पूंजी (दि कैपीटल): संक्षिप्त विमर्श
‘पूंजी’ मार्क्स की सबसे बड़ी और महत्त्वाकांक्षी रचनाओं में से एक है. मार्क्स की यह पुस्तक उसके बीस वर्ष के गंभीर अध्ययन का सुफल थी. इसमें उसने अपने समय में प्रचलित दर्शन, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाज-विज्ञान पर गंभीर विश्लेषण प्रस्तुत किया था.उसने इस पुस्तक को 1846 में लिखना आरंभ किया था. इस बीच उसने कई पुस्तकों की रचना की. हजारों की संख्या में लेख और अखबारों के लिए टिप्पणियां लिखीं. इसके साथ-साथ वह ‘पूंजी’ के लेखन में भी लगा रहा. तथापि उसके पहले खंड का प्रथम प्रकाशन 1867 में ही संभव हो सका. पहले खंड को प्रेस में भेजते समय ही वह उसके दूसरे और तीसरे खंड के ड्राॅफ्ट भी तैयार कर चुका था. मगर पुस्तक को और अधिक तराशने, उपयोगी बनाने के लिए वह उनपर निरंतर कार्य करता रहा. इसलिए उनका प्रकाशन मार्क्स की मृत्यु के बाद क्रमशः 1885 और 1894 में ही संभव हो सका. फ्रैड्रिक ऐंगल्स ने उसका संपादन किया था. पुस्तक अपने प्रकाशन के साथ ही चर्चा में आ गई.पहला संस्करण देखते ही देखते बिक गया. मूल पुस्तक जर्मन भाषा में लिखी और प्रकाशित हुई थी. जर्मनी से बाहर पहली बार ‘पूंजी’ का पहला प्रकाशन 1872 में रूस में हुआ. पुस्तक का पहला संस्करण देखते ही देखते बिक गया. इससे मार्क्स की ख्याति एक सुविज्ञ अर्थशास्त्री और दार्शनिक के रूप में चातुर्दिक फैलती चली गई. इससे पहले उसकी छवि पूंजीवाद-विरोधी एक संघर्षशील और भावुक लेखक की थी. ‘पूंजी’ ने मार्क्स को इतिहास,दर्शन और अर्थशास्त्र के गंभीर अध्येता के रूप में स्थापित करने में मदद की. पुस्तक के माध्यम से मार्क्स का उद्देश्य पूंजीवादी व्यवस्था की उत्पादन प्रविधियों और श्रम-शोषण को सामने लाना था. उसके अनुसार पूंजीवाद को बढ़ावा देने वाली शक्तियां श्रमिकों के शोषण तथा उनकी उपेक्षा में छिपी रहती हैं. निश्चित ही इसके पीछे धर्म, रूढ़ियां और क्षेत्रीय मान्यताएं भी हैं जो श्रमिकों को अपनी स्थिति से उदासीन बनाती हैं.मुक्ति की खोज में वह अज्ञानता के अंधकूपों में भटकता रहता है. पूंजीपति का लाभ या अधिलाभ मूल रूप में श्रमिक की वह मजदूरी होती है, जिसको कारखाना मालिक अनैतिक रूप में अपने लिए बचाकर रख लेता है. ऐसा वह संसाधनों का मालिक होने के दावे के साथ करता है. उसके इस दावे को अक्सर सरकार का समर्थन भी प्राप्त होता है.श्रमिक अपने श्रम-कौशल के माध्यम से लगातार अपने मालिक की पूंजी में वृद्धि करता चला जाता है, इससे वह अनजाने ही पूंजीवाद को बढ़ावा देने का अनुचित और अनचाहा काम भी करता है. अपनी पुस्तक के माध्यम से मार्क्स की इच्छा वाणिज्य के सामाजिक पहलुओं पर विमर्श करने की थी. मगर उसमें पूंजी की इतने विशद् अर्थों में गवेषणा की गई कि इसके कारण ‘पूंजी’ को पूरी तरह से एक अर्थशास्त्रीय महाकाव्य की प्रतिष्ठा दी जा सकती है.पुस्तक में उसने पूंजीवादी समाज की संरचना के ऐतिहासिक संदर्भों को दर्शाते हुए वर्ग संघर्ष की अनिवार्यता को रेखांकित करने का काम भी किया था. अपने विषय और गंभीर निष्कर्षों के कारण पूंजी अपने प्रकाशन के साथ ही विद्वानों के बीच लोकप्रिय हो चुकी थी. इस पुस्तक ने पूरी दुनिया बुद्धिजीवियों दो वर्गों में बांट दिया था. एक ओर उसके समर्थक थे और दूसरी ओर उसके आलोचक. मगर मार्क्स की मेधा और उसकी विश्लेषण-सामथ्र्य का लोहा उसके आलोचकों ने भी माना था. आज भी उसके विचारों के आधार पर बुद्धिजीवियों में विभाजन साफ देखा जा सकता है. हालांकि भारत जैसे देशों में अधिकांश विद्धानों की नाराजगी मार्क्स की धर्म-संबंधी अवधारणाओं को लेकर है, जिनपर फायरबाख और बू्रनो बायर का प्रभाव था. मार्क्स ने अपनी भारी-भरकम पुस्तक ‘पूंजी’ के पहले खंड को आठ खंड और 33अध्यायों में विभाजित किया है. प्रत्येक अध्याय में पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के विशिष्ट पहलु के अध्ययन पर केंद्रित है. एक लेखक के रूप में वह जिस प्रकार गहराई में जाकर तथ्यों की पड़ताल करता है, वह उसकी विषय-संबंधी पैठ और अध्ययन की विविधता को दर्शाता है.
1. पहला अध्याय: उपभोक्ता सामग्री और धन ‘दि कैपीटल’ के प्रथम खंड के पहले तीन अध्यायों में मार्क्स ने उपभोक्ता सामग्री के मूल्य, विपणन, आदान-प्रदान, धन की उत्पत्ति आदि पर चर्चा की है. आरंभिक खंड से ही विषय की गंभीरता तथा उसके लेखक के गंभीर अध्ययन का अनुमान लगाया जा सकता है. मार्क्स ने स्वयं भी लिखा है कि—‘करीब-करीब सभी विज्ञानों में आरंभ की प्रक्रिया सदैव कठिन होती है…इस खंड में सम्मिलित उपभोक्ता सामग्री का विश्लेषण और उसकी प्रक्रिया काफी जटिल है.’ इसमें वह उन बिंदुओं को पारिभाषित और चिह्नित करता है,जिनपर आगे का चिंतन आधारित है. यदि पहले अध्याय को पूर्णतः आत्मसात कर लिया जाए तो शेष पुस्तक को समझना काफी आसान हो जाता है. वस्तुतः पहले ही अध्याय में ही उसने उपभोक्ता वस्तु, श्रम, मजदूरी आदि को लेकर ऐसी कई मौलिक स्थापनाएं की हैं, जिन्हें समझे बिना उसके अर्थदर्शन को समझ पाना असंभव-सा है. उपभोक्ता वस्तु के विश्लेषण से अध्याय की शुरुआत करते हुए वह लिखता है कि उपभोक्ता वस्तु— ‘हमसे स्वतंत्र कुछ ऐसी वस्तु है, जो हमारी इच्छा अथवा आवश्यकता को पूरा करती है.’ पुस्तक में वह यह नहीं बताता कि लोग किसी उपभोक्ता वस्तु को क्यों खरीदते या उसकी ओर आकर्षित होते हैं. इसको लेकर एक सामान्यबोध जो हम सबके दिमागों में होता है,मार्क्स उसे न तो छेड़ता है, न ही विस्तार देना चाहता है. वह सिर्फ इतना लिखता है कि उपभोक्ता सामग्री को खरीदना अपरिहार्य है; यानी कोई भी व्यक्ति उपभोक्ता वस्तु को इसलिए खरीदता है, क्योंकि उसके बिना उसको लगता है कि वह रह नहीं सकता. उसके अनुसार हर उपभोक्ता वस्तु अपने उपभोक्ता की आकांक्षा और उसकी आवश्यकता का हिस्सा होती है. वह लिखता है कि प्रत्येक उपभोक्ता वस्तु का एक पूर्वनिर्धारित मूल्य होता है, जो उसकी उपयोगिता को सुनिश्चित करता है. मार्क्स उसे ‘उपयोग-मूल्य’ की संज्ञा देता है. कोई वस्तु उपभोक्ता को आवश्यक लगती है, उसके उपभोग के पश्चात जो संतुष्टि उसको प्राप्त होती है, वही उसका उपयोग मूल्य है. उपयोग मूल्य मनोवैज्ञानिक तथ्य है. उसको मुद्रा के रूप में अभिव्यक्त कर पाना असंभव है. मार्क्स के अनुसार वस्तु का उपयोग मूल्य उसकी वह कीमत है, जो उसकी वास्तविक मूल्यवत्ता को दर्शाती है.यह बात अलग है कि मार्क्स लंबे विश्लेषण के बावजूद किसी वस्तु के वास्तविक ‘उपयोग मूल्य’ की गणना करने का कोई सूत्र हमें नहीं देता. बल्कि उसको हमारे सामने अनुमान लगाते रहने के लिए मुक्त छोड़ देता है. उपयोग मूल्य को दर्शाया कैसे जाए, उसके आकलन का आधार क्या हो, दो वस्तुओं के उपयोग मूल्य का स्तरीय यदि आवश्यक हो तो उसकी कसौटियां क्या हों, इस बारे में वह बस इतना सुझाता है कि वस्तु उपयोग में है, अतएव उसका ‘उपयोग मूल्य’ भी है. तत्पश्चात वह वस्तु के विनिमय मूल्य पर आता है. इसका विश्लेषण करते हुए वह लिखता है कि एक बार जब कोई वस्तु विनिमय के लिए प्रस्तुत की जाती है, तो वह अपने विनिमय मूल्य से उस प्रक्रिया को अंतिम रूप देने का कार्य करती है. वस्तु का विनिमय मूल्य वस्तुतः वह राशि है, जिसपर क्रेता और विक्रेता दोनों एकमत होते हैं, तथा उसका विनिमय संभव होता है. इस तरह वह वस्तु की मूल्यवत्ता को दो हिस्सों में बांट देना चाहता है. जिसके एक ओर वस्तु का उपयोग मूल्य है, जिसका संबंध उसके उपभोग द्वारा उपभोक्ता को मिली संतुष्टि से है. दूसरा विनिमय मूल्य जो उस संतुष्टि को प्राप्त करने के लिए मुद्रा अथवा अन्य वस्तुओं के साथ आदान-प्रदान के रूप में उपभोक्ता द्वारा खर्च किया जाता है. इसे स्पष्ट करने के लिए मार्क्स ने अनाज और लोहे के विनिमय का उदाहरण दिया था.उसने लिखा था कि लोहे और अनाज के उपयोग को लेकर कोई समानता नहीं है, फिर भी सामान्य व्यवहार में लोहे की एक खास मात्रा अनाज की खास मात्रा के साथ विनिमय की जाती है. इस उदाहरण द्वारा वह समझाना चाहता था कि हर वस्तु गुणात्मक दृष्टि से एक-दूसरे के समानांतर होती है. उसका किसी अन्य वस्तु की विशिष्ट मात्रा के साथ विनिमय संभव है. लेकिन किसी वस्तु को देखने-परीक्षण करने मात्र से उस वस्तु के विनिमय-मूल्य का निर्धारण कर पाना संभव नहीं है. इसलिए कि मूल्य कोई जड़ वस्तु नहीं है. किसी वस्तु का मूल्य व्यक्ति की अपनी आवश्यकता, बाजार में वस्तु की मांग पर निर्भर करता है. आवश्यकता की प्रखरता भी वस्तु के विनिमय मूल्य को प्रभावित करती है. विनिमय की जाने वाली वस्तुओं के मूल्य में परस्पर अंतर्संबद्धता होती है. अभिप्राय है कि किसी एक वस्तु के बिना दूसरी वस्तु का मूल्य-निर्धारण संभव नहीं है. अपने विश्लेषण द्वारा मार्क्स इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि किसी वस्तु का उपयोगिता-मूल्य केवल गुणवत्ता द्वारा और विनिमय मूल्य संख्या द्वारा बदला जा सकता है. मूल्य के सिद्धांत का विश्लेषण करते समय मार्क्स ने श्रम-अवधि की संकल्पना प्रस्तुत की थी. यह संकल्पना मौलिक न होकर रिकार्डो से प्रभावित थी. उसका कहना था कि किसी वस्तु का मूल्य उसके निर्माण में लगी श्रम-अवधि द्वारा निर्धारित होता है. मार्क्स की यह अवधारणा उस समय की है जब मशीनों का वैसा स्वचालीकरण नहीं हुआ था, जैसा बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में देखने को मिला. स्वचालित प्रौद्योगिकी ने उत्पादन में कार्मिक की भूमिका को और भी सीमित कर दिया था. लेकिन स्वचालीकरण पर आधारित अपेक्षाकृत प्रौद्योगिकी महंगी थी. इसलिए उत्पाद का मूल्य निर्धारित करते समय उसकी अपनी मूल्यवत्ता को नजरंदाज कर पाना असंभव है. हालांकि मार्क्स को इसका अंदेशा था. इसलिए उसके द्वारा उसके द्वारा वर्णित मूल्य में मशीनों और मानव-श्रम दोनों को सम्मिलित होना चाहिए. बहरहाल किसी वस्तु का श्रम-मूल्य उसकी उत्पादकता और अन्याय कारणों के अनुसार सतत परिवर्तनशील होता है. किसी वस्तु के मूल्य निर्धारण के लिए बाजार में उसकी मांग होना भी आवश्यक है. यदि कोई वस्तु बनती है और बाजार में उसकी खपत शून्य है तो इस परिभाषा के अनुसार उसे मूल्य-विहीन माना जाएगा. स्वाभाविक रूप से उस अवस्था में उसका श्रम-मूल्य भी शून्य ही होगा. मार्क्स यहां स्पष्ट करता है कि यदि कोई व्यक्ति सिर्फ अपनी आवश्यकता के अनुसार किसी वस्तु का उत्पादन करता है, तब उस वस्तु का ‘उपयोगिता-मूल्य’ तो होगा, क्योंकि उसका सुनिश्चित उपयोगिता-मूल्य है, तथापि वह वस्तु ‘उपभोक्ता सामग्री’ नहीं कही जाएगी. दूसरे शब्दों में किसी वस्तु का मूल्य-निर्धारण और उसका ‘उपभोक्ता सामग्री’ की श्रेणी में आना तभी संभव है, जब वह दूसरों की दृष्टि में भी मूल्यवान हो. उसके उत्पादक और उपभोक्ता अलग-अलग हों. उपभोक्ता-बाजार में उसकी मांग हो. उसी अवस्था में उसके विनिमय मूल्य का निर्धारण संभव है. मार्क्स के अनुसार उपभोक्ता-सामग्री की संकल्पना पूंजीवादी समाज की नींव है. वह ऐसी वस्तु है, जिसका उत्पादन, आवश्यकता पूर्ति से अधिक लाभ की वांछा के साथ, दूसरों को केंद्र में रखकर किया जाता है. मगर उसका व्यावसायिक लाभ केवल उसके उत्पादक को प्राप्त होता है. उत्पादक बाजार में वस्तु की मांग को ध्यान में रखकर उत्पादन करता है और जब कोई वस्तु बाजार में आती है, यानी उसका उपभोक्ता-वर्ग होता है, तब उसका उत्पादक वस्तु का मूल्य-निर्धारण केवल अपने लाभ को ध्यान में रखकर करता है. उसके सामने किसी प्रकार की कानूनी अथवा नैतिक बाध्यता नहीं होती. पूंजीवादी व्यवस्था में लाभ को नैतिकता की सीमाओं से बाहर माना जाता है. समाज व्यावसायिक लेन-देन को सहज रूप से स्वीकार लेता है. औद्योगिक समाजों में जैसे-जैसे पूंजीवाद की पकड़ बढ़ती है, वस्तुओं के उपयोगिता मूल्य को नैतिकता के दायरे से एकदम बाहर कर दिया जाता है. यह कार्य कभी विकास तो कभी प्रतिष्ठा के नाम पर लगातार होता रहता है. ऐसे में बगैर यह जाने कि किसी वस्तु का कोई उपयोगिता-मूल्य है अथवा नहीं, उपभोक्ता सामग्री का उत्पादन सिर्फ पूंजीवादी नजरिये से उत्पादक के लाभ को ध्यान में रखकर किया जाता है. पूंजीवादी प्रलोभनों के चलते उपभोक्ता अनेकानेक ऐसे उत्पादों को अपनाता चला जाता है, जो उसके जीवन के लिए लगभग अनावश्यक होता है. ऐसा कभी प्रतिष्ठा तो कभी आधुनिक सुख-सुविधा के नाम पर किया जाता है. प्रायः जिसको राजनीतिक अर्थव्यवस्था कहा जाता है, जिसके बारे में सामान्यतः यह माना जाता था कि वह समाज के आर्थिक संसाधनों के व्यापक लोकहित में नियोजन की न्यायिक व्यवस्था है, व्यवहार में उसकी समस्त कार्यप्रणालियां धन के वितरण यानी कर-संग्रह तथा ‘राजनीतिक हिसाब-किताब’ तक सिमटकर रह जाती है. ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या करते हुए मार्क्स ने कहा था कि किसी समाज का आर्थिकीकरण उसके इतिहास का स्वाभाविक हिस्सा होता है. उसपर नियंत्रण रख पाना आसान नहीं होता. बल्कि किसी समाज की उत्पादन प्रविधियां ही उसके अंतःसंबंधों एवं उसके बाह्यः स्वरूप को निर्धारित करती है. व्यक्ति-विशेष के लिए तो यह संभव ही नहीं होता कि वह समाज की आर्थिक चाल को नियंत्रित कर सके. आर्थिक विकास का यह दौर अपने साथ तरह-तरह की जटिलताएं लाता है, जिसको सामान्यतः विकास की संज्ञा दी जाती है, वह वास्तव में समाज के स्तर तथा उसमें उपभोक्ता-वस्तुओं की खपत, दूसरे शब्दों में उपभोक्ता-सामग्री के उत्पादन एवं पूंजी के बहुआयामी फैलाव को दर्शाता है. इस प्रकार आर्थिक आधार पर गठित समाज की समस्त गतिविधियां विभिन्न पूंजीवादी संस्थानों की असीमित उत्पादन क्षमता तथा उनके अंदरूनी संबंधों तक सीमित होकर रह जाती हैं, ताकि वे अपने वर्गीय हितों के अनुकूल,सामूहिक रूप से अधिक से अधिक लार्भाजन कर सकें. हालांकि पूंजीवादी उद्यमियों के बीच ऊपरी स्तर पर स्पर्धा नजर आती है. उपभोक्ताओं के बीच बराबर यह भ्रम बनाए रखा जाता है, कि स्पर्धा के कारण वस्तुएं सस्ती हो रही हैं. मगर होता इसका उल्टा है.स्पर्धा में बने रहने के लिए उपभोक्ता वस्तु के मूल्यों में गिरावट, श्रम-वृत्तिका में गिरावट के आधार पर तय होती है. जिसका नुकसान अंततः उपभोक्ता को ही उठाना पड़ता है.मार्क्स का मानना था कि राजनीतिक अर्थशास्त्र के अंतर्गत पूंजीवाद की व्याख्या वैज्ञानिक नियमों के अनुरूप, मगर निरपेक्ष भाव से की जा सकती है. मार्क्स को वर्गसंघर्ष के सिद्धांत का जन्मदाता माना जाता है. और वह है भी. लेकिन अपने महाग्रंथ ‘पूंजी’ में उसने अपने लेखन को वर्ग-संघर्ष के बजाय पूंजीवादी समाज के संरचनात्मक विरोधाभासों के विश्लेषण पर अधिक केंद्रित किया है. ‘दि कैपीटल’ के प्रकाशन से बीस वर्ष पहले ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ में ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या और फिर सर्वहारा वर्ग से संगठित होकर वर्ग-संघर्ष का आवाह्न करने वाला मार्क्स, ‘पूंजी’ में विशुद्ध अर्थविज्ञानी की तरह व्यवहार करता है. वह मजदूरों को क्रांति के लिए ललकारने के बजाय, उन कारणों और विसंगतियों पर अपना ध्यान केंद्रित करता करता है, जो पूंजीवादी समाज की स्वाभाविक परिणतियां हैं और इस कारण उनमें क्रांति की प्रेरणा स्वयं अंतनिर्हित है. मार्क्स के अनुसार वे विसंगतियां अथवा संकट ‘उपभोक्ता वस्तु’ के परस्पर विरोधाभासी चरित्र में छिपे होते हैं, जो पूंजीवादी समाज का सबसे लोकप्रिय माध्यम है. स्मरणीय है कि मार्क्स ‘पूंजी’ में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की आलोचना तो करता है, मगर वह उसको विकास की अनिवार्य परिणति के रूप में स्वीकार भी करता है. पूंजीवाद की काट एवं पूंजीवाद में निहित है. साम्यवाद का कमल पूंजीवाद के पंक से ही खिलता है, ऐसा वह अपने विश्लेषण के दौरान बार-बार कहता है. मार्क्स के अनुसार पूंजीवादी समाज में प्रौद्योगिकीय सुधार और तदनुसार उत्पादकता में वृद्धि से उसके कुल धन में परिमाणात्मक वृद्धि अथवा उपयोग-मूल्य में तो वृद्धि होती है.मगर, उसके साथ धन का वास्तविक मूल्य जिसे उसका क्रय-सामथ्र्य भी कहा जाता है,निरंतर हृासमान रहता है. परिणामस्वरूप उत्पादकों के लाभानुपात में गिरावट आने लगती है. यह स्थिति पूंजीवादी समाज को शनैः-शनैः उसके अनिवार्य संकट, जो उसकी स्वाभाविक नियति है, की ओर ले जाता है. यह संकट ‘अतिशय समृद्धि के मध्य भीषण गरीबी’ के रूप में पूंजीवादी व्यवस्था की अनिवार्य दुरवस्था के रूप में सामने आता है.इसके परिणामस्वरूप पूरा समाज दो वर्गों में बंट जाता है. उनमें से एक वर्ग अतिशय भोग एवं विलासिता का शिकार होता चला जाता है, जबकि दूसरे वर्ग को जीवन की न्यूनतम वस्तुओं का भी अभाव झेलना पड़ता है. मार्क्स की सलाह थी कि राजनीतिक अर्थशास्त्रियों को पूंजीवाद का अध्ययन निरपेक्ष भाव से करना चाहिए, तभी उसकी बुराइयों का सर्वमान्य हल खोजा जा सकता है. इसी खंड के दूसरे भाग में मार्क्स ‘उपभोक्ता सामग्री’ के निर्माण कार्य में लगे श्रम के दुहरे चरित्र का विश्लेषण करता है. श्रम और मूल्य के बीच अंतःसंबद्धता को दर्शाते हुए वह आगे लिखता है कि यदि किसी वस्तु के निर्माण में काम आने वाली श्रम-शक्ति की संख्या में फेरबदल हो तो वस्तु के मूल्य में भी समानुपातिक परिवर्तन होता है. अपने सिद्धांत की व्याख्या करते हुए वह लिनेन और सामान्य कपड़े का उदाहरण देता है. लिनेन के उत्पादन में चूंकि अधिक श्रम-शक्ति की खपत होती है, इसलिए बाजार में उसका मूल्य साधारण कपड़े की अपेक्षा लगभग दोगुना होता है. किसी वस्तु का बाजार-मूल्य उसके उपयोग-मूल्य से भिन्न होता है. बाजार-मूल्य वास्तव में वह राशि है, जिसके आधार पर किसी वस्तु की विपणन-दर निर्धारित की जाती है. जबकि वस्तु का उपयोग-मूल्य उसके उत्पादन में लगने वाला उपयोगी श्रम है. दोनों के मूल्यांकन का आधार वस्तुतः उनके उत्पादन में काम आने वाली श्रमशक्ति है. सीधे तौर पर देखा जाए तो साधारण धागे से बुने कपड़े और लिनेन का उपयोग-मूल्य बराबर है. इसलिए कि दोनों को पहनने के काम आना है. दोनों ही तन ढकने का माध्यम हैं, फिर भी उनका बाजार-मूल्य अलग-अलग है, जिसका निर्धारण उनमें लगने वाली भिन्न-भिन्न श्रमशक्ति के आधार पर किया जाता है. उपयोग मूल्य एकसमान होने के बावजूद बढ़े हुए बाजार-मूल्य को उपभोक्ता की प्रतिष्ठा से जोड़कर उत्पाद के पक्ष में माहौल बनाया जाता है. समाज में उपयोग-मूल्य की अपेक्षा बाजार-मूल्य का बढ़ता चलन वहां पूंजीवाद की बढ़ती जकड़बंदी की ओर संकेत करता है,जिसके चलते उपभोक्ता के चयन के मौलिक अधिकार को प्रभावित करने की चेष्ठा की जाती है. इस चेष्ठा को पूंजीवादी शक्तियां व्यावसायिक कूटनीति की संज्ञा देती हैं. अगले चरण में मार्क्स विपणन मूल्य की अवधारणा को स्पष्ट करता है. उसके अनुसार बाजार में उपभोक्ता वस्तुएं प्रायः दो रूपों में सामने आती हैं. पहला—प्राकृतिक स्वरूप तथा दूसरा है, मूल्य स्वरूप. हम किसी वस्तु के बाजार मूल्य का आकलन उस समय तक करने में असमर्थ रहते हैं, जब तक कि उसके निर्माण-कार्य में लगी श्रम-शक्ति का अनुमान हमें न हो. और जैसा कि पहले भी कहा गया है, किसी चीज का ‘उपभोक्ता वस्तु’ होना बाजार में उसके उपभोक्ता की उपस्थिति को अवश्यंभावी बनाता है. यह दर्शाता है कि बाजार में उसकी मांग है. जैसे ही सामाजिक स्तर पर किसी वस्तु का बाजार मूल्य तय हो जाता है, उनका विपणन भी स्वाभाविक रूप से विस्तार लेता जाता है. वस्तुओं के बीच मूल्याधारित संबंध भी होता है, जिसके आधार पर विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का विनिमय संभव होता है. मार्क्स इसे एकदम सरल उदाहरण के माध्यम से समझाता है. उसके अनुसार— मान लीजिए कि बीस गज लिनेन का मूल्य एक सिले-सिलाए कोट के बराबर है. इसका आशय यह होगा कि बीस गज लिनेन-के उत्पादन में लगा श्रम-मूल्य, एक कोट के निर्माण में लगे श्रम-मूल्य, जिसको उसका बाजार मूल्य भी कहा जा सकता है, के बराबर है. मार्क्स इसको एक समीकरण के रूप में व्यक्त करता है. उसके अनुसार— बीस गज लिनेन बराबर = एक कोट. चूंकि एक कोट = बीस गज लिनेन अतएव बीस गज लिनेन के बराबर = बीस गज लिनेन. लिनेन यद्यपि रोजमर्रा के काम आने वाली वस्तु है, तथापि हम उसका उपभोक्ता मूल्य उस समय तक तय कर पाना संभव नहीं है, जब तक कि उसका किसी अन्य वस्तु के साथ विपणन संबंध न हो. मार्क्स के अनुसार किसी वस्तु के मूल्य का निर्धारण उस वस्तु में अंतनिर्हित मूल्य की ओर इशारा कर देता है. किसी वस्तु का उपभोक्ता मूल्य प्रदर्शन की जा रही वस्तु पर दर्शाए गए मूल्य के समतुल्य होता है. हालांकि वस्तु पर दर्शाया गया मूल्य उसके उत्पादक द्वारा तय किया जाता है. यह एक विडंबनाजन्य स्थिति है. इसलिए कि किसान जो अनाज उपजाता है, उसको अपना दाम तय करने का अधिकार सरकारें प्रायः नहीं देतीं, इसलिए कि उसके पीछे पूंजी की ताकत का अभाव है. किसान अनाज का उत्पादन उसको अपनी आवश्यकता मानकर करता है. वह बाजार की भी आवश्यकता है, पूंजीवादी सरकारें और कभी-कभी संस्कार भी, उसे इसका बोध ही नहीं होने देते. किसान का अपनी भूमि के प्रति लगाव होता है. भारत जैसे देशों में तो कृष्ठ-भूमि को जननी के तुल्य मानने की परंपरा रही है. अब मां के ‘उपहार’ बाजार में व्यावसायिक लाभ के लिए कैसे उतारा जाए, किसान के आगे यह भी एक समस्या होती है, जिसके चलते वह अपनी उपज को ‘पूंजीगत उत्पाद’ स्वीकारने से झिझकता है, और उनके बदले वही मूल्य स्वीकार कर लेता है, जो पूंजीवादी तंत्र द्वारा निहित स्वार्थों के लिए मनमाने ढंग से तय किए जाते हैं. कमोवेश यही श्रम की स्थिति है. मजदूर अपने श्रम का उत्पादक भले न हो, मगर वही उसकी एकमात्र पूंजी होती है. लेकिन श्रमिक अपना श्रम मात्र इसलिए बेचता है, ताकि उसके माध्यम से वह अपनी सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके. पूंजीवादी तंत्र और उससे प्रभावित सरकारें किसान और श्रमिक में से किसी को भी उत्पाद-मूल्य निर्धारित करने की आजादी नहीं देतीं. उल्टे उन्हें बाजार के भरोसे छोड़ दिया जाता है,जहां उनके श्रम, कौशल एवं संसाधनों का भरपूर शोषण किया जाता है. येन-केन-प्रकारेण इस शोषण को धर्मसत्ता एवं राजसत्ता का समर्थन भी प्राप्त होता है. आशय यह है कि धर्मसत्ता, राजसत्ता और अर्थसत्ता तीनों ही श्रम के शोषण को एकजुट हो जाती हैं.पूंजीवादी व्यवस्था में श्रमिक से प्रतिरोध के सभी अवसर या तो छीन लिए जाते हैं,अथवा वे इतने मजबूत हो जाते हैं कि आर्थिक विपन्नता का मारा हुआ श्रमिक उनके विरोध की स्थिति में ही नहीं होता. पुस्तक के इसी खंड में मार्क्स ने उपभोक्ता साम्रगी के उपयोग-मूल्य से इतर उसकी चलायमान प्रकृति का भी विश्लेषण किया है. वस्तुओं के मूल्य निर्धारण के लिए मुद्रा का उपयोग आजकल आम बात है. उससे पहले सहज विनिमय प्रणाली थी. जिसमें वस्तुओं का आदान-प्रदान जरूरत के अनुसार, उनके सामाजिक मूल्य को आधार बनाकर किया जाता था. मार्क्स के अनुसार सामाजिक मूल्य अथवा साधारण विनिमय प्रणाली के स्थान पर मुद्रा-आधारित विनिमय प्रणाली का चलन पूंजीवादी व्यवस्था का मुख्य लक्षण है.मुद्रा के उपयोग से विनिमय व्यावसायिक कूटनीति या लाभ का उद्यम मात्र बन जाता है.परिणामस्वरूप वस्तु का सामाजिक मूल्य गौण हो जाता है. वस्तुओं के मूल्यांकन में उनकी सामाजिक मूल्यवत्ता को गौण करने के लिए पूंजीवादी तंत्र राजनीति की भी मदद लेता है. उसके समर्थन पर पलने वाले अर्थशास्त्री उपभोक्ता सामग्री का मूल्यांकन करते समय उसके सामाजिक मूल्य, जो किसी वस्तु की मूल्यवत्ता का वास्तविक आधार है, की उपेक्षा कर देते हैं. उसने इस प्रवृत्ति को अवैज्ञानिक मानते हुए ‘अंधभक्ति’ या ‘बौद्धिक रूढ़िवाद’ की संज्ञा दी है. मार्क्स के अनुसार बौद्धिक रूढ़िवाद वास्तव में वह प्रक्रिया है जिसमें किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचते-पहुंचते अंततः यह भुला दिया जाता है कि उस विचार की व्युत्पत्ति समाज से हुई है, और तदनुसार उसके कुछ सामाजिक सरोकार भी हैं. इसका परिणाम यह होता है कि समाज विचार के मूलस्रोत, यानी वे तथ्य जो उस विचार का प्रेरणास्रोत रहे हैं, की उपेक्षा कर जाता है. नतीजा यह होता है कि व्यक्ति विचार को सहज-प्राकृतिक अथवा ईश्वरीय मानकर उसकी पूजा करने लगता है, जिससे समाज का वह वर्ग जो उस विचार से लाभान्वित हो सकता है, लगातार उपेक्षित और तिरष्कृत होता जाता है. इससे एक विचार जो उपयोगी एवं परिवर्तन का वाहक हो सकता है, रूढ़ि में ढलकर अपनी प्रखरता खो बैठता है. मार्क्स ने बौद्धिक रूढ़िवाद अथवा जड़भक्ति की तुलना उस धार्मिक विश्वास से की है,जिसके अनुसार जीवन में व्यावहारिक रूप से असफल रहे लोग अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए एक अतींद्रिय शक्ति की परिकल्पना करने लगते हैं, मगर मानव-मस्तिष्क के ये उत्पाद यानी अतींद्रिय शक्तियां कालांतर में उनके अपने जीवन से परे, बल्कि पूरे मानव-समाज में एक स्वतंत्र सत्ता का रूप ले लेते हैं. जो काल्पनिक और मायावी होने के बावजूद यथार्थ से अधिक भरोसेमंद जान पड़ती हंै. मार्क्स के अनुसार उपभोक्ता सामग्रियां विनिमय के माध्यम से एक जीवन से दूसरे जीवन में प्रवेश करती जाती हैं.बाजार में आने से पहले वे उपभोक्ता-वस्तु न होकर मात्र उपयोगी वस्तु होती हैं; यानी उनके अपने बाजार का अभाव होता है. उसके विचार में ऐसा कोई रास्ता नहीं है जिससे किसी वस्तु की उपयोगिता को जांचा जा सके. उसके आकलन के लिए मात्र कुछ लक्षण होते हैं. मार्क्स के अनुसार पूंजीवादी व्यवस्था में बौद्धिक जड़वाद की स्थिति उस समय उत्पन्न होती है, जब सामाजिक आधार पर बंटे श्रमिकों को केंद्रीय सत्ता के द्वारा नियंत्रित किया जाता है, इस बीच उनके उत्पादन के संसाधन लगातार घटते चले जाते हैं. वस्तुओं के विपणन पर कोई नियंत्रण न होने पर वे यह कभी नहीं जान पाते कि उस वस्तु के उत्पादन की वास्तविक श्रम-लागत कितनी है. उस समय उनके श्रम का मूल्यांकन पुराने आंकड़ों के आधार पर कर लिया जाता है. इस प्रक्रिया का सीधा लाभ उत्पादक को होता है, जबकि मजदूरी की दरें पुराने स्तर पर बने रहने के कारण मजदूर न केवल विकास के अवसरों से वंचित रह जाता है, बल्कि निरंतर कम होती आय के कारण वह अपनी सामान्य जरूरतों को पूरा करने में भी असमर्थ रहता है. परिणामस्वरूप पूंजी का खिंचाव,केंद्र सरकार की ओर बना ही रहता है. इस प्रक्रिया में श्रमिक सदैव छला जाता है.
2. मुद्रा अथवा उपभोक्ता वस्तुओं का प्रचलन पुस्तक के अगले और महत्त्वपूर्ण अध्याय में मार्क्स मुद्रा एवं उपभोक्ता वस्तुओं के प्रचलन तथा बाजार में उनकी गतिशीलता पर विचार करता है. मुद्रा के विभिन्न रूपों की वस्तुनिष्ठ समीक्षा करते हुए वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि उसका प्रमुख कार्य उपभोक्ता वस्तुओं को उनके निर्माण में काम आई श्रम-लागत के आधार पर अपने मूल्य को अभिव्यक्त करने की क्षमता प्रदान करना है. लेकिन वह अपने उद्देश्य में सदैव सफल हो यह आवश्यक नहीं है. उसके आधार पर किसी वस्तु की श्रम-लागत अथवा मूल्य के बारे में किया गया आकलन सच से परे, काल्पनिक अथवा यथार्थ से छतीस का आंकड़ा रखने वाला हो सकता है. इसका कारण यह है कि पूंजीवादी समाज में मुद्रा के मूल्य का निर्धारण समाज अथवा सरकार द्वारा किया जाता है. जबकि श्रम-मूल्य वस्तु-विशेष के उत्पादन में लगी श्रम-लागत का प्रदर्शन करता है. वह श्रम की यथार्थ स्थिति को दर्शाता है. यही कारण है कि आरोपित मूल्य युक्त मुद्रा, उपभोक्ता वस्तु का वास्तविक मूल्यांकन करने में असमर्थ रहती है. किसी वस्तु द्वारा मूल्य के आकलन तथा उसके मानक-स्तर को बनाए रखने के लिए मुद्रा प्रायः दो दायित्वों का वहन करती है. पहला मूल्य का आकलन करते समय मानवीय श्रम का सामाजिक उदात्तीकरण करना. दूसरा किसी वस्तु के मानक मूल्य का अंकन उनके निर्माण में प्रयुक्त, धातु-विशेष की निश्चित मात्रा के बारे करना. यह कहीं भी किसी भी प्रकरण में हो सकता है, जहां वस्तु का मूल्यांकन किसी अन्य वस्तु में लगी श्रम-लागत के आधार पर पूरी ईमानदारी के साथ किया जाए. किंतु धातु-मुद्रा के रूप में किया गया आकलन प्रायः वास्तविकता से परे और काल्पनिक होता है, इसलिए कि इस प्रक्रिया के दौरान अक्सर वस्तु के सामाजिक मूल्यों की उपेक्षा की जाती है. यदि किन्हीं दो वस्तुओं के उत्पादन में खपी श्रम-लागत एक समान है तो, उस अवस्था में, आकलन की विश्वसनीयता बनाए रखना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण होता है. मार्क्स का मानना था कि धातु-मुद्रा, चूंकि मानव का उत्पाद है, अतएव वह केवल वस्तु-विशेष के मूल्य का आकलन करने में सक्षम होती है, पुस्तक के अगले के पृष्ठों में मार्क्स ने सुनिश्चित मूल्य-युक्त उपभोक्ता सामग्री को सम्मिलित किया है. वहां अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए वह गणितीय विश्लेषण का सहारा लेता है. वह उदाहरण देता है, मान लीजिए कि — किसी उपभोक्ता क के ‘क’ का मूल्य = स स्वर्ण भार इसी प्रकार ख वस्तु के ‘ख’ का मूल्य = द स्वर्ण भार एवं ग वस्तु के ‘ग’ का मूल्य = र स्वर्ण भार यहां ‘क’, ‘ख’, ‘ग’ क्रमशः वस्तु क, ख और ग के सुनिश्चित द्रव्यमान की ओर तथा स,द, र उस वस्तु के सापेक्ष निश्चित स्वर्ण-द्रव्यमान की ओर संकेत करते हैं. वस्तुओं में विविधता के बावजूद वे एक विशिष्ट स्तर की मूल्यवत्ता रखती हैं. यह मूल्यवत्ता उनके और स्वर्ण की निश्चित मात्रा की ओर संकेत करती है, इसलिए मान लिया जाता है कि वस्तु विपणन-योग्य है. यह गुण किसी वस्तु को उपभोक्ता साम्रगी बनाने के लिए अनिवार्य है.
