पूजा-घर / किशोरी चरण दास / दिनेश कुमार माली

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किशोरी चरण दास (1924-2004)

जन्म स्थान:-माहंगा, कटक

प्रकाशित-गल्पग्रंथ-“भंगा खेलना”,1961, ”लक्ष विहंग”,1968, “घर वाहुडा”, 1968, “मणिहरा “,1970,”ठाकुर घर”,1975,”नालि गुलुगुलू साधब बहू”,1978,”भिन्नपाऊश “,1984,”त्रयोंविंश मृत्य “,1987,”लेउटानि”,1989, “निज संध्या”’1992, “धवल आकाश”,1994,”तरंग”,1997,”शांत अपरहान”,2002 इत्यादि-समुदाय 19 किताबें


जिंदगी और मौत की घाटी। सुनंदा देवी की हालत चिंताजनक। पति परलोक सिधार चुके हैं, मगर घर में बेटा-बेटी, नाति-नातिन सभी हैं, केवल अमर नहीं आया है। वह दूर दराज बड़ी नौकरी करता है। उसने बीच में पत्र लिखा था कि वह सपत्नीक कल सुबह तक हवाई जहाज से यहां पहुंच जाएगा। उसने पत्र में लिखा था कि बाढ़ के लिए हो रहे एक विचित्र अनुष्ठान में सुषमा को बहुत कुछ करना था, इस कारण से उसे देर हुई। मगर बड़ी बेटी वीणा ने ये सारी बातें मां को कहना उचित नहीं समझा। वीणा समझदार लड़की थी। छोटा बेटा भ्रमर हमेशा पास में रहता है, वह ठेकेदारी करता था. तीनो बेटियां शादीशुदा हैं, वे बिना ज्यादा समय गवाएं अपने बच्चों समेत वहां पहुच गए थे। यह बात जरुर है कि छटी बेटी विनि अकेली आई है क्योंकि उसके कोई बच्चा नहीं है।

विगत दो दिनों से उसकी तबीयत में कुछ सुधार हुआ है। पहले वह थोडी बहुत बातचीत कर लेती थी, ग्लूकोज पानी पीने के लिए बिस्तर से उठने की चेष्टा करती, दवाई खाने के लिए जिद्दपूर्वक मना करती और सारे बच्चे पास में हैं या नहीं, यह देखने के लिए चारों ओर दृष्टि घुमाती, मगर पिछले कुछ दिनों से उसकी ये सारी क्षमता समाप्त हो गई। वह एक ही सवाल पूछती थी- अमु अभी तक नहीं आया? उसके बाद दो ढक्कन ग्लूकोज पानी पीकर आँखें बंद कर चुपचाप सो जाती थी, न उठ पाती थी और न ही कुछ कह पाती थी। दबे हुए होंठ और दबे हुए लग रहे थे। शिथिल पलकों ने मानों आंखों की पुतलियों को जोर से दबा रखा हो। दिल की धड़कनें सहमी हुई लग रही थी।

माँ क्या और नहीं बच पाएगी? सिरहाने के दोनों तरफ बैठकर लड़कियाँ आँसू पोंछ रही थीं। विनि कुछ ज्यादा ही रो रही थी। वह अपने आप को नहीं संभाल पा रही थी, आँसू रोकते रोकते मानो उसकी सांसें रूक जा रही हो। (ऐसा लग रहा था शायद आंसू छुपाने के लिए वह बीच-बीच में उठकर इधर-उधर जा रही हो।)

दूसरी दो बहिनें भीगी आंखों से एक दूसरे की तरफ देखकर कहने लगी - “ऐ विनि ! हर समय इस तरह। थोड़ा-सा भी कष्ट सहन नहीं कर पाती, तिल का ताड़ बना देती है, ऐसी करती है जैसे दुनिया में उससे बड़ा और कोई दुखी प्राणी नहीं है। ठीक है वह घर में सबसे छोटी है, मगर इसका मतलब यह तो नहीं है कि वह अभी भी बच्ची है? माँ हमें छोड़कर गई नहीं है, अभी भी जिंदा है। हौसला रख, भगवान से प्रार्थना कर, इस तरह रोने-धोने से क्या होगा?

