पूंजीवादी मलमल के नीचे छिपी गरीबी / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :15 मई 2015
एक दौर था जब मध्यम वर्ग के परिवार की महिलाएं बड़े बेटे के छोटे पड़ गए पुराने स्वेटर की ऊन इस सफाई से उधेड़ती थीं कि उसी ऊन से छोटे भाई के स्वेटर बुन सकें। उनके इस किफायती उधेड़ने और बुनने में ही मध्यम वर्ग की आर्थिक ताकत और आपसी प्रेम का पता चलता था। छोटा भाई सगर्व उस स्वेटर को पहनता था। भाइयों के बीच आपसी समझदारी होती थी और महिला की उधेड़कर बुनने वाली उंगलियों में प्रेम होता था। इसीलिए कैफी आजमी ने लिखा था 'बुन रहे हैं रव्वाब दम-ब-दम, वक्त ने किया क्या हंसी सितम।'
अनुराग कश्यप भी 'बॉम्बे वेलवेट' में मध्यांतर के बाद बुन रहे हैं परंतु उनकी उंगलियों में प्रेम नहीं हिंसा और नफरत है। इसी रूपक को इस तरह भी देखें कि 'दीवार' के अमिताभ बच्चन का स्वेटर उधेड़कर वे रणबीर कपूर के लिए बुन रहे हैं। रणबीर अमिताभ बच्चन से कम प्रतिभाशाली नहीं है परंतु अनुराग के पास सलीम-जावेद का लेखन और उनकी मां भी नहीं है। खास बात यह कि 'दीवार' जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के बाद के आक्रोश से सृजन करने वालों से अनचाहे जुड़ गई थी जबकि यह मोदी के प्रचार तंत्र का युग है और विपरीत परिस्तिथियों में अवाम को अच्छे दिनों का भ्रम अच्छा लगने लगा है। आज आक्रोश की लहर सतह के बहुत नीचे है।
बहरहाल, एक जटिल और दुरूह बुनाई वाली फिल्म का विवरण आप केवल एक वाक्य में सुनना चाहते हैं तो जैसे महान महाभारत विविध रिश्तों के माध्यम से स्वयं को समझने की कहानी है तो अनुराग कश्यप की 'बॉम्बे वेलवेट' आजादी के बाद से ही भारत में निर्मम पूंजीवाद के खूनी पंजों में दबाए गरीबों की कहानी है और आज पूंजीवाद के शिखर दिन हैं। अत: यह कहानी पांचवे व छठे दशक की पृष्ठभूमि पर रची गई है परंतु नई सदी के इस दशक में भी हालात वही हैं। अत: ज्ञान प्रकाश की कहानी समयातीत सत्य की कथा है परंतु अनुराग के सिनेमा में कभी बातें सरल नहीं होती और इस उलझाव को वे अपनी योग्यता मानते हैं। नामावली के प्रारंभ में ही वे पश्चिम के महान फिल्मकारों को कुछ यूं धन्यवाद दे रहे हैं जैसे वे उनके व्यक्तिगत मित्र हैं।
अत: वह धन्यवाद उनकी उसी तरह के काम करने की महत्वाकांक्षा का प्रतीक बन जाता है परंतु हर देश के फिल्मकार को अपने अवाम के लिए फिल्म बनाना होती है। बात कितनी महान है, से अधिक जरूरी यह है कि वह कितने अधिक लोगों तक पहुंची। सुना है कि अपने देशी वेलवेट का संपादन अनुराग से मार्टिन स्कॉरसेज़ी की संपादिका से कराया है। बहरहाल अनुराग कश्यप ने टाइटल में 'वेलवेट' शब्द का इस्तेमाल किया है। एक तरह से पूंजीवादी वेलवेट अर्थात मलमल के नीचे छुपी सामाजिक गंदगी की यह कथा है अत: टाइटल का व्यंग्य शेष फिल्म में विद्रुप बनकर उभरता है। ज्ञान प्रकाश का कमाल है कि उन्होंने नेहरू के समाजवादी काल खंड में किस तरह पूंजीवादी ताकतों ने भ्रष्ट व्यवस्था को जन्म देकर समाजवादी स्वप्न को भंग कर दिया,इसे प्रभावोत्पादक ढ़ंग से लिखा है। यह भी गौरतलब है कि अपराध जगत को भी लाभ-लोभ की ताकतों ने ही जन्म दिया है। उन्होंने युवा आक्रोश को अपने हितों के लिए खूब भुनाया है। यह ज्ञान प्रकाश का ही कमाल है कि भारत में महानगरों की संरचना में ही ऐसे दोष हैं कि उसकी अट्टालिकाओं के नीचे ही झोपड़पटि्टयां पनपाई जाती हैं। महानगर मैनहटन ऐसा नहीं है परंतु उसकी भोंड़ी नकल मुंबई बन गया है।
इस कड़वे यथार्थ को ज्ञानप्रकाश ने एक प्रेम कहानी के इर्दगिर्द बुना है। प्रेमी-प्रेमिका दोनों को भूख और दर्द ने बड़े जतन से पाला है, इन पात्रों की प्रेमकथा कुछ ऐसी कोंपल है, जो महानगर के पथरीले फुटपाथ पर दो पत्थरों के बाच जाने कैसा पनपती है और उसका कुचला जाना पनपने के पहले ही तय था। रणबीर कपूर ने हमेशा की तरह श्रेष्ठ अभिनय किया है और यह सुखद आश्चर्य कि करण जौहर ने प्रभावोत्पादक अभिनय किया है। ज्ञानप्रकाश की सोद्देश्य कथा पर अनुराग ने कमजोर पटकथा लिखी है और उन्होंने अपनी प्रेम-कथा तथा अपराध कथा के बारे में खुद ही गाना भी बनाया है कि 'धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का।' श्रेष्ट कथा और प्रतिभाशाली कलाकारों का अपव्यय हुआ है।