3. मूल्य बाजार में यदि किसी वस्तु की मांग है, पूंजी के आधार पर उसका विपणन संभव है सामान्यतः यही मान लिया जाता है कि वह एक उपभोक्ता वस्तु है. इस मान्यता के अनुसार प्रत्येक उपभोक्ता वस्तु अपना खास मूल्य रखती है. यह बाजार में उसकी मांग के अनुरूप परिवर्तनशील होता है. नियमानुसार उपभोक्ता-मूल्य, वस्तु-विशेष के निर्माण में लगी श्रम-लागत को दर्शाता है. इसका आकलन सामान्यतः उस वस्तु के उत्पादन में लगे श्रम तथा अन्य वस्तुओं की श्रम-लागत के आधार पर लिया जाता है, ताकि उनके बीच अंतपर्रिवर्तनीयता बनी रहे. किसी वस्तु का मूल्य उसकी अंतपर्रिवर्तनीयता की जरूरत और बाजार में उसकी संभाव्यता का प्रतीक होता है. उपभोक्ता वस्तु का अंतपर्रिवर्तनीय होना अनिवार्य है. इससे बाजार में उस वस्तु के स्तर एवं अन्य वस्तुओं के सापेक्ष संबंधों का निर्धारण होता है. सोना बाजार-मूल्य के हिसाब से आदर्श है. इसलिए कि न केवल उसकी बाजार में मांग होती है, बल्कि उसका मूल्य भी लगभग स्थापित होता है. यही कारण है कि सोने का उपयोग बाजार की आदर्श उपभोक्ता वस्तु की भांति किया जाता है, जिसके आधार पर किसी भी अन्य उपभोक्ता वस्तु का विपणन संभव है. इसलिए कि लगभग सभी समाजों में सोने का एक स्थापित मूल्य होता है. विपणन के लिए आदर्श धातु होने के बावजूद सामान्य प्रचलन में उसका उपयोग कम ही होता है. इसका कारण यह है कि सोने के आधार पर वस्तुओं का आदान-प्रदान हमेशा सहज नहीं होता. मार्क्स ने उपभोक्ता वस्तुओं के विपणन के दौरान उनकी निरंतर परिवर्तशील स्थिति की ओर भी संकेत किया है. बाजार में वस्तुओं का मूल्य और उनकी आमद उनकी मांग के अनुरूप सतत परिवर्तनशील होती है. मार्क्स का मानना था कि वस्तु का ‘मूल्य’ उसके विक्रेता से संबद्ध होता है, जिससे उसके अधिलाभ की मात्रा तय होती है. क्रेता के लिए वस्तु का उपयोग मूल्य काम का होता है. वह वस्तु की खरीद के लिए तभी प्रेरित होता है, जब किसी वस्तु का उपयोग मूल्य उसके लिए उस वस्तु के बाजार-मूल्य से अधिक अथवा बराबर हो. उपभोक्ता सामग्री को बाजार में टिके रहने के लिए आवश्यक है कि ‘मूल्य’ के अलावा उसका ‘उपयोग मूल्य’ भी हो. इस प्रक्रिया को उसने सामाजिक खपत(सोशल मेटाबोलिज्म) कहा है. ‘सोशल मेटाबोलिज्म’ से मार्क्स का अभिप्राय उस प्रक्रिया से है जिसमें कोई वस्तु— ‘उपयोग-मूल्य रहित हाथों (विक्रेता) से उन हाथों(उपभोक्ता) तक अंतरित होती है, जहां उसका उसका उपयोग-मूल्य हो.’ अंतरण की यह प्रक्रिया तभी संभव है जब विपणन के समय क्रेता के लिए उपभोक्ता वस्तु का उपयोग-मूल्य उसके ‘मुद्रा मूल्य’ से अधिक हो. यदि ऐसा नहीं है तो वह वस्तु की खरीद से किनारा करने लगेगा. परिणामस्वरूप कालांतर में वह वस्तु बाजार से गायब हो जाएगी. विपणन के दौरान विक्रय के लिए प्रस्तुत उपभोक्ता वस्तु तथा मुद्रा के बीच अघोषित स्पर्धा होती है, जिसमें उपभोक्ता वस्तु की स्थिति मुद्रा के समक्ष सदैव हीनतर होती है. मार्क्स के अनुसार उपभोक्ता वस्तु तथा बाजारू मुद्रा एक-दूसरे की प्रतिद्विंद्वी और अलग-अलग अस्तित्ववान होती हैं. विपणन की प्रक्रिया सोना अथवा मुद्रा के ‘अंतरण मूल्य’ एवं उपभोक्ता सामग्री के ‘उपयोग मूल्य’ की उपस्थिति में भी संभव हो पाती है.उपभोक्ता वस्तु के अंतरण मूल्य के कारण विक्रेता अथवा उसका स्वामी उसके विपणन द्वारा प्राप्त मुद्रा अथवा स्वर्ण-धातु का उपयोग, अपनी जरूरत की अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की खरीद के लिए कर पाता है. अपने सर्वव्यापी अंतरण मूल्य के कारण मुद्रा की भूमिका बाजार में अधिक महत्त्व रखती है. इसका परिणाम यह होता है कि उत्पादक उपभोक्ता वस्तुओं के ‘उपयोगिता मूल्य’ से अधिक ध्यान उसके ‘बाजार मूल्य’ की ओर देने लगता है. इन दोनों के बीच की रस्साकशी में वस्तु का बाजार मूल्य तो वही रहता है, मगर उसकी गुणवत्ता में लगातार गिरावट आने लगती है, परिणामस्वरूप उसका वास्तविक उपयोगिता मूल्य भी गिरने लगता है. बाजार में मुद्रा के प्रचलन की शुरुआत किसी उपभोक्ता वस्तु की मुद्रा-आधारित अदला-बदली द्वारा होती है. हालांकि हर मुद्रा पूंजी का रूप ले, यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है. खरीद-फरोख्त की प्रक्रिया में उपभोक्ता वस्तु का अंतनिर्हित मूल्य,आर्थिक मूल्य का रूप ले लेता है. परिणामस्वरूप वह उपभोक्ता सामग्री प्रचलन से बाहर आकर उपभोग में ढल जाती है. उपभोक्ता सामग्री का बाजार से बाह्यागमन स्थायी भी हो सकता है और अस्थायी भी. अस्थायी बाह्यागमन की अवस्था में उस वस्तु का अंतरण आर्थिक मुद्रा में और प्राप्त आर्थिक मुद्रा का उपयोग पुनः किसी नवीन उपभोक्ता-सामग्री की खरीद के लिए किया जा सकता है; यानी वस्तु का क्रेता अधिलाभ-कामना अथवा किसी अन्य वस्तु से विनिमय के लिए, जिसका उसके लिए उपयोगिता-मूल्य पहले खरीदी गई वस्तु के उपयोगिता-मूल्य की अपेक्षा ज्यादा है, बाजार में उतार सकता है. स्पष्ट है कि बाजार में धन/मुद्रा की उपस्थिति उपभोक्ता वस्तुओं के प्रचलन को न केवल संभव बल्कि सरल-सुगम भी बनाती है. मुद्रा की सर्वस्वीकार्यता के बावजूद यह भी तथ्यगत है कि बाजार में प्रत्येक मुद्रा का स्वतंत्र मूल्य होता है, जो संबंधित देश की आर्थिक हैसियत और बाजार में उस मुद्रा की मौजूदगी के स्तर से निर्धारित होता है. मार्क्स के अनुसार किसी वस्तु का बाजार मूल्य जिन तीन बातों से प्रभावित होता है, वे हैं— ‘मूल्यों की गतिशीलता, बाजार में उपभोक्ता वस्तुओं की मात्रा तथा बाजार में मुद्रा के प्रचलन के वेग से प्रभावित होती है.’ बाजार में अपनी उपस्थिति को प्रभावी और गत्यात्मक बनाने के लिए मुद्रा सिक्कों के रूप में ढलती है. हर सिक्का अपने अंतनिर्हित मूल्य तथा सर्वस्वीकार्यता के लिए वस्तुओं के आदान-प्रदान में अपनी भूमिका का निर्वाह कहता है. अपनी सर्वस्वीकार्यता के कारण पहले स्वर्ण-मुद्रा का उपयोग किया जाता था. लेकिन उसकी कमी यह थी कि वह एक हाथ से दूसरे हाथ तक जाते-जाते घिसता जाता था, परिणामस्वरूप द्रव्यमान आधारित उसका मूल्य निरंतर कम होता रहता था. स्वर्णमुद्रा के उपयोग को लेकर अन्य खतरे भी कम नहीं थे. इसलिए आजकल राज्य के हस्तक्षेप से सिक्कों के बदले कागजी मुद्रा का उपयोग किया जाता है, जिसका प्रतीकात्मक मूल्य होता है. खतरे कागजी मुद्रा के भी कम नहीं हैं. वह राज्य की आर्थिक हैसियत तथा अंतरराष्ट्रीय उतार-चढ़ावों से भी प्रभावित होता है, तो भी आपेक्षिक रूप से मुद्रा ही विनिमय का सबसे उपयुक्त, सहज और विश्वसनीय माध्यम है. बाजार में मुद्रा की मौजूदगी तथा उसके आधार पर वस्तुओं की निरंतर खरीद और बिक्री, विपणन की प्रक्रिया को संभव बनाती है. बाजार में स्वीकार्यता के आधार पर मुद्रा अथवा धन के विभिन्न रूप हो सकते हैं, जो अपने निर्दिष्ट मूल्यों के आधार पर विपणन प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में सहायक बनते हैं.
4. धन का पूंजी में अंतरण ‘दि दास कैपीटल’ लिखते समय मार्क्स की विवेचनात्मक क्षमता एकदम उफान पर रही होगी. बिना किसी प्रकार की जल्दबाजी और आपाधापी के वह पूंजी और तत्संबंधी प्रत्येक तथ्य का गहराई से अन्वीक्षण करता है. तदुपरांत बाजार में उसके महत्त्व और प्रभावोत्पादकता की गहन पड़ताल करने के बाद ही वह किसी निष्कर्ष तक पहुंचने का प्रयास करता है. उपभोक्ता वस्तुओं, उनकी मूल्यवत्ता तथा मुद्रा की अंतपर्रिवर्तनीयता के गुणों का विश्लेषण करता हुआ वह पूंजीवाद तथा उसके आधार पर विकसित वर्ग-संबंधों की गहन-गंभीर पड़ताल करता है. पुस्तक में वह न केवल पूंजी के बारे में विस्तार सहित बताता है, बल्कि उसकी उत्पादन-प्रविधियों पर की भी उतनी ही गहराई से समीक्षा करता है. मार्क्स का मानना था कि सभी प्रकार के धन-संपत्ति को पूंजी नहीं माना जा सकता. उसके अनुसार कुछ ‘धन सिर्फ धन’ होता है जबकि कुछ ‘धन पूंजी का रूप’ ले लेता है. ठीक ऐसे ही जैसे हर वस्तु उपभोक्ता वस्तु नहीं होती. उपभोक्ता वस्तु का स्तर प्राप्त करने के लिए प्रत्येक वस्तु को बाजार में अपना मूल्य स्थापित करना होता है. ठीक ऐसे ही धन अथवा संपत्ति को पूंजी का रूप लेने के लिए उसको उपभोक्ता वस्तुओं के बाजार में विपणन के दौरान अपनी सुनिश्चित मूल्यवत्ता दर्शानी होती है. मार्क्स के अनुसार बाजार में उपभोक्ता वस्तु के प्रचलन की दो प्रमुख प्रविधियां होती हैं— क. साधारण प्रचालन अथवा सरल रैखिक प्रचालन ख. पूंजी-उत्पादक एवं पुनरोत्पादन प्रचालन. क. साधारण अथवा सरल रैखिक प्रचालन साधारण अथवा सरल रैखिक प्रचालन में उपभोक्ता वस्तु का उत्पादन इसलिए किया जाता है, ताकि उसकी बिक्री से कोई अन्य उपभोक्ता वस्तु अर्जित की जा सके. मार्क्स ने इसे ‘खरीद के निमित्त बिक्री’ कहा था. यह प्रविधि छोटे अथवा सीमित समूह के मध्य विपणन के लिए आदर्श मानी जाती है. इसके अंतर्गत, खरीदी गई उपभोक्ता वस्तु अपने अंतनिर्हित उपयोग मूल्य के कारण बाजार से बाहर हो जाती है. मगर विक्रेता उसके बदले में प्राप्त धनराशि का उपयोग किसी अन्य भिन्न किस्म की उपभोक्ता वस्तु की खरीद के लिए कर सकता है, जिसका उसकी दृष्टि में विशिष्ट उपयोगिता-मूल्य है. इस बाजार में मुद्रा का प्रवाह बना रहता है. इस नियम के अंतर्गत हुए मुद्रा प्रचालन को मार्क्स द्वारा निम्न सूत्र के रूप में दर्शाया गया है. उपभोक्ता वस्तु — धन — उपभोक्ता वस्तु. यह वस्तु के प्रचालन की सामान्य अवस्था है. प्राचीन एवं अल्पविकसित समाजों में इसी प्रविधि को अपनाया जाता रहा है. गांवों में आज भी कुछ वस्तुओं का प्रचालन इसी प्रविधि के अनुसार किया जाता है. यह प्रविधि छोटे और स्थानीय बाजारों में जहां क्रेता और विक्रेता एक ही समाज का हिस्सा हों, अधिक उपयुक्त रहती है. उत्पादक एवं उपभोक्ता के निकटवर्ती संबंध होने के कारण इस प्रविधि में पूंजी का आधार उतना विकसित नहीं हो पाता.
ख. पूंजी-उत्पादक प्रचालन
प्रचालन की दूसरी सरल रैखिक प्रचलन का विलोम है. इसमें क्रेता अपने धन का निवेश किसी उपभोक्ता वस्तु की खरीद हेतु इस उद्देश्य के साथ करता है कि भविष्य में उसकी बिक्री द्वारा वह अतिरिक्त पूंजी अर्जित कर सकेगा. पहली प्रविधि का उपयोग प्रायः सीमित समाजों में अनिवार्य जरूरतों की पूर्ति के लिए जाता है. जबकि दूसरी प्रविधि पंूजी द्वारा संचालित अर्थव्यवस्था की सोची-समझी नीति का परिणाम होती है. इसमें क्रेता ही विक्रेता भी होता है. उसके लिए उपभोक्ता वस्तु का उपयोग-मूल्य अर्थविहीन होता है,इसके विपरीत उसकी निगाह वस्तु के बाजार मूल्य पर होती है. वस्तु का बाजार मूल्य ही उसको उसकी खरीद में निवेश के लिए उत्साहित करता है. मौद्रिक लाभ की संभावना के साथ ही वह मुद्रा के बदले प्राप्त की गई उपभोक्ता वस्तु को बेचकर पुनः मुद्रा प्राप्त कर लेता है. स्पष्ट है कि इस अवस्था में क्रेता के लिए वस्तु का उपयोग मूल्य कोई मायने नहीं रखता. इसके विपरीत उसकी निगाह वस्तु के बाजार मूल्य पर होती है. वही उसको विपणन प्रक्रिया में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करता है. इस स्थिति को आगे दिए गए सूत्र द्वारा भी अभिव्यक्त किया जा सकता है—
पूंजी — उपभोक्ता वस्तु — पूंजी.
इस प्रक्रिया को एक साधारण उदाहरण के माध्यम से भी समझा जा सकता है. पशुओं का व्यापारी पेंठ से दस भेड़ खरीदता है, फिर कुछ अवधि तक अपने पास रखने के बाद वह उन्हें दुबारा उन्हें उसी पेंठ में ले जाकर बेच आता है. यह कार्य वह लाभ के लिए करता है. हालांकि प्रत्येक स्थिति में लाभ ही हो, यह आवश्यक नहीं होता. दूसरी पद्धति का उपयोग मुख्यतः पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में किया जाता है. पूंजी को बढ़ावा देने वाली यह पद्धति बाजार के विस्तार के लिए भी अत्यावश्यक होती है. यदि कोई व्यक्ति अपने धन का निवेश उसपर बेहतर लाभ कमाने की वांछा से करता है, तो वह उसी वस्तु के विपणन पर ध्यान देगा जिसकी बाजार में मांग हो, जिसका अपना बाजार मूल्य हो.इसलिए वह अपनी पूंजी को सदैव परिचालन की अवस्था में रखता है. बाजार की मांग के अनुरूप वह एक के बाद दूसरी वस्तु में निवेश करता चला जाता है. उस अवस्था में पूंजी सदैव प्रचालन की अवस्था में होती है. विणपन की प्रक्रिया में उपभोक्ता वस्तु एक के बाद एक कई हाथों से होकर गुजरती है. हर प्रचलन के बाद वस्तु के मूल्य में विक्रेता के खर्चे और लाभांश जुड़ते चले जाते हंै, जिससे वह लगातार महंगी होती जाती है.क्रमिक विपणन की इस पद्धति में वस्तु का केवल बाजार-मूल्य बढ़ता है, जबकि उसका उपयोग मूल्य अपरिवर्तित रहता है. यह प्रविधि उपभोक्ता के हितों के प्रतिकूल होती है,लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था इसी पद्धति को अपनाती है. इससे उपभोक्ता वस्तु अपने अंतनिर्हित मूल्य में बगैर किसी वृद्धि के निंरतर प्रचालन रहती है.
उपभोक्ता वस्तु के प्रचालन की विभिन्न स्थितियों का विश्लेषण करने के उपरांत मार्क्स इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि बाजार में उपभोक्ता वस्तुओं का प्रचालन अथवा विपणन उनमें किसी भी प्रकार के अतिरिक्त मूल्य का सृजन नहीं करता. यद्यपि इस प्रक्रिया के दौरान श्रम की स्वाभाविक खपत होती है. चूंकि इस प्रक्रिया में वस्तु का अंतनिर्हित मूल्य अप्रभावी रहता है, उसमें किसी प्रकार की वृद्धि नहीं होती, अतएव प्रचालन की प्रक्रिया को गतिशील बनाए रखने के लिए कुछ न कुछ ऐसा अवश्य होना चाहिए, जो प्रचालन से भिन्न, उसका उत्प्रेरक हो. मार्क्स के अनुसार यह धन का पूंजी के रूप में बदलना है, उसने आगे लिखा है—
‘धन के पूंजी के रूप में ढलते जाने की प्रक्रिया का विकास इस नैसर्गिक नियम के आधार पर हुआ कि वस्तुओं का अंतरण (विपणन) इस प्रकार से किया जाए कि उनका विपणन-समतुल्यांक(बाजार मूल्य-उपयोगिता मूल्य) वस्तु के आरंभिक मूल्य के बराबर ही बना रहे.’
धन के विभिन्न रूपों, उसके साधारण रूप यानी जब वह सिर्फ धन की अवस्था में होता है तथा पूंजीवादी स्वरूप जब धन पूंजी का रूप ले लेता है, की व्याख्या करने के बाद मार्क्स उन स्थितियों का विश्लेषण करता है, जब कोई पूंजीपति अपनी आर्थिक हैसियत का लाभ उठाकर उपभोक्ता वस्तु के निरंतर प्रचालन से अपने लाभ में वृद्धि करता जाता है. उसका मानना था कि उपभोक्ता वस्तु का प्रचालन अथवा विपणन किसी अतिरिक्त मूल्य का सृजन नहीं करता. इस प्रक्रिया में केवल श्रम की खपत होती है. उस श्रम की उपादेयता केवल व्यापारी या पूंजीपति के लिए होती है, लेकिन उसका मूल्य उपभोक्ता को चुकाना पड़ता है, जिसके लिए वह श्रम किसी काम का नहीं होता. पूंजीवाद का विस्तार अपनी ही सोच जैसे मध्यस्थ व्यापारियों के बिना संभव नहीं है. इसके उपरांत वह एक पहेली की तरह पूछता है—चूंकि बाजार में उपभोक्ता वस्तु के प्रचालन के दौरान किसी प्रकार के मूल्य का सृजन नहीं होता, इसलिए प्रचालन में भी कुछ न कुछ ऐसा होना चाहिए जो स्वयं प्रचालन नहीं है. वास्तव में पूंजीवादी व्यवस्था में प्रचालन के अनेक स्तर ऐसे आते हैं, जब उपभोक्ता वस्तु उपभोक्ता तक जाने के बजाय केवल ऊपरी स्तर पर ही घूमती रहती है, जहां केवल वस्तु के बाजार मूल्य का ही महत्त्व होता है. इस कारण वस्तु अपने उपयोग-स्थल से सदैव दूर होती चली जाती है.
5. श्रमशक्ति का क्रय-विक्रय साधारण धन और पूंजी की समीक्षा करने के बाद मार्क्स श्रम की विभिन्न स्थितियों पर विचार करता है. अपने विश्लेषण के अंतर्गत वह शारीरिक ही नहीं, मानसिक श्रम को भी सम्मिलित करता है. उसके अनुसार जब कोई व्यक्ति किसी वस्तु का उत्पादन करता है,जिसका निर्दिष्ट उपयोग मूल्य हो, तो वह श्रम की अवस्था में होता है. बाजार में श्रम-शक्ति की उपलब्धता श्रमिक की स्वतंत्रता पर निर्भर करती है. श्रमिक की स्वतंत्रता के दो पहलू हो सकते हैं. पहला तो यह कि वह श्रमिक के रूप में स्वतंत्र हो. उसको यह आजादी हो कि अपनी श्रम-संपदा का निवेश स्वेच्छापूर्वक एवं अपनी मर्जी के उत्पादन कार्य के निमित्त कर सके; और उसका पूरा लाभ भी उठा सके. इस दौरान उसको पक्का विश्वास होना चाहिए कि वह अपनी श्रम-शक्ति का निवेश एक निश्चित समय के लिए कर रहा है. अर्थात वह जब चाहे उस उत्पादन प्रक्रिया को छोड़ सकता है. यदि ऐसा नहीं है तो यह माना जाएगा कि श्रमिक अपने निर्णय के लिए स्वतंत्र नहीं है. उत्पादन प्रक्रिया से जुड़े रहना उसकी बाध्यता है. तब उसकी स्थिति दास के तुल्य ही मानी जाएगी, जिसके श्रम और श्रम-उत्पाद का सीधा लाभ उसके स्वामी को मिलता है. मार्क्स के अनुसार श्रमिक की स्वतंत्रता की दूसरी शर्त यह है कि वह पूरी तरह श्रम पर ही आश्रित होना चाहिए. क्योंकि यदि उसके पास अपने श्रम के अतिरिक्त भी बिक्री या निवेश के लिए कोई और माध्यम है, तब यह माना जाएगा कि वह उत्पादन का सामथ्र्य रखता है—अथवा उसके पास उत्पादन के लिए अनिवार्य कच्चा माल है. इन दोनों ही अवस्थाओं में वह श्रमिक के रूप में स्वतंत्र नहीं रह पाएगा. यद्यपि मनुष्यों के बीच यह विभाजन कि उनमें से कुछ अपने श्रम के अतिरिक्त धन-संपत्ति अथवा उत्पादक-सामग्री के स्वामी हों; तथा कुछ के पास केवल अपनी श्रम-शक्ति हो—अनैसर्गिक है. यह उनके समाज के असमान आर्थिक विकास की ओर इशारा करता है.उत्पादन-संसाधनों के आधार पर उनकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति में अंतर, उस समाज में मौजूद रही पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था का संकेतक है. मार्क्स का मानना था कि किसी समाज में पूंजीवादी शक्तियों का उदय और उनके अनुकूल स्थितियों का उत्पन्न होना, मात्र उसकी पूंजी और उपभोक्ता वस्तुओं के प्रचालन के आधार पर ही संभव नहीं है. उसका सीधा-सा अभिप्राय है कि श्रमिकों ने अपनी आजादी, हुनर और अपना श्रम,स्वेच्छा सहित अपने स्वामी-पूंजीपति के सुपुर्द कर दिया है, जो उत्पादनतंत्र और संसाधनों का स्वामी होने के कारण सदैव ेेलाभ की स्थिति में रहता है. वह श्रम-मूल्य का आकलन अपनी मर्जी से और अपने स्वार्थ के अनुरूप करता है. इससे शोषण की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है. श्रम-शक्ति के मूल्यांकन का आदर्शरूप क्या हो? मार्क्स के अनुसार श्रम का मूल्यांकन उत्पादन और पुनःउत्पादन कार्यों में लगे श्रम के आधार पर किया जाता है. श्रम-शक्ति किसी भी जीवित व्यक्ति का वह सामर्थ्य होता है, जो वह बिना किसी अन्य साधन के खुद को जीवित रखने के लिए करता है. जिसके आधार पर व्यक्ति को आजीविका जारी रहने का भरोसा होता है. यह मनुष्य का वह प्राकृतिक सामर्थ्य है, जो आदिकाल से ही उसकी जिजीविषा का प्रतीक रहा है. प्रत्येक व्यक्ति की कुछ न कुछ मूलभूत आवश्यकताएं होती हैं. उन्हें जुटाने के लिए उसको कुछ न कुछ, शारीरिक अथवा मानसिक परिश्रम करना पड़ता है. यद्यपि श्रम के उत्पादक स्वरूप को बनाए रखने, शरीर को गतिशील बनाए रखने के लिए भोजन उसकी प्राथमिक अनिवार्यता होती है, तथापि मनुष्य का कार्य मात्र भोजन द्वारा ही नहीं चल जाता. समाज में रहने और वहां अपने सामान्य जीवन-स्तर को बनाए रखने के लिए उसको आवास एवं वस्त्र जैसी अन्य सामान्य सुविधाओं की भी आवश्यकता पड़ती है. श्रम-शक्ति के मूल्य का आशय व्यक्ति की उन सामान्य आवश्यकताओं के मूल्य से होता है, जिनका होना उस समाज में रहते हुए उसकी श्रम-शक्ति के स्तर को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए अनिवार्य है. व्यक्ति की सामान्य आवश्यकताएं उसके देश और परिस्थितियों पर भी निर्भर करती हैं, जिन्हें स्पष्टतः पहचाना जा सकता है. बाजार में श्रम-शक्ति की अबाध आपूर्ति पूंजी के हित में होती है. नियमित शिक्षण-प्रशिक्षण द्वारा श्रम-शक्ति की उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है. यह श्रमिक और उत्पादक दोनों के हित में होता है. तो भी पूंजीपति श्रम-परिष्कार हेतु किए गए व्यय को विशुद्ध व्यावसायिक दृष्टि से देखता है. वह सदैव इस प्रयास में रहता है कि इस मद में किए गए व्यय की न्यूनतम समय में अधिकतम भरपाई कर सके. श्रमिक की उत्पादकता को बनाए रखने के लिए उसकी मूलभूत आवश्यकताओं पर ध्यान दिया जाना जरूरी होता है. मूलभूत अनिवार्यताओं में भोजन-पानी तो प्राणीमात्र की नियमित जरूरत का हिस्सा होते हैं, जबकि वस्त्रादि की आवश्यकता एक अंतराल के बाद पड़ती है. मार्क्स ने इस बात के लिए विशेष आग्रहशील था कि श्रमिक के उपभोग की ये वस्तुएं उसको प्रचुर मात्रा में, उसकी मजदूरी के दम पर उपलब्ध होती रहनी चाहिए. मजदूरी की न्यूनतम सीमा क्या हो, इसका विश्लेषण वह पुस्तक के अगले अध्याय में करता है. मार्क्स के अनुसार न्यूतम वृत्तिका का स्तर इतना होना चाहिए, जिसके आधार पर वह अपनी शारीरिक-मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति बिना अपनी कार्यक्षमता को गंवाए पूरा कर सके. मार्क्स के अनुसार उपभोक्ता सामग्री के रूप में श्रम-शक्ति की विडंबना यह है कि उसको उसके क्रेता तक एकाएक नहीं पहुंचाया जा सकता. बल्कि उसके लिए उत्पादन-कर्म जैसे माध्यम की आवश्यकता पड़ती है. श्रमशक्ति का यह गुण पूंजी पर निर्भरता का कारण है.श्रम-शक्ति का मूल्य श्रमिक की मूलभूत आवश्यकताओं के आधार पर पहले से ही निश्चित होता है. जबकि उपयोग-मूल्य की परिगणना बाद में की जाती है. पूंजीवादी व्यवस्था के अधीन संचालित प्रायः सभी देशों में पूंजीपति श्रमिक को उसकी मजदूरी का भुगतान एक निर्धारित अवधि बीतने से पहले नहीं करता. इसका अभिप्राय है कि श्रम के उपयोगिता मूल्य का लाभ प्रायः पूंजीपति के पक्ष में रहता है. श्रमिक को उसके श्रम का लाभ तत्काल और पूरा उपलब्ध हो, इसके लिए मार्क्स ने अपनी पुस्तक में कई सुझाव दिए हैं. जिनके बल पर पूंजीवादी समाज की बुराइयों से मुक्ति संभव है. श्रम-शोषण से मुक्ति का एक उपाय श्रम-शक्ति के सदुपयोग से भी है. श्रम-शक्ति के सदुपयोग को उसने तीन हिस्सों में बांटा है. श्रम अर्थात श्रम-प्रक्रिया. दूसरा वह आधार जिसपर श्रमिक अपनी श्रमशक्ति का उपयोग करता है और तीसरा श्रम-उत्पाद, जो श्रम और श्रम-प्रक्रिया के सुफल के रूप में प्राप्त होता है. विडंबना यह है कि श्रम-उत्पाद पूंजीपति की संपत्ति होता है. उसके मूल्य का निर्धारण वह अपने अधिलाभ की मात्रा को ध्यान में रखकर करता है. जबकि श्रमिक की वृत्तिका निर्धारण पूंजीपति द्वारा श्रमिक की मूलभूत आवश्यकताओं के आकलन के अनुसार किया जाता है. समाज में बेरोजगारी के चलते श्रम के बीच अघोषित प्रतिस्पर्धा शुरू होने से पूंजीपति का काम और भी आसान हो जाता है. जिससे वह वृत्तिका में कटौती करता है, परिणामस्वरूप श्रमिक को भी अपनी सामान्य आवश्यकताओं में कटौती करनी पड़ती है. दूसरी ओर बाजार पर एकाधिकार की स्थिति में पूंजीपति अपने अधिलाभ की मात्रा बढ़ाकर अपनी शर्तों के अनुरूप तय करता है. इस प्रक्रिया में जहां पूंजीपति सदैव लाभ की स्थिति में होता है.