इसके अलावा बीच-बीच में उठकर रोते-रोते क्यों जाती हो? जाती हो और कुछ समय बाद फिर लौट आती हो? ”

रात होने लगी डॉक्टर साहब अच्छी तरह से रोग की परीक्षा कर निकल गए हैं। उन्होंने इंजेक्शन देते हुए कहा, “आज की रात, केवल आज की रात, यह रात पार हो गई तो डरने की कोई बात नहीं, किसी को ध्यान रखना पड़ेगा। कुछ भी खराब लक्षण अगर दिखते हैं तो तुरंत साथ ही साथ मुझे फोन कर इत्तला कर देंगे।”

पुराने पुजारी, पुराने नौकर तथा दो नए दरबानों ने एकाध बार दरवाजे की चौखट पर खड़े होकर मुंह लटकाए चले गए। रिश्तेदार लोग उसके हाथ-पांवों को छूते हुए दुखी मन से बाहर निकल गए। (मैं रात को रूक जाती, मगर क्या करूँ घर नहीं जाउँगी तो सारे काम रूक जाएंगे।) पुसी बिल्ली किसी की आवाज न पाकर अंधेरे में चली गई और किसी कोने से ऊष्मा खीचने लगी। लोहे की फाटक पर एक ताला लटक रहा है।

‘सुनंदा निवास’ की ऊपरी मंजिल के एक कमरे में बिजली जल रही है मानो आधी रात को किसी अनमने उजाले को बुला रही हो।

भ्रमर सिगरेट पीते-पीते इधर-उधर टहल रहा है। वीणा, वीथी और विनि बिस्तर के दोनों तरफ बैठकर आंसू पोंछ रही हैं। विनि ज्यादा रो रही है। रात अभी तक खत्म नहीं हुई।

“ओ: ! इस तरह सूं सूं नहीं होने से चलेगा नहीं? ” भ्रमर ने अचानक आवेश में आकर कहा मानो ये औरतें नहीं रोती तो समस्या का समाधान हो जाता, तबीयत ठीक हो जाती, मगर सारी बहिनों ने उसकी बात की तरफ ध्यान ही नहीं दिया। वीणा छोटे भाई की ओर अवज्ञासूचक दृष्टि से देखने लगी। वीथी कहने लगी, “तू जा न, जाकर सो जा। जरूरत पड़ने पर तुम्हें बुला देंगे? ”

भ्रमर चुप रहा, मगर वह समझ गया कि उसके एक से ज्यादा बहिने हैं। जितनी होनी चाहिए उसके भी ज्यादा। उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आता है। अपनी बात कहकर वह बरामदे में चला गया। जैसे ही खुले आकाश की ठंडी हवा उसके बदन को छूने लगी, वैसे ही दार्शनिक विचार उसके भीतर पैदा होने लगे। ये जिंदगी भी क्या? खत्म हो जाएगी, शायद खत्म हो जाएगी, निश्चय खत्म हो जाएगी। उसके बाद? असीम और अनंत? आकाश और तारें ! ये अकेली जिंदगी क्या?

उसी समय उसके देखा कि नीचे पूजा घर में बिजली जल रही है। कुछ समय बाद बिजली गुल हो गई और उसने देखा कि वहां से कोई चुपचाप बाहर निकल रहा है मानो कोई चोर हो। इधर उधर देखे बिना ऊपर देखता है। जल्दी-जल्दी चल रहा है। शायद औरत है। विनि है? विनि पूजा घर में प्रार्थना करने गई थी। इसलिए वह बीच-बीच में उठकर जा रही थी।

