीक चयन एक बड़ा कवि ही कर सकता है। ‘उमच’, ‘सुपस’आदि ऐसे शब्द हैं जिनमें क्रिया का पूरा बल दिखाई देता है। ये शब्द स्थिति की भयावहता को उसकी पराकाष्ठा में व्यक्त करते हैं । घटना को विजुअल बना देते हैं। भाव की जो गहराई कहने वाले के मन में है वही सुनने या पढ़ने वाले के मन में पैदा हो जाती है। इन शब्दों की खासियत यह है कि ये किसी शब्दकोश से लिये गये शब्द न होकर जन-भाषा से लिये गये हैं। कविता में जिस तरह के शब्द-चित्र या बिम्‍ब कवि द्वारा खींचे गये हैं, वे इस बात के प्रमाण भी हैं कि कवि ने गरीब वर्ग के बच्चों को कितनी करीब से देखा और उनकी क्रियाओं को नोट किया है । बिना देखे कोई यह नहीं कह सकता है कि उनके चेहरे मेमनों की तरह दयनीय हैं/और उनके हाथों और पाँवों की चमड़ी/हाथ और पाँव का साथ छोड़ रही है। इस तरह यह कविता जीवन को किताब से नापने वाली नहीं वरन जीवनानुभव से पैदा कविता है। कामकाजी बच्चों पर इसके बाद लिखी गई अनेक कविताओं में इस कविता का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। राजेश जोशी की कविता ‘बच्चे काम पर जा रहे हैं’ भी इससे अछूती नहीं लगती ।

कुल मिलाकर यह कविता हमारी सभ्यता एवं विकास की पोल खोलने वाली कविता है । यह केवल बच्चों की दुनिया की कविता नहीं, बल्कि हमारे पूरे समाज एवं समय को रचती कविता है । यह पूँजीवादी समाज की क्रूरता, त्रासदी व अमानवीयता को उघाड़ती है। इस कविता में देवताले अपना गहरा विक्षोभ, गहरी पीड़ा और गरीब बच्चों के साथ अपनी आत्मसंलग्नता व्यक्त करते हैं। साथ ही यह कविता पाठक को अपनी ओर से आगे बहुत कुछ रचने और जोड़ने का अवकाश देती है। कविता को पढ़कर सहज ही पाठक के मन में प्रश्‍न पैदा होते हैं- आखिर क्यों कुछ बच्चों के लिये ही आकर्षक स्कूल और प्रसन्न पोशाकें हैं ? क्यों कुछ के लिये ही रंग-बिरंगी किताबें, खेल-खिलौने, मैदान और बाग-बगीचे हैं ? क्यों ढेर सारी बच्चियाँ गोबर, लीद ढूँढते रहने के बाद अंधेरे में दुबक रही हैं ? क्यों लड़कियाँ नदी-तालाब-कुआँ घासलेट-माचिस-फंदा ढूँढ रही हैं? क्यों शांति और अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले समाज में असंख्य बच्चों के हिस्से में हिंसा ही हिंसा है ?