6. स्थायी और अस्थायी पूंजी पूंजी का उपयोग उत्पादकता की निरंतरता बनाए रखने, उसके लिए उपयुक्त श्रम,मशीनरी, कच्चे माल आदि की व्यवस्था करने के लिए किया जाता है. ‘दि कैपीटल’ में मार्क्स ने दर्शाया है कि पूंजी किस प्रकार कच्चे माल से लेकर श्रम आदि में अंतर्निहित उपयोग-मूल्य को बदलते हुए, उत्पाद में अपने लिए अधिशेष की व्यवस्था कर लेती है. अधिशेष वह राशि है जो किसी उत्पादन प्रक्रिया में कच्चे माल से लेकर, परिचालन तथा श्रम लागत तक हुए कुल व्यय को उसके उत्पाद के बाजार मूल्य में से घटाने के बाद प्राप्त होता है. पूंजीवादी व्यवस्था के लिए अधिशेष बहुत काम की चीज होती है. बल्कि यही वह प्रेरणा है, जिससे कोई पूंजीपति विशिष्ट उत्पादन-कर्म की ओर आकर्षित होता है. अधिशेष की अधिक मात्रा पूंजीपति के लाभानुपात की अधिकता को दर्शाती है. मार्क्स ने अधिशेष की गणना के लिए स्थायी पूंजी तथा अस्थायी पूंजी की संकल्पना प्रस्तुत की है. स्थायी पूंजी को परिभाषित करते हुए उसने लिखा है कि यह— ‘पूंजी का वह हिस्सा है, जो उत्पादन के माध्यम के रूप में उपयोग किया जाता है, जैसे कच्चा माल, सहायक सामग्री, श्रम तथा उसके साधन, जिनका मूल्य उत्पादन प्रक्रिया के दौरान परिमाणात्मक परिवर्तन से बचा रहता है.’ मार्क्स के अनुसार स्थायी पूंजी उत्पादन-प्रक्रिया के दौरान अपने परिमाणात्मक अपरिवर्तनकारी स्वरूप को बचाए रखती है. यहां तक कि कच्चे माल आदि की मूल्य-वृद्धि की स्थिति में भी उसके परिवर्तित मूल्य, बिना किसी नए मूल्य का सृजन किए स्वाभाविक रूप से उत्पाद में अंतरित हो जाते हैं, उसके अनुसार— ‘उत्पादन के स्रोत जो कच्चे माल के उपयोग-मूल्य को बदलने का दायित्व वहन करते हैं—वे उत्पाद में, श्रम-प्रक्रिया के दौरान उपयोगिता मूल्य में हुए उसके मूल्य-हृास से अधिक की वृद्धि करने में असमर्थ होते हैं.’ अस्थायी पूंजी और स्थायी पूंजी के भेद को दर्शाते हुए मार्क्स ने अस्थायी पूंजी को पूंजी का वह हिस्सा बताया है जो ऐसी श्रम-शक्ति के रूप में खर्च होता है, जो उत्पादन-प्रक्रिया के मध्य उसके मूल्य में परिवर्तन हेतु व्यय होती है. अस्थायी पूंजी के रूप में श्रमिक न केवल अपने सभी श्रम-कौशल का अंतरण करता है, बल्कि वह उत्पाद को अतिरिक्त मूल्यवत्ता भी प्रदान करता है, जो अधिशेष के रूप में जानी जाती है. पूंजीवादी व्यवस्था में मशीनरी का जैसे-जैसे स्वचालीकरण होता है, पूंजीपति की श्रम पर निर्भरता लगातार घटती जाती है. मशीनरी में हुए खर्च के बाद भी अपने लिए अतिरिक्त अधिलाभ की व्यवस्था कर लेता है. जिससे उसका लाभ निरंतर बढ़ता जाता है. अतिरिक्त लाभ का उपयोग वह पूंजी के रूप में और अधिक लाभार्जन के लिए करता है, जिसकी उसकी ओर पूंजी का निरंतर खिंचाव बना रहता है. पुस्तक में मार्क्स अतिरिक्त उत्पादन की स्थितियों की भी गंभीर समीक्षा करता है. उसके अनुसार अतिरिक्त उत्पादन का आशय उत्पाद की उस मात्रा से है जो अधिशेष मूल्य को दर्शाती है, जिससे मालिक का लाभ जुड़ा होता है. 7. कार्यदिवस ‘पूंजी’ के दसवें अध्याय में मार्क्स औद्योगिक प्रतिष्ठानों में कार्यदिवस की अवधारणा को स्पष्ट करता है. अपनी सामान्य जरूरतों की आपूर्ति के लिए मजदूर को निर्धारित घंटों तक कार्य करना पड़ता है. जब कोई श्रमिक अपनी आवश्यकता से अधिक समय तक कार्य करता है, तो वह उसका अतिरिक्त श्रम कहलाता है. पूंजीवादी व्यवस्था श्रमिक से आवश्यक श्रम-अवधि से सदैव अधिक कार्य लेने का प्रयास करती है. क्योंकि आवश्यक श्रम-घंटों अथवा उससे कम काम लेना उनके व्यावसायिक हितों के प्रतिकूल होता है. यह स्थिति श्रमिक और उद्योग-स्वामी के बीच द्वंद्वात्मकता को जन्म देती है, जिससे उनके बीच हितों की टकराहट शुरू हो जाती है. आगे वह लिखता है कि किसी कारखाने का स्वामी वास्तव में पूंजी का ही मानवीकृत रूप होता है, जिसका एकमात्र उद्देश्य लाभार्जन होता है. वह कार्यदिवस के घंटों को सीमित रखने के लिए दो सुझाव देता है. पहला तो यह कि श्रम-शक्ति की भौतिक सीमाएं होती हैं. मजदूर भी अंततः एक प्राणी होता है. भोजन, वस्त्र, आराम और निद्रा उसकी मूलभूत आवश्यकताएं होती हैं, जिनके कारण एक सीमा के बाद उससे काम ले पाना असंभव होता है. भौतिक सीमाओं के अलावा कुछ नैतिक मर्यादाएं भी होती हैं, जो मनुष्य और पशु में अंतर करने, मनुष्य से काम लेते समय सामान्य शिष्ठता का पालन करने की अपेक्षा रखती हैं. नैतिक बाध्यताओं के कारण भी कार्यघंटों को एक सीमा से अधिक बढ़ा पाना असंभव होता है. वह लिखता है कि कारखाने में काम करने वाले— ‘प्रत्येक श्रमिक को अपनी सामाजिक और मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समय की दरकार होती है, उन आवश्यकताओं की संख्या और मात्रा उसकी सभ्यता के सामान्य मापदंडों द्वारा तय की जाती होती है.’ कारखाना मालिक चाहता है कि एक कार्यदिवस के दौरान श्रमिक से अधिक से अधिक काम लिया जाए, ताकि उसका मुनाफा बढ़ सके. दूसरे शब्दों में पूंजीपति किसी भी अन्य उपभोक्ता सामग्री के क्रेता की भांति वह अपनी उपभोक्ता वस्तु से अधिक से अधिक उपयोग मूल्य वसूल लेना चाहता है. श्रमिक के मामले में वह श्रम-कार्य होता है. श्रम-शक्ति का सामान्य गुण होता है कि वह अपनी कीमत से अधिक मूल्य की अधिरचना करती है. श्रम-शक्ति का मूल्य आमतौर पर सरकार या प्रशासन द्वारा अथवा उसकी सहमति पर पहले से ही तय किया गया होता है. बल्कि सभी उपभोक्ता सामग्रियां श्रम-शक्ति का ही ठोस रूपाकार होती हैं, जिनका लाभ पूंजीपति के पक्ष में जाता है. श्रम के बारे में एक विडंबनाजन्य स्थिति यह है कि श्रमिक से आत्मनिर्णय के सारे अधिकार छीन लिए जाते हैं. यहां तक कि उसको अपनी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए भी पूंजीपति पर निर्भर होकर रहना पड़ता है. मार्क्स के अनुसार पूंजी की इमारत श्रम की लाश पर खड़ी होती है, जो चुड़ैल की भांति श्रमिक का खून चूसकर जीवित रह सकती है तथा जितना अधिक यह श्रम-शोषण करती है, उतना ही दीर्घायु प्राप्त कर लेती है. यही वह तर्क है तो एक पूंजीपति को कार्यदिवस के घंटों में वृद्धि के लिए निरंतर उकसाता रहता है. यदि कोई कामगार जो अपनी एकमात्र उपभोक्ता वस्तु यानी श्रम को बेचने को उत्सुक है,चाहता है कि अगले कार्यदिवस तक वह पुनः अपने श्रम अर्थात अपनी एकमात्र उपभोक्ता सामग्री को पुनः जुटा सके तो इसके लिए उसको पर्याप्त भोजन, आराम, निद्रा आदि की आवश्यकता पड़ती है. आदर्श स्थिति यह है कि ये सुविधाएं श्रमिक को उसकी वृत्तिका से न केवल सहज उपलब्ध होनी चाहिए, बल्कि कुछ अतिरिक्त राशि जिसको उसके श्रम-लाभ की संज्ञा दी जा सकती है, भी मिलती रहनी चाहिए. ताकि वह अपने सामाजिक स्तर को बनाए रखने के साथ-साथ भविष्य की ओर से भी निश्चिंत रहे. उसको यह भरोसा रहे कि पूंजीपति उसके हितों को लेकर गंभीर है. मगर व्यावहारिक रूप में ऐसा नहीं हो पाता.स्वार्थी पूंजीपति श्रम के तात्कालिक लाभों पर ही विचार करता है. परिणाम यह होता है कि श्रमिक के लिए शोषणकारी स्थितियां लगातार बढ़ती जाती हैं. यदि कार्य-घंटों में वृद्धि होती है तो पूंजीपति-स्वामी को उतनी श्रम-शक्ति से जितनी वह एक दिन में जुटा पाता है, अधिक मात्रा में श्रम-शक्ति उपलब्ध होती है. इससे श्रमिक की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ता है. श्रम से अतिरिक्त मात्रा में काम लेेने से उसकी एक कार्यदिवस में श्रम-शक्ति सहेजने की मानवीय क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. यानी जो बात पूंजीपति के लिए लाभ का सृजन करती है, वही श्रमिक के लिए घाटे का सौदा बन जाती है. मार्क्स अपनी बात को एक उदाहरण के जरिए साफ करता है. वह लिखता है कि मान लीजिए कि एक श्रमिक सामान्यतः तीस वर्ष तक कुशलतापूर्वक काम करने का सामथ्र्य रखता है. तब उसके कुल श्रम-कार्य के अनुसार उसकी एक दिन की श्रम-शक्ति का मूल्य होगा: 1/(365 गुणा 30) अथवा 1/10,950 वर्ष. यह तब है, जब श्रमिक से उसकी कार्यक्षमता के अनुरूप कार्य लिया जाता है. कार्य के साथ-साथ उसको आराम का भी पूरा अवसर दिया जाता है. लेकिन यदि श्रमिक से बहुत ज्यादा और प्रतिकूल परिस्थितियों में काम लिया जाता है, तब यह संभव है कि वह केवल 10 वर्षों तक ही अपनी कार्यक्षमता को बनाए रख सके. उस अवस्था में उसके एक दिन का श्रम-मूल्य होगा: 1/365गुणा10 अथवा 1/3650 काम लिया जाता है. स्पष्ट है कि उस अवस्था में श्रमिक को अपनी श्रमशक्ति का तीन गुना कार्य करना पड़ेगा, जबकि मालिक की ओर से उसको मात्र एक दिन के बराबर ही श्रम-मूल्य का भुगतान प्राप्त होगा. उस अवस्था में श्रमिक स्वयं को छला हुआ अनुभव करेगा. न्यायोचित यही है कि श्रमिक से उसकी कार्यक्षमता के अनुसार काम लिया जाए. साथ ही उसे अपने श्रम का अनुकूल मूल्य प्राप्त हो तथा मालिक को उसका कार्य. लेकिन ये दोनों स्थितियां विरोधाभासी हैं. उचित सामन्जस्य के अभाव में ये पूंजीपति और श्रमिक के हितों में टकराहट को जन्म देने वाली हो सकती हैं. अपने विश्लेषण में मार्क्स ने न केवल श्रम की शोषणकारी स्थितियों का चित्रण किया है,बल्कि उसने बालश्रम और महिलाओं के मामले में श्रम को लेकर होने वाले अनाचार पर भी खुलकर लिखा था. पुस्तक में मार्क्स ने माचिस के कारखानों, डबलरोटी बनाने वाली फैक्ट्रियों, जूते के फीते, पाट्री, वालपेपर, लोहे का काम करने वाले, सिलाई, महिलाओं के लिए टोपी बनाने वाले कारखानों में श्रमिकों की अमानवीय स्थितियों का उल्लेख किया है.मार्क्स के अनुसार कानून की कमजोरी का लाभ उठाकर पूंजीपति अपने कारखानों में बालमजदूरों को नौकरी पर रखता है, ताकि कम भोजन और वेतन में उनसे अधिक से अधिक काम ले सके. मार्क्स ने उदाहरण देकर बताया था कि उन कारखानों में अमानवीय परिस्थितियों में काम करते हुए बाल-मजदूरों को अनेक बार अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ जाता है.प्रतिदिन अठारह से बीस घंटे काम करते-करते उनके अंग अकड़ने लगते हैं. चेहरे पर पीलापन छा जाता है. अनेक बीमारियां उन्हें हर समय घेरे रहती हैं. समय पर उपचार न होने के कारण उनमें से बहुत असमय ही मौत का शिकार बन जाते हैं. दरअसल मार्क्स ने बालश्रम के मुद्दे को बहुत ही संवेदनशीलता से लिया था. वह भावुक कवि तो था ही.इसलिए यह भी नामुमकिन नहीं लगता कि कारखानों में बाल-श्रमिकों के उत्पीड़न और उनकी मौतों ने ही उसे पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की तीखी आलोचना के लिए प्रेरित किया हो. तत्कालीन समाज में श्रमिक वर्ग की दुर्दशा का वर्णन करते हुए मार्क्स ने पूंजीवादी व्यवस्था की कमजोरियों का भी खुलासा किया था. पूंजीवादी कारखानों में हो रहे शोषण का विवरण पेश करते समय मार्क्स ने वहां जाने वाले डाॅक्टरों के अनुभवों तथा समय-समय पर समाचारपत्रों में प्रकाशित रिपोर्टाें का सहारा लिया था. उसने लिखा था कि कारखानों में बच्चों और स्त्रियों से लिया जाने वाला कार्य उनकी कार्यक्षमता से कहीं अधिक है. बदले में उन्हें बहुत कम मजदूरी मिलती है,जिससे वे अपनी सामान्य आवश्यकताएं पूरा कर पाने में भी असमर्थ रहते हैं. जिन परिस्थितियों में श्रमिकों को सामान्यतः कार्य करना पड़ता है, वे अप्रीतिकर और स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक हैं. और वे श्रमिकों के जीवन को शनैः-शनैः मौत के मुंह में ढकेल रही हैं. श्रमिक को श्रम का स्रोत बताते हुए उसने लिखा था कि कार्य के दौरान मजदूर को पर्याप्त भोजन उपलब्ध कराना उतना ही अनिवार्य है, जैसे मशीन तेल की आवश्यकता पड़ती है तथा भाप के इंजन को कोयला और पानी की. इंग्लेंड के कारखानों में बाल-श्रमिकों की दुर्दशा का अत्यंत दयनीय चित्रण करते हुए उसने अपने महाग्रंथ ‘पूंजी’ में लिखा था कि— ‘हालांकि दावा एक सभ्य समाज का था, परंतु वहां पर फीते बनाने के कारखानों में काम करने वाले अधिकांश बाल-मजदूर गंदी, अभावग्रस्त और अमानवीय स्थितियों में कार्य करते थे. एक ही स्थान पर रहते हुए उन्हें वर्षों बीत जाते थे. इस बात का पता भी नहीं चल पाता था कि उनसे परे की दुनिया कैसी है. नौ-दस वर्ष के मासूम बच्चों को प्रातःकाल मुंह-अंधेरे चार बजे;और कभी-कभी तो प्रातः दो बजे से ही उनके गंदे बिस्तरों से खींचकर काम पर झोंक दिया जाता था, जहां उन्हें बिना किसी विश्राम के केवल इतने भोजन पर कि वे सिर्फ जीवित रह सकें, रात के दस-ग्यारह और कभी-कभी तो बारह बजे तक काम करना पड़ता था. उनका बदन नंगा रहता था. चेहरे भूख और कुपोषण से सफेद पड़े होते थे, आंखें हताशा से पथरा-सी जाती थीं. इस तरह भीषण अमानवीय स्थितियों में उनसे काम लिया जाता था.’ उन दिनों ब्रिटेन समेत पूरे यूरोप में जहां-जहां मशीनीकरण की हवा चली थी, बेरोजगारी का संकट बढ़ा था. गांवों में स्थिति और भी शोचनीय थी, क्योंकि वहां पर स्थानीय उद्योग-धंधे पूरी तरह चैपट हो चुके थे. भीषण गरीबी के कारण माता-पिता अपने बच्चों को उन नारकीय परिस्थितियों में काम पर भेजने के लिए के लिए विवश थे, जहां सामान्य स्थितियों काम करने की उनकी स्वयं की हिम्मत भी जवाब दे जाती. बाकी मजदूरों, कामगारों यहां तक की साधारण नौकरीपेशा लोगों की हालत भी संतोषजनक नहीं थी. काम के बोझ के कारण वे सदैव तनाव में रहते थे. इससे उनकी कार्यकुशलता भी नकारात्मक रूप से प्रभावित हुई थी. सरकार और प्रशासन पूंजीपतियों के सतत दबाव में रहते थे, इसलिए उनसे मनचाहे फैसले करा लेना, स्थानीय पूंजीपतियों के लिए बहुत आसान था. एक उदाहरण द्वारा मार्क्स ने नई व्यवस्था के दौरान प्रशासन की कार्यप्रणाली में आए अमानवीय बदलावों की ओर इशारा किया गया था— ‘(एक बार) अचानक हुई रेल दुर्घटना ने सैकड़ों व्यक्तियों की जान ले ली थी. दुर्घटना के कारणों की पड़ताल कर रहे आयोग के सामने दुर्घटना के जिम्मेदार माने जा रहे तीन व्यक्तियों को बुलाया गया था. उनमें एक गार्ड था, एक इंजन-ड्राइवर और तीसरा था—सिगनलमेन. हालांकि उस दुर्घटना के लिए उन तीनों का दोष उतना नहीं था. केवल उनका दुर्भाग्य ही उस दुर्घटना का जिम्मेदार था. मुकदमें के दौरान तीनों ने लगभग एक ही बात कही. उन्होंने बताया कि दस-बारह वर्ष पहले तक उनकी ड्यूटी केवल आठ घंटे की होती थी. लेकिन पिछले पांच-छह वर्षों से उन्हें प्रतिदिन चौदह से बीस घंटे तक कार्य करना पड़ रहा है. अवकाशकालीन दिनों में तो, जब रेलगाड़ियों में सवारियों की भरमार रहती है, उनको बगैर आराम किए, बिना रुके,चालीस से पचास घंटे तक लगातार कार्य करना पड़ता है. तीनों ने एक स्वर में बताया कि वे कोई देवदूत नहीं, साधारण इंसान हैं. दुर्घटना के समय आलस्य ने उन्हें जकड़ लिया था. उनके दिमाग ने सोचना बंद कर दिया था, आंखें आगे देखने का सामथ्र्य खो चुकी थीं.’ दुर्घटना का विश्लेषण करते हुए मार्क्स ने आगे लिखा था कि ये सभी बातें स्वाभाविक हैं.यदि गंभीरतापूर्वक विचार करके देखा जाए तो तीनों ही निर्दोष सिद्ध होते हैं. दोष रेलवे प्रशासन का था जो उन कर्मचारियों से उनकी कार्यक्षमता से कई गुना काम लेने का अपराध कर रहा था. लेकिन आश्चर्यजनक रूप से अदालत ने उन तीनों को अनुचित रूप से गाड़ी चलाने तथा मानवहत्या का दोषी पाया. यह निर्णय तत्कालीन व्यवस्था की प्रशासनिक खामियों को पूरी तरह नजरंदाज करने वाला और लगभग अमानवीय था.मार्क्स ने आगे लिखा था— ‘तब उन न्यायाधीशों ने मुकदमें पर अपना निर्णय सुनाते हुए तीनों अभियुक्तों को उपयुक्त सजा के लिए अगले न्यायालय को सौंप दिया. अपने फैसले में उन्होंने यह आशा जताई कि आगे से रेलवे विभाग मजदूरों को खरीद पर कुछ और धन खर्च करने की उदारता दिखाएगा,ईमानदारी से काम करेगा तथा न्यूनतम सरकारी खर्च में काम भी चलाएगा.’ न्यायाधीश की यह टिप्पणी न्यायभावना के पूरी तरह विरुद्ध और एक तरह से समूचे घटनाक्रम पर पर्दा डालने वाली थी. इसपर भी पूंजीपति समर्थक समाचारपत्रों को न्यायालय के इस निर्णय में खामी नजर आई तथा उसने निर्णय की आलोचना करते हुए न्यायाधीशों को खूब कोसा. इस उदाहरण से स्पष्ट है कि तत्कालीन पूंजीपतियों के लिए उनका मुनाफा ही सबकुुछ था. मानवीय स्वास्थ्य, संवेदनाओं यहां तक कि सरकारी नियमों-कानूनों आदि की उन्हें कोई चिंता ही नहीं थी. नई व्यवस्था ने आम आदमी,छोटे कर्मचारियों, शिल्पकर्मियों के शोषण एवं उत्पीड़न को बढ़ावा दिया था. एक और उदाहरण द्वारा मार्क्स ने तत्कालीन समाज के पूंजीवादी चेहरे, उस समय के प्रशासन की संवेदनहीनता एवं उनके अमानवीय चेहरे को बेनकाब करने का प्रयास किया है. इसके लिए वह ‘पूंजी’ में जून 1863 के अंतिम सप्ताह में दैनिक ‘लंदन’ में प्रकाशित एक अन्य समाचार का उल्लेख करता हैं— ‘‘जून 1863 के अंतिम सप्ताह में दैनिक समाचारपत्र ‘लंदन’ ने एक समाचार झकझोर देनेवाले शीर्षक के साथ प्रकाशित किया था. शीर्षक था—‘काम के बोझ के कारण मौत.’ समाचार में महिलाओं की टोपी बनाने वाली फैक्ट्री में काम करने वाली बीस वर्ष की एक युवती मेरी अन्ना वाॅकले के निधन की दुःखद सूचना प्रकाशित हुई थी. मेरी वाकले वस्त्र-निर्माण से जुड़े लंदन के एक प्रतिष्ठित कारखाने में कार्य करती थी, जो लंदन के टोप बनाने वाले बेहतरीन कारखानों में शुमार होता था. कंपनी की महिला मालकिन मेरी वाकले सहित वहां काम करने वाली बाकी लड़कियों का भी खूब शोषण करती. वह घाघ महिला मेरी को लुभावने नाम ‘एलीस’ द्वारा पुकारती थी. आगे की कहानी वही है जो कई बार सुनाई जा चुकी है. वह लड़की यानी ऐनी मेरी वाकले प्रतिदिन औसतन साढ़े सोलह घंटे कार्य करती थी. सीजन के दिनों में जब फैक्ट्री में काम का दबाव रहता, उसे तीस-तीस घंटे तक बिना आराम किए, लगातार कार्य करना पड़ता था. काम के बोझ से थकी हुई लड़कियों को काफी और शराब परोसी जाती, ताकि थकान की अनुभूति के बिना वे लगातार काम पर डटी रहें. वेल्स की राजकुमारी का आगमन था. उसके स्वागत में सम्मानित परिवारों की महिलाएं एक नृत्य प्रस्तुत करनेवाली थीं. मेरी वाॅकले के कारखाने को उस विशेष अवसर के लिए पोशाकें तैयार करनी थीं. काम का दबाव अत्यधिक था. इसलिए एक छोटे-से कमरे में तीस लड़कियां एक साथ काम पर लगी रहतीं. उनमें से प्रत्येक के हिस्से में मात्र एक-तिहाई वर्ग फुट हवा आती थी. कारखाने में मेरी वा॓कले साठ और लड़कियों के साथ काम पर जुटी हुई थी. बिना किसी आराम के रात-दिन काम करते हुए उन्हें छब्बीस घंटे से अधिक बीत चुके थे. आखिर जब काम करते-करते बदन बुरी तरह टूटने लगा तो कारखाना मालिक की परवाह न कर वे सभी लड़कियां गत्ते खड़े करके बनाए गए एक बेहद संकरे स्थान पर आराम करने के लिए जोड़े बनाकर, उकड़ूं लेट गईं. आने वाले शुक्रवार के दिन मेरी बीमार पड़ी और तीसरे ही दिन;यानी रविवार को वह मर गई. उसकी रक्षा के लिए मेडम एलीस ने कोई चमत्कार नहीं किया,ना उसपर किसी ने कोई दया की. मरते समय मेरी वाॅकले के हाथ में वही काम था जिसे उसने पिछली रात सोने से पहले पूरा किया था. डाॅक्टर को बुलाने में भी लापरवाही बरती गई. उसे ठीक उस समय बुलाया गया जब कि कोर्ट में जूरी के सामने गवाही होनी थी. हड़बड़ी में डाॅक्टर ने वक्तव्य दिया कि—‘मिस मेरी एनी वा॓कले की मृत्यु एक भीड़ भरे कक्ष में घंटों तक लगातार कार्य करते रहने के कारण हुई है. जिस कमरे में वह बाकी लड़कियों के साथ काम कर रही थी, वह बहुत छोटा था, उसमें हवा आने-जाने का भी ढंग से इंतजाम नहीं था।’’ डा॓क्टर का वक्तव्य सत्य एवं प्रामाणिक था. सारा दोष कारखाना मालिकन का था, जो लड़कियों से उनकी कार्यक्षमता से कई गुना काम ले रही थी. न्याय के पक्ष में उसको दंडित किया जाना आवश्यक था. बावजूद इसके मामला जब न्यायालय में पहंुचा तो उसने कारखाने की मालिकन का ही पक्ष लिया. मामले की गंभीरतापूर्वक समीक्षा करने के बजाय अदालत ने उसके तुरंत निपटान पर जोर दिया. मार्क्स लिखता है— ‘‘डाक्टर को बहुत बाद में ज्यूरी के समय बयान देने के लिए बुलाया गया. सम्मानित न्यायाधीशों के समक्ष दिए गए बयान को सम्मानित रूप देते हुए अपने फैसले में जज ने लिखा—‘मृतक दिमागी मूर्छा के कारण मरी है. तथापि यह मानने का भी कारण है कि उसकी मृत्यु कार्य की अधिकता तथा एक ही कमरे में अत्यधिक भीड़ के कारण हुई है…’ जज की यह टिप्पणी एक तरह से समूचे घटनाक्रम पर पर्दा डालने वाली थी, इसपर भी ‘माॅर्निंग स्टार’ जैसे पूंजीपति समर्थक समाचारपत्रों को इस फैसले में खोट नजर आया. निर्णय की जमकर आलोचना करते हुए उन्होंने न्यायाधीशों को ‘श्वेत दास’ तक कहा था।’’ पूंजीपति कारखानों में हो रहे शोषण को लेकर हालांकि मार्क्स से पहले भी निरंतर लिखा जाता रहा था, किंतु जितनी प्रामाणिकता के साथ इस विषय पर मार्क्स ने लिखा, उसका प्रभाव दीर्घजीवी और युगांतरकारी था. कारखानों में हो रहे अनाचार को सामने लाने के लिए मार्क्स ने अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, बैठकों और सेमीनारों के माध्यम से समाज में चेतना लाने का काम किया. उसने न केवल स्वयं इस विषय पर लगातार लिखा, बल्कि समकालीन लेखकों को भी इसके लिए खूब प्रेरित किया. मार्क्स की चिंता केवल श्रमिकों के कार्य-घंटे तय किए जाने तक ही सीमित नहीं थी. श्रम के सदुपयोग को लेकर भी उसने कई उपयोगी सुधार दिए थे. उसका मानना था कि स्थायी पूंजी यानी श्रम का उपयोग उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन हेतु किया जाता है.उसका सदुपयोग राष्ट्रकल्याण, श्रमकल्याण के साथ-साथ पूंजीपति के हितों के लिए भी आवश्यक है. यदि वह अनुपयोगी अवस्था में रह जाए तो समाज में श्रम का अतिरेक होने लगता है. यदि किसी कारखाना मालिक को रात-दिन कारखाना चलाने की आवश्यकता आन पड़ती है, तो वह शिफ्टों में काम लेने पर विचार करता है. यदि वह चाहे तो श्रमिकों को भरपूर आराम देने के साथ अतिरिक्त कार्य का न्यायिक भुगतान करके भी अपनी उत्पादकता में सुधार कर सकता है. हालांकि अतिरिक्त कार्य की भी सीमा है. वह कभी भी मजदूर की कार्यक्षमता से बढ़कर नहीं होना चाहिए. बावजूद इसके पूंजीपति स्वामी सामान्यतः यही प्रयास करता है कि वह न्यूनतम भुगतान के बदले अधिकतम काम ले सके. यह प्रवृत्ति न केवल शोषणकारी है, बल्कि श्रमिक के हितों के सर्वथा प्रतिकूल भी है. यह अनेक बुराइयों को जन्म देने वाली एवं आत्मघाती भी है. यह सच भी किसी से छिपा नहीं था कि कारखाना मालिक समान कार्य के लिए बच्चों और स्त्रियों को कम मजदूरी देते हैं. उनमें अधिकांश से रात की पारी में, सर्वथा प्रतिकूल स्थितियों में काम लिया जाता है. वस्तुतः कारखाना मालिकों को लगता था कि दिन में काम करने वाले वयस्क श्रमिकों से देर समय तक काम लेने पर वे अगले दिन अपनी पूरी क्षमता से काम नहीं कर पाएंगे. अधिकांश कारखाना-मालिक रात की पारी के लिए बच्चों को विशेषरूप से चुनते थे. कुछ काम ऐसे भी होते जिन्हें बच्चों से आसानी से कराया जा सकता था. ऐसे कार्यों के लिए प्रायः बच्चों को नौकरी पर रखा जाता और विषम परिस्थितियों के बावजूद उनसे काम लिया जाता था. कई बार ऐसा भी होता जब अगली पारी में काम पर आने वाला बालक छुट्टी पर होता है. उस अवस्था में उन्हें अगली पारी में भी लगातार काम करना पड़ता है. कई पारियों में चलने वाले कारखानों में ऐसी स्थितियां अक्सर उत्पन्न होती रहती हैं. बालश्रमिकों को उत्पीड़न से उबारने के लिए मार्क्स ने सलाह दी थी कि उनसे रात की पारी में काम लेने की प्रवृत्ति पर रोक लगनी चाहिए. यदि जरूरी हो तो यह कार्य सख्त कानून बनाकर किया जाना चाहिए. मार्क्स कारखानों में कार्यघंटों को सीमित किए जाने के पक्ष में था. इसके लिए उसने न केवल समाचारपत्र-पत्रिकाओं में कई लेख लिखे थे, बल्कि इस संबंध में चलने वाले श्रम-आंदोलनों का भी नेतृत्व किया था. मार्क्स ने लिखा था कि आदर्श अवस्था तो यह होगी कि चैबीस घंटे काम करने वाले कारखानों के मालिक प्रत्येक कार्यदिवस के लिए अलग मजदूरों की नियुक्ति करें. ताकि श्रमिकगण अपनी अगली पारी के लिए भरपूर आराम कर सकें. किंतु यह एक विडंबना ही है कि पूंजीपति की निगाह में मजदूर का महत्त्व केवल काम करने वाली मशीन जितना होता है और कई मामलों में तो मशीन से भी कम. उसकी सदैव यही कोशिश होती है कि वह अपने अधीन श्रमिक से किसी भी प्रकार अतिरिक्त कार्य ले सके. श्रमिक का निजी जीवन, उसकी चिंताएं और एवं समस्याएं पूंजीपति के लिए अर्थविहीन होती हैं. यही नहीं, एक श्रमिक का औसत जीवनकाल भी पूंजीपति के लिए कोई मायने नहीं रखता, सिवाय इसके कि वह उससे किसी न किसी प्रकार अधिकतम काम ले सके. मार्क्स इसे श्रमिकों के लिए भी चुनौतीपूर्ण मानता था. उसका मानना था कि कारखाना मालिकों द्वारा अपने श्रमिकों से आवश्यकता से अधिक काम लेना दोधारी तलवार पर चलने के समान है. इससे जहां श्रमिकों की कार्यक्षमता प्रभावित होती है, वहीं उनके मन में कारखाना-स्वामियों के प्रति आक्रोश भी पनपता है. अपनी क्षमता से बाहर लगातार कार्य करने से उनकी उनकी कार्यक्षमता में गिरावट आती है. यह स्थिति कालांतर में श्रमिक-स्वामी संबंधों में विघटन और तनाव की स्थितियों को जन्म देती है. उसका मानना था कि यदि श्रमिकों से उनके सामर्थ्य के अनुरूप काम लिया जाए और यह सोचकर काम लिया जाए कि अगले दिन भी उनकी कार्यकुशलता तो यथानुरूप बनाए रखना है, तो वह अपने हितों की बेहतर देखभाल कर सकता है. इसका परिणाम यह होगा कि कारखाना मालिक को लंबे समय तक दक्ष श्रमिकों की उपलब्धता बनी रहेगी.यदि किसी श्रमिक से निर्धारित कार्यघंटे पूरे होने पर भी काम लिया जाता है तो श्रमिक को अपनी कार्यकुशलता बनाए रखने के लिए अतिरिक्त भरण-पोषण की जरूरत पड़ेगी,ताकि वह काम के दौरान खर्च हुई ऊर्जा का पुनरुत्पादन कर सके और अगले दिन कारखाना-स्वामी को उसकी आवश्यकतानुसार श्रम-सामथ्र्य उपलब्ध हो सके. कारखाना मालिक जब ऐसा महसूस करने लगे तो समझना चाहिए कि उसने श्रम के महत्त्व को स्वीकार कर लिया है. मगर होता इसके विपरीत है. इसलिए कि दो श्रमिकों से काम लेने के बजाय एक ही श्रमिक के कार्यघंटे बढ़ाकर काम लेना पूंजीपति को अपेक्षाकृत सस्ता पड़ता है. अतएव अपने तात्कालिक हितों को प्रमुखता देते हुए वह एक ही श्रमिक से अतिरिक्त काम लेने के विकल्प को चुनता है. उसका लगातार यही प्रयास होता है कि अतिरिक्त कार्य भी वह न्यूनतम मजदूरी के भुगतान के आधार पर प्राप्त कर सके. इससे श्रमिक पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है. मार्क्स के अनुसार यह प्रवृत्ति पूंजीपतिवर्ग के लिए तात्कालिक रूप में भले ही लाभकारी हो, मगर अंततः इससे श्रमिक और पूंजीपतिवर्ग दोनों का ही नुकसान होता है. इससे श्रमिक की उत्पादकता घटती है. वहीं पूंजीपति को इसका खामियाजा गुणवत्ता में गिरावट और श्रमिक विद्रोह के रूप में भुगतना पड़ता है.सरकार पर भी श्रम-कल्याण कानून बनाकर उन्हें सख्ती से लागू करने का दबाव बना रहता है. उस दिनों पूरे यूरोप में कार्यघंटों को निर्धारित करने के लिए बहस छिड़ी हुई थी. पूंजीवाद समर्थक अर्थशास्त्रियों तथा श्रमिक नेताओं-बुद्धिजीवियों के इस बारे में अलग-अलग विचार थे. अपने अभियान में उन्हें प्रारंभिक सफलता भी मिल रही थी. ओवेन जैसे उदार समाजवादी-पूंजीपति पहले ही अपने कारखानों में कार्यघंटों को सीमित करने की घोषणा कर चुके थे. सरकार और कारखाना-मालिकों पर भी पूरा-पूरा दबाव था. भोजनकाल को छोड़कर कार्यघंटों को सीमित किए जाने की अनिवार्यता को लेकर सभी वर्गों में सहमति बनती जा रही थी. इसी के परिणामस्वरूप सरकार कारखानों में अधिकतम कार्यघंटों को सिद्धांततः सहमति देने को तैयार हुई थी. इस निर्णय से उत्साहित मार्क्स की टिप्पणी थी— ‘औद्योगिक कारखानों में अधिकतम कार्यघंटे निर्धारित करने का निर्णय, पूंजीपतियों और श्रमिकों के बीच सैकड़ों वर्ष के संघर्ष का सुफल था. यह मानने में भी कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि श्रम कानून बनाने और उन्हें लागू करने के पीछे जहां यूरोप के लाखों श्रमिकों का संघर्ष और बलिदान था, वहीं उसके प्रूधों,फ्यूरियर, संत साइमन, ओवेन, ब्लेंक, रूसो तथा मार्क्स जैसे चिंतकों का भी योगदान था,जिन्होंने न केवल विचार के स्तर पर बल्कि सक्रिय आंदोलनकारी के रूप में भी श्रम-कानूनों को बनाने और उन्हें गंभीरतापूर्वक लागू करने के लिए सतत संघर्ष किया था.
8. अधिशेष ‘पूंजी’ के अगले अध्याय में मार्क्स ने अधिशेष की दर की व्याख्या की है. अधिशेष पूंजी की वह मात्रा है जो उत्पाद के विक्रय मूल्य में से लागत मूल्य को घटाने पर प्राप्त होती है. पूंजीपति इसपर अपना अधिकार मानता है. स्वामी होने के नाते वह इसको अधिकार भाव से ग्रहण करता है. अधिशेष की मात्रा ही उत्पादन के प्रति उसकी रुचि और हितों को प्रभावित करती है. मार्क्स का मानना था कि पूंजीवादी व्यवस्था में अधिशेष की मात्रा पूंजीपतियों के अधीन कार्यरत श्रमिकों की संख्या पर निर्भर करती है. अधिशेष-दर में वृद्धि के लिए पूंजीपति अपने श्रमिकों से अधिक से अधिक कार्यघंटों तक काम लेना चाहता है, साथ ही लागत घटाने के लिए वह न्यूनतम मजदूरी का भुगतान करता है.यह शोषणकारी स्थितियों के बिना असंभव है. अधिशेष-मूल्य की मात्रा की गणना अधिशेष-मूल्य की दर को श्रमिकों की संख्या से गुणा करने पर प्राप्त की जा सकती है.यदि अधिशेष-मूल्य की मात्रा ‘अ’ तथा अधिशेष-मूल्य की दर ‘द’ एवं श्रमिकों की कुल संख्या ‘स’ हो तो मार्क्स के सूत्र के अनुसार— अधिशेष मूल्य की मात्रा ‘अ’ = ‘द’ गुणा ‘स’ इस सूत्र से साफ होता है कि जैसे-जैसे शोषित श्रमिकों की संख्या बढ़ती है, मालिक का अधिशेष मूल्य उतना ही बढ़ता जाता है. दूसरे शब्दों में पूंजीवादी व्यवस्था में मालिक के लाभ का अनुपात श्रमिक के शोषण का अनुक्रमानुपाती होता है. अर्थात जैसे-जैसे मालिक के लाभ की संभावना बढ़ती है, श्रमिक का शोषण भी उसी अनुपात में बढ़ता चला जाता है. परिणामस्वरूप पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपति लगातार लाभ की स्थिति में रहकर मजबूत होता जाता है, जबकि श्रमिक का घाटा बढ़ता रहता है. अधिशेष मूल्य का विश्लेषण करते हुए मार्क्स इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि पूंजीवादी निकाय में— ‘उत्पादित अधिशेष-मूल्य की मात्रा लगाई गई चल पूंजी तथा अधिशेष-दर के गुणनफल के बराबर होती है.’ स्पष्ट है कि मालिक के कुल लाभ की मात्रा शोषित श्रमिकों की संख्या तथा उनके शोषण की मात्रा पर निर्भर करती है. जैसे-जैसे श्रमिकों की संख्या बढ़ती है, मजदूरी पर होने वाला खर्च भी बढ़ता जाता है. यदि उसी अनुपात में उत्पादकता में वृद्धि न हो तो उसका लाभ मालिक के लाभ की मात्रा पर पड़ता है, जो घटती जाती है. यदि उत्पादन की मात्रा स्थिर रहे तो मालिक का लाभ मजदूरी की मात्रा के व्युत्क्रमानुपाती होता है. अतः उसकी कोशिश होती है कि वह न्यूनतम श्रमिकों से अधिकतम कार्य ले सके. इसके लिए वह अपने उद्योग में श्रमिकों की संख्या को घटाता चला जाता है. हालांकि वह दिखावा यही करता है कि श्रमिकों कम संख्या की भरपाई वह कार्यरत श्रमिकों को अधिक भुगतान द्वारा कर देगा. लेकिन ऐसा हो नहीं पाता. चूंकि कोई भी श्रमिक अपने श्रम-मूल्य से अधिक योगदान देने में असमर्थ होता है, इसलिए यह सर्वथा असंभव है कि मालिक मजदूरों की घटाई गई संख्या की भरपाई कर सके. इस विश्लेषण के उपरांत मार्क्स इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि— ‘कार्यरत श्रमिकों की घटाई हुई संख्या की क्षतिपूर्ति असंभव है.’ अपने इस नियम की विवेचना करते हुए मार्क्स ने कारखाना मालिकों की इस प्रवृत्ति की आलोचना की थी, जिसके कारण वे श्रमिकों की संख्या घटाकर उत्पादन का स्तर बनाए रखने का प्रयास करते हैं. उसका कहना था कि कार्यदिवस की गणना श्रमिकों की औसत कार्यक्षमता के अतिरिक्त अन्य सभी सामान्य उतार-चढ़ावों को ध्यान में रखकर की जाती है. गणना के समय मालिक और मजदूर दोनों के हितों को ध्यान में रखा जाता है.इसलिए उसकी शर्तों का पालन करना श्रमिक और स्वामी दोनों के लिए ही अनिवार्य होना चाहिए. अपने विश्लेषण को आगे बढ़ाते हुए मार्क्स लिखता है उत्पादन प्रक्रिया के दौरान पूंजीपति अपनी पूंजी को दो भागों में बांट देता है. उसका एक हिस्सा उत्पादन के लिए अनिवार्य संसाधनों पर खर्च होता है, जिससे वह मशीनरी आदि की व्यवस्था करता है. पूंजी का दूसरा हिस्सा श्रम-शक्ति के भरण-पोषण के लिए किया जाता है, जो वह चल पूंजी के रूप में श्रम-शोषण का माध्यम बनता है. औद्योगिक स्पर्धा की स्थिति में लाभ की स्थिरता को बनाए रखने के लिए मालिक का ध्यान सीधे मजदूरी पर होने वाले खर्च पर जाता है. मशीनें और सयंत्र आदि चूंकि उसकी अपनी परिसंपत्ति होते हैं, इसलिए वह उनसे कोई छेड़छाड़ न कर मजदूरी में कटौती पर जोर देता है. यही नहीं लाभांश को बनाए रखने के लिए वह समय-बाह्यः घोषित हो चुकी तकनीक को अमल में लाता है और उसकी भरपाई के लिए श्रमिकों से प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अधिक से अधिक काम लेने का प्रयास करता है. ये स्थितियां श्रमिकों की उत्पादकता पर दुष्प्रभाव डालती हैं.
9. सहकार
1848 में जिन दिनों मार्क्स कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो के माध्यम से श्रमिकों से एकजुट होकर शोषणकारी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का आवाह्न कर रहा था, उससे पहले ही सहकारिता स्वयं को पूंजीवादी व्यवस्था के सशक्त और शांतिमय विकल्प के रूप में स्थापित कर चुकी थी. रोशडेल पायनियर्स ने 1844 में लंदन में उपभोक्ता भंडार की स्थापना कर सहकारिता के क्षेत्र में एक अहिंसक क्रांति का आवगाहन किया था.आंदोलन उत्तरोत्तर विकासशील अवस्था में था. 1867 तक तो सहकारिता आंदोलन न केवल पूरे इंग्लेंड में बल्कि फ्रांस, जर्मनी, स्वीडन, डेनमार्क, स्पेन, रूस आदि अनेक देशों में अपनी पहचान कायम कर चुका था. पूंजीवादी चुनौतियों से निपटने के लिए तेजी से सहकारी समितियों का गठन किया जा रहा था. बावजूद इसके मार्क्स को लगता था कि सहकारिता द्वारा वैज्ञानिक समाजवाद के अपेक्षित लक्ष्य को प्राप्त कर पाना असंभव है.अपने महाग्रंथ ‘पूंजी’ में उसने पूरा एक अध्याय सहकारिता पर विचार के लिए सुरक्षित रखा था.
इस अध्याय में संगठन की कार्यशैली का विश्लेषण करते हुए उसने लिखा है कि एक पूंजीपति के अधीन कार्य करने वाला कार्यदल उतना ही कार्य करता है, जितना कि उतनी ही संख्या का दूसरा दल दूसरे पूंजीपति के कारखाने में उसी कार्य को करता है. किन्हीं भी दो समवयस्क व्यक्तियों की कार्यक्षमता में थोड़ा-बहुत अंतर हो सकता है. किंतु जब वे एक समूह के रूप में हों तो किसी एक की कमियों की भरपाई दूसरे व्यक्ति द्वारा आसानी से हो जाती है. इसी आधार पर अनेक समक्षमतावान कार्यदलों का गठन किया जा सकता है. मगर यह तभी संभव हो सकता है, जब समूह के सदस्यों की संख्या निर्धारित न्यूनतम सीमा पर हो. यदि समूह को उससे छोटा करते जाएं तो उनके द्वारा किए गए कार्य की मात्रा पर सदस्यों के व्यक्तिगत लक्षणों का असर साफ दिखने लगता है. छोटे समूहों में एक अपेक्षाकृत अधिक मजबूत एवं अधिक उत्पादक, जबकि दूसरा कमजोर यानी कम उत्पादन-सामथ्र्य वाला समूह हो सकता है. किंतु जब हम उन कार्य समूहों को एकसाथ कार्य करने का अवसर देते हैं तथा उनकी कार्यक्षमता का संयुक्त आकलन करते हैं, तो इस अंतर की भरपाई हो जाती है. इस उदाहरण के आधार पर मार्क्स ने सहकारिता को परिभाषित करते हुए लिखा है कि सहकारिता वह व्यवस्था है—
‘जब श्रमिकगण भारी संख्या में एक-दूसरे के कंधे से कंधा मिलाकर साथ-साथ, एक ही कार्य को योजनाबद्ध तरीके से, या अलग-अलग कार्यों को एक-दूसरे से संबद्ध होकर पूरा करते हैं.’
सहकारिता आंदोलन के बारे में मार्क्स का दृष्टिकोण था कि सहकारी समूह में सामाजिक संबंध प्राकृतिक स्पर्धा की स्थिति में आकर वही आचरण करने लगते हैं, जिनके निषेध के लिए उनका गठन किया जाता है और सहकार की मूल भावना के प्रतिकूल होते हैं.प्रकारांतर में वे पूंजीवादी व्यवस्था को बढ़ावा देने में सहायक सिद्ध होते हैं. जैसे कि सहकारिता सिद्धांतरूप में स्पर्धा का निषेध करती है, लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था में स्वयं को टिकाए रखने के लिए उन्हें अघोषित स्पर्धा का सामना करना ही पड़ता है. इस दौरान वे अधिक से अधिक उपभोक्ता सामग्री का उत्पादन करने लगते हैं. मार्क्स ने सहकारी उद्यमों की इस बात के लिए भी आलोचना की है कि वे किसी कार्य-विशेष में लगने वाले समय को छोटा कर देते हैं. सहकारी संगठनों की आलोचना करते हुए उसने लिखा है कि यदि किसी उद्यम की—
‘श्रम-प्रक्रिया जटिल हो, तो समूह की सदस्यों का स्पष्ट बहुमत उत्पादन कार्य के विभिन्न चरणों को अलग-अलग कारीगरों के बीच बांटने की अनुमति दे देते हैं. जिससे उनकी कार्यक्षमता बढ़ती है. इससे किसी काम को पूरा करने में लगने वाला समय, अपने आप घट जाता है.’
मार्क्स के अनुसार पूंजीपति के लिए कर्मचारियों की बड़ी संख्या को थोड़े समय तक काम पर रखकर उन्हें मजदूरी देने की अपेक्षा, थोड़े कर्मचारियों को लंबे समय नौकरी देना आसान होता है. निष्कर्षतः पूंजीपति पूंजी का वह हिस्सा जिसके दम पर वह कर्मचारियों को कभी भी नौकरी पर रख सकता है, बचाकर रखता है. सहकारिता भी पूंजीवाद के प्रतिरोधी स्वर के रूप में उभरती है. स्वयं को बेहतर विकल्प के रूप में प्रस्तुत करते हुए वह पूंजी की ताकत को अपनी सांगठनिक क्षमता द्वारा संतुलित करने का प्रयास करती है. बावजूद इसके स्पर्धा में बने रहने के लिए अंततः सहकारिता आधारित उद्यम भी पूंजीवादी तरीकों को अपनाने लगते हैं. इस अवस्था में उनके समाजार्थिक हितों का संतुलन बिगड़ने लगता है. पूंजीवादी समूह की भांति सहकारी समूह भी केवल आर्थिक हितों तक सीमित होकर कार्य करने लगते हैं. मार्क्स को यह भी डर था कि सहकारी समूहों की ताकत बढ़ने पर उसको पूंजीपतियों के संगठित विरोध का सामना करना पड़ सकता है. उस अवस्था में सहकारी संगठन स्वयं को बचाए रखने के लिए अपने सामाजिक हितों की उपेक्षा कर सकते हैं. उस अवस्था में सहकार का उद्देश्य ही अधूरा रह जाता है. पूंजी की संगठित शक्ति के बारे में मार्क्स का विचार था कि—
‘इसलिए नहीं कि वह उद्योग-समूह का नेता है, और एक पूंजीपति है. बल्कि वह उद्योगों का नेता ही इसलिए है, क्योंकि वह पूंजीपति है.’