भ्रमर को आश्चर्य होने लगा। वह हंसने लगा। विचित्र लड़की है। एकदम डरपोक। मैं उसको बचपन से देखता आ रहा हूं। छाया देखकर डर जाती, है सत्य बोलने से डरती है शायद किसी का मन दुखी होगा, झूठ बोलने से डरती है शायद कहीं पकड़ी न जाए। यह तो उसकी किस्मत अच्छी है कि शादी हो गई, अन्यथा मां के जाने के बाद उसकी क्या हालत होती? (एक दीर्घश्वास)

विनि ने उसकी शादी में कम नहीं नचाया था। कह रही थी, “मुझे डर लग रहा है। मैं तुम लोगों को छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी। मैं किसी और के घर नहीं जाऊंगी। मैं आगे पढ़ूंगी, कहते-कहते पिताजी के हाथों को अपनी मुट्ठी से कसकर पकड़ लिया। यह देखकर पापा तो द्रवित हो गए थे। अगर मां जोर देकर नहीं कहती तो शायद वह शादी भी नहीं करती।

विनि के डरने की असाधारण प्रवृति याद आने पर भ्रमर का विस्मय खत्म नहीं हुआ। विनि एक बार नहीं, दो बार नहीं, कम से कम रात में चार-पांच बार वहां गई होगी, वास्तव में कुछ बातें भूल गई हो, कोई बीजमंद्र दोहरा रही थी शायद भगवान ने नहीं सुना हो।

विनि सीढ़ी के मुहाने पर आकर खड़ी हो गई। उसके सांवले पतले चेहरे पर कोई भाव नहीं थे, मगर ऐसा लग रहा था जैसे उसके शरीर को निविड़ता के भारीपन ने जकड़ लिया हो। बचपन से ही निविड़ता और सरलता उसमें कूट-कूटकर भरी थी। भ्रमर उस अवस्था को हल्का करना चाह रहा था, मगर नहीं कर पाया। उसे शक होने लगा कि विनि मृत्यु के असली रूप के बारे में चेता रही है। मृत्यु अनंत नहीं है, अंतरंग है। शरीर की तरह। रात के अंधेरे की तरह। इलिए पूजाघर जाना उचित है, सौ बार, हजार बार... मगर मैं नहीं जाऊंगा।

में क्या विनि हूँ?

इसका मतलब यह तो नहीं कि मैं मां को प्यार नहीं करता?

पूजाघर पुकार रहा है। उसे नहीं, आह्वान कर रहा है, चैलेंज कर रहा है, इधर आओ... अगर मां को प्यार करते हो।

एक दीया जल रहा है। विनि जलाकर आई है। धुंआ उठ रहा है। धुंआ और खुशबू। जली हुई बाती, चंदन, चढ़ाए हुए फूलों की खुशबू। पुराना सिंदूर, सिंदूर के बाद सिंदूर, भगवान का चेहरा भी नजर नहीं आ रहा है, मगर भगवान है, पूरी तरह से भगवान है। इतना भी मालूम नहीं? अन्यथा नहा-धोकर सभी वहां माथा टेककर क्यों आते हैं?

मालूम है। घर के कायदे-कानून। जब पिताजी जिंदा थे तब कभी-कभार पालन नहीं होते थे, मगर फिलहाल ऐसा नहीं होता है, क्योंकि पिताजी का फोटो भी वहां है, उस पर भी सिंदूर लगा है। मैने आज सुबह ही माथा टेका है, मगर अब नहीं जाऊँगा, इस रात के समय तो बिल्कुल नहीं, किसी के डराने-धमकाने से भी नहीं, विनि गई तो क्या मैं कल सुबह दिन के उजाले में....।