मार्क्स ने सहकारी समूह को पिरामिड की संज्ञा दी है. वह आगे उदाहरण देता है कि मान लीजिए नीलघाटी में पैदा होने वाले अनाज पर सम्राट का अधिकार है. उसकी यह क्षमता भी है कि वह अधिक व्यक्तियों को एक-दूसरे के साथ मिलकर कार्य करने,पिरामिड के रूप संगठित होकर अपेक्षाकृत कम समय में काम पूरा करने की प्रेरणा भी दे सकता है. इससे श्रमिकों को उनके काम के बदले पर्याप्त आमदनी नहीं हो पाएगी.मार्क्स द्वारा सहकारिता की आलोचना पूर्वाग्रहों से भरी लगती है. लेकिन वह सर्वथा असंगत भी नहीं है. दरअसल सहकारिता की कमजोरियों के रूप में वह जिन कारणों और समस्याओं को गिनाता है, समूह के सदस्य यदि जागरूक और अपने अधिकारों के प्रति सचेत हों, तो ये दुर्बलताएं ही उसकी शक्ति का रूप धारण कर लेती हैं.
10. श्रमविभाजन के सिद्धांत और उत्पादन अर्थशास्त्र के दृष्टि से यह ‘पूंजी’ के अतिमहत्त्वपूर्ण अध्यायों में से एक है. इसमें मार्क्स उन उत्पादन प्रविधियों का विश्लेषण करता है, जिन्हें पूंजीवादी अर्थव्यवस्था अपने लाभ को ध्यान में रखकर गढ़ती है. विश्लेषण के दौरान वह उत्पादन के दो प्रविधियों का उल्लेख करता है. पहली विधि के अंतर्गत उत्पादन प्रक्रिया में निपुण कामगारों को श्रेणीक्रम में इस प्रकार संयोजित किया जाता है कि उत्पादन कार्य उनमें से एक के बाद एक हाथों में जाकर पूर्णता को प्राप्त होता है. इस विधि में कार्य को छोटे-छोटे चरणों में बांटकर उन्हें क्रमानुरूप संयोजित कर दिया जाता है. उद्यमी प्रायः एक ही प्रकार के उत्पाद की रचना करता है. उदाहरण के लिए ट्रकों के लिए पिस्टन बनाने वाला कारीगर, कारखाने में एक समय में केवल पिस्टन बनाने का ही कार्य करेगा. और वह भी एक बार में एक ही किस्म के. भले ही वह अलग-अलग प्रकार के पिस्टन बनाने में निपुण हो. इस पद्धति में कर्मचारी का मस्तिष्क एकाग्र रहता है. एक कार्य को करते समय उसके हाथ उस काम में पारंगत हो जाते हैं, जिससे उसकी उत्पादकता बढ़ जाती है तथा उसको अपने काम में निपुणता का एहसास होने लगता है. उनके आत्मविश्वास में वृद्धि होने लगती है. उनकी कार्यक्षमता वैविध्ययुक्त होती है. साथ ही उन्हें यह आश्वति होती है कि कारखाना बंद होने अथवा छंटनी के अवसर पर उनके पास रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध होंगे. कार्यविभाजन की दूरी पद्धति के अंतर्गत पूंजीपति कामगारों की भारी-भरकम संख्या को नौकरी पर रखता है तथा कार्य का इस प्रकार समायोजन करता है कि प्रत्येक कारीगर पूरा का पूरा माल स्वयं बनाता है. इस पद्धति में प्रत्येक कारीगर माल बनाने में निपुण होता है. मगर जटिल उत्पादन प्रक्रिया के दौरान, जिसके निर्माण में तरह-तरह की मशीनों, औजारों और सामग्रियों का उपयोग होता हो, अथवा अनेक पुर्जों को जोड़कर किसी बड़े उत्पाद का निर्माण करना हो, तो यह पद्धति कारगर नहीं हो पाती. उस अवस्था में यह अव्यावहारिक सिद्ध होती है. यह पद्धति कामगारों के निजी कौशल पर निर्भर करती है और बहुआयामी तकनीकी निपुणता वाले श्रमिक मिलना आसान नहीं होता. उत्पादन में अचानक वृद्धि करनी पड़े तो उसके लिए अतिरिक्त कुशल कारीगरों का इंतजाम करना कठिन हो जाता है. इस प्रविधि में उत्पादन श्रमिकों के कौशल पर निर्भर करता है. परिणामस्वरूप उत्पादक श्रमिकों पर आश्रित हो जाता है. यह स्थिति उसके पूंजीवादी हितों के प्रतिकूल होती है. अतः मानवीय कौशल पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए पूंजीपति उत्पादन प्रक्रिया के अधिकतम मशीनीकरण पर जोर देता है. उच्चतम उत्पादन क्षमता बनाए रखने के लिए वह उत्पादन क्रियाओं का छोटे-छोटे प्रखंडों में वर्गीकरण करता है, ताकि प्रत्येक श्रमिक से उसका सर्वश्रेष्ठ कार्य लिया जा सके. इस पद्धति में श्रमिक को भी कम परिश्रम करना पड़ता है, अतः बगैर यह जाने कि यह पूंजीपति के लिए अपेक्षाकृत अधिक लाभकारी है, वह इसका समर्थन करता है. बड़े उद्यमों में पूंजीपति की कोशिश होती है कि कार्य को छोटे-छोटे प्रखंडों में विभाजित कर दिया जाए तथा एक कारीगर को उसकी क्षमता के अनुसार छोटे-से-छोटे प्रखंड की जिम्मेदारी सौंपी जाए, ताकि वह किसी एक क्रिया पर अपने आप को एकाग्र रखे. उस अवस्था में उसकी कार्यक्षमता अलग-अलग प्रवृत्ति का काम करने की अपेक्षा अधिक उत्पादक होगी. मार्क्स का कहना था कि जो कारीगर पूरे जीवनकाल में एक ही प्रकार का कार्य करता रहता है, उसके काम में दूसरों की अपेक्षा अधिक कौशल होता है.उसकी उत्पादक दूसरे कामगारों से अधिक पाई जाती है. इसलिए पूंजीपति की कोशिश होती है कि वह बहुमुखी कारीगरों के स्थान पर प्रत्येक उत्पादन-स्तर के लिए अलग-अलग कामगारों की नियुक्ति करे. संभव है इसके लिए आनुपातिक रूप में अधिक संख्या में श्रमिकों को नियुक्त करना पड़े. लेकिन अपेक्षाकृत कम कुशल श्रमिकों से भी काम चल जाने के कारण इसमें मजदूरी की बचत होती है और मालिक को श्रमिकों पर निर्भर भी नहीं होना पड़ता. कुल मिलाकर यह पद्धति पूंजीपति स्वामी के हितों के अनुकूल होती है. मार्क्स का यह भी कहना था कि एक ही प्रकार के उत्पादन से लंबे समय तक जुड़े रहने वाले विशेषज्ञता प्राप्त कारीगर प्रायः परिष्कृत औजारों से काम लेने में सक्षम होते हैं. हालांकि वे अलग-अलग काम करने में उतने कार्यक्षम नहीं होते, जितना कि कोई दक्ष कारीगर हो सकता है. इस व्यवस्था में श्रमिक मशीन का पुर्जा बनकर रह जाता है. उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन श्रमिकों को कुशल और अकुशल श्रेणी में बांट देता है. कुशल श्रमिक के लिए लंबे प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ती है, इसलिए उत्पादन-प्रक्रिया के अंतर्गत उसके द्वारा किया गया योगदान अधिक श्रम-मूल्य की अपेक्षा रखता है. इसके विपरीत अकुशल कर्मचारी के काम में किसी भी प्रकार की विशेषज्ञता नहीं होती. उसको आमतौर पर वह कार्य सौंपा जाता है, जिसे कोई भी व्यक्ति बड़ी आसानी से पूरा कर सकता है. इसलिए उसके योगदान को अपेक्षाकृत कम श्रम-मूल्य द्वारा आंका जाता है. अपनी विशेषज्ञता और कुशलता का लाभ उठाने के लिए प्रशिक्षित कारीगर ऐसे कार्यों की तलाश में रहता है, जहां उसके कौशल की अपेक्षाकृत ऊंची कीमत प्राप्त हो सके. वह यह भी उम्मीद करता है कि उसको बाकी श्रमिकों, विशेषकर अकुशल कामगारों की श्रेणी से अलग और ऊपर माना जाए. मार्क्स के अनुसार बाजार में अपने ऊंचे श्रम-मूल्य के लिए प्रयासरत कुशल कामगार अंततः स्वयं महंगी उपभोक्ता सामग्री का रूप धारण कर लेता है. अन्य उपभोक्ता-सामग्री की भांति बाजार में आकर वह भी स्पर्धा की वस्तु बन जाता है. श्रमिकों के बीच स्पर्धा की अघोषित स्थिति पूंजीवादी व्यवस्था को मजबूत करने का काम करती है. कार्य का छोटे-छोटे समूहों में विभाजन श्रमिकों के बीच श्रम-मूल्य तथा श्रम-शक्ति के आधार पर स्तरीकरण को बढ़ावा देता है. यह स्थिति भी उत्पादक वर्ग के पक्ष में जाती है. क्योंकि श्रम-मूल्य और श्रम-शक्ति के कृत्रिम विभाजन को आधार बनाकर वह श्रमिकों के बीच स्पर्धा बनाए रखने में कामयाब हो जाता है. श्रम-विभाजन को सिर्फ पूंजीवाद की उत्पत्ति मानना अनुचित होगा. वह उससे पहले भी समाज में अपनी उपस्थिति बनाए हुए था. मनुष्य की प्रकृति पर निर्भर होने के कारण यह संभव भी नहीं है कि हर व्यक्ति सभी कार्यों में समानरूप से दक्ष हो. उसका परिवेश और मानसिक-शारीरिक सामथ्र्य उसको कार्यविशेष की और उन्मुख करता है. उस कार्य में लगातार कार्य करते हुए वह पर्याप्त कौशल प्राप्त कर लेता है. मार्क्स का मानना था कि पूंजीवाद-नियंत्रित कार्यशालाओं तथा फैक्ट्रियों में श्रमिकों के बीच कार्य-विभाजन एकरूपता लिए होता है, दूसरी ओर सामाजिक-मनोवैज्ञानिक कारक उसको समाज के बीच अलग-अलग वर्गों में बांट देते हैं. इससे उसके विभिन्न समूहों के बीच द्वंद्व की संभावना बढ़ जाती है. सामाजिक स्तर पर श्रमिकों का विभाजन भी पूंजीपतियों के लिए हितकारी होता है. मार्क्स का मानना था कि श्रमिकों की संख्या के अनुपात में उत्पादन-वृद्धि के साथ-साथ अधिशेष मूल्य में बढ़ोत्तरी का प्रयास, कालांतर में अकुशल श्रमिकों की संख्या में कमी लाता है. लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादक का ध्यान श्रमिकों की संख्या में वृद्धि से अधिक मशीनों की संख्या में वृद्धि पर होता है. उत्पादन क्षेत्रा में आत्मनिर्भरता बढ़ाने बाजार में एकाधिकार कायम रखने के लिए वह नवीनतम तकनीक के उपयोग पर जोर देता है. अपने दूरगामी हितों को साधने के लिए लाभ का एक हिस्सा नवीनतम तकनीक की खोज पर लगाता है. इससे लाभांश सीमित हाथों में सिमटकर रह जाता है. 11. मशीनों का विकास मशीनें आधुनिक उत्पादन-तंत्रा की जान हैं. उत्पादन प्रक्रिया के दौरान मशीनरी के उपयोग का वास्तविक उद्देश्य उत्पादकता में अपेक्षित बढ़ोत्तरी करना है. आदर्श स्थिति तो यह होगी कि मशीनें श्रमिक से रोजगार के अवसर छीने बगैर उत्पादन में हिस्सा लें, साथ ही कठिन श्रम और अप्रिय स्थितियों से भी उसकी रक्षा करें. सामान्यतः ऐसा नहीं होता. चूंकि मशीनों का आविष्कार पूंजीपति की महत्त्वाकांक्षा एवं पूंजी के सहयोग से होता है, इसलिए शोध संस्थानों में कार्यरत वैज्ञानिक-इंजीनियर अपने आका पूंजीपति को खुश करने के लिए तकनीक का अधिकाधिक स्वचालीकरण करने पर जोर देते हैं. मशीनों की अभिकल्पना केवल उत्पादकता में वृद्धि को आधार बनाकर की जाती है. श्रमिक की कठिनाई को सामान्यतः नजरंदाज कर दिया है. मार्क्स के अनुसार उत्पादकता में वृद्धि होते ही उपभोक्ता वस्तुएं सस्ते दाम पर उपलब्ध होने लगती हैं. इसी के साथ उत्पादक के लाभांश में वृद्धि होती जाती है. मशीनें उत्पादन-प्रक्रिया के अंतर्गत लगने वाले श्रम को कम कर देती हैं, वे इतना कार्य एक साथ निपटा देती हैं जिसके लिए श्रमिकों की भारी संख्या की जरूरत पड़ती. इस तरह वे एक साथ कई श्रमिकों के कई कार्यदिवसों को छीन लेती हैं, जो उनके जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आवश्यक हैं. परिणामस्वरूप श्रमिकों के हाथों से काम खिसकने लगता है. मशीनों के आ जाने से पूंजीपति की उत्पादकता पर कोई असर नहीं पड़ता, बल्कि वह लगातार वृद्धि की ओर अग्रसर होती है.पूंजीपति सुनियोजित तरीके से तकनीकी शोध एवं विकास पर जोर देता है, ताकि उसकी श्रमिकों पर कम से कम निर्भरता हो. इस प्रकार वह पूंजी के दम पर विद्रोह की तमाम स्थितियों से निपटने में सक्षम होता जाता है. मशीनों की कार्यक्षमता में होने वाला निरंतर सुधार पूंजीपति के हितों की रक्षा करता है, लेकिन श्रम-शोषण और बेरोजगारी को बढ़ावा देने का माध्यम भी बनता है. उत्पादन-प्रक्रिया में श्रम-मूल्य घटने से श्रमिक को होने वाली आय में भी गिरावट आती है. परिणाम यह होता है कि जीवन के न्यूनतम स्तर से समझौता कर लेने के बावजूद अपने जीवन की न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने के लिए भी उसको अधिक देर तक कार्य करना पड़ता है. मार्क्स मशीन, औजार तथा उनकी कार्यविधियों में अंतर करके देखता था. उसने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया था कि बहुत से विशेषज्ञ, जिनमें वैज्ञानिक, इंजीनियर, अर्थशास्त्री आदि सभी सम्मिलित हैं, औजार और मशीन के मूलभूत अंतर को समझने में अक्षम होते हैं. वे औजार को प्रायः मशीन का पूरक या उसका लघु संस्करण मानते हैं— ‘वे औजार को साधारण मशीन एवं मशीनों को संश्लिष्ट औजार कहकर पुकारते हैं.’ औजारों के संचालन के पीछे मनुष्य का प्रयोजन और उसका श्रम कार्यकारी शक्ति के रूप में उपस्थित होता है. जबकि मशीन का संचालन ऊर्जा के मानवेत्तर स्रोतों यथा पशु,विद्युत, जल, वायु आदि द्वारा किया जाता है. इस आधार पर पशुओं द्वारा खींचा जाने वाला हल या बैलगाड़ी को मशीन कहना चाहिए तथा करघा जो मनुष्य द्वारा संचालित होता है,औजार है. पुस्तक में मार्क्स ने क्लाजेन द्वारा निर्मित वृताकार करघे का उदाहरण दिया था,जिसको एक मजदूर चला सकता था. वह अत्यंत तीव्र गति से बुनाई करता था तथा एक बार में कई बुनकरों जितना काम करने में सक्षम था. उसका मानना था कि मशीन और औजार के अंतर का साधारणीकरण अनेकानेक समस्याओं को जन्म देता है. वह चाहता था कि इस बारे में सरकार, उद्योगपति समेत सभी संबंधित पक्षों की स्पष्ट नीति होनी चाहिए.मशीन को परिभाषित करते हुए मार्क्स ने लिखा है— ‘मशीन वस्तुतः एक ऐसी यांत्रिक युक्ति है, जब उसको गतिशील किया जाता है तो वह अपने यंत्रों/पुर्जों के माध्यम से सामान्यतः उन्हीं क्रियाओं का निष्पादन करती है, जिन्हें मनुष्य उससे पहले औजारों के माध्यम से करता आया था. यह बात महत्त्वहीन है कि उस मशीन को संचालन-ऊर्जा चाहे किसी मनुष्य द्वारा प्राप्त हो अथवा किसी अन्य स्रोत से आयातित.’ मार्क्स का मानना था कि पूंजीवादी व्यवस्था की जान आधुनिक विशाल संयंत्रा अठारहवीं शताब्दी में आविष्कृत सरल मशीनों द्वारा विकसित हैं. मशीनों का विकास मूलरूप से उन शिल्पकारों द्वारा किया गया है, जो अपने श्रम-कौशल से उत्पादकता की जिम्मेदारी संभालते थे. उन्होंने शिल्पकला को उद्योगों में बदलकर औद्योगिक क्रांति की शुरुआत की थी. हालांकि उनका प्रारंभिक ध्येय उत्पादन प्रक्रिया को सरल एवं कम परिश्रम-युक्त बनाना था. इस कारण ये मशीनें शिल्पकारों को स्थानापन्न करने में सक्षम थीं. वे उन सभी कार्यों को सफलतापूर्वक, बहुत कम समय में, परिष्कृत ढंग से अंजाम दे सकती थीं, जिन्हें उनसे पहले सिर्फ कुशल शिल्पकार ही कर पाता था. साथ ही एक मशीन एक साथ कई शिल्पकारों की भरपाई, लंबे समय तक और बिना किसी मानवीय थकान के कर सकती थी. मशीनों का डिजाइन और निर्माण इस प्रकार किया जाता है कि कारखाने में एक के बाद एक लगी हुई मशीनें, एक-दूसरे की सहयोगी और पूरक की भांति कार्य करती हैं तथा दूसरी मशीनों के साथ मिलकर एक उत्पादन-चक्र को पूरा करती हैं. मशीनों का निरंतर परिष्करण शिल्पकारों पर उनकी निर्भरता को कम से कम करता जाता है. औजार के सामने शिल्पकार के मूल्य होता है. इसलिए पूर्व-मशीनीकृत उत्पादन व्यवस्था में उसका सम्मान होता था. मशीन के आगमन के बाद उसकी हैसियत एक पुर्जे तक सिमटती गई.और अब स्वचालीकरण के बाद तो वह मशीनों पर निर्भर होकर रह गया है. स्वचालित मशीनें उसको स्वयं निर्देश देती हैं. एक स्थिति ऐसी भी आती है, जब मशीनें सारी उत्पादन-प्रक्रिया को स्वयं संभाल लेती हैं. स्वचालन की इस अवस्था में कारखाना मालिक की श्रमिकों-कामगारों पर निर्भरता न्यून हो जाती है. मशीनें कारीगरों से उनका हुनर और रोजगार छीन लेती हैं. मुनाफे का बड़ा हिस्सा स्वयं हड़पने के लिए पूंजीवादी व्यवस्था उत्पादन-तंत्रा के अधिक से अधिक स्वचालन पर जोर देती है. स्वचालीकरण के क्रम में मनुष्य के शिल्प-कौशल की महत्ता निरंतर घटती जाती है. परिणामस्वरूप उसकी उपेक्षा होने लगती है. यह स्थिति पूंजीपति को उत्पादन की असीमित शक्तियां सौंप देती है. मशीनीकरण के आरंभिक दौर का विश्लेषण करता हुआ मार्क्स उनके रोचक विकासक्रम की ओर संकेत करता है. उसके अनुसार आविष्कारकों द्वारा मशीनों का विकास उत्पादन प्रक्रिया के कुछ खास चरणों को सफलतापूर्वक पूरा कर लेने की दृष्टि से किया था. उस समय यह सोचा गया था कि मशीनें आदमी को जानलेवा श्रम से मुक्ति दिलाकर उसके जीवन को आनंदमय बनाने का काम करेंगी. वे मनुष्यता के लिए, खासकर उस वर्ग के लिए जो अपने श्रम और कौशल पर जीवित हैं, अपेक्षाकृत आरामदेय और सुखमय जीवन प्रदान करेंगी. इसीलिए बेकन जैसे दार्शनिक ने मशीनों का स्वागत खुले दिल से किया था.लेकिन हुआ यह कि मशीनें लगातार बड़ी होती गईं और जो श्रम आवश्यक वस्तुओं के निर्माण में लगना चाहिए, वह मशीनों के निर्माण पर खर्च होने लगा. आदमी मशीनों के उत्पादन में जुट गया. अब तक न जाने कितनी मशीनों का आविष्कार हो चुका है और न जाने कितनी मशीनों के आविष्कार पर काम चल रहा है. मगर देखने में आया है कि जैसे-जैसे मशीनों का विकास होता है, नई और अधिक उत्पादन क्षमतायुक्त मशीन की जरूरत महसूस की जाने लगती है, जो उपलब्ध मशीन को कुछ ही अर्से में पुराना माॅडल घोषित कर देती है. एक मशीन तत्काल दूसरी मशीन की जरूरत को विस्तार देती है.पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया में उत्पादन कई चरणों में बंटा होता है. उत्पादनतंत्रा में निरंतरता बनाए रखने के लिए उसके विभिन्न चरणों के बीच तारतम्यता बनाए रखना आवश्यक होता है. इसलिए एक मशीन तत्काल दूसरी मशीन की आवश्यकता को बढ़ावा देने लगती है. उदाहरण के लिए बुनाई मशीन की खोज ने छपाई और रंगाई मशीन के आविष्कार को भी बढ़ावा देने का काम किया है. एक मशीन का निर्माण दूसरी उसी प्रकार की मशीनों को संतुष्टि प्रदान करता है. मार्क्स कहता है कि मशीनें अपने उत्पादन के आधार पर एक-दूसरे से संबद्ध होती हैं, जैसे कि— ‘भाप के इंजन के अभाव में हाइड्रोलिक प्रेस का आविष्कार असंभव था. हाइड्रोलिक प्रेस ने आगे चलकर खराद मशीन और कटिंग मशीन के आविष्कार पर जोर दिया. श्रम का भौतिकवादी आचरण प्राकृतिक श्रम के हाथों मानवीय श्रम की अदला-बदली को आवश्यक बना देता है.’ यह स्थिति पूंजीपति व्यवस्था के लिए लाभकारी होती है, क्योंकि उस अवस्था में वह श्रम को एक उपभोक्ता सामग्री की भांति प्रयोग करता है. बाजार में आने से श्रम के बीच स्पर्धा की स्थिति पैदा हो जाती है, जो प्रकारांतर में पूंजीपति के लिए मददगार सिद्ध होती है.यही कारण है कि भारी-भरकम निवेश की जरूरत के बावजूद पूंजीपति अनुधनातन प्रौद्योगिकी का ही विकल्प चुनता है. 12. मशीन द्वारा उत्पाद को अंतरित मूल्य गहन विश्लेषण के उपरांत मार्क्स इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि मशीनें मानव-ऊर्जा द्वारा चलने वाले औजारों का स्थानापन्न नहीं हो सकतीं. वे मानवीय श्रम एवं कौशल का हनन कर सकती हैं. उसकी अस्मिता के लिए चुनौती बन सकती हैं. मगर औजार हमेशा ही मानवीय श्रम-कौशल के हितैषी हों, ऐसा भी नहीं है. जब कई औजार एक साथ मिल जाते हैं, जो उन्हें मानवीय श्रम से चला पाना संभव नहीं रह जाता. तब वे एक मशीन का रूप ले लेते हैं. उस अवस्था में कारीगर औजारों से काम नहीं लेता, बल्कि उसको मशीन जो औजारों का ही जटिल समुच्चय है, से जूझना पड़ता है. कई बार वे उन सारी क्रियाओं को अपने अधीन कर लेते हैं, जिनसे कभी श्रमिक का कौशल झलकता था. औजार समुच्चय अथवा मशीन के समकक्ष श्रमिक की योग्यता मात्रा सहायक की रह जाती है. बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठान अधिकतम उत्पादन के लिए उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ तकनीक का चयन करते हैं. इसके लिए वे ध्यान रखते हैं कि उनकी श्रमिक पर कम से कम निर्भरता हो. तदनुसार पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादन वृद्धि का अभिप्राय यह नहीं है कि श्रममूल्य तथा रोजगार के अवसरों में भी उसी अनुपात में वृद्धि होगी. इसलिए कि मशीन अपने आप में किसी भी मूल्य का सृजन नहीं करती. बल्कि अंततः वह श्रमिक की मूल्यवत्ता का ही हनन करती है, जिसको उत्पादकता में बदला जा सकता था और जिसका उपयोग मशीनों के आने से पहले, उत्पादन के स्तर को बनाए रखने के लिए अतीत में भी होता रहा है.मार्क्स का मानना था कि केवल पूंजीपतियों द्वारा क्रय की गई श्रम-शक्ति ही मूल्य का सृजन कर सकती है. मशीन केवल मूल्य का अंतरण कर सकती है, जो उसके अपने मूल्य के समानुपाती होता है. यह अंतरण उत्पाद के मूल्य में वृद्धि के लिए जिम्मेदार होता है.मार्क्स के अनुसार— ‘मशीन की जितनी अधिक उत्पादकता होगी, उत्पाद को अंतरित मशीन-मूल्य उतना ही कम होगा.’ मार्क्स का यह निष्कर्ष बड़े काम का है. उसके अनुसार उत्पाद के मूल्य और मशीन के मूल्य में कोई सीधा संबंध नहीं होता. संबंध होता है मशीन की उत्पादकता का. मान लीजिए कोई पूंजीपति पुरानी मशीन के स्थान पर नई प्रौद्योगिकी ये युक्त मशीन बदलना चाहता है, जिसका मूल्य पुरानी मशीन की अपेक्षा दो गुना है. नई मशीन पुरानी की अपेक्षा चार गुना उत्पादन करने में सक्षम है. ऐसे में उत्पादक दो गुनी कीमत देकर भी नई तकनीक युक्त मशीन खरीदने को उत्सुक होगा. इसलिए कि उसके उत्पाद की मशीनी लागत घटकर आधी रह जाएगी. इसके विपरीत श्रमिक की सीमा होती है. यदि किसी मालिक को अपने उत्पादन को दो गुना करना है तो उसको दुगुनी श्रमशक्ति की आवश्यकता होगी. इससे उत्पाद की निर्माण लागत अपरिवर्तित बनी रहेगी. यही कारण है कि पूंजीपति भारी-भरकम निवेश के बावजूद नई प्रौद्योगिकी खरीदने को उत्सुक रहता है.उसके लिए शोध पर भारी-भरकम निवेश करता है. मशीनरी के उपयोग का सामान्य सिद्धांत यह है कि किसी मशीन अथवा मशीन-समुच्चय द्वारा उत्पाद विशेष के निर्माण में लगा श्रम उस उत्पाद के निर्माण में लगे मानवीय श्रम से कम होना चाहिए. यदि ऐसा नहीं है तो मशीन का उपयोग अर्थहीन हो जाएगा. उस अवस्था में पूंजीपति मशीन में निवेश के बजाय सीधे मजदूर से काम लेना पसंद करेगा.मशीन का उपयोग लाभ के बजाय घाटे का सौदा बन जाएगा. 13. फैक्ट्री और कामगार मार्क्स के आर्थिक चिंतन की विशेषता यह है कि वह उत्पादन और उससे संबद्ध प्रत्येक पहलु की गंभीर विवेचना करता है. चाहे वह मशीन हो अथवा पूंजी. अपने चिंतन को आगे बढ़ाते हुए वह लिखता है कि पूंजी को उत्पादन प्रक्रिया में संवृत्त होने के लिए, पूंजीधारक को एक ऐसे स्थल की आवश्यकता होती है, जहां पर श्रम और मशीन के कार्यकलापों को उत्पाद में बदला जा सके. यह स्थल फैक्ट्री कहलाता है. लेकिन फैक्ट्री अथवा कारखाना केवल भौगोलिक स्थल अथवा मशीनरी का ठिकाना मात्रा नहीं होता, बल्कि वह एक मशीन,उत्पाद, श्रम एवं श्रमिक के अंतःसंबंधों, सहयोगात्मक प्रकार्यों, निर्देशक शक्तियों,नियमों-विनियमों की संपूर्ण व्यवस्था होती है. फैक्ट्री को परिभाषित करते हुए मार्क्स ने लिखा है. इस विवरण से मशीन एवं श्रम-शक्ति के अंतःसंबंधों को समझा जा सकता है— ‘‘सामान्यतः एक ही प्रकार के कार्य में प्रवृत्त विभिन्न स्तर के,वयस्क एवं युवा कामगारों, उत्पादक मशीनों की संयुक्त कार्यवाही,जो लगातार किसी केंद्रीय शक्ति अथवा सर्वप्रमुख संचालक द्वारा प्रेरित और निर्देशित होते हैं…’ दूसरे शब्दों में, ‘अनेकानेक मशीनों और सुविज्ञ कर्मिकों से बना एक व्यापक स्वचालन तंत्र जो किसी सामान्य उत्पाद के निर्माण हेतु निरंतर-निर्बाध कार्यरत हों; तथा वे सभी किसी स्वतः अनुशासित, प्रेरक शक्ति के प्रति उत्तरदायी हों.’’ उपर्युक्त विवेचन के दोनों खंड प्रथम दृष्टया एक ही जैसे जान पड़ते हैं, किंतु यदि गहराई से पड़ताल की जाए तो दोनों में पर्याप्त अंतर है. विवरण के पूर्वार्ध में श्रमिक अथवा संगठित श्रम-शक्ति मशीनों से स्वतंत्रा दिखाई पड़ती है. इस तरह उसकी मशीन के समानांतर सत्ता है. इसलिए उत्पादन व्यवस्था में उसका महत्त्व भी है. विश्लेषण के दूसरे हिस्से में मशीनें स्वचालित होकर प्रधान भूमिका में हैं, वहां श्रमिक अथवा कारीगर की भूमिका एक मशीन के सहायक या उपांग की है, जिसका अपना कौशल मशीन की योग्यता के आगे महत्त्वहीन हो जाता है. इस अवस्था का लाभ उठाकर पूंजीपति श्रमिक की मजदूरी में कटौती करता जाता है. मशीनीकरण के आरंभ में कामगार के श्रम-कौशल का महत्त्व होता था. मशीनें तब औजारों का समुच्चय मात्रा थीं. अतएव कारखाना मालिक मशीनों के साथ दक्ष कामगारों पर भी समानरूप से निर्भर होता था. इसलिए औद्योगिकीकरण के आरंभिक दौर में उन्हीं को रोजगार मिला था, जो उस पेशे में दक्ष थे. पूंजी के विस्तार के साथ-साथ जैसे-जैसे मशीनांे का स्वचालन होता गया, कुशल कामगारों पर उनकी निर्भरता उत्तरोत्तर घटती गई.आधुनिक पूंजी-आधारित उद्यमों की विशेषता है कि उनमें मशीनों के आगे श्रमिक की भूमिका लगातार गौण होती जाती है. पूंजी-आधारित कारखानों में श्रमिकों के औजार,जिनके माध्यम से उसका हस्तकौशल उत्पादकता में बदलता है, लुप्तप्रायः हो जाते हैं.उसकी हुनरमंदी का स्थान मशीनें ले लेती हैं. यह सच है कि फैक्ट्रियां श्रम-विभाजन एवं शिल्प-विशेषज्ञता का भरपूर उपयोग करती हैं, बल्कि पूंजीवादी दबावों के अंतर्गत यह विभाजन और स्तरीकरण कई बार विस्फोटक रूप धारण कर लेता है. उल्लेखनीय है कि कारखानों में प्रायः दो प्रकार से काम लिया जाता है. पहली श्रेणी में वह कार्य आता है,जिसमें श्रमिक मशीन पर कार्यरत होते हैं. जबकि दूसरी श्रेणी में श्रमिक मशीनों का प्रेक्षक-मात्रा होता है. इनके अतिरिक्त फैक्ट्रियों में, वहां कार्यरत अथवा बाहर से बुलाए गए श्रमिकों का तीसरा वर्ग भी हो सकता है, जो मरम्मत और रखरखाव के काम में दक्ष हांे.कारखानों में ये सभी एक-दूसरे के सहयोगी और पूरक के रूप में कार्य करते हैं. उन सभी का एक ही ध्येय होता है. अपनी सम्मिलित कार्यक्षमता और परिश्रम से कारखाने को लाभ की स्थिति में बनाए रखना. मजदूर अपने स्वेद से मालिक के उद्यम को सोना उगलने वाले कारखानों में तब्दील करता है. मगर उनसे होने वाले लाभ पर मालिक का एकाधिकार होता है, जिससे उसका मौलिक सोच, शिल्पकर्म दम तोड़ने लगता है. लोकतांत्रिक सरकारों में यह संभव है कि सरकार अथवा पूंजीपति हस्तकला एवं शिल्पकर्म के संरक्षण के नाम पर योजनाएं बनाएं. आधुनिक समाज में सरकारें अक्सर ऐसा ही करती हैं. लेकिन उनके संरक्षण के बावजूद मूल उत्पादन व्यवस्था में किसी भी प्रकार का योगदान न होने के कारण उनकी स्थिति दोयम दर्जे की हो जाती है. वे कलाएं जिनके आधार पर मशीनीकरण से पहले पूरी उत्पादन व्यवस्था निर्भर थी, केवल दिखावे और कभी-कभी तो दया की पात्रा मान ली जाती हैं. विडंबना यह है कि इस नियति को बदलने के लिए न तो सरकार कुछ कर पाती है, न शिल्पकारों के संगठन. बल्कि वहां भी पूंजीपति बिचैलिए के रूप में उपस्थित होकर बाजार पर कब्जा जमा लेता है. इससे शिल्पकारों को भी उनकी कृति का वास्तविक मूल्य नहीं मिल पाता. पूंजीवादी व्यवस्था में, जब तक बाहरी बाध्यता न हो, आमतौर पर कम वयस् के बच्चों को भी नौकरी पर रखा जाता है. ताकि वे वहां की परिस्थितियों, कानूनों और अनुशासन के अनुरूप स्वयं को ढाल सकें. साथ ही स्वचालित मशीनों के संग काम करते हुए उनके साथ अपनी कार्यशैली का अनुकूलन कर सकें. मार्क्स के अनुसार ये सभी स्थितियां मनुष्य के मानसिक विकास की अवरोधक होती हैं. फैक्ट्रियों का माहौल श्रमिकों से उनकी मूलभूत जरूरतों यथा स्वच्छ हवा, मुक्ताकाश, सुरक्षा, संवेदनशीलता, प्रकाश, स्वतंत्रा निर्णय लेने की आजादी को छीन लेता है. उल्लेखनीय है कि जिस समय मार्क्स ने पूंजी का लेखन किया,उन दिनों तक फैक्ट्रियों में काम करने वाले बालश्रमिकों पर रोक के लिए ठोस कानूनी प्रावधानों का अभाव था. जो कानून थे, वे सभी ढुलमुल, अस्पष्ट और मालिकों का पक्ष लेने वाले थे. मार्क्स की भांति फ्यूरियर ने भी बड़े कारखानों को श्रमिक हितों के विरुद्ध माना था. उसने फैक्ट्रियों को ‘उत्पीड़क कार्यशालाएं’ कहते हुए उनसे बचाव की सलाह दी थी. मार्क्स ने भी फैक्ट्रियों को पूंजीपतियों के लिए एकतरफा लाभ पहुंचाने वाला उद्यम माना, लेकिन वह वह फ्यूरियर की स्थापना से असहमत था. पुस्तक के अगले चरण में मार्क्स उन स्थितियों और विचारों की विशद् समीक्षा करता है,जिनके आधार पर वह अभी तक मशीनों और कारखानों का विरोध करता आ रहा था.किसी समय मशीनों पर नियंत्राक की भूमिका निभाने वाला श्रमिक जब मशीन का पूरक या सहायक मात्रा बनकर रह जाता है, तब उसके मन में असंतोष पनपने लगता है.हालांकि एकाकी असंतोष की परिणति सामान्यतः व्यक्तिगत कुंठाओं और क्षोभ के रूप में ही सामने आती है. इनकी सतत और लंबे समय तक मौजूदगी प्रकारांतर में श्रमिकों के मन में आक्रोश को जन्म देती है, जिससे उनके मध्य से विरोधी स्वर उभरने लगते हैं.स्मरणीय है कि यहां मार्क्स नवीनतम प्रौद्योगिकी तथा उसके आधार पर विकसित मशीनों का विरोध नहीं करता. बजाय इसके वह सीधे-सीधे पूंजीवादी व्यवस्था की आलोचना करता है, जो श्रमिक से उसका मनुष्यत्व छीनकर उसको मशीन के मामूली पुर्जे की हैसियत तक अवमूल्यित कर देती है. वह लिखता है— ‘परंपरागत औजारों और पूंजी-आधारित उद्यमों में नवीनतम प्रौद्योगिकी पर आधारित रोजगार में अंतर करने में श्रमिकों का ढेर सारा समय और अनुभव लगा; और इस प्रकार वे अपना सारा ध्यान उत्पादन का मूलभूत औजार बनने के बजाय एक ऐसा समाज बनाने में लगा सके, जो उन औजारों का उपयोग कर सके.’ मार्क्स के अनुसार मशीन शिल्पकारों, कारीगरों के साथ स्पर्धा में रहती है, और इस प्रकार वह श्रम-शक्ति के उपयोग-मूल्य में गिरावट का कारण बनती हैं. गहन विश्लेषण के उपरांत मार्क्स ने स्पष्ट किया था कि मशीनें दक्ष कामगार को हटाकर उसके स्थान पर अकुशल अथवा अर्धकुशल कर्मचारी को ले आती हैं, जिसकी परिणति मजदूरी में नकारात्मक प्रभाव के रूप में देखने को मिलती है. इससे समाज में मानवीय कौशल की महत्ता तथा लोगों में खुद को परिष्कृत करने की ललक घटने लगती है. स्वचालित मशीनें अकुशल कामगारों द्वारा भी संचालित हो सकती हैं. परिणामस्वरूप समाज में दक्ष कामगारों की संख्या लगातार घटने लगती है. दूसरी ओर बालश्रमिकों की संख्या और पूंजीपतियों के लाभ में लगातार वृद्धि होती जाती है. इस लाभ के एक हिस्से का उपयोग पूंजीपति मशीनों के कार्यकुशलता को और अधिक बढ़ाने के लिए शोध आदि पर करता है, जिससे श्रम-शोषण की नई स्थितियों का जन्म होने लगता है. पुस्तक में मार्क्स ने राजनीतिक अर्थशास्त्रियों के क्षतिपूरक सिद्धांत की आलोचना की है.