भ्रमर सम्मोहित होकर नीचे मंजिल के चिटकनी लके छोटे घर को देखता रह गया। जाना पहचाना छोटा घर नहीं है, पूजा घर नहीं है, केवल एक गुफा है। उसमें रहते हैं, देवता और दानव। जीवन और मृत्यु का फैसला करते हैं। ऐसा लगता है कि उसकी दोनों आंखें बिल्लौरी आंखों की तरह चमकती दिख रही है, एक जज की तरह साक्षी प्रमाण प्रस्तुत कर रही है। मैं वहां कैसे जाऊं और कहूं कि हे भगवान ! तुम मेरी मां को जिंदा कर दो, वह और दस साल जिंए, सौ साल जिंए। बकवास बात, नानसेन्स। जो होना है, होकर रहेगा। मैने कहा कि मैं कल सुबह जाऊंगा। बस आज की रात खत्म होने दो। डॉक्टर कहकर गए हैं।

मां के बिस्तर के पास आने पर भ्रमर का चेहरा सफेद पड़ गया. वीणा को छोटे भाई के मन की यह अवस्था देखकर दया आने लगी। मैं बड़ी बहिन हूं, घर में सबसे बड़ी। मेरा जन्म सबसे पहले हुआ है और मैने सबसे पहले अपना घर-संसार बसाया है। फिर मैने बड़े घर में शादी की है। ये भ्रमर, ये विनि कितने छोटे थे। मैने अपने हाथों से उन्हें नहलाया है। अपने हाथों से खिलाया है। वीणा भ्रमर के निस्तब्ध क्रंदन को देखकर सोचने लगी कि अब चुप रहने से नहीं चलेगा। इन लोगों को हिम्मत देनी होगी। वह तो हर समय बड़ी है। मगर उसने देखा कि विनि कुछ भी सुनने की हालत में नहीं है। वह काठ की प्रतिमूर्ति होकर बैठी हुई है और दीवार की तरफ देख रही है। जैसे कि उसका रोना-धोना खत्म हो गया है, सोचने की शक्ति खत्म हो गई हो, फिलहाल दुनिया की कोई भी बात सुनने के लिए वह राजी नहीं है। लड़की जितनी रोने वाली है, उतनी ही भावुक भी।

वीथी सो रही है। नाजुक होने की वजह से कुछ वजन नहीं उठा पाएगी। सिर्फ सज-धजकर बैठी रहेगी और बच्चों को जन्म देती रहेगी। छह बच्चें हो चुके हैं, और कितने होंगे? वीणा दुखी है कि आज के जमाने में भी वीथी इतनी भोली और गंवार है। फिर उसके दिमाग में आया कि विथि के पति निर्मल दिखने में खराब नहीं है, वीथी को कुछ ज्यादा ही प्यार करते हैं। शायद हर रात को ...छिः ! जीवन में और कुछ नहीं है?

छोड़ो, मेरा क्या जाता है ! वीणा ने वीथी के बारे में सोचना छोड़कर छोटे भाई की ओर देखने लगी। लड़का चिंता से आतुर है। वह मधुर स्वर में कहने लगी ...

“भ्रमर, जाओ थोड़ा सो जाओ। मैने मां की नाड़ी देख ली है, ठीक लग रही है।

“नहीं, ठीक है। मैं इस कुर्सी पर बैठा हूं। क्यों सब मेरे पीछे लगे हुए हैं? क्या ये सब ही मां के बच्चे हैं? केवल इन लोगों का ही मन दुखी है? ”

वीणा ने समझ लिया कि इस समय कोई दूसरी बात करना ही ठीक रहेगा। कुछ समय इंतजार करने के बाद वह कहने लगी-

“यदु काफी बूढ़ा हो गया है। बिल्कुल ही काम नहीं कर पा रहा है। मां अच्छी होने पर एक मजबूत आदमी खोजना पड़ेगा।

‘हूँ। ’ महापंडित की तरह बात कर रही है, जैसे उसे पता है, मां ठीक हो जाएगी।

“इतना बड़ा घर, आंगण, गाय-गुवाल। समानों की भी कोई कमी नहीं। जिन्हें संभालना क्या कोई सहज बात है? ”

“हूँ।”

वीणा अपनी बातों के भंवर जाल में फंसती चली गई। भ्रमर के अनास्था भाव को वह नहीं समझ पाई। “गांव की जमीन-जायदाद, आम के बगीचे, तीन-तीन बड़े मकान, कंपनी शेयर के अतिरिक्त कैश, कोई देखने वाला नहीं, तुम्हें ही सब देखने पडेंगे। अमर तो बाहर रह गया। तुझे ही सारा दायित्व लेना पड़ेगा।”

संपत्ति के प्राचुर्य और अपने प्रभुत्व को यादकर वीणा गदगद हो गई। उसके मन में ‘अहम’ भाव पैदा हो गया। यह काम भ्रमर के बस का नहीं, मुझे छोड़कर और कोई भी नहीं कर पाएगा। ट्रक के ट्रक घर में सामान पड़ा है। मंझोले घर की आलमारी खोलने से सारे सामान-पत्र गिर जाएंगे। कितनी मोटी-मोटी किताबें, किसी को भी बेचने पर पचास रूपए से कम नहीं मिलेंगे। फूलों से अंकित रेशम गलीचा घर की दीवार तक लंबा हो जाएगा। चांदी के बर्तन भी बहुत हैं। सिल्क साड़ियों की कमी नहीं है। इसके अलावा एकदम शुद्ध सोने के जेवरात। मूल वस्तु। वह सिर्फ मुझे पता है, और किसी को नहीं। मां ने सिर्फ मुझे ही बताया है। वीणा ने मन ही मन अपनी इस भावना को छुपा लिया, कहीं इस गुप्त बात का किसी को पता न लग जाए।

वीणा थक गई। बैंक बैलेंस, शेयर सर्टिफिकेट सभी को एक-एक कर मन में नहीं देख पाई। आत्मत्याग के समय जैसा कष्ट होता है, वैसा मन को कष्ट होने लगा।

“मेरा क्या है? भाई अगर संपत्ति को रख नहीं पाएंगे तो मैं क्या कर सकती हूं? ”

उसने मां के शरीर पर हाथ रखा। मां की हालत ठीक नहीं है। मां ने बहुत तकलीफ देखी है। मैं उनकी बड़ी बेटी हूं, इस घर की बड़ी दीदी। मां को अगर कुछ हो गया तो मुझे ही इस सारी संपत्ति की देखभाल करनी पड़ेगी, निश्चय ही करूंगी अपने घर के बच्चों का पीछे छोड़कर।

मगर भ्रमर क्या सोचेगा?

अकस्मात वीणा ने देखा कि भ्रमर चुपचाप नहीं बैठा है, उसे क्रोध आ रहा है। किसके ऊपर -अपने ऊपर? या मेरे ऊपर? क्यों, मैने ऐसा क्या किया, मैने उसे ऐसा क्या कहा?

क्रोध नहीं, नफरत। उसकी आंखों में नफरत है। वह मुझे प्यार नहीं करता है, उनमें से कोई भी मुझे प्यार नहीं करता है।

वे भी मुझे प्यार नहीं करते। मुझे पता है- वीथी को जैसे उसके पति प्यार करते हैं, हर पति अपनी पत्नी को वैसे ही प्यार करते हैं। इसका कारण यह है कि मैं काली, मोटी और बदसूरत हूँ। मैं मां की तरह ही दिखती हूं, मगर पिताजी क्या माँ को प्यार नहीं करते थे? तब? तब मैने ऐसी क्या गलती की है? जब मैं सितार सीख रही थी, मेरी उम्र सोलह साल थी। गोविन्द मास्टर घर पहुँचते ही मुझसे पानी मांगते थे... केवल पानी ही नहीं वरन कुछ और मांग रहे हो। मेरे समझने से पहले मां समझ गई, उसने प्यास बुझने नहीं दी। केवल गोविंद मास्टर ही नहीं, और बहुत लोग थे। मैं कह सकती थी, मगर मां....।

मुमूर्ष मां की कैफियत मांगने की तरह रास्ता काटकर चली जाने से पहले बुझेमन से वीणा ने सुनंदा देवी के चेहरे की तरफ देखा। मानो अपने जीवन की सारी नाराजगी को एक साथ बटोरकर अपनी जन्मदात्री को देख रही हो। इससे पहले उसे यह साहस और अधिकार नहीं मिला था। आज मौका मिला है पहली और आखिरी बार।