पूंजीवाद के समर्थक इन अर्थशास्त्रियों का कहना था कि मशीनीकरण की प्रक्रिया जितने श्रमिकों को बेदखल करती है, वह अनिवार्यतः उतनी ही सचल पूंजी की बचत भी करती है,जो उससे पहले तक श्रमिकों को वेतन-मजदूरी आदि के रूप में अदा की जाती थी. यह राशि आगे भी इसी मद में उपयोग की जाती है, जिससे अन्य श्रमिक लाभांन्वित होते हैं और इस प्रकार उन्हें अब तक हुए नुकसान की भरपाई सामान्यतः हो ही जाती है. इस तर्क के विरोध में मार्क्स का कहना था कि मशीनीकरण की प्रक्रिया में अस्थायी अथवा चल पूंजी स्थायी पूंजी का रूप ले लेती है. मालिक अवशेष पूंजी का उपयोग नवीनतम प्रौद्योगिकी, जो प्रायः श्रम-विरोधी होती है, की खरीद के लिए करता है, जिसका सीधा प्रभाव कारखाने में श्रमिकों की संख्या पर पड़ता है. अतएव बची हुई चल पूंजी का उपयोग श्रमिकों की मजदूरी आदि के रूप में करना इसलिए भी संभव नहीं है, क्योंकि वह पहले ही उन्नत तकनीकी युक्त मशीनों में निवेश कर दी जाती है, जो उद्योग-स्वामी की परिसंपत्ति कहलाती है. यदि कुछ राशि बचती भी है तो भी क्षतिपूर्ति के लिए उपलब्ध कुल धनराशि उस राशि से बहुत कम होती है, जिसका उससे पहले श्रम-शक्ति की खरीद के लिए उपयोग किया जाता था. इसके अलावा अवशेष अस्थायी पूंजी का उपयोग नवीनतम मशीनरी के संचालन हेतु विशेषज्ञ-शिल्प पर व्यय होता है, जिसके फलस्वरूप अधिक से अधिक धन स्थायी पूंजीनिवेश के काम आता है. प्रौद्योगिकी में होने वाले निरंतर सुधार के फलस्वरूप जिन कामगारों से काम छूटता है, उनको तत्काल प्रभाव से क्षतिपूर्ति संभव नहीं होती. इस तरह कारखानों से बेदखल हुए श्रमिक बेरोजगार श्रमिकों की संख्या में चिंताजनक वृद्धि का कारण बनते हैं, जो अंततः श्रमिकों के शोषण और प्रकारांतर में उनकी दुर्दशा का कारण बनते हैं. मार्क्स यह तो स्वीकार करता था कि मशीनों के क्षेत्रा में हुए नए आविष्कार नए क्षेत्रों में रोजगार सृजन को बढ़ावा दे सकते हैं, लेकिन इससे पूंजी के बढ़ते वर्चस्व और श्रमिक की शोषणकारी प्रवृत्तियां कम होने के बजाय उत्तरोत्तर बढ़ती जाती हैं. स्पष्ट है कि प्रौद्योगिकी के क्षेत्रा में होने वाला लाभ एकतरफा होता है. मशीनें मजदूर के अतिरिक्त श्रम की बचत तो करती हैं, मगर वे उससे उसका शिल्प भी छीन लेती हैं, जिसके कारण उसको पूंजीपतियों पर आश्रित होकर रह जाना पड़ता है. उत्पादकता में वृद्धि का सकारात्मक प्रभाव निश्चित रूप से उन क्षेत्रों पर भी पड़ता है, जो उसके लिए कच्चेमाल की आपूर्ति करते हैं. इसको ऐसे भी कहा जा सकता है कि कच्चेमाल की आपूर्ति के क्षेत्रा में नई मशीनरी का आगमन, उसके उपभोग से संबंधित उद्योगों के विकास को भी समानुपातिक गति देता है. कुल मिलाकर इससे पूंजीपति वर्ग के लाभ में भी वृद्धि होती है. यह अधिशेष वृद्धि प्रकारांतर में शासक वर्ग की कुल संपदा में बढ़ोत्तरी का कारण बनती है, जिसका उतना ही असर श्रमिक-बाजार पर भी पड़ता है, जो अंततः नए उद्योगों के विकास का रास्ता खोल देता है. नए उद्योग श्रमिकों के रोजगार के नए ठिकाने बनते हैं. क्योंकि तब तक श्रम-विरोधी प्रौद्योगिकी उनके शोषण एवं बेदखली के नए क्षेत्रा विकसित कर चुकी होती है. इस विश्लेषण के उपरांत मार्क्स इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि स्थानीय सेवा-आधारित उद्योगों में हुई वृद्धि उसी अनुपात में उत्पीड़ित वर्ग की संख्या और उत्पीड़क-स्थितियों में वृद्धि करती जाती है. आगे इसी अध्याय में मार्क्स मशीनों के विकास के प्रति श्रमिकों के आकर्षण और विकर्षण पर चर्चा करता है. इसके लिए वह उनीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में कपास उद्योग पर आए संकट को माध्यम बनाता है. वह लिखता है कि राजनीतिक अर्थशास्त्री तर्क देते हैं कि मशीनीकरण से बेदखल हुए मजदूरों को अन्य क्षेत्रों में आसानी से रोजगार मिलता रहता है, जो मशीनीकरण के कारण उत्पन्न लेते हैं. अपने तर्क को स्पष्ट करने के लिए वह सिल्क उद्योग का उदाहरण देता है, जिसमें मशीनीकरण के कारण आई रोजगार अवसरों में गिरावट की भरपाई उसी क्षेत्रा में मशीनों की संख्या के फलस्वरूप होती जाती है. दूसरे शब्दों में— ‘कार्यरत फैक्ट्री-श्रमिकों की संख्या में हुई आनुपातिक वृद्धि उससे मिले-जुले क्षेत्रों में हुई औद्योगिक वृद्धि का परिणाम होती है, साथ ही यह नए कारखानों का निर्माण अथवा पुरानी फैक्ट्रियों का विस्तार है.’ मार्क्स का तर्क था कि फैक्ट्री कामगारों की संख्या में आनुपातिक वृद्धि इसलिए जरूरी है क्योंकि मशीनीकरण के कारण बेरोजगार हुए श्रमिकों की संख्या और नई मशीनों के परिचालन के लिए आवश्यक यानी उनके माध्यम से रोजगार-प्राप्त श्रमिकों की संख्या में भारी अंतर होता है. पूंजीवाद में निरंतर वृद्धि तथा उसके प्रयासस्वरूप हुए तकनीकी सुधार,उपभोक्ता वस्तुओं के बाजारों की संख्या में उस समय तक वृद्धि करते हैं, जब तक कि वे दुनिया के प्रत्येक कोने तक फैल नहीं जातीं, जो अंततः पूंजीपतिवर्ग के लिए वैभव और संपन्नता तथा श्रमिकवर्ग के लिए विपत्तिचक्र का कारण बनती हैं. लंबे विश्लेषण के बाद मार्क्स इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि तकनीकी सुधारों के लिए श्रमिकवर्ग का विकर्षण और आकर्षण वस्तुतः वह क्रमिक आवृत्ति है, जिसमें मशीनीकरण के कारण रोजगारविहीन हुए श्रमिकों की संख्या उत्पादकता-वृद्धि को जन्म देती है. इसकी प्रतिक्रिया नए क्षेत्रों में औद्योगिक विस्तार और तदनुसार श्रमिकों को मिले अतिरिक्त रोजगार के रूप में सामने आती है. यह शृंखला नए क्षेत्रों में औद्योगिक विस्तार तथा परिवर्तनशील श्रम-शक्ति को जन्म देती है, जो स्वचालीकरण की प्रक्रिया में लगातार सहायक की भूमिका में आती रहती है, परिणामस्वरूप मशीनरी आदि के रूप में पूंजी का एक ही स्थान पर संकेंद्रण होता जाता है, जो पूंजीपति को और ताकतवर एवं श्रमिकों से उनकी निर्णय लेने की स्वतंत्राता को छीनकर कमजोर और पर-आश्रित बनाता है. 14. परम अधिशेष और आनुपातिक अधिशेष का सृजन ‘दि कैपीटल’ के सोलहवें अध्याय में मार्क्स कारखाना मजदूरों की व्यक्तिगत उत्पादक गतिविधियों के अनेक श्रमिकों के सामूहिक प्रयास में बदल जाने के प्रभावों का वर्णन करता है. विरोधाभास देखिए कि व्यक्तिवाद को अपने लिए हितकारी मानने तथा अपने व्यावसायिक हितों के लिए उसका लाभ उठाने वाला पूंजीपति वर्ग श्रमिकों के मामले में एकदम विपरीत आचरण करता है. बाजार के विस्तार के लिए वह चाहता है कि परिवार का प्रत्येक सदस्य, अन्य सदस्यों के साथ उपलब्ध सुविधाओं में साझा करने के बजाय अपने लिए निजी सुविधाएं खरीदे. हर सदस्य के पास अपनी निजी टेलीफोन, मोबाइल,कंप्यूटर, कार, मोटर साइकिल वगैरह हों. इनमें से एक भी सुविधा उसको परिवार के सदस्यों के साथ बांटनी न पड़े. इसके लिए वह जाॅन स्टुअर्ट मिल जैसे व्यक्ति-स्वातंत्रय के समर्थक दार्शनिकों का तर्क देता है. चूंकि लोकतंत्रा व्यक्तिवाद का ही सुसंस्कृत रूप है,इसलिए चाहे-अनचाहे वह लोकतंत्रा का भी समर्थन करता है. किंतु श्रमिक से काम लेते समय वह उसके निजी कौशल की सतत उपेक्षा करता है. वह चाहता है कि मशीनें इतनी सक्षम हों कि उसको कुशल श्रमिकों पर निर्भर रहना ही न पड़े. वह जानता है कि काम को करने वाले जितने अधिक होंगे, उतनी ही उनके बीच स्पर्धा होगी, जो अंततः उसके लिए लाभकारी होगी. मार्क्स का मानना था कि यह प्रक्रिया श्रमिकों को उपभोक्ता वस्तुओं के वास्तविक उत्पादन से परे ले जाकर पूंजीपति को इस बात का पूरा अवसर देती है कि वह उसका उपयोग केवल अपने अधिलाभ की वृद्धि हेतु कर सके. जबकि अधिशेष में वृद्धि संपूर्ण प्रविधियों यथा कार्य-दिवस का विस्तार, कार्यघंटों में वृद्धि और उसके अनुसार उत्पादकता में वृद्धि के आधार पर ही संभव है. श्रमिकों का उपभोक्ता सामग्री के उत्पादक के बजाय उत्पादकों के भले के लिए काम करना, पूंजीवाद के विकास के लिए आवश्यक है. पूंजीवाद से पहले कामगार और शिल्पकर्मी प्रायः निजी उपयोग के लिए अनिवार्य समझी गई वस्तुओं का उत्पादन करते थे. कालांतर में औजारों के सहयोग से, उन्होंने अपनी आवश्यकता से इतर वस्तुओं का उत्पादन आरंभ किया तो श्रम और मजदूरी के बीच आदान-प्रदान की प्रक्रिया आरंभ हुई. श्रमिकगण प्राप्त मजदूरी से जीवन के लिए अनिवार्य वस्तुओं की खरीद-फरोख्त करने लगे. श्रम का मजदूरी के बदले अंतरण पूंजीपतियों को अपने हितों के अनुकूल लगा.उन्होंने मजदूरों को इसके लिए उत्साहित किया. प्रारंभ में पूंजीपतियों द्वारा उत्पादन-विशेष के लिए प्रदान की गई मजदूरी, इतनी होती थी कि उसके सहारे श्रमिक अपनी सामान्य आवश्यकताओं को पूरा कर सके, मगर वह उस राशि से बहुत कम थी, जिसे वे उत्पादक के रूप में स्वयं अर्जित करने में सक्षम थे. आगे चलकर जैसे-जैसे मशीनें उत्पादन की जिम्मेदारी निभाने में सक्षम होती गईं, पूंजीपति श्रमिकों की उपेक्षा करने लगा. यही नहीं वे सारे कार्य जो कुशल शिल्पकर्म की अपेक्षा रखते थे और जिन्हें श्रमिकों द्वारा आसानी से कराया जा सकता था, उन्नत तकनीकयुक्त मशीनों के माध्यम किए जाने लगे. दूसरे शब्दों में उन्हें अब दक्ष कामगारों की आवश्यकता ही नहीं थी. हालांकि कुछ मशीनें ऐसी भी विनिर्मित हुईं, जिनके परिचालन के लिए विशिष्ट प्रशिक्षण की आवश्यकता थी. इसके लिए पूंजीपतियों ने कुछ नए पद सृजित किए और अपेक्षाकृत अधिक वृत्तिका देकर काम चलाया. साथ ही उन्हें बाकी श्रमिकों से अलग बताते हुए दोनों के बीच कृत्रिम अंतर का दिखावा किया, जिससे कि उनके बीच की दूरी सदैव बनी रहे. ऐसे पदों की संख्या बहुत कम थी. उच्चतकनीक पर निर्भर मशीनों को सामान्य कुशलता प्राप्त अथवा अर्धकुशल कामगार भी चला सकता था, जिनपर पूंजीपति को अपेक्षाकृत कम खर्च करना पड़ता था. ये सभी स्थितियां पूंजीपतियों के पक्ष में थीं. उच्च कार्यक्षमता संपन्न सघन उत्पादन तकनीक ने मशीनों का अधिक से अधिक स्वचालीकरण कर श्रमिकों को उत्पादनचक्र से बाहर ढकेल दिया था. उनकी भूमिका जटिल उत्पादन-प्रक्रिया के केवल एक हिस्से तक सिमटकर रह गई. इससे उत्पादक श्रम के मायने ही बदल गए. अब श्रमिक और शिल्पकर्मी वृहद उत्पादन तंत्रा के मामली पुर्जे के समान थे, जिसकी भूमिका पूंजीपति के लाभ में वृद्धि करने तक सीमित थी. मशीन-आधारित उत्पादन प्रणाली के दबाव के चलते उत्पादन मजदूरों और शिल्पकर्मियों के हाथों से फिसलकर पूंजीपतियों के अधीन चला गया.परिणामस्वरूप हस्तकौशल एवं व्यक्तिगत श्रम की महत्ता अतीत के अरण्यरोदन तक सिमटकर रह गई. इस व्यवस्था में पूंजीपति न केवल उत्पादन का अधिकतम हिस्सा हड़प लेता था, बल्कि उसका प्रयास होता था कि वह लाभ के अधिकतम हिस्से पर कब्जा कर सकें. अपने लाभानुपात में वृद्धि के लिए पूंजीपति कार्यदिवस में बढ़ोत्तरी करने के प्रयास में रहता है, ताकि उसी मजदूरी के बदले में वह श्रमिकों से अधिक कार्य ले सके. लाभानुपात में वृद्धि का यह सबसे आसान तरीका है. जहां पूंजीपतियों पर प्रशासनिक अनुशासन कम हो अथवा शासन-प्रशासन को उसने अपने प्रभाव में ले रखा हो, वहां की सरकारें कार्यघंटे तय करने का अधिकार पूंजीपतियों को सौंप देती हैं, अथवा इस ओर से लगभग उदासीन हो जाती हैं. इस अवस्था में पूंजीपतियों को मनमानी करने, श्रमिकों पर अपनी शर्तें थोपने का अवसर मिल जाता है. लाभानुपात में वृद्धि का दूसरा उदाहरण उत्पादन प्रविधि में व्यापक बदलाव है, जिसको पूंजीपति प्रौद्योगिकी के अधिकाधिक आधुनिकीकरण द्वारा प्राप्त करने के लिए प्रयासरत रहता है. आधुनिक तकनीक पर आधारित मशीनें कम समय में अधिक उत्पादन करने में सक्षम होती हैं. प्रायः वे उत्पादन-प्रक्रिया की जटिल स्थितियों,अभिक्रियाओं को अपने हाथ में ले लेती हैं. ऐसी अवस्था में उनपर कार्यरत श्रमशक्ति का अवमूल्यन होता है, जो श्रम-स्पर्धा में वृद्धि का कारण बनता है. परिणामस्वरूप श्रम-मूल्य में गिरावट आने लगती है, जो पूंजीपति के लिए लाभदायक होती है. यदि कोई श्रमिक निर्धारित समय-सीमा के अंतर्गत केवल उतना कार्य करता है, जितने के लिए उसे मजदूरी प्राप्त होती है, उस स्थिति में पूंजीपति-स्वामी को उससे कोई अतिरिक्त अधिलाभ नहीं होगा. अतएव पूंजीपति-स्वामी निरंतर यह प्रयास करता है कि उसका श्रमिक न्यूनतम समय लेकर अधितम कार्य पूरा करे, अथवा बिना किसी अतिरिक्त मजदूरी की अपेक्षा के निर्धारित कार्य-घंटों से अधिक समय तक कार्य करे. पूंजीपति-स्वामी का लालच श्रम-शोषण को जन्म देता है. श्रमिक की भलाई इसी में है कि वह शोषणकारी स्थितियों से स्वयं को बचाने का यथासंभव प्रयास करे. किंतु जिन समाजों में अतिरिक्त श्रम की उपलब्धता हो तथा अधिकांश श्रम-शक्ति प्राकृतिक उपादानों पर निर्भर हो, वहां एक व्यक्ति द्वारा अपने श्रम के बोझ को दूसरे के कंधे पर डाल देना बहुत आसान होता है.हालांकि श्रमिक भी एक व्यक्ति के रूप में पूंजीवादी उत्पीड़न से बाहर आने के लिए प्रयासरत रहता है. पूंजीवादी शोषण से मुक्ति का एक सुनिश्चित तरीका तो यह है कि श्रमिक स्वयं पूंजीपति बनकर उत्पादन पर अधिकार जमा ले. एक अन्य रास्ता यह भी हो सकता है कि वह अपने श्रम-कौशल का इस प्रकार विशिष्टीकरण कर ले कि उत्पादन प्रक्रिया में न केवल उसका योगदान अनिवार्य हो, बल्कि उसकी उपस्थिति दूसरे श्रमिकों के लिए अपरिहार्य बन जाए. यह श्रम के समाजीकरण की अवस्था है, जिसमें अतिरिक्त श्रम आपसी तालमेल के आधार पर अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकता है. मार्क्स ने संपदा की दो मूलभूत अवस्थाओं को विशिष्टीकृत श्रम की प्रगति में सहायक माना है. इनमें पहली अवस्था है जब प्राकृतिक संपदा जीवनयापन का प्रमुख माध्यम बन जाती है. दूसरी अवस्था वह होती है, जब वह श्रम की सहायक अथवा औजार बनकर उत्पादन में सहायक बनती है. मार्क्स के अनुसार सामाजिक विकास की मुख्य विशेषता यही होती है कि वह सदैव आगे की ओर जाता है. उसमें उतार-चढ़ाव के स्वाभाविक दौर तो आते रहते हैं, मगर एक सातत्य उनके बीच सदैव विद्यमान रहता है. थोड़े ही वर्ष पहले की बात है जब प्रत्येक समाज अपनी आवश्यकतानुरूप उत्पादन करने में सक्षम होता था और अतिरिक्त श्रम जैसी कोई समस्या भी नहीं थी. उत्पादन-प्रक्रिया के असंगठित रूप में यह भी असंभव था कि मनुष्य इसी आधार शोषण करता रहे. मार्क्स के अनुसार उत्पादन की वह प्रणाली परस्पर सहयोग और सहअस्तित्व की भावना के साथ कायम थी, जिसमें किसी एक पक्ष द्वारा उसके दुरुपयोग की संभावना न के बराबर थी. मार्क्स ने मिश्रवासियों के उदाहरण द्वारा समाज की अंतर्निहित शक्ति का उल्लेख किया है,जब मनुष्य के पास समय तो था, लेकिन उसका उपयोग अतिरिक्त-श्रममूल्य की स्थापना के लिए नहीं होता था. उसने लिखा है कि मिश्र के निवासी बहुत ही उर्वरा भूमि कर वास करते थे, उनका जीवन प्रकृति और वन्य जंतुओं पर निर्भर था. चूंकि भोजन की व्यवस्था प्रकृति पर निर्भर थी और वह उन्हें कभी निराश भी नहीं करती थी, अतएव एक और बच्चे के आगमन से उनपर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता था. परिणाम यह हुआ कि उनकी जनसंख्या बढ़ती चली गई. मिश्र की वास्तुकला और वहां के महान ऐतिहासिक पिरामिडों के बारे में मार्क्स का विचार था कि उनकी रचना इसलिए संभव नहीं हुई थी कि वहां की जनसंख्या बहुत विशाल थी. बल्कि इसलिए संभव हो पाई थी कि उनके पास अतिरिक्त समय था. पूंजीवाद के बारे में आप सोच सकते हैं कि अधिक प्राकृतिक संपदा होने का अभिप्राय तीव्र प्रगति और सघन उत्पादन है, जैसाकि मिश्र में हुआ था. मगर ऐसा हर स्थिति में संभव नहीं है. रोजी-रोटी की चिंता किए बगैर वे अपने समय को मनोेनुकूल कार्यों में लगा सकते थे. यही कारण है कि पूंजीवाद उन देशों में अधिक मजबूत होकर उभरा, जो देश प्राकृतिक रूप से कम संपन्न हैं, जहां प्राकृतिक संसाधनों का अपेक्षाकृत अभाव है. इसलिए समाज के बहुसंख्यक वर्ग की भलाई के लिए प्राकृतिक संसाधनों को पूंजीवादी एकाधिकार से बाहर रखना अत्यावश्यक है. मार्क्स ने अगले चरण में अफ्रीका के पुराने निवासियों के उदाहरण देकर बताया है कि वहां के मूल निवासी सप्ताह मे केवल बारह घंटे कार्य करके अपने जरूरत की वस्तुओं का उत्पादन बहुत आसानी से कर लेते थे. पूंजीवाद के आगमन से पहले यह उनकी संपन्न जीवनचर्या का हिस्सा था. पूंजीवाद ने उत्पादन को मशीनीकृत किया. मशीनों का आगमन श्रम को सुविधामय बनाने के नारे के साथ हुआ. इसलिए प्रारंभ में श्रमिकों की ओर से उनका स्वागत भी हुआ. लेकिन मशीनें सिर्फ उन्हीं के हितसाधन हो उन्मुख होती हैं, जो उनका स्वामी, यानी पूंजीपति है. परिणाम यह हुआ कि नई व्यवस्था में अफ्रीकावासियों सप्ताह में पूरे छह दिन तक काम करना पड़ता है. इस तथ्य पर कोई विचार करने के लिए तैयार नहीं है कि जो श्रमिक पहले मात्रा बारह घंटे प्रतिसप्ताह काम करने अपना भरणपोषण बहुत आसानी से कर लेते थे, अब उन्हें उससे पांच या छह गुना कार्य क्यों करना पड़ता है. इस बीच में उनकी स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हो पाया है. इसलिए कि पहले जो उत्पादन पूरे समाज की जरूरतों को ध्यान में रखकर किया जाता था, अब वह पूंजीपति की स्वार्थपूर्ति के निमित्त होता है. इससे पूंजीपति-मालिकों की संख्या और उनकी संपन्नता में कई गुना वृद्धि हुई है. जाहिर है कि प्रत्येक श्रमिक को अपनी जरूरतों के निष्पादन के लिए जो पांच या छह गुना अधिक कार्य करना पड़ता है, उसका लाभ पूंजीपति को मिलता है और श्रमिक के हिस्से सिर्फ उत्पीड़न रह जाता है. मार्क्स ने डेविड रिकार्डो से बहुत सीखा था. लेकिन कई स्थानों पर उसकी आलोचना भी की है. उसका आरोप था कि रिकार्डो अतिरिक्त श्रम के मुद्दे पर कोई विचार नहीं करता,बल्कि उसकी उपेक्षा करता हुआ आगे बढ़ जाता है. आगे चलकर जान स्टुअर्ट मिल आदि ने भी स्वीकार किया था कि अतिरिक्त श्रम ही लाभ का प्रमुख स्रोत है, लेकिन उसका मानना था कि जीवन की वास्तविक जरूरतों लायक उत्पादन, समाज द्वारा अपेक्षित उत्पादन से बहुत कम समय में संभव है. अतिरिक्त श्रम का यही हिस्सा पूंजीपति के लाभ में ढलकर पूंजी के रूप में संग्रहित होता जाता है, जिसका उपयोग पुनः श्रमिक-शोषण तथा उसको उत्पादन-बाह्यः करने के लिए किया जाता है. यहां तक मार्क्स और मिल दोनों एकमत थे, किंतु मिल से भिन्न मार्क्स का मानना था कि अतिरिक्त श्रम का प्रतिशत पूंजीपति को होने वाले लाभ की अपेक्षा अधिक होता है. यही स्थिति श्रम-शोषण का कारण है. मिल श्रमिकों को पूंजीवादी व्यवस्था की देन, उसका स्वाभाविक हिस्सा मानता था.उसका मानना था कि श्रमिक पहले अपने श्रम का निवेश करता है, तत्पश्चात उत्पादन में से अपना हिस्सा प्राप्त करता है. मार्क्स ने मिल के विचारों को दृष्टिभ्रम की संज्ञा दी थी.उसने पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था में अधिलाभ की संकल्पना का बहुआयामी अध्ययन किया था. लंबे विमर्श के उपरांत वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था स्वामी के लिए अधिकतम लाभ की संभावना पर टिकी है. इसके लिए वह श्रमिक के शोषण के सभी यथासंभव प्रयासों पर अमल करती है. चूंकि वहां श्रमिक के विकल्प के रूप में मशीनों का आगमन लगातार बढ़ता जाता है, इसलिए उसके स्थानापन्न होते, उत्पादन-प्रक्रिया से बेदखली के भी बढ़ते जाते हैं. 15. श्रम-शक्ति एवं अधिलाभ के ध्रुवांतों की परिवर्तनशीलता एक विशेषज्ञ अर्थविज्ञानी के रूप में मार्क्स ‘दि कैपीटल’ में उन सभी स्थितियों पर गंभीरतापूर्वक चिंतन करता है, जो श्रम-शोषण को बढ़ावा देती हैं. साथ ही वह उन तकनीकों की भी गहन समीक्षा करता है, जो पूंजीवादी शोषण का आधार बनती हैं. पुस्तक के सतरहवें अध्याय में वह श्रम-शक्ति और लाभ के विभिन्न पहलुओं तथा उनकी पारस्परिक परिवर्तनशीलता पर विचार करता है. श्रम-शक्ति के मूल्य को प्रायः मजदूरी के नाम से जाना जाता है. सतरहवें अध्याय के आरंभ में मार्क्स मजदूरी की एक बार पुनः विवेचना करता है. उसके अनुसार मजदूरी पूंजी की वह मात्रा है जो औसत मजदूर को सामान्य जीवनस्तर बनाए रखने के लिए अत्यावश्यक होती है. जिसको सामान्य अवस्था में उससे कम कर पाना असंभव है. मजदूरी की सैद्धांतिक विवेचना के बाद मार्क्स अध्याय के प्रतिपाद्य विषय की ओर लौटता है. श्रम-शक्ति के सैद्धांतिक पक्ष को स्पष्ट करते हुए वह परिवर्तन के कारक दो प्रमुख पहलुओं की ओर संकेत करता है, ये हैं: क. श्रमशक्ति की लागत, जो उत्पादन के विभिन्न चरणों, उत्पादन की प्रवृत्तियों और प्रारूपों के अनुसार परिवर्तनशील होती है. ख. लैंगिक आधार पर श्रम-शक्ति का विभेदीकरण यथा स्त्राी और पुरुष, बच्चे और वयस्क की वृत्तिकाओं में अंतर आदि. अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुए वह दो मुख्य परिकल्पनाएं करता है. पहली यह कि उपभोक्ता सामग्री की बिक्री सामान्यतः उसके मूल्य के आधार पर की जाती है. दूसरी परिकल्पना के अनुसार श्रम-शक्ति कभी-कभी अपने मूल्य से भी ऊपर चली जाती है, मगर यह उससे नीचे कभी नहीं आती. इन परिकल्पनाओं पर विचार करता हुआ वह तीन सामान्य मूल-निष्कर्षों तक पहुंचता है, जो श्रम-शक्ति की मूल्यवत्ता का निर्धारण करते हैं.वे निम्नलिखित हैं— क. पूर्वनिर्धारित घंटों का कार्यदिवस सदैव एकसमान मूल्य का उत्पादन करेगा. यह मूल्य श्रमिक की उत्पादकता अथवा उत्पादित वस्तु के मूल्य से निरपेक्ष तथा प्रत्येक परिस्थिति में स्थिर और अपरिवर्तनीय रहेगा. ख. अधिलाभ की मात्रा एवं श्रम-शक्ति परस्पर व्युत्क्रमानुपाती होते हैं. उपभोक्ता वस्तु का मूल्य स्थिर रहने की शर्त पर जब अधिलाभ-मात्रा में एक इकाई की वृद्धि होती है तो उसके परिणामस्वरूप श्रम-शक्ति की मात्रा में भी एक इकाई की कमी आ जाती है. इस विवेचन से यह निष्कर्ष भी संभव है कि लाभानुपात और श्रम-शोषण एक-दूसरे के पूरक और सहगामी होते हैं. ग. अधिलाभ की मात्रा में हुआ परिवर्तन श्रम-शक्ति में होने वाले बदलाव का पूर्वाभास होता है. पुस्तक के सतरहवें अध्याय में मार्क्स श्रम-उत्पादकता, श्रम-मूल्य की महत्ता तथा उनकी परिवर्तनीयता का गहन विश्लेषण करता है. वह लिखता है कि— ‘अधिलाभ-मूल्य के उच्चतम स्तर में हुआ परिवर्तन, श्रम-शक्ति के मूल्य का पूर्भाभास होता है, यह स्थिति श्रम की उत्पादकता में हुए परिवर्तन का निकष होती है.’ श्रम की उत्पादकता में आया उतार-चढ़ाव वही है तो प्रकारांतर में श्रम-मूल्य की विकास-दर मं आए परिवर्तन को दर्शाता है. श्रम का मूल्य यानी मजदूरी को प्रभावित करने वाले कारक अनेक होते हैं, जिन्हें दूर किया जा सकता है. उनमें तीन प्रमुख हैं, श्रम की उत्कृष्टता, उत्पादकता और कार्यदिवस की लंबाई यानी कार्यघंटों की संख्या. मार्क्स ने इन तीनों की अंतःसंबद्धता का गंभीर विश्लेषण किया है. 16. मजदूरी मार्क्स पूंजीवादी व्यवस्था का आलोचक था. वह इसको श्रम-शोषण का उद्यम कहता था.चूंकि पूंजीपति श्रमिक के शोषण के लिए उसकी वृत्तिका को आधार बनाता है. इसलिए उसने पूंजीवादी व्यवस्था में मजदूरी के स्तर एवं उसके विभिन्न रूपों की विस्तृत समीक्षा की है. मार्क्स के लिए इस विषय की गंभीरता और इस बारे में उसके चिंतन की गहराई का अनुमान मात्रा इसी से लगाया जा सकता है कि पुस्तक का पूरा एक खंड, जिसमें तीन अध्याय संकलित हैं, उसने मजदूरी को समर्पित किया है. उसके अनुसार श्रमिक के लिए श्रम ही उसकी एकमात्रा पूंजी होता है. उत्पादन-प्रक्रिया की संपूर्णता के निमित्त वह अपनी इस एकमात्रा पूंजी का निवेश करता है. इस अपेक्षा के साथ कि पूंजीपति की ओर से लाभांश का समुचित हिस्सा उसको प्राप्त होगा. लेकिन पूंजीपति श्रम के साथ निवेश-निधि के बजाय किराये पर अर्जित वस्तु की तरह व्यवहार करता है; और इस तरह उसका मूल्यांकन करता है कि प्राप्त वृत्तिका से श्रमिक अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति ही कर पाता है. मुश्किल यह भी है कि प्रौद्योगिकीय सुधार और मशीनों के स्वचालीकरण के कारण श्रमिक की भूमिका मशीन-सहायक के रूप में सिमट जाती है. मशीनें उसके श्रम-कौशल का हनन कर, उसकी आजादी को सीमित कर देती हैं. इन अध्यायों में मार्क्स ने पूंजीवादी व्यवस्था की उन धूत्र्तताओं का पर्दाफाश करने का प्रयास किया है, जो एक ओर तो श्रम-शोषण का कारण बनती हैं, साथ ही उन चालबाजियों पर पर्दा डालने का काम भी करती हैं, जिनके फलस्वरूप बिना किसी भुगतान के आधार पर किए गए श्रम का अनुपात लगातार बढ़ता जाता है. जाहिर है कि श्रम वह मूल्य जो बचाया गया है, उत्पादक-पूंजीपति के पास उसके अधिलाभ के रूप में संग्रहित होता जाता है. अधिलाभ की लगातार बढ़ती मात्रा तथा जमाराशि उत्पादक-पूंजीपति को और अधिक सशक्त एवं सामथ्र्यवान बनाती है. अधिलाभ का बड़ा हिस्सा वह ऐसे प्रौद्योगिकीय शोधों पर करता है, जो श्रम एवं मानवीय कौशल के विरोधी होते हैं. इससे उत्पादन-व्यवस्था में श्रमिक लगातार उपेक्षित और कमजोर पड़ता जाता है. चूंकि नई तकनीक त्वरित उत्पादन में भी सक्षम होती है, इसलिए वह अतिरिक्त श्रम-शक्ति को अपने उत्पाद के लिए नए बाजारों की खोज पर लगा देता है, जिनकी वृत्तिका का निर्धारण वह अपनी शर्तों पर, अपने स्वार्थ को देखते हुए करता है. मार्क्स उन स्थितियों को परिप्रेक्ष्य में लाकर उनकी गहन विवेचना करता है, जिनके आधार पर मजदूरी अपने लघुत्तम आकार के बावजूद पूंजीवाद के कैनवास पर एकदम ठीक फिट हो जाती है, और श्रमिक की ओर से जो उससे सर्वाधिक प्रभावित होता है, किसी प्रकार को विरोध भी नहीं किया जाता. अपने श्रम के बदले उत्पादन-मूल्य में से अपनी न्यायिक हिस्सेदारी के बजाय उसका सर्वाधिक आग्रह पहले अपनी प्रारंभिक जरूरतें पूरा करने पर होता है. न्यूनतम वृत्तिका के लिए भी वह पूंजीपति के आगे गिड़गिड़ाता है. घुटने टेकता है. एक दास की भांति विश्वसनीयता का दावा करता है. इस बीच एक-एक कर उसके सारे सपने दम तोड़ लेते हैं. न्यूनतम जरूरतों के लिए ही वह अपनी नियति से समझौता कर लेता है. प्रारंभिक आवश्यकताओं की पूर्ति होते ही वह शिथिल पड़ने लगता है, विशेषकर उस समय तक जब तक कि उसको कोई उत्पे्ररित करने वाला न हो. पूंजीपति श्रमिक की इसी दुर्बलता का लाभ उठाता है. वह उसके श्रम के बराबर मजदूरी का भुगतान करने के बजाय उसको किसी न किसी बहाने न्यूनतम मजदूरी देकर टाल देना चाहता है. चूंकि श्रमिक को उम्मीद होती है कि वह अपनी श्रम-शक्ति द्वारा केवल अपनी सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है. उसके परिवेश में यही सबसे अधिक जरूरी होता है.इसलिए कदाचित उसकी विवशता होती हैं कि अपनी श्रम-शक्ति को बेचकर सबसे पहले अपनी सामान्य जरूरतों की पूर्ति का प्रबंध करे. मार्क्स ने दर्शाया है कि पूंजीपति किस प्रकार मजदूरी को ही शोषण का माध्यम बना लेता है. वह वास्तविक मजदूरी में कटौती के नित नए रास्ते सोचता रहता है. विवेचन के दौरान वह तीन भिन्न स्थितियों का विश्लेषण करता है, जो मजदूरी पर आधारित शोषण को दर्शाती हैं. उसके अनुसार जागीरदारी या सामंती प्रणाली में श्रमिक इस तथ्य से सुपरिचित होता था कि जो श्रम वह अपनी भूमि कर करता है, वह उसके अपने लिए है. लेकिन जो श्रम वह जमींदार की भूमि पर करता है, वह जमींदार के लिए है. अपनी भूमि पर किए गए श्रम का सारा लाभ उसके हिस्से आएगा. जबकि पूंजीपति के लिए किए गए श्रम के लिए उसको उनकी दया पर निर्भर होना पड़ेगा. यही बात दास के लिए भी सही थी. दास जो सुबह से शाम तक अपने मालिक के लिए कार्य करता था, भली-भांति जानता था कि उसका कोई भी लाभ उसको नहीं मिलने वाला. सिवाय भरपेट रोटी के लिए. भूख की भरपाई को ही वह अपने श्रम का प्रतिफल मान सकता था, और मानता भी था. लेकिन मजदूर को भरपेट रोटी मिलना जितना उसके लिए आवश्यक है, उससे कहीं भू-स्वामी अथवा जमींदार के लिए भी आवश्यक है. इस तथ्य से परिचित होने के बावजूद जमींदार और सामंत अपनी ताकत के दम पर श्रमिकों का शोषण भी करते थे. शोषण की स्थितियां एकदम स्पष्ट थीं. मजदूर-श्रमिक अपनी दुर्दशा के लिए श्रमिक वर्ग को जिम्मेदार मानते थे.इसलिए उनके मन में जमींदारों, सामंतों के प्रति आक्रोश जमा रहता था. परिणामस्वरूप यदा-कदा विद्रोह के स्वर भी उठते रहते थे. तो भी उस व्यवस्था में जो कुछ था साफ था.जागीरदार और सामंत शोषण करते हैं, यह मजदूरी या बेगार करने वाले को मालूम होता था, इसलिए वे उसके लिए तैयार होते थे, तथा अवसर मिलने पर उस व्यवस्था का प्रतिकार भी करते थे. पूंजीवादी व्यवस्था में मालिक और स्वामी के बीच संबंधों की असलियत सामने नहीं आ पाती. वे सदैव संदेहपूर्ण होते हैं. पूंजीपति यद्यपि पारदर्शिता का ही दावा करता है. विडंबना यह है कि अधिकांश श्रमिक इस दावे पर विश्वास भी कर लेते हैं. यही विश्वास पूंजीवाद को दीर्घजीवी और टिकाऊ बनाता है. श्रमिक को जो उसकी मजदूरी के नाम पर प्राप्त होता है, वह दुर्भाग्यवश उस राशि के सापेक्ष बहुत कम होता है, जो उसके श्रम के बल पर पूंजीपति अर्जित करता है. वस्तुतः श्रमिक की श्रम-शक्ति के बदले जो मजदूरी उसको उसकी श्रम-लागत के रूप में दी जाती है, वह उसके उस श्रम के तुल्य नहीं होती, जिसका उसने उत्पादन-प्रक्रिया में निवेश किया है. जिसके बारे में मजदूर यह सोचता है कि वह उसके श्रम की मजदूरी के रूप में उसको प्राप्त हुई है. वह वास्तव में उसके स्वामी को पहुंचने वाले लाभांश का बहुत छोटा हिस्सा होता है. दूसरे शब्दों में श्रमिक की मेहनत उसके मालिक के लिए अधिलाभ की रचना करती है. मार्क्स कहता है— ‘कामगार और पूंजीपति की न्याय-संबंधी सभी धारणाएं, पूंजीवादी उत्पादन-व्यवस्था की सभी दुर्बोधताएं और मिथ्यावरण,स्वतंत्राता-संबंधी पूंजीवाद के सभी मतिभ्रम और दिखावे,अशिष्ट-अमानवीय अर्थव्यवस्था की माफीनामे जैसी समस्त पैंतरेबाजी वैसी ही है, जैसा कि ऊपर दर्शाया गया है. यह असलियत पर पर्दा डालने का काम करती है और सच में वह दिखाती हैं, जो कि वास्तविकता से एकदम परे, जानबूझकर दिखाया जाता है.’ मुश्किल यह है कि अपनी जीविका के संघर्ष में डूबा हुआ मजदूरवर्ग इस सचाई को समझ ही नहीं पाता. यदि समझ भी लेता है तो उसके पारिवारिक दायित्व और अन्य विवशताएं संघर्ष की ओर प्रवृत्त होने से रोकती हैं. हालात में सुधार के लिए वह सरकार अथवा अन्य नैतिकतावादी संस्थाओं से न्याय दिलाने की अपेक्षा रखता है. मगर विडंबना ही है कि ये सभी संस्थान और सरकार भी, कहीं न कहीं पूंजीवाद के दबाव में होते हैं. परिणामस्वरूप पूंजीपति के लिए शोषण का रास्ता एकदम साफ रहता है. मार्क्स समस्या का उल्लेख करके रुक नहीं जाता. बल्कि समस्या का हल कैसे हो? श्रमिक पूंजीवादी शोषण से कैसे त्राण पाएं, इस बारे में वह अगले अध्यायों में विस्तार से चर्चा करता है.
17. समयाधारित वृत्तिका
इस अध्याय में मार्क्स ने मजदूरी के विभिन्न रूपों का विश्लेषण किया है.पूंजीवादी व्यवस्था में मजदूरी का भुगतान प्रायः दो तरीके से किया जाता है.पहला कार्यघंटे के आधार पर. तथा दूसरा किए गए कार्य के आधार पर.कार्यघंटे के आधार पर दी जाने वाली मजदूरी की एक मौलिक विशेषता है कि वह समय-सापेक्ष होती है. प्रत्येक श्रमिक अपने श्रम का स्वामी-पूंजीपति की इच्छानुसार कुछ सुनिश्चित कालावधि के लिए निवेश करता है. यह अवधि घंटे, दिन, सप्ताह, महीना आदि कुछ भी हो सकती है. अवधि के पूरा होने पर जो धनराशि श्रमिक को उसके श्रम-मूल्य के रूप में प्राप्त होती है,वह उसकी वृत्तिका अथवा मजदूरी कहलाती है. हालांकि पूंजीवादी व्यवस्था में मजदूरी की मात्रा श्रमिक की श्रम-लागत का कुछ ही हिस्सा होती है.अधिकांश तो पूंजीपति-स्वामी द्वारा लाभांश के रूप में हड़प ली जाती है.कार्यदिवस की लंबाई के अनुसार, उसकी दैनिक अथवा साप्ताहिक मजदूरी में खतरनाक रूप से बड़े अंतर दिखाई पड़ सकते हैं. ऐसे में यदि किसी श्रमिक के औसत श्रम-मूल्य की गणना करनी हो तो वह उसकी दैनिक माध्य-वृत्तिका अथवा औसत मजदूरी को कुल कार्यघंटों द्वारा विभाजित करने पर प्राप्त की जा सकती है. स्पष्ट है कि जैसे-जैसे औसत कार्यघंटों की संख्या बढ़ती है, श्रमिक की औसत मजदूरी में भी गिरावट आने लगती है. इसके आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि किसी भी श्रमिक का औसत श्रम-मूल्य उसके दैनिक कार्यघंटों की संख्या के व्युत्क्रमानुपाती होता है.औसत श्रम-मूल्य की गिरावट श्रमिक की साप्ताहिक या मासिक मजदूरी से स्वतंत्रा होती है, यानी दैनिक या साप्ताहिक मजदूरी समान रहने पर भी उसके औसत श्रम-मूल्य में पतन संभव है. यहां तक कि कार्यघंटों की बढ़ती दर के आधार पर, श्रमिक की मजदूरी बढ़ने पर भी उसके औसत श्रम-मूल्य में स्थिरता अथवा गिरावट के लक्षण बने रह सकते हैं. यही स्थिति उनके शोषण के स्तर को दर्शाती है. मार्क्स ने स्पष्ट किया था कि मजदूरी का बढ़ना और औसत श्रम-मूल्य का बढ़ना दोनों एक-दूसरे से भिन्न स्थितियां हैं.
मार्क्स ने लिखा है कि श्रमशक्ति के मूल्य एवं उसके श्रम-मूल्य की अंतर्संबद्धता को छिपाने के लिए पूंजीपति हालांकि प्रतिघंटा के आधार पर मजदूरी के भुगतान के नियम को अपना सकता है. मगर यह उसी अवस्था में लागू किया जाता है जहां कार्यदिवस के घंटों को निर्धारित करना संभव हो. पूंजीपति श्रमिक को एक कार्यदिवस के लिए नियुक्त कर सकता है.लेकिन यह तभी संभव है कि जब कार्यदिवस दिवस के दौरान किए कार्य का कुल मूल्य श्रमिक की दैनिक मजदूरी से अधिक हो और मालिक के लिए अधिलाभ की सुनिश्चितता हो. ऐसी अवस्था में पूंजीपति के लिए श्रमिक को लंबे समय के लिए नियुक्त करने के बजाय अल्पावधि के लिए काम पर रखना लाभप्रद होता है. अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं के लिए श्रमिक उस अल्पावधि में भी अधिकतम कार्य कर मालिक को संतुष्ट करना चाहता है,ताकि उसको आगे भी काम की उम्मीद बनी रहे. कम वृत्तिका लेकर भी स्वयं को स्पर्धा में बनाए रखने की श्रमिक की व्यवस्था ही पूंजीवाद को ताकतवर बनाने का काम करती है. अक्सर आठ घंटे अथवा एक औसत कार्यदिवस के दौरान मजदूरी की दर इतनी कम रखी जाती है कि श्रमिक को अपनी जरूरतों की भरपाई के लिए अतिरिक्त समय तक कार्य करना पड़ता है. यह स्थिति स्वामी-पूंजीपति के लिए और भी लाभकारी होती है. इससे उसको दुहरा लाभ होता है. मार्क्स इसकी व्याख्या कुछ इन शब्दों में करता है— ‘जब कोई अकेला कामगार डेढ़ अथवा दो कामगारों जितना कार्य निपटाता है, तब श्रम की उपलब्धता बढ़ती है, यद्यपि इससे बाजार में श्रम-शक्ति की आपूर्ति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. वह स्थिर बनी रहती है. इससे श्रमिकों में स्पर्धा का माहौल बनता है. यह स्थिति पूंजीपति को बलपूर्वक श्रम-मूल्य घटाने का अवसर प्रदान करती है. इस तरह जब श्रम-मूल्य में गिरावट को अघोषित अनुमति मिल जाती है, तब पूंजीपति-स्वामी श्रमिकों पर और भी अधिक समय तक काम करने के लिए दबाव डालने की स्थिति में होता है.’ समय के आधार पर मजदूरी का भुगतान पूंजीपति और श्रमिक दोनों के बीच यह विश्वास पैदा करता है कि श्रम को सीधे-सीधे खरीदा जा रहा है. मजदूर यह मानकर संतुष्ट हो जाता है कि जिस अवधि के लिए उसने श्रम का निवेश पूंजीपति के लिए किया, उस अवधि का श्रम-मूल्य वह प्राप्त कर चुका है. दूसरी ओर पूंजीपति भी कार्यघंटों के हिसाब में मजदूरी का भुगतान कर निश्चिंत हो जाता है. मगर इस व्यवस्था में मजदूर को एक जीवित इकाई के बजाय मात्रा एक मशीन अथवा अपना श्रम-कौशल बेचने वाली निर्जीव इकाई मान लिया जाता है. जबकि यथार्थ में ऐसा हरगिज नहीं होता. यह स्थिति श्रम के लिए शोषणकारी सिद्ध होती है. बाजार में श्रम की स्पर्धा श्रम-मूल्य में निरंतर गिरावट की स्थितियां पैदा करती है. जबकि पूंजीपति-स्वामी खुद को निर्दोष मानकर न केवल निस्पृह बना रहता है, बल्कि कानूनी जटिलताओं का लाभ उठाते हुए स्थितियों को निरंतर अपने पक्ष में बनाए रखता है.
18. उत्पादन-आधारित वृत्तिका कामगार को काम के बदले मजदूरी दिए जाने की दूसरी प्रणाली में श्रमिक को उसके द्वारा उत्पादित माल के प्रति नग के अनुसार, पूर्वनिर्धारित दर पर,मजदूरी प्रदान की जाती है. पूंजीवादी व्यवस्था में यह प्रणाली भी शोषण का आधार बनती है. इस प्रणाली में श्रमिक द्वारा बनाए गए माल के प्रति नग के अनुसार तय धनराशि का भुगतान किया जाता है. इसे वृत्तिका-भुगतान की परिष्कृत प्रणाली माना जाता है. इस प्रणाली में पूंजीपति-स्वामी को उत्पाद की एक इकाई के निर्माण में लगने वाले समय की जानकारी होती है.इसलिए वह उन्हीं कामगारों को नियुक्त करता है, जो उस समय-मानक पर खरे उतरते हों. इस प्रणाली में उत्पादन-चक्र को विभिन्न इकाइयों में बांट दिया जाता है, ताकि उनमें लगे श्रम-मूल्य की गणना की जा सके. यह व्यवस्था दलालों को बढ़ावा देने में सहायक सिद्ध होती है. ये दलाल पूंजीपति स्वामी से जो निश्चित राशि लेते हैं, उसका एक आकर्षक हिस्सा अपने लिए बचाकर बाकी का भुगतान श्रमिक को करते हैं. इससे श्रमिक को उसका पूरा श्रम-मूल्य नहीं मिल पाता. ये स्थितियां मजदूर के शोषण को बढ़ावा देती हैं. निहित स्वार्थ के लिए पूंजीपति की ओर से श्रमिक को बराबर यह समझाया जाता है कि उसके अतिरिक्त श्रम का लाभ उसको सीधे मिल रहा है. यदि वह अधिक काम करेगा, तो उसका पूरा लाभ उसी को प्राप्त होगा. अतएव अपने आर्थिक हित को देखते हुए उसको अधिक से अधिक कार्य करना चाहिए. श्रमिक जो अक्सर इस पद्धति की बारीकियों से अनजान होता है,लालच में आकर प्रति समय-इकाई में अधिक से अधिक नगों का उत्पादन करने की कोशिश करता है, जिसके लिए उसको निर्धारित कार्यघंटों से भी अधिक देर तक काम करना पड़ सकता है. लेकिन जैसे-जैसे उसके प्रतिदिवस कार्यघंटों की बढ़ोत्तरी होती है, उसके श्रम-मूल्य में उतनी ही गिरावट आने लगती है. दूसरी ओर पूंजीपति स्वामी को उत्पाद की प्रति नग के अनुसार होने वाला लाभ बढ़ता चला जाता है. यह स्थिति भी श्रम को स्पर्धात्मक बनाती है. मार्क्स के अनुसार— ‘प्रति नग मजदूरी की एक खास प्रवृत्ति होती है. यह कि जब किसी श्रमिक की मजदूरी औसत से बढ़ने लगती है, तो उसका माध्यमान अपने आप नीचे गिर जाता है. स्पष्ट है कि प्रतिनग मजदूरी भुगतान की प्रणाली पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था के बेहद अनुकूल है.’ अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए मार्क्स ने फ्रांस के कपड़ा उद्योग का उदाहरण दिया है. वह लिखता है कि युद्धक स्थितियों के दौरान फ्रांस में कई घंटे लंबे कार्यदिवस के बावजूद प्रति-उत्पाद मजदूरी की दर में भारी गिरावट दर्ज की गई थी. मजदूर प्रतिदिन बीस घंटे काम करके भी अपनी जरूरत की चीजें नहीं जुटा पाते थे. दैनिक मजदूरी की दर अपने न्यूनतम स्तर तक गिर चुकी थी. दूसरी ओर श्रमिकों ने इस स्थिति का खूब लाभ उठाया था.चूंकि युद्ध के कारण उद्योग-धंधों में मंदी का आलम था, और बेरोजगारी अत्यंत बढ़ चुकी थी, इसलिए श्रमिकों के लिए बाहर रोजगार के अवसर काफी घट चुके थे. ऊपर से रोजमर्रा की वस्तुएं अत्यधिक महंगी हो जाने के कारण उन्हें जुटाने के लिए श्रमिक को अतिरिक्त श्रम करना ही पड़ता था.इसलिए पूंजीपति की शर्तों पर, अपेक्षाकृत कम वृत्तिका पर भी काम करने को विवश थे. गहन अध्ययन के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि प्रति-उत्पाद मजदूरी के भुगतान की व्यवस्था सिवाय श्रमिकों के शोषण के और कुछ नहीं है. प्रति नग उत्पादन प्रणाली पूंजीपति-स्वामी के लिए विशेष हितकारी होती है. वह उसकी दर अपनी शर्तों पर तय करता है, जो सामान्यतः इतनी कम होती है कि अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए अतिरिक्त समय तक काम करना हर श्रमिक की विवशता बन जाता है. परिणाम यह होता है कि पूंजीपति-स्वामी को उतने ही संसाधनों से अतिरिक्त उत्पादन प्राप्त हो जाता है, जो उसके अधिलाभ को बढ़ाने में सहायक होता है. युद्ध जैसी आपात्कालिक स्थितियां जहां जनसाधारण के लिए जानलेवा संकट बन जाती हैं, वहीं पूंजीपति के लिए वे विशेष लाभदायक सिद्ध होती हैं. समाज अथवा सरकार की ओर से कोई कानूनी-नैतिक बंधन न होने के कारण वे पूरी तरह स्वार्थी और निष्ठुर बन जाती हैं.
19. पूंजी-संचयन की प्रक्रिया उन्नत प्रौद्योगिकी पर आधारित उत्पादन व्यवस्था पूंजीपति के लिए विशेषरूप से लाभकारी सिद्ध होती है. अपनी पूंजी के दम पर वह आधुनिकतम प्रौद्योगिकी में निवेश करता है, जिनके आगे श्रमिक की हैसियत मशीन-सहायक जितनी होती है. इसका लाभ उठाते हुए पूंजीपति श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी देता है. अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए श्रमिक को अधिक देर तक काम करना पड़ता है. यह स्थिति भी पूंजीपति-स्वामी के हित में होती है. वह न्यूनतम मजदूरी देकर अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने की स्थिति में रहता है. परिणामस्वरूप उसका अधिलाभ निरंतर बढ़ता ही जाता है. उत्पादन व्यवस्था में अधिलाभ की लगातार बढ़ती दर के कारण अतिरिक्त पूंजी, कारखाना मालिक के खजाने में जमा होती जाती है. जो उसको और अधिक ताकतवर, महत्त्वाकांक्षी, साधन-संपन्न, लालची और उत्पीड़क बनाती है. पुस्तक के अगले अध्यायों में मार्क्स ने अधिलाभ के पूंजी में ढलने और उसके वर्गीय चरित्र को पुनः उभारने वाली प्रवृत्तियों का विवेचन किया है, जो श्रमिकों के शोषण को बढ़ावा देती हैं. अधिलाभ की बढ़ती मात्रा पूंजीपति की एकाधिकार की प्रवृत्ति को बढ़ावा देती है. अपनी संचित पूंजी के दम पर वह और महंगी, मजदूर-विरोधी तकनीक खरीदता है. नई तकनीक उसके पूंजीलाभ और भी वृद्धि करती है, जिससे उसका लाभानुपात निरंतर बढ़ता जाता है. उच्च तकनीक के आगमन के पश्चात श्रमिकों को उनकी वृत्तिका के रूप में दी जाने वाली चल पूंजी, मशीनादि के रूप में अचल पूंजी का रूप धारण कर लेती है. पूंजीपति-स्वामी उसका लाभ उठाता है. वह अधिलाभ का बड़ा हिस्सा मशीनों के संरक्षण, रखरखाव, क्षरण, संचालन-शुल्क आदि पहले ही अपने पास रख लेता है. नई मशीनों के आगमन के परिणामस्वरूप कुछ श्रमिक बेरोजगार हो जाते हैं. हालांकि उन्हें यह अवसर प्राप्त होता है कि नई तकनीक से सामन्जस्य बनाए रखने के लिए स्वयं को प्रशीक्षित करें, लेकिन उससे पहले तक पूंजीपति-स्वामी की ओर से मिल रही धनराशि इतनी कम होती है कि वह प्रशिक्षण का व्यय उठाने में अक्सर असमर्थ होता है. वह पूंजीपति से अपेक्षा करता है कि प्रशिक्षण का खर्च स्वयं उठाकर उसके साथ सहयोग करे. उस समय पूंजीपति चुनिंदा कर्मचारियों को, जितनी नई प्रौद्योगिकी युक्त मशीनों के संचालन के लिए उसे आवश्यकता है, प्रशिक्षण देकर बाकी को अपनी मनमानी शर्तों पर काम करने के लिए बाध्य कर देता है. पूंजीपति स्वामी प्रशिक्षण का स्वयं खर्च उठाने के बजाय बाहर से प्रशिक्षित कर्मचारियों को काम पर लेने को प्राथमिकता देते हैं. नए कर्मचारी अनुभवी कर्मचारियों की अपेक्षा कम वृत्तिका पर ही काम करने को तैयार हो जाते हैं. उनके ऊपर अपनी शर्तें थोपना भी आसान होता है. इसका दुष्परिणाम यह होता है कि अनुभवी कर्मचारियों के सिर पर छंटनी की तलवार लटक जाती है. अंततः उन्हें भी पूंजीपति स्वामी की शर्तों के अधीन काम करने को सहमत हो जाते हैं. पूंजीवाद का बढ़ता वर्चस्व समय-समय पर अनेक वित्तीय संकटों का कारण बनता है. पूंजीपतियों के बीच बढ़ती स्पर्धा एक और जहां श्रमिकों के शोषण को बढ़ावा देती है, वहीं यह पूंजीपतियों के बीच भी एक निर्लज्ज होड़ पैदा करने लगती है. मार्क्स के अनुसार पूंजी के संचयन की प्रवृत्ति अर्थव्यवस्था में स्थायित्व के लिए चुनौतीपूर्ण होती है. बाजार पर एकाधिकार प्राप्त करने की प्रवृत्ति उत्पादन-व्यवस्था में निरंतर क्रांतिकारी परिवर्तनों को बढ़ावा देती है. श्रमिक जब तक एक तकनीक का अभ्यस्त होने का प्रयास करता है,उससे पहले ही बाजार में नई तकनीक दस्तक देने लगती है. स्वाभाविक रूप से नई तकनीक पहले से कहीं अधिक उत्पादन-क्षम किंतु श्रम-विरोधी होती है. बावजूद इसके बाजार पर एकाधिकार कायम रखने के लिए पूंजीपति उस तकनीक को अपना भी लेता है. नई तकनीक के प्रति अकुशल श्रमिक एक बार पुनः पूंजीपति की मनमानी के आगे झुकने को विवश हो जाता है.
20. पुनरुत्पादन-मात्र मार्क्स के लेखन की विशेषता यह है कि पूंजीवाद के चरित्र का कोई भी पहलू, कोई भी कोना उसके चिंतन से बच नहीं सका है. पूंजी की तानाशाही से जुड़े प्रत्येक मुद्दे पर वह अपने मौलिक विचार प्रस्तुत करता है. पूंजीवादी व्यवस्था के लगभग हर निहितार्थ की विवेचना करता हुआ वह बार-बार उसकी शोषणकारी प्रवृत्तियों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित कराता है, और हर बार वह पूंजीवाद की वैकल्पिक प्रविधियों पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है. पुस्तक के तेइसवें अध्याय में वह पुनरुत्पादन पर चर्चा करता है और उत्पादन को उससे जोड़ देता है. पुनरुत्पादन-मात्र का अभिप्राय पूंजीपति-स्वामी की उस प्रवृत्ति से है जो समस्त अर्जित अधिलाभ को पचाकर, दूसरे शब्दों में श्रमिकों के हिस्से के अधिलाभ को हड़पकर, हर बार उतनी ही पूंजी का निवेश उत्पादन में जोड़ देता है. इसके परिणामस्वरूप उत्पादन-स्तर में स्थायित्व आता है. मार्क्स के अनुसार उपभोग समाज की जरूरत है, और संभवतः उसका चरित्र भी. समाज के लिए उपभोग को रोक पाना असंभव है. न ही उसके लिए उत्पादन पर अंकुश लगाया जा सकता है.उपभोग उत्पादन की प्रेरणा बनता है. मगर उत्पादन मात्रा से पूंजीपति की महत्त्वाकांक्षाओं की तृप्ति नहीं हो पाती. लाभ-वृद्धि की कामना से वह अधिक उत्पादन करना चाहता है. इसके लिए वह अर्जित लाभ को निवेश का हिस्सा बना लेता है. बढ़ी हुई पूंजी को सक्रिय बनाए रखने के लिए नए क्षेत्रों में उत्पादन की जरूरत पड़ती है, पुनरुत्पादन की मांग बढ़ने लगती है. लाभ के निवेश और मशीनीकरण के चलते एक दिन पुनरुत्पादन व्यवस्था की अनिवार्यता बन जाता है— ‘समाज की उत्पादन की प्रत्येक प्रक्रिया, उसी क्षण पुनरुत्पादन की प्रक्रिया भी है.’ मार्क्स का यह निर्णय बहुत ही महत्त्वपूर्ण तथा उसकी सुतीक्ष्ण विश्लेषणात्मक वुद्धि का आविष्कार था. मार्क्स के अनुसार पूंजी का वर्गीय चरित्र ही ऐसा है कि वह सदैव विकासमान अवस्था में रहे. उत्पादन की अवस्था में चूंकि श्रम-शक्ति और उत्पादन के अन्य संसाधनों की लगातार खपत हो रही होती है, अतएव उत्पादन की निरंतरता को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि श्रम और संसाधनों का समानुपातिक पुनरुत्पादन भी होता रहे. ऐसा न होने पर उत्पादन शृंखला बाधित हो जाएगी. पुनरुत्पादन की बढ़ती मांग श्रम-शोषण के नए आयाम विकसित करती है. मार्क्स यहां दो बिंदुओं का विशेष उल्लेख करता है. वह लिखता है कि— ‘सामान्यतः यही लगता है कि पूंजीपति अपने श्रमिक को काम के बदले मुद्रा के रूप में भुगतान करता है, जबकि हकीकत यह है कि मजदूर को मात्रा उतनी मजदूरी ही प्राप्त हो सकती है, जिससे वह किसी भी प्रकार अपना एक दिन बिता सके. अपनी सामान्य जरूरतों को पूरा करने के लिए श्रमिक को सारे दिन काम करना पड़ता है. उसके बदले पूंजीपति उसको मजदूरी के रूप में कुछ धन का भुगतान करता है. किंतु अपने श्रम के माध्यम से श्रमिक पूंजीपति द्वारा दी गई मजदूरी से कहीं अधिक उसे कार्य के रूप में लौटा भी चुका होता है. वह पूंजी पूंजीपति का अधिकार मानी जाती है और दिन-प्रतिदिन बढ़ते हुए भारी धनराशि का रूप ले लेती है. यह पूंजी प्रकारांतर में पूंजीपति को और अधिक समृद्ध करने के काम आती है. चूंकि कामगार की जरूरत की अधिकांश वस्तुएं,जीवनोपयोगी दैनिक सामग्री भी पूंजीपति के कारखानों में बनती है, जिन्हें वह भारी लाभानुपात के साथ बेचता है. बिना यह सोचे-विचारे कि उनके उत्पादन में श्रमिक वर्ग ने अपना पसीना बहाया है, और इस नाते उसका भी उतना ही अधिकार है, जितना कारखानेदार का. उन्हें अर्जित करने के लिए श्रमिक अपनी मजदूरी को दुबारा पूंजीपति को लौटा देता है. मजदूर और मालिक के बीच इस अदला-बदली द्वारा मालिक को पुनः निवेश योग्य धन एवं श्रमिक को उपभोक्ता सामग्री की प्राप्ति होती है. परिणाम यह होता है कि श्रमिक जहां जीने-भर का सामान जुटा पाता है, वहीं पूंजीपति के पास मुनाफे के रूप में पूंजी की लगातार आमद रहती है, जो उसको और अधिक समृद्ध करने का काम करती है.’ मार्क्स आगे लिखता है कि उत्पादन-प्रणाली को गतिमान बनाए रखने हेतु उससे लाभ का सृजन अनिवार्य है. यदि लाभ के बिना भी पूंजीपति उद्योग को चलाए रहता है, उसके लिए वह अपनी जेब से लगातार पूंजी लगाता है,तो एक दिन निश्चय ही ऐसा आएगा, जब वह टूट चुका होगा. अतएव पुनरुत्पादन-मात्रा का आशय है, समस्त पूंजी को इस तरह उद्यम का हिस्सा बना देना कि उससे सतत लाभार्जन होता रहे और अर्जित लाभ के एक हिस्से का उद्यम में निवेश कर, उसको आगे बढ़ाते रहने की संभावना भी निरंतर बनी रहे. पुनरुत्पादन अथवा उत्पादन की चक्रीय व्यवस्था दरअसल समाज के वर्ग-चरित्रों की अनुकृति है. पूंजीवादी अवस्था में श्रमिक को सिर्फ इतना ही मिल पाता है जिससे वह अपनी सामान्य जरूरत के लिए आवश्यक वस्तुएं जुटा सके. कई बार तो वह इतना कम होता है कि श्रमिक को अपनी न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी करने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है और अपनी कुछ अपेक्षा कम जरूरी वस्तुओं के साथ कतर-ब्योंत करनी पड़ती है. श्रमिक जिन उद्यमों में अपने श्रम का निवेश करता है, वे पूंजीपति की संपत्ति होते हैं. अपने श्रम-कौशल के माध्यम से श्रमिक वहां पूंजीपति-स्वामी के लिए लाभ का सृजन करता है. काम पूरा होने के साथ ही वह कारखाने को ज्यों का त्यों छोड़कर चला जाता है. इस बीच वह सिर्फ उतना जुटा पाता है, जो उस अवधि में काम करने के लिए अनिवार्य था.पूंजीपति की भांति वह धन को कभी अपने जीवन की वास्तविकता में नहीं बदल पाता. इससे पूंजीपति पर उसकी आश्रितता सदैव बनी रहती है. यह व्यवस्था समाज के बहुसंख्यक श्रमजीवी वर्ग को पूंजीपतियों का आश्रित बना देती है, जिससे शोषण और अनाचार को बढ़ावा मिलता है. मार्क्स के शब्दों में— ‘श्रमिक उत्पादन-प्रक्रम को सदैव उस अवस्था में छोड़ता है, जैसा वह उसके आगमन के समय था—धन का वैयक्तिक स्रोत, वह उसे अपने लिए धनार्जन का नियमित स्रोत बनाने से वंचित रह जाता है.’ श्रमिक को मजदूरी के रूप में उतनी ही धनराशि मिलती है, जिससे वह अपने जीवनयापन के लिए केवल अनिवार्य वस्तुओं की खरीद कर सके.उसके बाद उसके पास कुछ शेष नहीं बचता. इसलिए उसको श्रम के लिए दुबारा समर्पित होना पड़ता है. मार्क्स यहां गहराई में जाकर अन्वीक्षा करता है. वह लिखता है कि मजदूर को प्राप्त मजदूरी उस अवधि के लिए होती है,जिसको वह पूरा कर चुका होता है. इसका आशय है कि श्रमिक अग्रिम श्रम-निवेश करता है. मजदूरी उसको बाद में प्राप्त होती है. इस अवधि का पूंजीपति की ओर से उसको कोई ब्याज भी नहीं मिलता. उल्टे पूंजीपति के अधिकार-भाव के आगे उसको सदैव झुकना पड़ता है. यही कारण है कि इस व्यवस्था में श्रमिक निरंतर पिसता जाता है, जबकि पूंजीपति सदैव लाभ की स्थिति में रहता है. वह पूंजी का निवेश करता है, लाभ कमाता है, दुबारा उसका निवेश करता है. वह श्रमिक को कम मजदूरी देता है. जितना देता है,उसका एक हिस्सा उसे उपभोक्ता वस्तुएं बेचकर अधिलाभ के रूप में पुनः वापस ले लेता है. अतएव मजदूर के पास सिवाय उसके एक दिन के, जिसे वह कारखाने में श्रम करते हुए बिताता है, और कुछ नहीं बच पाता. इस प्रकार उसका लाभ और उत्पादन-व्यवस्था पर वर्चस्व बढ़ता ही जाता है. उल्लेखनीय है कि पूंजीपति समस्त लाभ का एक साथ निवेश नहीं करता. न ही उसको वह अपने पास बचाकर रखता है. बल्कि लाभार्जन के रूप में संचित पूंजी का निवेश वह उत्पादन के नए क्षेत्रों में करता है, जो उसके साथ-साथ दूसरे पूंजीपतियों को भी लाभ पहुंचाने का काम करते हैं. परिणाम यह होता है कि पूंजीपति की आरंभिक पूंजी चक्रीय पूंजी का रूप ले लेती है,जो पूंजीपति के लिए मजदूरों के श्रम को अधिलाभ में बदलने का काम करती है. इस व्यवस्था में श्रमिक को यह लगता है कि वह पूंजीपति से अपनी मजदूरी के रूप में कुछ अर्जित कर रहा है, जबकि अर्जित की गई मुद्राएं जीवन के लिए जरूरी वस्तुओं की खरीद में खप जाती हैं. अगले दिन से श्रमिक को पुनः संघर्ष में जुटना पड़ता है. कामगार जीवित रहने की कोशिश में अपने श्रम को बेचता है, और इस दौरान वह पूंजीपति-स्वामी के लिए अधिलाभ का लगातार सृजन करता है, जिसका एक हिस्सा पुनः निवेश होकर पूंजीपति के अधिलाभ में वृद्धि करने और अपने लिए वर्गीय शोषण की स्थितियां पैदा करने का काम करता है. श्रम और संसाधन की खरीद-फरोख्त के इस क्रम में श्रमिक अपने श्रम से पूंजीपति को बढ़ावा देता है, जबकि पूंजीपति अपनी पूंजी के दम पर श्रमिकों की कतार पर कतार पैदा करता चला जाता है. मार्क्स के अनुसार यह स्थिति आगे चलकर वर्ग-संघर्ष को प्रासंगिक और अनिवार्य बनाने का काम करती है.
21. अधिलाभ का पूंजी में अंतरण मार्क्स के अनुसार हर धन पूंजी नहीं है. न ही हर वस्तु उपभोक्ता सामग्री कही जा सकती है. पूंजी का आशय उस संपदा से है जो उत्पादन-प्रक्रिया में प्रवृत्त होकर पूंजीपति के निमित्त अधिलाभ का सृजन करती है. इसी प्रकार उपभोक्ता वस्तु का आशय उस वस्तु से है, जिसका निर्माण दूसरों के उपयोग हेतु, आर्थिक लाभ कमाने की वांछा के साथ किया जाता है. ‘पूंजी’ के चैबीसवें अध्याय में मार्क्स उन स्थितियों की विस्तृत विवेचना करता है जिनके माध्यम से कोई पूंजीपति अपने लाभ का उपयोग पूंजी-विस्तार के लिए करता है. पिछले अध्यायों में किए गए विश्लेषण को आगे बढ़ाते हुए वह एक बार फिर पूंजी के संचयन, उसके पुनः निवेशन और लाभ में बदलने की प्रक्रिया को अपने विश्लेषण से जोड़ता है. मार्क्स के शब्दों में अधिलाभ के संचयन का अभिप्राय— ‘अधिलाभ-मूल्य का पूंजी के रूप में निवेश करना; अथवा उसका पूंजी के रूप में पुनः रूपांतर है.’ अपने मंतव्य को स्पष्ट करने के लिए वह सूती धागा बनाने वाले एक मजदूर का चित्र खींचता है. शब्दचित्र के माध्यम से वह दर्शाता है कि एक पूंजीपति किस प्रकार अपनी पूंजी का उपयोग अपने उत्पादन को बढ़ाने और श्रम-शक्ति जुटाने के लिए करता है. वह बार-बार एक ही बात पर लौटकर आता है कि किस प्रकार अधिलाभ को पूंजी का रूप देने के लिए पूंजी का संचयन और उसका पुनः निवेशन अनिवार्य है. आखिर वे कौन से कारण हैं,जिनके कारण कोई पूंजीपति अपने लाभ का निवेश करने को तैयार होता है? वे कौन-सी लालसाएं हैं जो पूंजीपति को श्रमिकों के शोषण के लिए उकसाती हैं और उसको उस व्यवस्था का खलनायक बनने के लिए बाध्य करती हैं? मार्क्स के अनुसार लाभ की मात्रा जैसे-जैसे बढ़ती है, पूंजीपति के मन में बाजार पर एकाधिकार कायम करने की इच्छा बलवती होती जाती है.आर्थिक साम्राज्य का मुखिया बनने की साध उसे उत्पादन-वृद्धि और नई उपभोक्ता वस्तुओं के विकास के साथ नए बाजारों की खोज के लिए भी प्रेरित करती है. स्मरणीय है साधारण अवस्था में उत्पादन-वृद्धि का सपना देखना और उसके लिए नई प्रौद्योगिकी का उपयोग करना अपने आप में बुरा नहीं है, बशर्ते इसके साथ सामाजिक हितों का भी पूरा-पूरा ध्यान रखा जाए.उन श्रमिकों, कारीगरों को भी लाभ का समुचित हिस्सा प्रदान किया जाए, जो उन वस्तुओं के उत्पादन के लिए अपना पसीना बहाते हैं. लेकिन पूंजीपति यह कार्य विशुद्ध लाभ कामना के साथ, केवल निहित स्वार्थों के लिए करता है. इस कारण उसकी अपने साथी पूंजीपतियों के साथ एक स्पर्धा कायम हो जाती है, जो उसकी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं का निकष होती है. इसके लिए वह उत्पादन के नए क्षेत्रों की तलाश कर अपनी पूंजी को बहुमुखी विस्तार देने के सपने पालने लगता है. पूंजी के विस्तार के साथ यह प्रवृत्ति कम होने के बजाय लगातार बढ़ती ही जाती है. मार्क्स के अनुसार पूंजीवादी विस्तार अतिरिक्त श्रम-शक्ति की अपेक्षा करता है. यह श्रम-शक्ति अनायास नहीं उत्पन्न नहीं होती. वह समझाता है— ‘पूंजीवादी उत्पादन का पूरा का पूरा तंत्र, वास्तव में उस श्रमिक वर्ग के उत्पादन और पुनरुत्पादन की स्थायी व्यवस्था है, जो अपने जीवन के लिए मजदूरी पर निर्भर रहता है, इस प्रकार पूंजीपति की श्रम-शक्ति संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए वह उस(पूंजीपति)के विस्तार में सहायक बनता है.’ मार्क्स के अनुसार पूंजीवादी व्यवस्था में श्रम-पुनरुत्पादन में खर्च होने वाला श्रम पूंजीपति के और अधिक लाभ की संभावना के बिना असंभव है. यहां तक कि श्रमिक वर्ग की भोजन और काम-संबंधी मूल जैविक आवश्यकताएं भी लगातार पूंजीवाद को ही पुष्ठ करने में सहायक होती है, उनके माध्यम से पूंजीपति के लिए श्रम-शक्ति की निरंतर उपलब्धता बनी रहती है. उसके उपभोक्तावर्ग का दिनों-दिन विस्तार होता जाता है. इससे पूंजीपति का लाभ लगातार बढ़ता जाता है, जिसका एक हिस्सा उत्पादन में ढलकर उसके लाभानुपात को निरंतर विस्तार देता जाता है. यह प्रक्रिया चक्रीय रूप धारण कर लेती है. इस विश्लेषण के माध्यम से मार्क्स तीन परिणामों तक पहुंचता है, जो धन को पूंजी में अंतरित करने में सहायक होते हैं— क. यह कि उत्पाद पर पूंजीपति का अधिकार होता है, न कि श्रमिक का. ख. यह कि उत्पाद के मूल्य में लगाई गई पूंजी के अतिरिक्त,पूंजीपति-स्वामी का अधिलाभ भी सम्मिलित होता है, जिसे केवल श्रमिक का पसीना संभव बनाता है, पूंजीपति का नहीं. बावजूद इसके उसे पूंजीपति की वैध संपत्ति मान लिया जाता है. सरकार और सामाजिक संस्थानों की सहमति पूंजीपति-स्वामी को राजनीतिक-आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाती है. ग. यह कि श्रमिक अपनी श्रम-शक्ति को सुरक्षित रखता है. यदि कोई नया खरीदार मिले तो वह उसको नए रूप में बेचने को तत्पर होता है. उपर्युक्त विवेचना के उपरांत मार्क्स इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि उत्पादन और पुनरुत्पादन की साधारण स्थितियों में भी पूंजी का चक्रीय क्रम(निवेश—उत्पादन—लाभांश—पुनः निवेश—पुनरुत्पादन—अतिरिक्त लाभांश) बना ही रहता है. इस बीच पूंजीपति के लाभ में भी उत्तरोत्तर वृद्धि जारी रहती है,हालांकि इस बीच पूंजीपति द्वारा किए गए प्रारंभिक निवेश—मशीनरी, भवन आदि के मूल्य में स्वाभाविक मूल्यहृास के कारण लगातार कमी आती रहती है. दूसरे शब्दों में पूंजीपति एक बार निवेश के बाद कारखाने से सतत लाभांश का अधिकारी मान लिया जाता है, जबकि श्रमिक को उसके निरंतर श्रम के बावजूद केवल उत्तरजीविता ही हासिल होती है. विड़बना यह है कि मजदूरी की संतति आगे चलकर उन्हीं कारखानों को समृद्धि के लिए अपना खून-पसीना बहाती है, जहां उनके पूर्वज का शोषण हुआ था.