मगर कुछ समय के बाध उसका मन चिल्ला उठा- नहीं, नहीं, नहीं, माँ फिर से आंखें खोलेगी। मां बच जाए, मैं तो यहीं चाहती हूं। नहीं तो, जब मैं बूढ़ी हो जाऊंगी, वे लोग मुझे और ज्यादा नफरत करेंगे।

शायद वह मां को कसकर पकड़ लेती, या फिर क्षणिक आवेग में और कुछ कर देती, मगर इससे पूर्व ही एक अजीबोगरीब घटना घटित हुई। वीथी नींद में कुछ बुदबुदाते हुए वीणा के ऊपर गिर गई। उसके बाद जब उसके आंखें खोली, पागलों की तरह इधर-उधर देखने लगी और लंबी-लंबी सांसें लेने लगी जैसे भूत उतर गया हो।

“क्या हुआ? वीणा ने जोर से पूछा।

“नहीं, ऐसा कुछ नहीं, एक सपना देखा।”

वीणा ने सपने के बारे में नहीं पूछा। उसके दबे हुए होंठ उसकी वितृष्णा को जग जाहिर कर रहे थे. वीथी और उसका सपना। गोरी सुंदर लड़की और क्या सपना देख सकती है।

.. इसी बीच भ्रमर फिर से ऊपर बरामदे में जाकर धरती और आकाश कि और देखने लगा। फाटक के बाहर की दुनिया। वहां दूसरे लोग भी हैं। उनकी जिंदगी और मौत अलग-अलग है। फाटक के उस पार एक दूकान, वहां चाय बनाने वाला, सब्जी बेचने वाला, प्लास्टिक खिलौने रखने वाला, उनके लिए कोई पुरानी कोठी नहीं, मकान नहीं। बुजुर्ग मां बहिनें नहीं है। किसी भी प्रकार का कोई गर्व-घमंड नहीं। इसके पीछे बगीचा, उसके पीछे नदी के ऊपर रेलवे लाइन। धुंआ छोड़ती हुई ट्रेन दूर भागती जा रही है। कितने नए बाजार और बगीचों को पार करती हुई।

मैं चला जाऊँगा। भाग जाऊंगा। भाई सारी दुनिया घूम चुका हूँ। छोटी जाति में शादी की है। हर काम अपनी मनमर्जी से करता है। मैं भी कर सकता हूं। मुझे धन-माल की जरूरत नहीं है, मुझे ठेकेदारी नहीं करनी है। मुझे बहुत काम आते हैं। कुछ नहीं तो चित्र बनाकर पेट भर सकता हूं। मैं जिससे भी शादी करूंगा, वह कोमलांगी और पतली कमर वाली होगी। हरदम मुस्कराती रहेगी, अपने हाथों से मेरे लिए सुस्वादु रसोई बनाएगी, काम करते समय मेरे पास बैठकर मेरा चेहरा निहारती रहेगी।

धीरे-धीरे भ्रमर की इच्छाएं बलवती हो उठी और उन्हें पंख लगने लगे। क्योंकि आज की रात साधारण नहीं है। कुछ तो जरूर होगा। भविष्य की उन्मुक्त सांसें भूतकाल के पीछे से बाहर निकलने लगी मानो उसकी अनसुनी बंशी-वादन, स्थिर पवन और टिमटिमाते उजाले में खेलने की इच्छा हो रही हो। उन दिनों के कटने, फटने और फूटने के संकेत मिलने लगे। और देर नहीं।

... रात बीतने लगी है।

तरह-तरह के शब्द ध्वनित हो रहे हैं तरह-तरह के पेड़ पौधों से। अनेक मकान कुटीर एक-एककर दिखने लगे हैं। बड़ी चिड़ियां छोटी चिड़ियों को पुकार रही हैं। तारें सभी मिटने के छटपटा रहे हैं, उन्हें लुप्त होने में और समय नहीं लगेगा।