22. पूंजी संचयन का सामान्य सिद्धांत पूंजी का निर्माण दो घटकों से होता है, वे हैं—श्रम-मूल्य एवं उत्पादन के अन्य संसाधन.अन्य संसाधनों में कच्चामाल, मशीनरी, भवन, औजार आदि सम्मिलित हैं. इनमें भी श्रम-ऊर्जा अधिक महत्त्व रखती है. किसी भी उत्पादन कार्य के लिए जब नई मशीनरी का उपयोग किया जाता है, तब पूंजी के घटकों में गुणात्मक परिवर्तन देखने को मिलता है. नई तकनीकयुक्त मशीनों के परिचालन के लिए प्रशिक्षित श्रम-शक्ति की आवश्यकता पड़ती है.विशिष्ट क्षेत्र में प्रशिक्षित श्रम-शक्ति को पूंजीपति अधिक मजदूरी देकर भी खरीद सकता है. मगर उसका श्रम-शक्ति के वास्तविक कल्याण पर कम ही असर पड़ता है, क्योंकि उच्च तकनीकयुक्त मशीनें मानव-श्रम विरोधी भी होती हैं, जो येन-केन-प्रकारेण पूंजीपति को ही लाभ पहुंचाती हें. पूंजी के विविध घटकों के बीच गुणात्मक परिवर्तन, समाज की कुल पूंजी में वृद्धि अथवा उसके संचयन के समय भी दिखाई पड़ता है, तथापि उसके दुष्परिणाम भी कम नहीं होते. मार्क्स के अनुसार पूंजी का संचयन और उच्च प्रौद्योगिकी के रूप में उसका पुनः निवेशन, संबंधित उद्योग में उत्पादन-वृद्धि की संभावना पैदा करता है. मगर उन्नत तकनीक का श्रम विरोधी चरित्र,उत्पादन प्रक्रिया में श्रम-शक्ति के महत्त्व को कम करने का काम करता है.उच्च उत्पादकतायुक्त मशीनें अनेक श्रमिकों का कार्य कम समय और लागत में निपटा देती हैं. जिससे अनेक श्रमिकों का कार्य अनायास छिन जाता है. परिणामस्वरूप श्रमिक नए क्षेत्रों में कार्य खोजने को विवश हो जाता है, जिनमें उसकी कार्यक्षमता सीमित होती है. ऐसी अवस्था में पूंजीपति उसकी वृत्तिका का निर्धारण मनमानी दरों पर करता है. मानव-श्रम के स्थान पर मशीनों के आगमन से उत्पादकता में वृद्धि तो होती है, मगर साथ ही रोजगार के अवसरों में भी गिरावट आती है. हालांकि नए क्षेत्रों में उत्पादन बढ़ने से वहां रोजगार के नवीन अवसर पैदा हो सकते हैं, मगर कुल मिलाकर मशीनें उत्पादन कार्य में मानव-श्रम के आनुपातिक योगदान को कम करने का काम करती हैं. हालाकि समाज में उत्पादकता का बढ़ता स्तर उसकी ऊपरी पर्तों में समृद्धि ला सकता है. उनके जीवन को सुखमय और सुविधासंपन्न बना सकता है, तथापि कुल मिलाकर इससे रोजगार के अवसरों में गिरावट आती है, जिससे समाज के बड़े वर्ग के समक्ष, उस वर्ग के समक्ष जो केवल अपना श्रम बेचकर जीविकोपार्जन करना जानता है,जीविका-संकट पैदा होने लगता है. उन्नत प्रौद्योगिकी समाज में बेरोजगारों की फौज खड़ी कर दूसरे सामाजिक संकटों को बढ़ावा देती है. इसके विपरीत यदि उत्पादन और पूंजी संचयन स्थिर रहता है, अथवा मशीनों की लागत और लाभ का अनुपात पूंजीपति के हितों के प्रतिकूल है,तो वह उसकी भरपाई श्रम-शक्ति से करना चाहता है. उस अवस्था में पूंजीपति के लिए लार्भाजन की दर को बढ़ाने या कम से कम स्थिर बनाए रखने की और बड़ी जिम्मेदारी, श्रम-शक्ति के कंधों पर आ जाती है. पूंजीपति इसी से संतोष नहीं कर लेता. उसका पूरा ध्यान उत्पादन-वृद्धि द्वारा अपने अधिलाभ में अधिकतम वृद्धि करने पर केंद्रित होता है. चूंकि वह पूंजी का बड़ा हिस्सा मशीनों में निवेश कर चुका होता है, इसलिए उसका प्रयास होता है कि कम से कम श्रमिकों द्वारा अधिकतम उत्पादकता प्राप्त कर सके. इसके लिए वह श्रमिकों से अधिक समय तक काम लेता है. ऐसी तकनीक को बढ़ावा देता है, जो श्रम-विरोधी हो. अपने लाभ का एक हिस्सा वह तकनीक के परिष्करण पर अनिवार्यरूप से निवेश करता है, ताकि श्रम पर अपनी अनिवार्यता को कम से कम कर सके, जिससे कारखानों में कार्यरत श्रमिकों पर भी संकट मंडराने लगता है. चूंकि उन्नत तकनीकी युक्त मशीनों के संचालन के लिए दक्ष श्रमिकों की आवश्यकता पड़ती है, इसलिए वह कम मजदूरी वाले अनेक श्रमिकों के स्थान पर अधिक वेतनमान वाले कम कामगारों की नियुक्ति पर जोर देता है. मार्क्स के अनुसार यह स्थिति श्रमिकों के बीच वर्ग-विभाजन का काम करती है. उसके एक सिरे पर वे श्रमिक होते हैं, जिन्हें मशीनीकरण के कारण नौकरी से बेदखल होना पड़ा है या वे लोग जो बढ़ते प्रौद्योगिकीकरण के साथ अपनी संगति बिठा पाने में असमर्थ रहे हैं और इस कारण बेरोजगारी का शिकार बने हैं. या जो नई तकनीक के आगमन के पश्चात सहायक की भूमिका आ चुके हैं, इस डर के शिकार हैं कि उत्तरोत्तर विकासमान तकनीक कभी भी उन्हें उत्पादन-प्रक्रिया के लिए ‘बेकार’ घोषित कर सकती है. दूसरे सिरे पर वे कामगार होते हैं जो रोजगार में हैं, मगर जिनको कम मजदूरी के बावजूद अधिक श्रम करना पड़ता है. दोनों ही पक्ष तनाव की स्थिति में होते हैं. एक रोजगार छिन जाने के गम, जीविका के संकट से तनावग्रस्त होता है. दूसरा वर्ग इसलिए तनाव में होता है, क्योंकि उसको लगता है कि उससे कम पगार देकर अधिक काम लिया जा रहा है. यह स्थिति मजदूरी को दो तरीके से प्रभावित करती है. यदि बेरोजगार श्रमिकों की संख्या,रोजगार प्राप्त अथवा कार्यरत श्रमिकों की संख्या से अधिक है, तब उसका सीधा-सा निष्कर्ष है कि बाजार में श्रमिकों की मांग कम है. उस अवस्था में स्वाभाविक रूप से मजदूरी में गिरावट देखने को मिलेगी. इसके विपरीत यदि आरक्षित यानी बेरोजगार श्रमिकों की संख्या, रोजगार प्राप्त श्रमिकों की संख्या से कम है, तब यह समझा जाएगा कि श्रमिकों की मांग अधिक है, साथ में उनकी मजदूरी भी अधिक है, यानी पूंजीपति के मुद्रा-भंडार में नियमित वृद्धि हो रही है. प्रथम दृष्टया यह स्थिति श्रमिक-वर्ग के लिए हितकर हो सकती है. पूंजीवाद का धुर विरोधी मार्क्स यहां एक और पहलु पर चिंता व्यक्त करता है. यदि पूंजीवादी व्यवस्था में रोजगार प्राप्त श्रमिकों की संख्या बेरोजगार श्रमिकों से अधिक है तो समझना होगा कि कारखाने अपनी पूरी क्षमता के साथ उत्पादन कर रहे हैं. उस अवस्था में उत्पादन-दर इतनी बढ़ सकती है कि उनकी खपत संभव न हो. इसके परिणामस्वरूप उत्पाद और उसके माध्यम से पूंजीपति को मिलने वाला लाभ दोनों ही बेकार जा सकते हैं.घटते मुनाफे की सबसे पहली मार श्रमिकों पर पड़ेगी. अपने लाभ के स्तर को बनाए रखने के लिए पूंजीपति मजदूरों की छंटनी करेगा और जो श्रमिक काम पर रहेंगे, उनकी मजदूरी में कटौती करेगा. छंटनी के शिकार हुए बेरोजगार मजदूर नए क्षेत्रों में काम की तलाश में होंगे. परिणामस्वरूप बाजार में बेरोजगारों की संख्या बढ़ने लगेगी. एक बार फिर वही चक्र आरंभ हो जाएगा. एक बिंदु ऐसा भी आ सकता है, जब श्रम-शक्ति अपने उच्चतम मूल्य पर हो. उस अवस्था में पूंजीपति, खासकर छोटा उद्यमी उत्पादन से अपने हाथ खींच लेगा. इसका परिणाम यह होगा कि उत्पादन-व्यवस्था बिखर जाएगी, जिससे और भी लोग बेरोजगार होकर सड़क पर आ सकते हैं. इसकी मार मजदूरी पर पड़ेगी और उसमें गिरावट का नया दौर फिर शुरू हो जाएगा. अंत में एक ओर तो अत्यधिक धनी पूंजीपति बचेगा, दूसरी ओर अत्यधिक गरीब मजदूर. पूंजीवादी व्यवस्था में एक श्रमिक का जीवन ही अपने आप में विडंबना है.विसंगति है कि खूब मेहनत करो, भूखे पेट, नंगे तन रहो, पसीना बहाओ,खूब पैदा करके दो…लेकिन अंत में गालियां और धक्के खाने के लिए तैयार रहो. इसलिए कि पूंजीपति समाज की जरूरत के लिए नहीं, अपने लाभ के लिए उत्पादन में हाथ डालता है. वह जरूरतें पैदा करता है. जितनी जल्दी आविष्कार होते हैं, जितनी जल्दी नए उत्पाद बाजार में आते हैं, उतनी जल्दी आवश्यकताएं सृजित नहीं हो पातीं. अर्से से जड़ जमाए संस्कार आसानी से नहीं बदलते. समाज बदलने में समय लेता है. सिर्फ लाभ की कामना के साथ काम करने वाले पूंजीपति को बदलने में देर नहीं लगती. बल्कि समाज जल्दी बदले, नए आविष्कारों, का उपभोक्तावर्ग पैदा हो, इसके लिए वह पूरे संसाधन झोंक देता है. उसकी पूंजी इशारे पर नाचने वाला मीडिया उसका साथ देता है. इस कारण पूंजीवादी व्यवस्था में उतार-चढ़ाव का स्वाभाविक दौर सदैव बना रहता है. जैसे-जैसे सामाजिक धन में अभिवृद्धि होती है,उसका वैसा ही प्रभाव जनसंख्या पर भी पड़ता है. ऊपर दिए गए चक्र के दौरान जितनी जनसाधारण की परेशानी बढ़ती है, अत्यधिक उत्पादकता के शिकार बेरोजगार उसी अनुपात में बढ़ते जाते हैं. पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत यह अपरिहार्य स्थिति है. इससे बच पाना असंभव है.
23. इतिहास का संकट, पूंजीवाद एवं पूंजीवादी समाज की व्युत्पत्ति मार्क्स ने पूंजीवाद की समीक्षा ऐतिहासिक संदर्भों के साथ की है. हालांकि कुछ विद्वान इसे इतिहास की अर्थशास्त्रीय व्याख्या भी कहते हैं. मगर इनमें से कुछ भी कहा जाए,बात लगभग एक ही है. इतिहास के अर्थशास्त्रीय अध्ययन द्वारा मार्क्स अपने इस बहुख्यात सिद्धात पर पहुंचा था कि सामाजिक परिवर्तनों का मुख्य आधार उत्पादन के साधनों में परिवर्तन है. उत्पादन-पद्धति में आए परिवर्तन से ही उससे जुड़े संबंधों में बदलाव आता है. अर्थ सामाजिक संबंधों का निर्माता और निर्धारक बन जाता है. वही अन्य परिवर्तनों को दिशा देता है. पुस्तक के छबीसवें अध्याय में वह प्राचीन समाजों में पूंजी संचयन के सिद्धांतों के गूढ़ रहस्यों की पड़ताल करता है. मार्क्स के अनुसार प्राचीन समाज यानी पूंजीवादी समाज के उद्भव से पहले पूंजी-संचयन केवल धन-संचयन तक सीमित था. दूसरे शब्दों में उस समय तक धन पूंजी का रूप नहीं ले पाया था. पूरा समाज एक असंगठित-सहयोगाधारित समाज था. उत्पादन की बजाय उसका जीवन प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर करता था. शिकार आधारित भोजन-व्यवस्था में देखा यह गया था कि कुछ व्यक्ति शिकार करने में निपुण हैं. उनका निशाना अचूक है. एक ही पत्थर में वे खूंखार जानवर को धराशायी कर सकते हैं. जरूरत पड़ने पर उससे स्वयं भिड़ सकते हैं. भारी-भरकम शिकार को पीठ पर लादकर ठिकाने तक लेकर आ सकते हैं.कुछ ऐसे भी रहे होंगे, जिन्हें शिकार के नाम से ही डर लगता होगा. जिनका निशाना अचूक नहीं था. स्वाभाविक रूप से कबीले के लोग पहले व्यक्ति को ही नायक के रूप में स्वीकार कर सकते थे. दूसरों से उसको अपने लिए अधिक उपयोगी मान, उसकी बात भी मानते होंगे. कालांतर में ऐसे लोगों को समूह का नेतृत्व सौंपा जाने लगा. परिणाम यह हुआ कि मानवसमाज धीरे-धीरे ताकतवर और कमजोर के रूप में बंटता चला गया.अपनी स्थिति का लाभ उठाते हुए ताकतवर लोगों ने संसाधनों को कब्जाना आरंभ कर दिया, परिणामस्वरूप दूसरे वर्ग के हाथों से संसाधन छिनते चले गए और वह पराश्रित होता गया. मार्क्स के अनुसार आर्थिक-सामाजिक परिवर्तन की आरंभिक प्रक्रिया महज धन की जमाखोरी तक सीमित नहीं थी, जिसने आगे चलकर पूंजीवादी संचयन और फिर पूंजीवादी समाज की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया. प्रकारांतर में पूरा समाज सर्वहारा और पूंजीपतिवर्ग में बंटता चला गया. वास्तव में वह समाज के कुल संसाधनों के चंद लोगों के हाथों में सिमटने जाने का परिणाम था, जिसके कारण समाज का बड़ा हिस्सा,जो मेहनती एवं कुशल था और अपने श्रम-कौशल के बल पर सम्मानजनक जीवन जीने की योग्यता रखता था, वह संसाधन-विहीन और दूसरों पर निर्भर होता चला गया.कालांतर में उस वर्ग की संख्या बढ़ती ही चली गई. एक दिन पूरा समाज दो हिस्सों में बंट गया. पहला वह जिसका समाज के संसाधनों पर कब्जा था, लेकिन उन संसाधनों का वह स्वयं कोई उपयोग नहीं करता था. दूसरा वह जो उन संसाधनों के दम पर जीविकोपार्जन करता था और बदले में पहले वर्ग को संसाधनों का कब्जाधारक-स्वामी मानते हुए एक निश्चित राशि, अधिलाभ, लगान, कर आदि के रूप में प्रदान करता था.धन-संग्रह की प्राचीन पद्धति का रहस्य इस तथ्य में निहित था कि वह एक थोड़े-से पूंजीवादियों से भरे सर्वहारा समाज के बजाय एक हिंसक एवं निर्दयी समाज से जन्मा था. गुलामों और दासों को उनके सामंत जमींदारों से मुक्त कराना, वास्तव में उनके घरों,जमीनों, उनके उत्पादन के संसाधनों और आजीविका के साधनों से भी दूर करना था.इतिहास का अर्थशास्त्रीय दृष्टि से अध्ययन करता हुआ मार्क्स इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि— ‘तथाकथित प्राचीन पूंजी-संचय और कुछ नहीं, बल्कि समाज के उत्पादक वर्ग को उत्पादन के संसाधनों से अलग कर देने की प्रक्रिया है.’ मार्क्स के निष्कर्ष पश्चिमी समाज की सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों के अध्ययन का निकष थे. उसने सोलहवीं शताब्दी से पहले के समाज को पूंजीवादी अवशेषों से रहित समाज स्वीकार किया था. उल्लेखनीय है कि यूरोप के इतिहास में वैज्ञानिक प्रबोधन की शुरुआत ही पंद्रहवी-सोलहवीं शताब्दी से होती है. वैज्ञानिक चेतना के विकास का पहला उपयोग उत्पादन में मशीनीकरण की शुरुआत के साथ हुआ था. जिससे संचित धन को पूंजी में बदलने, उसका उपयोग और अधिक धन कमाने का प्रचलन हुआ. भारत और अन्य एशियाई देशों में यह प्रक्रिया काफी देर से करीब सतरहवीं शताब्दी से ही आरंभ हो पाई थी. सतरहवीं-अठारहवीं शताब्दी के बौद्धिक आंदोलनों के फलस्वरूप समाज में लोकतंत्र का आगमन हुआ. व्यक्ति-स्वातंत्रय का नारा पूंजीवाद के विकास में सहायक सिद्ध हुआ, क्योंकि उसके बहाने वह समाज पर उपभोक्तावादी संस्कार थोपने में सफल सिद्ध हुआ.
24. कृषि-आश्रित समूहों को भू-संपदा से बेदखल करना ‘पूंजी’ के सताइसवें अध्याय में मार्क्स पश्चिमी समाज में औद्योगिकीकरण के बाद आए बदलावों तथा उन स्थितियों पर विचार भी विचार करता है, जिनके कारण एक सामंती समाज पूंजीवादी समाज में परिवर्तित होता चला जाता है. मार्क्स के अनुसार पंद्रहवीं शताब्दी के अंतिम दो दशक यूरोप में पूंजीवाद के उद्भव का समय था. उससे पहले इंग्लेंड में जमींदारी प्रथा थी. सामंतों और जागीरदारों के माध्यम से राजशाही राजनीतिक कार्य-व्यवहार देखती थी. उस समय लागू विधान के अनुसार राज्य की समस्त भू-संपदा उसके राजा के अधीन होती थी. उसके प्रबंधन तथा लगान वसूली के लिए वह जागीरदारों और सामंतों की नियुक्ति करता था, जो जनता के साथ निरंकुश व्यवहार करते थे. विज्ञान ने परंपरागत ज्ञान के साथ-साथ प्राचीनकाल से चली आ रही अर्थव्यवस्था को भी चुनौती दी थी. परिणामस्वरूप नई प्रौद्योगिकी का जन्म हुआ और उत्पादन के स्रोत अपढ़-कुपढ़ सामंतों के हाथों से फिसलकर पढ़े-लिखे पेशेवरों और तकनीशियनों के हाथों में आ गए. उल्लेखनीय है कि सामंती समाज के पतन के चिह्न चैदहवीं शताब्दी के अंतिम दशक में ही दिखाई पड़ने लगे थे, जब किसानों से भू-संबंधी अधिकार छीने जा रहे थे. उस समाज में अधिकांश वे कृषक थे, जो जमींदारों और सामंतों के कब्जेवाली भूमि पर खेती करते थे. कठोर परिश्रम के बावजूद उन्हें नाममात्र की ही आमदनी थी. अपनी आजीविका के लिए उन्हें सामंतों-जागीरदारों की दया पर निर्भर रहना पड़ता था. उनमें कृषकों के अलावा बड़ी संख्या में वे मजदूर भी शामिल थे, जो खेती तथा दूसरे क्षेत्रों में मेहनत-मजदूरी करके अपना जीवनयापन करते थे. जिन सामंतों-जमींदारों के लिए वे परिश्रम करते थे, वही उन्हें रहने के लिए छोटे झोपड़ीनुमा घर और जमीन का एक टुकड़ा दे देते थे. उस जमीन से अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए अन्न उपजा सकते थे. इसके अलावा कुछ सार्वजनिक जमीन भी होती थी, जिसपर वे अपने पशु चराते तथा लकड़ी, चारे और्र इंधन-संबंधी जरूरतें पूरी करते थे. कुल मिलाकर उन मजदूरों की हालत बंधुआ मजदूरों जैसी थी. पंद्रहवीं शताब्दी के पश्चात हालात बदले. जमींदारों और सामंतों ने किसानों को भूमि से बेदखल करना प्रारंभ कर दिया. मजदूरों-किसानों ने जो भूमि वर्षों की मेहनत के बाद,पसीना बहाकर कृषि के योग्य बनाई थी, वह भू-सामंतों के कब्जे में जाने लगी. जमीन को संपदा मान लिया गया. भाड़े के लठैतों का डर दिखाकर किसानों को ऊबड़-खाबड़ और बंजर जमीन की ओर खदेड़ा जाने लगा. वह भूमि जिसपर वे पीढ़ियों से खेती करते आए थे, जिसको उन्होंने वर्षों के कठिन परिश्रम के बाद तैयार किया था, समाज के ताकतवर वर्ग की निजी संपत्ति में ढलने लगी. उल्लेखनीय है कि कपड़ा उद्योग के विकास के बाद इस वर्ग के पास ऊन और कपास की बिक्री से बेशुमार दौलत जमा हुई थी,जिससे उस वर्ग की महत्त्वाकांक्षाएं सातवें आसमान पर थीं. मार्क्स के अनुसार किसानों को बेदखल करने का दूसरा मुख्य कारण वे मशीनें थीं, जिन्होंने सबसे पहले कपड़ा उद्योग में दस्तक दी थी. पूंजीपतियों के पक्ष में अपनी उपयोगिता सिद्ध करने के उपरांत वे अन्य उद्योगों के साथ-साथ, कृषि-क्षेत्र में भी अपनी उपस्थिति दर्शाने लगी थीं. मशीनों का आविष्कार हालांकि मनुष्य को कठोर परिश्रम से मुक्ति दिलाने के नाम पर किया गया था, मगर अनुभव में वे मनुष्य को ही काम से बेदखल करने में लगी थीं. कपड़ा उद्योग में वे यह काम कर चुकी थीं. लाखों बुनकर, रंगरेज, कपास ओटने वाली औरतें, मशीनों के आगमन के बाद बेरोजगार हो चुकी थीं. अन्य क्षेत्रों की भांति कृषिकर्म भी उनके हमले से अछूता न था. जुताई-बुबाई-गहाई की भारी-भरकम मशीनों ने कम मजदूरों द्वारा बड़े कृषि फार्मों पर खेती करना आसान कर दिया था. चूंकि यूरोप का कपड़ा उन दिनों शीर्ष पर था, इसलिए कपास आदि कृषि उपजों की मांग बढ़ी हुई थी. इसलिए भू-सामंतों ने अपने खेतों को बड़े कृषि-फार्मों में बदलना आरंभ कर दिया था. परिणामस्वरूप छोटे किसान अपने खेतों से बेदखल किए जाने लगे.सोलहवीं शताब्दी के अंत तक कपड़ा उद्योग के विकास के साथ ऊन की मांग में भी लगातार वृद्धि हो रही थी. ऊन की खेती के लिए भेड़ों के बड़े-बड़े बाड़े बनाए जा रहे थे.उनके चरागाह के लिए किसानों से जमीन छीनी जा रही थी. उनके झोपड़ों को उजाड़कर मिट्टी में मिला दिया गया. जमीन की आवश्यकता तेजी से बन रहे कारखानों के लिए भी थी. इसलिए कस्बों और गांवों में कृषि-योग्य भूमि को कारखानों के नाम पर हड़पा जा रहा था. कारखानों, ऊन-उत्पादक केंद्रों यहां तक कि भेड़ चराने के लिए भी मानव-श्रम की आवश्यकता थी. मगर पहले वे संसाधनों के स्वामी की तरह काम करते थे, उनके शिल्प का सम्मान किया जाता था, मगर अब उन्हें समाज में तेजी से उभरते नवसामंतवर्ग के कारखानों में, उसके अधीन कार्य करना पड़ता था. सतरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक भू-सामंत अपनी स्थिति को काफी सुदृढ़ कर चुके थे.उन्हें धार्मिक और राजनीतिक शक्तियों का भी पूरा समर्थन प्राप्त था. हाथों से जमीन और रोजगार छिन जाने के कारण समाज में बेरोजगारों की संख्या बढ़ी थी. इसलिए भू-सामंत जो आगे चलकर पूंजीपतिवर्ग में ढलने वाले थे, के पास पूरा अवसर था कि अपनी ताकत और स्थिति का लाभ उठाकर श्रमिकों से मनमानी दरों पर काम ले सकें. यही नहीं,श्रमिकों-कामगारों के शोषण का दौर भी आरंभ हो चुका था. मानवश्रम की जरूरत को पूरा करने के लिए बड़े-बड़े जमींदार और भू-सामंत कृषि-फार्मों और ऊन के कारखानों के नाम पर बड़े-बड़े बाड़े बनाने लगे थे. उन बाड़ों में सिर्फ पशुओं को ही नहीं, मजदूरों और कामगारों को भी कैद करके रखा जाता था. बाड़े में कैद लोगों में से अधिकांश भू-सामंतों और जमींदारों के दास होते थे. जिनकी पशुओं की भांति ही खरीद-फरोख्त की जाती थी. मजदूरों का पूरा का पूरा परिवार उन बाड़ों में काम करता था. यहां तक कि छोटे बच्चों को भी बचपन से ही काम पर जोत दिया जाता था. मजदूरी के रूप में उन्हें सिर्फ पेट भरने लायक रोटी और तन ढकने को कपड़ा दिया जाता था. रहने के लिए ठिकाना, वह भी इसलिए ताकि पति-पत्नी मिलकर मजदूरों और गुलामों की नई पीढ़ी पैदा कर सकें.भू-सामंतों, जमींदारों की आमदनी बढ़ने के साथ ही उनमें विलासिता के लक्षण भी पैदा होने लगे थे. किसानों से छीनी गई जमीनों, मगर खाली पड़े कुछ मैदानों को अरण्य क्षेत्र घोषित करने की प्रथा जोर पकड़ चुकी थी. उन अरण्यों का उपयोग हिरन के आखेट के लिए किया जाता. उल्लेखनीय है कि कृषि-योग्य जमीन को आखेट-स्थलों में बदल जाने का दुष्परिणाम जर्मनी में भीषण अकाल के रूप में देखने को मिला था. बावजूद इसके सरकार भू-सामंतों के पक्ष में थी. अठारहवीं शताब्दी में ब्रिटिश संदद में एक बिल पेश किया गया, जिसके द्वारा भू-कब्जाधारकों को उसके कानूनी मालिक का रूप दे दिया गया. अब वे अपने कब्जे वाली जमीन का उपयोग निजी संपत्ति के रूप में करने को स्वतंत्र थे. इससे भू-स्वामियों को बेरोजगार श्रमिकों के साथ मनमानी करने, उनसे अपनी शर्तों पर काम लेने का अधिकार मिल गया. कृषि-योग्य भूमि के छिन जाने से लोग मजदूरी की तलाश में भटकने लगे. दूसरी ओर भू-सामंतों, जमींदारों ने अपने कब्जेवाले विशाल कृषि मैदानों में मशीनों के सहारे खेती करना प्रारंभ कर दिया. खेती एक उद्योग में बदलने लगी.भू-वंचित किसानों के पास अपनी आजीविका के लिए, सिवाय मजदूरी पर काम करने के और कोई चारा न था. यह एक सर्वहारा वर्ग था, जो रोजी-रोटी की तलाश में कहीं तक जाने को विवश था. इन्हीं भू-सामंतों ने अतिरिक्त पूंजी के दम पर कारखानों और उद्योगों की स्थापना की. आम जरूरत का वस्तुएं जिन्हें पहले हस्तकौशल से बनाया जाता था और जिनके द्वारा हजारों-लाखों लोगों को रोजगार मिलता था, वे मशीनों द्वारा बनने लगीं. जिससे उन उद्योग-धंधों में लगे कारीगर बेरोजगारी का शिकार बनने लगे. विवश होकर वे भी नौकरी के लिए कारखानों और फैक्ट्रियों में भटकने लगे. उनपर नियंत्रण रखने के लिए कानून बनाए गए. पूंजीपतियों के समर्थन पर बनी सरकारें, अनुशासन और व्यवस्था के नाम पर मजदूरों और कामगारों के मौलिक अधिकार, जीविका के अधिकार के हनन में—पूंजीपतियों का साथ दे रही थीं.
25. भू-अधिग्रहण के विरुद्ध खूनी विद्रोह : बुर्जुआ वर्ग का उदय भूमि छिन जाने के कारण समाज का बड़ा वर्ग बेरोजगारी का शिकार बना था. हजारों एकड़ जमीन जिसपर छोटे किसान-मजदूर अपने पसीने से अन्न उपजाते थे, भू-सामंतों और जमींदारों की संपत्ति बन चुकी थी. उन दिनों के सभी कानून भू-सामंतों और जमींदारों के पक्ष में थे. यूरोप के जिन देशों में सरकार का चयन निर्वाचन द्वारा होता था. वहां एक प्रकार का कुलीनतंत्र था. सरकार के चुनाव में वही लोग चुनाव ले सकते थे, जिनके पास न्यूनतम वांछित क्षेत्रफल की कृषि-योग्य जमीन हो. उससे पहले लोग या तो खेती पर निर्भर थे, अथवा आम उपयोग की उन वस्तुओं का निर्माण करते थे,जिनकी स्थानीय लोगों मेें खपत हो. उत्पादन लाभ-केंद्रित न होकर,आवश्यकता-केंद्रित था. समाज में कारीगरों-शिल्पकारों को पूरा सम्मान मिलता था.बावजूद इसके, पारस्परिक आवश्यकताओं पर आधारित वह प्रणाली मशीनीकरण की मार झेलने में असमर्थ सिद्ध हो रही थी. मशीनों ने किसान और कामगार दोनों को बेरोजगार किया था. प्रौद्योगिकीय विकास के साथ ही समाज में विशिष्ट तकनीक क्षमता संपन्न दक्ष कामगारों की मांग भी बढ़ती जा रही थी. इसके लिए नए शिक्षा-सदन और प्रशिक्षण केंद्र खोले जा रहे थे. प्रशिक्षण-प्राप्त कामगारों को अपेक्षाकृत अच्छे वेतन पर रखा जाता था.वे पूंजीपति-प्रबंधन के अपेक्षाकृत निकटवर्ती माने जाते थे. इससे श्रमिकों के बीच विषमता की खाई लगातार फैलती जा रही थी. इसी समय को मार्क्स ने बुर्जुआ वर्ग के उद्भव का काल माना है. वह सामंतवाद और पूंजीवाद का संक्रमणकाल था. आरंभ में पूंजीवाद इतना विकृत भी नहीं हुआ था कि दूसरे के परिश्रम को अपनी प्रगति का आधार बनाया जा सके. न उद्योगों का उतना विकास हो पाया था कि उसमें सर्वहारा वर्ग के सभी बेरोजगारों को खपाया जा सके. न ही किसी एक की जमीन पर कब्जा जमाकर उसको भिखारी बना देने की रीति-नीति चलती थी.सोलहवीं शताब्दी तक यूरोपीय समाज तेजी से पूंजीवादी समाज में ढलने लगा था.बावजूद इसके उसपर परंपरा का पूरा दबाव था. यही वह कारण है जिससे सतरहवीं शताब्दी के आरंभ में ऐसे बहुत से नियम बनाए गए, जिनसे नागरिकों के अधिकारों को कानूनी संरक्षण दिया जा सके. लेकिन वे सभी कानून समाज के संपन्न और शक्तिशाली वर्ग के हित में थे. वही श्रम-शोषण का मुख्य आधार थे. तो भी दासप्रथा के विरुद्ध सोलहवीं शताब्दी से ही आवाजंव उठने लगी थीं. स्वयं दासों में भी अपने हालात को लेकर बेचैनी थी. वे आजाद होना चाहते थे. उस समय तक लोकप्रिय हो चुका मानवतावादी चिंतन और उससे जुड़े दार्शनिक-विचारक और लेखक उनकी मांगों का समर्थन कर रहे थे. यूरोप के कई देशों में दासप्रथा पर कानूनी प्रतिबंध लगा दिया गया था. किसी भी व्यक्ति को बेगार और गुलामी के लिए बाध्य करना कानूनी अपराध था. कुछ देशों में तो दासता के लिए बाध्य करने पर मृत्युदंड का भी प्रावधान था. समाज में अनुशासन-संबंधी नियम कड़े थे. कहीं-कहीं तो उनसे निरंकुशता की झलक भी मिलती थी. थाॅमस मूर के हवाले से मार्क्स ने बताया है कि सोलहवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में ही केवल चोरी के आरोप में लगभग 72, 000 नागरिकों को मृत्युदंड दिया गया था. नागरिक अधिकारांे के संरक्षण की पर्याप्त व्यवस्था न होने के कारण उनमें कुछ निर्दोष भी दंडित हुए होंगे. इसलिए कानूनों का विरोध होना स्वाभाविक था.परिणाम यह हुआ कि लोग रोजगार के वैकल्पिक रास्तों की तलाश करने लगे. निश्चित ही उन दिनों तेजी से बढ़ते उद्योग लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने का सर्वश्रेष्ठ क्षेत्र थे.लोग उनके माध्यम से सामंतवादी अत्याचारों से मुक्ति का सपना देख रहे थे. कारखानों का प्रबंधन पूंजीवादी नियमों के अनुसार किया जाता था. उनके लिए मजदूर का श्रम महज एक कामोडिटी, उपभोक्ता वस्तु जितना था, जिसको बाजार में बोली लगाकर कम से कम कीमत पर खरीदा जा सकता था—बिना यह सोचे कि मजदूर भी एक जैविक इकाई है. उसकी भी अपनी जरूरतें और सपने हो सकते हैं. कालांतर में जैसे-जैसे मशीनीकरण का विस्तार हुआ, पूंजीवाद अपने पंजे फैलाता गया, फिर तो जहां-जहां वह पहुंचा, मानवीय श्रम को उपभोक्ता वस्तु समझने की प्रथा भी वहां-वहां फैलती गई.पूंजीवादी विस्तार के साथ सर्वहारा वर्ग और उसकी समस्याएं भी विस्तार लेती र्गइं.इसके साथ ही पूंजीवाद के प्रति आक्रोश भी परवान चढ़ता गया. इस जनाक्रोश को हवा देने में दार्शनिकों और बुद्धिजीवियों का भी पूरा-पूरा हाथ था.
26. पूंजीपति किसान की व्युत्पत्ति पूंजीवादी व्यवस्था के सच को बेनकाब करने के लिए ‘पूंजी’ में मार्क्स एक ही प्रश्न को अनेक रूपों में जगह-जगह उठाता है. उनतीसवें अध्याय में यह प्रश्न एक बार पुनः दोहराया गया है. वह पूछता है कि आखिर पूंजीवाद आया कहां से? इसका मूल उद्गम कहां है? किस प्रकार यह पूरी दुनिया में फैलने में कामयाब हुआ? वे कौन-सी शक्तियां थीं, जो पूंजीवाद को अपने हितानुकूल मानकर उसको बचाए रखने का षड्यंत्र रचती थीं?अपने ही प्रश्नों पर विचार करते हुए मार्क्स इस परिणाम पर पहुंचा था कि ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो पूंजीपति का विकास वही घटना है, जब समाज में सर्वहारा वर्ग का जन्म हुआ था. दूसरे शब्दों में पूंजीपति और सर्वहारा दोनों का उद्गम-काल एक ही है.उसके अनुसार मनुष्यता के इतिहास में पूंजीवाद और सर्वहारा वर्ग का उद्गम वास्तव में इतिहास का वह हिस्सा है, जब मनुष्य में पहले-पहले धन-संग्रह की प्रवृत्ति का विकास हुआ. कालांतर में इसी से धन को पूंजी की भांति उपयोग करने और उसका पूर्ण आर्थिक लाभ उठाने की परंपरा को जन्म दिया. न्यूटन का तीसरा नियम है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया साथ-साथ और समान बलयुक्त होती है. पूंजीपति वर्ग के उदय के साथ सर्वहारा वर्ग का उद्भव भी ऐसी ही ऐतिहासिक और स्वाभाविक घटना थी. सर्वहारा वर्ग का विकास स्पष्टतः पूंजीवाद के विकास की परिणति था. उन दोनों के बीच स्वाभाविक द्वंद्वात्मकता थी, तो भी वे एक-दूसरे के विकास को गति देने का उत्तरदायित्व निभा रहे थे. उनमें से पूंजीपतिवर्ग अपनी ताकत और पहुंच के बल पर पूरी दुनिया पर छा जाने का सपना देख रहा था. दूसरा करीब-करीब विपन्न और साधनविहीन सर्वहारा था. उसकी ताकत उसके संख्याबल में निहित थी, किंतु अन्यान्य कारणों से कई खेमों में बंटे होने के कारण वह किसी निर्णायक स्थिति में नहीं था. हालांकि उसकी भी वैश्विक व्याप्ति थी. मजदूर संगठन थे,मगर आपस में बंटे हुए. मार्क्स के अनुसार पूंजीवाद का उदय किसानों और मजदूरों को उनकी जमीनों से बेदखल करने की घटना से जुड़ा था. पंूजीपतियों का एक वर्ग ऐसा भी था जो मजदूरों और किसानों के बल पर खेती करने का सपना देख रहा था. अवसर का लाभ उठाते हुए उन्होंने उत्पादन प्रणाली का आमूल मशीनीकरण किया. पूंजी जमा की और उसके दम पर छोटे किसानों को उजाड़ना आरंभ कर दिया. उजड़े हुए जमीन से बेदखल लोग भू-सामंतों, पूंजीपति किसानों के अधीन कार्य करने और उत्पीड़न सहने को विवश थे. पूंजीपति किसानों और सर्वहारा वर्ग के साथ एक और वर्ग भी बड़ी तेजी से पनप रहा था, जो था तो सर्वहारा वर्ग का हिस्सा, मगर अपने बुद्धिबल के हिसाब से वह पूंजीपति वर्ग के हितों को प्रभावित करने में सक्षम था. यह स्थिति उसने आधुनिक शिक्षा और तकनीकी कौशल के बल पर अर्जित की थी. मशीनीकरण के दौरान विशिष्ट प्रशीक्षणयुक्त कार्मिकों की मांग बढ़ने पर इस वर्ग को आर्थिक लाभ भी पहुंचा था. पूंजीवाद के आगमन के पश्चात नवधनाढ्यों की श्रेणी में आए इस वर्ग को मार्क्स ने ‘बुर्जुआ’ वर्ग कहा है. पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के बीच, देखा जाए तो उसकी भूमिका कैटलिस्ट के समान थी. ‘पूंजीपतियों’ के साथ इस वर्ग के रिश्ते सहयोग और विरोध के थे. निहित स्वार्थों के लिए यह वर्ग कभी श्रमिकों के खेमे में जाकर उनसे अंतरंगता दर्शाता, उन्हें अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने को उकसाता, तो कभी पूंजीपतियों का हितैषी बनकर श्रमिकों के हितों की बलि लेने से भी नहीं हिचकिचाता था. चूंकि पूंजीपति और सर्वहारा एक ही सामाजिक प्रक्रिया से उद्भूत थे, अतएव जिस सामाजिक प्रक्रिया द्वारा सर्वहारावर्ग का जन्म हुआ था, उसी ने नए किसानों के लिए भी नियम बनाए थे. उनमें से एक नियम यह भी था कि भू-सामंत अथवा पूंजीपति किसान अपने कृषिक्षेत्र के प्रबंधन का काम देख सकता था. वहां न्यूनतम मजदूरी के आधार पर नौकर रख सकता था. कालांतर में मजदूरी की दरों में गिरावट लगातार बनी रही,जिसका एक परिणाम मुद्रास्फीति के रूप में सामने आया, जो मजदूरी की दरों में अतिरिक्त गिरावट का कारण बना. उल्लेखनीय है कि अपनी स्थिति का अनुचित लाभ उठाते हुए पूंजीपति किसान मजदूरी की गणना मुद्रा की पुरानी दरों के आधार पर करता था. जिससे मजदूरों की वास्तविक आय काफी कम हो जाती थी. मजदूरी की दरों में आई भारी गिरावट और जमींदारों, भू-सामंतों को दिए जाने वाले लगान में उत्तरोत्तर कमी का सीधा लाभ पूंजीपति-किसानों को पहुंचा था. मार्क्स ने उदाहरण देकर इस स्थिति को स्पष्ट करने का पूरा-पूरा प्रयास किया है, जिसके परिणामस्वरूप परंपरागत जमींदारों और भू-सामंतों के स्थान पर उन किसानों का वर्चस्व लगातार बढ़ता जा रहा था, जो पूंजीवादी सिद्धांतों के अनुसार कृषिकर्म को वरीयता देते थे. यह वर्ग एक ओर जहां मजदूरों का शोषण करता था, वहीं सघन खेती को प्रोत्साहन के सरकार से मिलने वाली सुविधाओं का भी लाभ उठाता था.
27. कृषि-क्रांति का उद्योग-जगत पर प्रभाव ‘पूंजी’ के तीसवें अध्याय में मार्क्स कृषि-उत्पादन में मशीनों के आगमन के बाद आई क्रांति और उसके प्रभावों की विवेचना करता है. वह दर्शाता है कि मशीनीकरण के बाद पूंजीपति वर्ग न केवल उत्पादन क्षेत्र पर, बल्कि अर्थव्यवस्था के प्रत्येक प्रत्येक क्षेत्र पर काबिज हो चुका था. यहां तक कि परंपरागत कृषिकर्म भी उसके आक्रमण से अछूता नहीं था. वह लिखता है कि—सतत एवं सुव्यवस्थित क्रम में कृषक-समूहों को उनकी कृषि-भूमि से बेदखल किए जाने से पूरे यूरोप में बेरोजगारी बढ़ी थी. रिक्त कराई गई भूमि का उपयोग पूंजीवादी ढंग से खेती किए जाने अथवा कारखाने स्थापित करने के लिए होता था. यद्यपि नए कारखानों के लिए मजदूरों-कामगारों की आवश्यकता पड़ती थी. तो भी मजदूरों के हिस्से का अधिकांश कार्य मशीनों द्वारा निपटा दिए जाने के बाद कुल रोजगार अवसरों में कमी आई थी. बेरोजगारों की संख्या उन कारखानों में रोजगार प्राप्त श्रमिकों की संख्या से कहीं अधिक थी. सर्वहारावर्ग की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही थी. मार्क्स आगे लिखता है कि खेती करने वाले किसानों और मजदूरों को जमीन से बेदखल किए जाने के कारण बाजार में उपलब्ध श्रमशक्ति में कई गुना वृद्धि की थी. बेरोजगार हुए वे सभी श्रमिक आजीविका के लिए काम की तलाश में थे. चूंकि बड़े फार्महाउसों में कृषिकार्य का मशीनीकरण हो चुका था, इसलिए बेदखल किए गए किसानों को वहां रोजगार मिलने की संभावना अत्यंत क्षीण थी. उनके पास सिवाय कारखानों और फैक्ट्रियों में मेहनत-मजदूरी करने के लिए खुद को जीवित रखने का और कोई रास्ता न था. जो किसान अपना पसीना बहाकर खेतों में अपनी जरूरत का अन्न उपजा लेते थे, जो उससे पहले तक पूरे समाज का पेट भरते आए थे, अब उन्हें अपना पेट भरने के लिए दूसरों के आगे गिड़गिड़ाना पड़ रहा था. उनका नया अन्नदाता वह पूंजीपतिवर्ग था, जिसने उनसे उनके खेतों को हड़पकर उनमें बड़ी-बड़ी मशीनें खड़ी कर दी थीं. उन्हीं के संसाधनों का दोहन करता हुआ वह तेजी से पूंजी बना रहा था. यही नहीं, अपनी आर्थिक हैसियत और श्रमिकों की मजबूरी का लाभ उठाते हुए वह उनका जमकर शोषण भी करता था. मार्क्स के अनुसार कृषिक्षेत्र से भारी मात्रा में मजदूरों के बेदखल किए जाने से घरेलू बाजार में वृद्धि हुई थी. इसलिए कि जो किसान-मजदूर अपनी जरूरत की वस्तुएं अपने खेतों में उगा लिया करते थे, अब उन्हें वे बाजार से खरीदनी पड़ती थीं. इस तरह जो किसान और खेतिहर मजदूर पहले दूसरों का पेट भरते थे, वे अब अपना पेट भरने के लिए कारखानों में बनाए जा रहे, उत्पादों पर निर्भर हो चले थे. इससे बाजार का विस्तार हुआ था. इसका आशय ही था, पूंजीपतियों के लिए अतिरिक्त मुनाफा, बाजार का उत्तरोत्तर फैलाव और पूंजीवाद का निरंतर विस्तार.
28. औद्योगिक पूंजीवाद की उत्पत्ति मार्क्स के अनुसार पूंजीवाद का विस्तार एक ऐतिहासिक परिघटना थी. ‘पूंजी’ के अध्यायों में वह एक के बाद एक उन स्थितियों और परिवर्तनों का क्रमानुसार विश्लेषण करता है,जिनसे गुजरते हुए एक सरल समाज प्रकारांतर में औद्योगिक पूंजीवाद का शिकार हुआ और जिसके कारण समानता-आधारित अर्थव्यवस्था चंद लोगों के वर्चस्व वाली अर्थव्यवस्था में बदलती जा रही थी. मार्क्स स्पष्ट करता है कि औद्योगिक पूंजीवाद का गुलाब, जमींदारी प्रथा की राख पर खिला था. बेलगाम मुनाफाखोरी के लिए जमीन उन मेहनतकश किसानों से हड़पी गई थी, जो पीढ़ियों से उसपर खेती करते आए थे. जमीन के साथ उनके भावनात्मक और बेहद करीबी संबंध थे. सामंतवादी शोषण और उत्पीड़न की विषम परिस्थितियों के बीच जो अपने जीवन को जैसे-तैसे बचाए हुए थे. अपने परंपरागत उद्यमों से बेदखल हुए वे किसान-मजदूर-शिल्पकार जीवित रहने के लिए भारी संघर्ष से गुजर रहे थे. उनके पास बहुत कम विकल्प थे. अधिकांश लोगों ने पूंजीवादी उद्यमों की शरण ली थी. उनमें मजदूरी कर वे अपना जीवनयापन करने लगे. उनमें से कुछ ने जो व्यवहार-कुशल और व्यावसायिक दृष्टि रखते थे, मशीनीकरण की शरण ली.उनमें से कुछ को सफलता भी मिली. लगातार मुनाफा कमाते हुए वे स्वयं को छोटे उद्यमियों की श्रेणी में स्थापित करने में सफल सिद्ध हुए. लेकिन ये सब संसाधनों की कमी का शिकार थे और अपनी-अपनी सरकार से संरक्षण की आस लगाए हुए थे. जमे-जमाए उद्योगपति बाजार पर एकाधिकार चाहते थे. उनके पास संसाधनों की कमी न थी. अपने उद्योगों में वे बेहतर तकनीक का उपयोग कर सकते थे. उत्पादों के लिए नए बाजारों की खोज का उन्हें लंबा अनुभव था. किंतु अपने ही जैसे पूंजीपतियों से कड़ी स्पर्धा तथा बाजार पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए उन्हें भारी मात्रा में श्रम-शक्ति की आवश्यकता थी. समस्या के समाधान के लिए पूंजीपतियों ने श्रमिकों को काबू में रखने के लिए दीघसूत्री योजना पर काम करना आरंभ कर दिया. यह योजना राजनीतिक सत्ता के साथ गठजोड़ पर टिकी थी. सरकार पर अपने दबदबे के कारण वे मनमाने कानून बनवाने में भी सक्षम थे. अठारहवीं शताब्दी में ब्रिटिश सरकार द्वारा आरंभ की गई राष्ट्रीय ऋणकोश, कराधान जैसी अनेक नई व्यवस्थाएं, पूंजीपतियों की योजना के अनुसार थीं, इन सबने येन-केन-प्रकारेण पूंजीवाद को मजबूत करने का ही काम किया था. इससे छोटे उद्यमी, किसान स्पर्धा में पिछड़ने लगे थे. इन सभी व्यवस्थाओं को यद्यपि सर्वतोन्मुखी विकास के नारे के साथ लागू किया गया था. तथापि इनका प्रभाव सीमित एवं श्रम-विरोधी था. यह औपनिवेशिक सरंचना आर्थिक मोर्चे पर फतह और नए संसाधन जुटाने के लिए भले अत्यावश्यक हो, मगर मूल रूप में यह श्रम-शोषण एवं बेगार के सिद्धांत पर टिकी थी. इसका पलड़ा हमेशा पूंजीपतियों के पक्ष में झुका होता था. परिणाम यह हुआ कि औद्योगिकीकरण के विस्तार और उद्योगों के बीच कड़ी स्पर्धा के बीच अधिकतम लाभ की संभावना के साथ कारखानों में बाल-मजदूरों की भर्ती और उनका खुलेआम शोषण किया जाने लगा. पूरा का पूरा बाजार पूंजीपति के लाभ के लिए काम में जुट गया. विडंबना देखिए कि यूरोपीय देशों में 1769से 1770 के बीच पड़ा भीषण अकाल भी पूंजीपतियों के लिए मुनाफे का संदेश लेकर आया था. उसमें एक ओर जहां लाखों गरीबों, बेबसों, स्त्रियों और मासूम बच्चों को जान से हाथ धोना पड़ा, वहीं पूंजीपति जमाखोरों ने सरकारी उदासीनता और अकाल की स्थितियों का लाभ उठाते हुए खूब चांदी काटी थी. लाभ के सिद्धांत पर टिकी उस पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में अधिकतम मुनाफा ही नैतिकता थी, इसलिए पुराने जीवनमूल्य धराशायी होने लगे थे. मार्क्स के अनुसार पूंजीवादी समाज में श्रमिक उसका सबसे शक्तिशाली केंद्र-बिंदू हैं.अतएव श्रमिक-वर्ग को काबू में रखने के लिए उन्हें संगठित होने, उधार लेने तथा ज्वाइंट स्टाॅक कंपनी की स्थापना के लिए प्रेरित किया गया. यह कार्य आधुनिक समाज में विकास और कल्याणकारी व्यवस्थाओं की स्थापना के नाम पर संपन्न हुए. मानवाधिकार और लोकतंत्र जैसी संस्थाओं ने भी अंततः पूंजीवाद को मजबूत करने का कार्य किया.इससे उत्साहित होकर अधिकांश कामगार ज्वाइंट स्टाॅक कंपनी, स्टाॅक एक्सचेंज तथा आधुनिक बैंक कर्जदारी के लिए प्रवृत्त हुए. उद्योगों को कर्ज प्रदान करने की अंतरराष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं ने, जो इस तथ्य को गोपनीय रखती थीं कि कर्ज के लिए वित्त की व्यवस्था किन òोतों से की जा रही है, कारखानों में श्रमिकों के शोषण को बढ़ाने का ही काम किया. आयकरदाताओं को टैक्स चुकाने और कर्ज लेने के लिए उकसाया जाता रहा.पूंजीपतियों ने जरूरी सेवाओं को भी बाजार में उतार दिया, ताकि उनके माध्यम से अपने लिए आय के नए स्रोत पैदा कर सकें. इसका उन्हें लाभ भी हुआ. बाजार के बहुमुखी विकास ने नई प्रौद्योगिकी की मांग पैदा की. नए क्षेत्रों में प्रौद्योगिकी के आगमन से उनमें कार्यरत श्रमिक-कामगार, नाई, धोबी, दर्जी, बढ़ई, लुहार, स्वर्णकार आदि बेरोजगार होकर सड़क पर आ गए. कुल मिलाकर हालात ऐसे बनाए गए कि श्रमिक, कारीगर,हस्तशिल्पी सब के सब उसमें निरंतर उलझते ही गए. वास्तव में इस व्यवस्था से जुड़ा कोई भी व्यक्ति पूंजी के खूनी पंजों से बाहर जाने में असमर्थ था. वह सिर्फ छटपटा सकता था. अपसंस्कृतीकरण और महंगाई की बढ़ती दर से आहत हो सकता था. अपने हालात पर रो और छटपटा सकता था, लेकिन व्यवस्था में रहने, शोषण का शिकार होने और खुली आंखों से सबकुछ देखते जाने से अधिक कुछ और उसके बस में भी नहीं था.इन सभी परिवर्तनों के फलस्वरूप पूंजीवाद बेलगाम दौड़ता चला गया.
29. पूंजीवादी संचय की ऐतिहासिक प्रवृत्ति प्रूधों का कहना था—व्यक्तिगत संपत्ति चोरी है….संपत्तिधारी व्यक्ति चोर है. मार्क्स हालांकि प्रूधों से कई मामलों में असहमत था. मगर व्यक्तिगत संपत्ति को लेकर उसकी कुछ मान्यताएं पू्रधों से मेल खाती हैं. इतिहास का भौतिकवादी अध्ययन करते हुए वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि उत्पादन के संसाधन सामाजिक परिवर्तन की मुख्य प्रेरणा रहे हैं, और इसके पीछे मनुष्य की संपत्ति संचय की प्रवृत्ति का भारी योगदान है. ‘पूंजी’ के बतीसवें अध्याय में मार्क्स पूंजीवादी संचय की प्रमुख वृत्तियों और उन अवस्थाओं का वर्णन करता है, जिनकी ओर वह उन्मुख है. लंबे चिंतन-विश्लेषण के उपरांत वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि एक दिन श्रमिक-वर्ग पूंजीवाद की, जो उसकी दुर्दशा का मूल कारण है, की वास्तविकता को पहचानेगा तथा संगठित होकर क्रांति का शंखनाद करेगा.वह पूंजीवाद का अंतिम दिन होगा. अध्याय के आरंभ में ही वह एक प्रश्न उठाता है— ‘‘प्राचीन पूंजी-संचयन ने अपने भीतर कौन-सा परिवर्तन किया है?’ इस प्रश्न का उत्तर वह आगे स्वयं ही दे देता है—‘निजी संपत्ति का विलयन, जो उनके मालिकों ने कठोर परिश्रम द्वारा अर्जित की थी, अर्थात तात्कालिक उत्पादकों को बेदखल कर देना.’’ प्रूधों से भिन्न मार्क्स ने निजी संपत्ति की अवधारणा का पक्ष लिया था. उसका मानना था कि श्रमिकों को निजी संपत्ति का अधिकार होना चाहिए, ताकि उसके द्वारा वे छोटे-छोटे उद्यम स्थापित कर सकें. वह लघु उद्यमों की सामाजिक उत्पादकता को बनाए रखने एवं श्रमिक की अस्मिता और सम्मान की रक्षा के लिए आवश्यक मानता था.श्रमिक अपना बाॅस स्वयं है. चाहे वह हल जोतने वाला किसान हो अथवा हाथ में औजार लेकर काम करने वाला शिल्पकार. चाहे वह कारखानों में पसीना बहाकर रोजी-रोटी कमाने वाला मेहनतकश श्रमिक हो अथवा दस्तकार. निजी संपत्ति ही उन सबके कल्याण की वाहक हो सकती है. वह लिखता है कि यद्यपि पूंजीवाद की नींव मजदूरों की भारी मात्रा में हुई बेदखली ने रखी है. निजी संपत्ति पूंजीपति के हाथों में पहुंचकर बहुआयामी शोषण का सबसे बड़ा हथियार बन चुकी है. उसके कारण जो श्रमिक-कामगार कभी मुक्त जीवन जीने के अभ्यस्त थे, अब विस्थापित मजदूर बनकर कष्टमय जीवन जी रहे हैं. पूंजीवाद के चंगुल में फंसकर वे अपना सबकुछ गंवा चुके,सर्वहारा हैं. पूंजीपतियों ने उनके श्रम को पूंजी में बदल दिया है. उसके माध्यम से वह लाचार श्रमिकों का मनमाना शोषण कर रहा है. मार्क्स स्पष्ट करता है कि पूंजीपति की निजी संपत्ति पूंजीवादी विनियोजन के रूप में अविरत विस्तार लेती जाती है. इस कोशिश में वह अपने संपर्क में आने वाली हर छोटी संपत्ति जिसमें श्रमिक की अपनी पूंजी यानी श्रम भी सम्मिलित है, को आभाहीन कर देती, उसको ग्रस लेती है. ऐसी स्थितियां पैदा कर दी जाती हैं, जिनमें श्रमिकवर्ग का शोषण अपरिहार्य हो जाता है. पूंजी के अध्ययन से स्पष्ट है कि मार्क्स अपने चारों ओर पूंजीवाद का नंगा नाच देख रहा था. उसके चंगुल में फंसे मजदूरों को उसने छटपटाते हुए देखा था. बावजूद इसके वह पूरी तरह आशावान था. पूंजीवाद की विशद् समीक्षा करने के पश्चात वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि अपनी मौत को स्वयं न्योता देना पूंजीवाद की मूल प्रवृत्ति है. यह एक ऐसा भस्मासुर है, जो दूसरे के श्रम-कौशल के आधार पर ताकत ग्रहण करता है. किंतु अपनी मौत का उद्यम भी साथ लिए चलता है. श्रमिक-असंतोष की अनियंत्रित स्थितियां कभी भी उसको धराशायी कर सकतीं हैं. इसलिए पूंजीवादी व्यवस्था जहां अपने लाभ के लिए सार्थक उद्यम करती है, वहीं वह श्रमिकों को भुलावे में रखने के लिए निरंतर प्रयासरत रहती है. ये भुलावे सांस्कृतिक पहचान, धर्म और विशिष्ट क्षेत्रीयताओं को अस्मितावादी पहचान देने के नाम पर लगातार जारी रहते हैं. पूंजीवाद की आलोचना करते हुए उसने उसको ऐसा उपक्रम बताया है, जिसमें सामाजिक नियंत्रण, सहयोग और सहकारिता, प्रकृति की नियामक शक्तियों तथा समाज के उत्पादक बलों के मुक्त विकास के लिए कोई स्थान नहीं है. अपने विकास के दौर वह इन्हें हड़पता चला जाता है. पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपतियों के बीच आंख-मिचैनी जैसा स्पर्धा का खेल चलता ही रहता है. तमाम व्यावसायिक मन-मुटाव और लाग-डांट के एक भी पूंजीपति नहीं चाहता कि उनके उत्पादन-तंत्र में कोई बाहरी शक्ति हस्तक्षेप करे. मगर श्रमिकों के पास संगठन की ताकत, श्रम की ताकत और उत्पादन की योग्यता होती है.उसका विश्वास था कि पूंजीपतियों के व्यापक और शोषणकारी तंत्र को संगठित उत्पादक न केवल उखाड़ फेंक सकते हैं, बल्कि अपने श्रम-कौशल के दम पर सर्वकल्याणकारी और विकेंद्रीकृत उत्पादनतंत्र की नींव भी रख सकते हैं. खदेड़ने वालों को भी खदेड़ा जा सकता है, मुट्ठी-भर हाथों में सिमटे गैरसामाजिक उत्पादन-तंत्र का सामाजीकरण कर उसके लौकिक और मानवीय चरित्र को वापस लौटाना असंभव नहीं है—मजदूरों की कार्यक्षमता में अटूट विश्वास रखने वाले मार्क्स का यही मानना था. मार्क्स निजी संपत्ति को उतना बुरा नहीं मानता, जितना कि प्रूधों मानता था. बल्कि वह बड़े उद्योगों के स्थान पर छोटे उद्यम लगाने के पक्ष में था, जिनपर श्रमिकों का नियंत्रण हो. जहां वे अपनी जरूरत का सामान बना सकें. जहां हुए उत्पादन का पूरा लाभ वहां कार्यरत श्रमिकों को मिलें. उत्पादनतंत्र के समाजीकरण की प्रक्रिया में उसने निजी संपत्ति को व्यक्तिमात्र की संपत्ति कहा था. वह मानता था कि पूंजीवाद के पतन के बाद, उत्पादन व्यवस्था श्रमिकों के हाथों में चले आने का अभिप्राय निजी संपत्ति की अवधारणा की पुनः स्थापना नहीं है. वह लिखता है कि उत्पादन के समाजीकरण की क्रिया है, जो— ‘यह निजी संपत्ति की पुनः स्थापना नहीं करती. बजाय उसके यह पूंजीवादी युग की उपलब्धियों एवं शिक्षाओं के आधार पर, व्यक्ति-मात्र की संपत्ति की अवधारणा जैसे कि सहयोग-सहकारिता, कृषि-भूमि पर समाज के संयुक्त अधिकार तथा श्रमिकों द्वारा संचालित विकेंद्रीकृत उत्पादनतंत्र की स्थापना करती करती है.’ मार्क्स की समस्या थी कि पूंजीपति के हाथों में जाकर सर्वभक्षणकारी बन चुकी पूंजी को किस प्रकार लोकोपकारी सामाजिक संपदा में बदला जाए. वह कौन-सी प्रक्रिया है जिसमें समाज की संपत्ति उसके सर्वांगीण विकास से प्रेरित हो, न कि मुट्ठी-भर लोगों के वर्चस्व वाली पूंजीवादी व्यवस्था से. अपनी पुस्तक में वह लगातार इसपर विचार करता है. वह जानता था कि पूंजी, धर्म और राजनीति के दम पर बेहद शक्तिशाली बन चुके पूंजीपतियों का न तो हृदय परिवर्तन संभव है, न ही उस व्यवस्था से जो मनुष्यमात्र को उपभोक्ता और उसके आसपास की प्रत्येक वस्तु को उपभोक्ता-वस्तु में बदल देने को प्रयासरत हो,किसी भी प्रकार के परिवर्तन की उम्मीद करना उचित है. वह मानता था सरकार अथवा समाज की अन्य नैतिक शक्तियों द्वारा बेलगाम बन चुके पूंजीवाद को काबू में करना असंभव है. उत्पीड़न से मुक्ति के लिए सिर्फ उत्पीड़क वर्ग को ही आगे आना होगा.श्रमिक अभी तक जो उत्पादन पूंजीपति के लिए करता है, वह अपने लिए करे, पूरे समाज के लिए करे, तभी पूंजीवाद के विषैले दांत उखाड़े जा सकते /हैं. निरीह मजदूर जो अपनी आजीविका के लिए भी दूसरों पर आश्रित हों, वे शक्तिशाली पूंजीपतियों को भला कैसे उखाड़ सकते हैं? विशेषकर तब जब समस्त कानून, सरकारी विधान उनके पक्ष में होकर, उनकी सुरक्षा के लिए सन्नद्ध हों. इस बारे में मार्क्स का मानना था कि श्रमिकवर्ग को यह अवसर पूंजीवाद की ओर से स्वयं ही प्राप्त होगा.इसलिए कि पूंजीवाद की सबकुछ हड़प लेने का स्वभाव ही उसपर भारी पड़ने वाला है.एक दिन वह स्वयं अपने आप को समाप्त कर लेगा. उस दिन श्रमिकों-कामगारों के पास अवसर होगा कि अपने श्रम-कौशल और संगठित शक्ति के दम पर समाज को निर्दिष्ट परिवर्तन की ओर ले जा सकें. जहां समाज मुख्य हो. उत्पादन के साधनों पर व्यक्ति का कब्जा न होकर समस्त समाज का अधिकार हो. जहां उत्पादन उपभोग-आधारित न होकर आवश्यकता-आधारित हो. और जहां आवश्यकताएं व्यक्ति की निजी महत्त्वाकांक्षाओं का प्रतीक न होकर, सामाजिक चेतना द्वारा मर्यादित होती हों. 30. उपनिवेशीकरण का आधुनिक सिद्धांत ‘पूंजी’ की रचना के समय पूंजीवादी शोषण की स्पष्ट छवि थी. उत्पादन व्यवसाय में और व्यवसाय शोषण में ढल चुका था. उत्पादन व्यवस्था पर पर पूंजीवादी एकाधिकार की प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही थी. पूंजीपतियों की आपसी स्पर्धा के कारण श्रमिक शोषण के नए-नए अध्याय खुल रहे थे. समाज में अमीरी और गरीबी के बीच की खाई निरंतर गहराती जा रही थी. मशीनों के आगमन के समय उनसे जो उम्मीदें बांधी गई थीं, वे टूटने लगी थीं. यद्यपि राजनीतिक वर्चस्व और साम्राज्यवादी विस्तार के लिए होने वाले युद्धों में कमी आई थी. मगर साम्राज्यवाद के नए प्रतीक के रूप में बड़ी-बड़ी व्यावसायिक कंपनियां उभरती जा रही थीं. उनका एकमात्र कार्य आर्थिक रूप से पिछड़े देशों की परिस्थितियों का लाभ उठाकर, वहां के श्रमिकों एवं संसाधनों का दोहन कर अपने लिए भारी मुनाफा बटोरना था. कानून उसके समर्थन में था. वह इतना ताकतवर और पहुंचवाला था कि कानून को मनचाहा मोड़ दे सकता था. अपनी पूंजी के दम वह अपने स्वार्थानुकूल संवैधानिक व्यवस्थाएं भी करा सकता था. वह लोकतंत्र का नारा देकर व्यक्तिवाद को उकसाता था. मानवाधिकारों पर जोर देने का उसका उद्देश्य मात्र इतना था कि समाज में अमर्यादित और अविवेकी उपभोक्तावर्ग जन्म ले. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि एक नए प्रकार का उपनिवेशवाद हवा में था. पुस्तक के तेतीसवें अध्याय में मार्क्स नव्यउपनिवेशवाद की विशद् व्याख्या करता है. अध्याय का आरंभ वह निजी संपत्ति के दो भिन्न, किंतु परस्पर विरोधी स्वरूपों की चर्चा के साथ करता है. ये दोनों रूप में हैं— क. उत्पादक के अपने श्रम-कौशल द्वारा अर्जित. ख. दूसरों के श्रम के शोषण के आधार पर अर्जित. मार्क्स के अनुसार दूसरी स्थिति पहली का परिणाम है. संपत्ति की उपस्थिति व्यक्ति को और भी महत्त्वाकांक्षी बनाती है. उसके मन में दूसरों से आगे निकलने की होड़ पैदा करती है. हर पूंजीपति कम समय में अधिक से अधिक संपत्ति अर्जित कर लेना चाहता है. इसके लिए वह श्रम-लागत को न्यूनतम कर, लाभानुपात को बढ़ाने का प्रयास करता है. श्रम-शोषण के नए तरीकों और बाजारों की खोज करता है. स्थानीय संसाधनों का असीमित दोहन कर प्रकृति और पर्यावरण के लिए विकट समस्याएं खड़ी करता है. उन वस्तुओं के उत्पादन पर जोर देता है, जिनका वास्तविक जरूरतों से कोई संबंध न हो, फिर भी व्यक्ति को उनके अभाव की सतत अनुभूति होती रहे. मार्क्स के अनुसार उपनिवेशों की स्थापना के बाद पूंजीपति का चरित्र उससे एकदम अलग रूप ले चुका था, जैसा कि वह घरेलू पूंजीवाद, जिसको वह ‘होमलेंड कैपीटलिज्म’ का नाम देता है, के समय था. इस बारे में एडवर्ड गिबन वेकफील्ड लिखता है— ‘औपनिवेशिक पूंजी का अभिप्राय किसी वस्तु/उत्पाद से नहीं है, बल्कि व्यक्तियों के बीच वे सामाजिक संबंध है, जो वस्तुओं के माध्यम से आकार लेते हैं.’ आगे चलकर वह भूमि एवं मजदूरों संबंधों की विवेचना करता है. मार्क्स के अनुसार कोई भी समाज पूंजीवादी संबंधों को अनायास स्वीकार नहीं कर लेता. बल्कि अपनी परंपरा और परिस्थितियों के आधार पर, प्रारंभ में वह उनका जमकर विरोध करता है. किंतु एक नियति के रूप में पराजय ही उसके हाथ लगती है. इस तरह उसे अपने संसाधन पूंजीपतियों को सौंपने ही पड़ते हैं. औपनिवेशिक देशों में भूमि सामान्यतः सस्ती और फैली हुई होती है. इसलिए पूंजीपति वहां अपने लिए बेहतर अवसर देखते हैं. संसाधनों की विपुलता और सस्ता श्रम उन्हें वहां अपने उद्योग लगाने के लिए प्रेरित करता है, तो भी वहां के मजदूर अपने श्रम को बेचने के लिए उस तरह उत्साहित नहीं होते, जैसे कि वे उससे पहले तक करते आए थे. पूंजीवाद की यह विशेषता है कि वह उत्पादन-व्यवस्था का सांस्थानिकीकरण करता है. श्रमिकों और शिल्पकारों द्वारा संचालित उत्पादन को कारखानों तक लाकर वह उनका पूंजीकरण कर देता है. इससे पहले से ही उत्पादन में लगे श्रमिक और कामगार बेदखल होते जाते हैं. उनमें से कुछ रोजगार के लिए कारखानों की शरण लेते हैं, तो बाकी बेरोजगार होकर जीविका के लिए अन्य क्षेत्रों में पलायन कर जाते हैं. आगे मार्क्स एक स्वाभाविक-सा प्रश्न उठाता हैµपूंजी और सर्वहारा का उद्गम कैसे हुआ. मार्क्स यहां, पूंजीवाद के उदगम स्रोत को जानना चाहता है. प्रश्न के बाद वह स्वयं उसकी विवेचना भी करता जाता है. उसके अनुसार उत्पादन की प्राचीन सामाजिक व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति अपने श्रम के आधार पर वस्तुओं का अर्जन करता था. कालांतर में सामंतवाद ने दस्तक दी और दूसरे के श्रम पर आधारित जिंदगी जीने वाला एक परजीवी वर्ग समाज में पनपने लगा. इस वर्ग के पास मजदूरों के कठिन परिश्रम से कमाई कई बेशुमार धन-संपदा थी, लेकिन वह उसको उत्पादन में बदलने की कला से अनभिज्ञ था. शायद इसलिए वह विलासितामय रूप को, धन-संपदा के सर्वोत्तम प्रयोग और अपने वैभव प्रदर्शन के रूप में देखता था. धर्म, जाति, क्षेत्रीयता जैसे अनुत्पादक तत्व उसके सुरक्षा कवच होते थे. प्रौद्योगिकी के विकास के साथ सामंतों का एक वर्ग पूंजीपति के रूप में आकार लेता गया. तो मार्क्स के अनुसार इनकी(पूंजी और मजदूर) उत्पत्ति श्रमिकों के बंटवारे की उस घटना के साथ हुई जब उनका एक वर्ग पूंजी का मालिक बना और दूसरा वर्ग मात्र अपने श्रम का स्वामी बना रहा— ‘यह श्रमिकों के पूंजी के स्वामी और श्रम के स्वामी में विभाजन की घटना से जुड़ा है, जिसके अंतर्गत श्रमिकों ने पूंजी के संचयन के प्रति निष्ठा दर्शाते हुए खुद को श्रम से अनिवार्यरूप से बेदखल कर दिया था.’ मार्क्स के अनुसार उपनिवेशों में भूमि के लिए होने वाला संघर्ष केवल पूंजीवाद की स्थापना तक सीमित नहीं रह जाता. उसकी शुरुआत छोटे किसानों और उद्यमों की बेदखली के साथ होती है. भू-निर्वासन की यह प्रक्रिया क्रमिक और क्षेत्रवार होती है. जहां यह प्रक्रिया अधूरी हो, वहां छोटे किसानों और कृषि-व्यवसाय से जुड़े पूंजीपतियों के बीच संघर्ष चलता रहता है. देर तक चलने वाले इस संघर्ष में जीत अंततः पूंजीपतियों की ही होती है, लेकिन उन्हें शत-प्रतिशत सफलता कभी नहीं मिल पाती. संघर्ष के विभिन्न चरणों में भूमि छोटे किसानों से हाथों से खिसककर धीरे-धीरे पूंजीपतियों के हाथों में जाती ही रहती है. अपवाद-स्वरूप कई बार किसान-मजदूरों का एक वर्ग, पूंजीवादी प्रलोभनों का शिकार होकर, पूंजीकरण की प्रक्रिया को आत्मसात कर लेता है, इससे उसका रवैया पूंजीवाद के प्रति सहयोगात्मक हो जाता है. लेकिन ऐसा हर जगह और हर समाज में संभव नहीं होता. उस अवस्था में पूंजीवादी वर्चस्व के विरुद्ध अपनी परंपरागत उत्पादन प्रविधियों को बचाए रखने का संघर्ष सतत चलता ही रहता है. मार्क्स के अनुसार श्रम से स्वतः-निर्वासन की यह क्रिया पारंपरिक नियमों के अनुसार संपत्ति संचय की प्राचीन कामना के रूप में व्यक्त हुई थी. यही कारण है कि इसने उपनिवेशों में पूंजीवाद के विस्तार के लिए उत्प्रेरक का काम किया. श्रमिक आत्मनिर्वासन की भावना के साथ, कतिपय कृत्रिम उपायों से मुद्रा (मजदूरी अर्जन हेतु आर्थिक-सामाजिक रूप से पूंजीपतियों पर निर्भर होते चले गए. श्रम को बेचने की उनकी आतुरता पूंजीवाद के लिए मददगार बनी. उनकी निर्भरता को स्थायी रूप देने के लिए पूंजीपतियों द्वारा जनसुविधाओं का व्यावसायिकीकरण किया गया. विकास और आधुनिक समाज के प्रतीक के रूप में ऐसी संस्थाओं का गठन किया जाने लगा जो परिवार के गठन की अनिवार्यता पर प्रहार करती थीं. समाज में पहले एकल और छोटे परिवारों के गठन पर बल दिया गया.नतीजा यह हुआ कि पूंजीपतियों को सस्ता श्रम उपलब्ध होने लगा, जो उनके लाभानुपात में भारी वृद्धि का कारण बना. फिर जैसे-जैसे उत्पादन पूंजीवादी व्यवस्था के अधीन होता गया, समाज में श्रमिकों की संख्या भी बढ़ती गई. रात-दिन चलती फैक्ट्रियां उनके लिए मुनाफा उगलती गईं. पूंजीवाद के विस्तार के साथ ऐसे आर्थिक उपनिवेशों की संख्या में भी विस्तार होता गया. क्या कोई श्रमिक जितना अपनी मात्रभूमि के प्रति समर्पित है, उतना ही किसी उपनिवेश के प्रति भी हो सकता है. पूंजीवाद के औपनिवेशिक विस्तार की सरणियों को समझने के लिए इस अंतर को समझना बेहद जरूरी है. पिछले विश्लेषण से हमने जाना कि औपनिवेशिक विस्तार के लिए पूंजीपति संपदा-संचयन की प्राचीन पद्धतियों-स्वभावों से लाभ उठाते आए हैं, हालांकि आगे चलकर इसी के आधार पर श्रमिकों को अविरत निर्वासन भी सहना पड़ा है. ये स्थितियां पूंजीवादी समाज की अनिवार्य परिणति हैं. अंत में वह इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि पूंजीपति की निजी समृद्धि व्यक्तिगत संपत्ति के हड़पने, पचा लेने के बाद ही संभव है. ‘पूंजी’ के पहले खंड में मार्क्स आरंभ से अंत तक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में श्रम-शोषण की अनिवार्य स्थितियों का विश्लेषण करता है. तो भी यह नकारात्मक आख्यान नहीं है. पुस्तक में मार्क्स जहां शोषण की अनिवार्यता और पूंजीवादी दमनचक्र की सर्वव्यापकता का विवरण प्रस्तुत करता है, वहीं वह हमें इस बात का भी भरोसा दिलाता है कि पूंजीवादी उत्पीड़न से मुक्ति संभव है. श्रम-मुक्ति का गुलाब पूंजीवाद की राख से खिलेगा, ‘पूंजी’ का यह संदेश उसको आधुनिक समय का अर्थशास्त्रीय महाकाव्य सिद्ध करने को पर्याप्त है. 31. दि कैपीटल : खंड दो एवं तीन उनीसवीं शताब्दी के छठे दशक में लंदन में मात्र तीन कमरों के छोटे-से मकान में अपने बड़े परिवार के साथ रहते हुए मार्क्स अपनी आजीविका के लिए ‘न्यू यार्क डेली ट्रिब्यून’ जैसे समाचारपत्रों के लिए लिखे गए साप्ताहिक लेखों से मिले पारिश्रमिक पर निर्भर था. कुछ आमदनी पुस्तकों की बिक्री तथा स्थानीय समाचारपत्रों द्वारा बड़े परिवार का बोझ उठाने और अपनी लगभग स्थायी बीमारी का इलाज कराने के लिए उतनी आमदनी पर्याप्त न थी. आड़े वक्त में मित्र ऐंगल्स ही काम आता था. विषम परिस्थितियों में भी वह राजनीतिक अर्थशास्त्र पर, धीरे-धीरे मगर निरंतर काम करता आ रहा था. 1857 में उसने एक बड़ी पांडुलिपि तैयार की, जिसमें पूंजी, संपत्ति, श्रम, मजदूरी, राज्य, विदेश व्यापार तथा विश्व-बाजार जैसी विषयों पर गंभीर काम किया गया था. 1860 में आखिर मार्क्स ने उस पुस्तक को प्रकाशन को भेजने से पहले दुबारा जांचा-परखा. पुस्तक प्रकाशित होकर बाजार तक पहुंचने में सात वर्ष का लंबा समय और लगा. 1867 में ‘पूंजी’ का पहला खंड बाजार में आया. इस खंड में उसने श्रम-सिद्धांत, अधिलाभ, मजदूरी, श्रम-शोषण आदि अनेक विषयों पर अपने विचारों को प्रस्तुत किया था. पुस्तक का दूसरा और तीसरा खंड भी 1860 में ही तैयार हो चुका था. लेकिन उन्हें अंतिम रूप देने के लिए मार्क्स उन खंडों पर लगातार काम करता रहा. इस तरह दूसरे और तीसरे खंड का प्रकाशन क्रमशः 1885 और 1894 में संभव हो सका. उस समय तक कार्ल मार्क्स की मृत्यु हो चुकी थी. दोनों खंडों का संपादन उसके अभिन्न मित्र और सहयोगी फ्रैड्रिक ऐंगल्स ने किया था. ‘पूंजी’ का दूसरा खंड भी पहले खंड की तरह श्रम-मूल्य और पूंजीवादी शोषण की व्याख्या पर टिका है और एक तरह से पहले खंड का पूरक है. तीसरे खंड में मार्क्स ने पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था की प्रवृत्तियों को दर्शाया है. यह सात हिस्सों में बंटा है— 1. अधिलाभ का लाभ में तथा अधिलाभ की दर का लाभ की दर में रूपांतरण. 2. लाभ का औसत लाभ में रूपांतरण. 3. लाभ-दर में गिरावट की प्रवृत्ति का नियम. 4. उपभोक्ता पूंजी तथा पूंजी-धनराशि का वाणिज्यिक पूंजी एवं मुद्रा-व्यवहार पूंजी (सौदागर की पूंजी) में रूपांतरण. 5. लाभ का ब्याज एवं उद्यम-लाभ तथा ब्याजयुक्त पूंजी में विभाजन. 6. अधिलाभ का भूमि-कर में परिवर्तन. 7. राजस्व एवं उसके स्रोत. तीसरे खंड में पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था के गहन अध्ययन के उपरांत मार्क्स इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि उत्पादन-वृद्धि के दौर में जैसे-जैसे मानवीय श्रम की आवश्यकता बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे लाभ की दर में गिरावट आने लगती है. प्रथम द्रष्टया यह तर्क मार्क्स के अन्य स्थापनाओं का विरोधी जान पड़ता है, जिसके आधार पर वह मशीनीकरण की आलोचना करता है. मगर यह तथ्य मशीनीकरण और बढ़ती स्पर्धा के दौर में यह तथ्य अनिवार्य परिणति के रूप में सामने आता है. मशीनीकरण के युग में मानवीय श्रम की अनिवार्यता का औचित्य क्या है? वे कौन-सी स्थितियां हैं जहां प्रौद्योगिकीय उन्नति साथ नहीं दे पाती? वस्तुतः मशीनों की अभिकल्पना इस उद्देश्य के निमित्त की जाती है कि वे उत्पादन में कमी लाएं. इससे उत्पादन में तेजी आती है. अतिरिक्त उत्पादन को खपाने के लिए पूंजीपति को नए बाजारों की जरूरत पड़ती है. संचार माध्यमों और प्रचार कीे नवीनतम तकनीक के माध्यम से कोई पूंजीपति अपने उत्पाद के पक्ष में माहौल बना सकता है. मगर कठिन स्पर्धा के दौर में इतने-भर से काम नहीं चलता. उत्पादक को अपने उत्पाद की विशेषताओं के साथ उपभोक्ता के करीब जाना पड़ता है. इस कार्य में मशीनों की भूमिका मात्र सहायक तक सिमट जाती है. इसलिए कि उपभोक्ता से अंतरंग संबंध बनाने, उसको अपने उत्पाद से जोड़े रखने के लिए विशेषरूप से प्रशिक्षित मानवीय श्रम की आवश्यकता पड़ती है. स्पर्धा के चलते उत्पादक का इस मद में खर्च लगातार बढ़ता ही जाता है. इस निष्कर्ष से मार्क्स और उसके अनुयायी मानते आए हैं कि पूंजीवाद एक दिन अपने ही बोझ से दबकर समाप्त हो जाएगा. हालांकि उसकी यह भविष्यवाणी अभी तक सच सिद्ध नहीं हुई है, लेकिन मार्क्स के समानताधारित समाज के सपने की स्थापना का औचित्य कम नहीं हो जाता.