गुंजन कोलाहल होने लगा। दिन का उजाला होने से पहले अनोखा आनंद वातावरण में संचरित होने लगा. मंदिरों के धार्मिक भजन और गलियों में कुत्तों के मार खाने की कें कें आवाज सुनाई देने तक भ्रमर बाहर देखने लगा जैसे कि दिन उगने में और बाकी समय है। इंतजार खत्म नहीं हुआ - शुरुआत हो रही है, फिर से शुरुआत।

तभी बाहर का दरवाजा खुला और एक भद्र आदमी अपने हाथों में सूटकेस लिए एक तरूण स्त्री के साथ घर के अंदर प्रवेश करने लगा। पहले पहल भ्रमर को आगंतुक के पांवों की आहट अनुभव हुई। सुबह-सुबह आगंतुक।

फिर उनको देखकर जोर से चिल्ला उठा, “अरे... भईया !” भाई आया है। अमर आया है। सुनंदा देवी का परिवार पूरा हो गया। यदु के साथ नौकरों ने छोटे बाबू को भीतर लाया, उनके हाथ से सूटकेस ले लिया। भ्रमर के साथ उसकी सारी बहिनों ने बरामदे में खड़े होकर हंसते हुए उनका स्वागत किया।

अमर का गांभीर्य कम हो गया, मस्तिष्क की सलवटें ठीक हो गई। इसका मतलब मां जिंदा है, सुषमा के प्रफुल्लित चेहरे पर हंसी की लहर दिखाई देने लगी।

विनि उस अभ्यर्थना मंडली से खिसककर अकेली मां के पास आकर मन ही मन कहने लगी -“बड़े भईया आ गए हैं। तू अब जिंदा हो जाएगी ना? तू तो उनका इंतजार कर रही थी ना। लेकिन, लेकिन तू क्या भैया को देखने के लिए इंतजार कर रही थी। आंखेँ खोलकर देख लेना फिर उसके बाद तुम्हारा काम हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा? ”

नहीं ! ऐसा नहीं होगा, ऐसा होने नहीं देंगे। विनि मां के मुंह की तरफ देखने लगी और कुछ लक्षण देखकर दुखी हो गई।

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अमर दिखने में अच्छा है। उसका गोरा चेहरा, उभरे हुए होठ, चंचल आंखें उम्र से कम प्रतीत होती है। सुषमा दिखने में सुंदर, श्यामल चिकना चेहरा, बड़ी नाक, चेहरे पर सदैव मुस्कान और गंभीर दृष्टि से उसकी उम्र का पता नहीं चलता है। दोनों की जोड़ी सुंदर है, दूसरे लोगों की नजर में आ जाती है।

अमर ने कई सवाल पूछे। उसके तरह-तरह के सवाल और जबाव से ऐसा लगता था कि मुख्यत “मैं आ गया हूँ।” इसी घटना पर प्रकाश जालने की चेष्टा कर रहा है।

“कौन डॉक्टर देख रहा है? रात को नर्स रहती है या नहीं? बिना मतलब लोगों की भीड़ मत करो। वीणा दीदी कब तक रहेगी? वीथी के सारे बच्चें आए हैं न? (हँसते हुए).. कार्डियोग्राम हुआ है? मैन वहां के बड़े डॉक्टर कर्नल गुन्ना के साथ बात की थी। ... बेचारी विनि सूखकर काली हो गई है, उसकी आंखेँ (रो-रोकर फूल गई है)। डरने की कोई बात नहीं है, मेरा पूरा विश्वास है, मैने पन्द्रह दिन की छुट्टी ली है, जरूरत पड़ने पर और छुट्टी ले लूंगा... ब्लड-रिपोर्ट में क्या निकला है? भ्रमर कहां चला गया? यहीं पर तो था अभी... इत्यादि।

शायद मां की शांति में व्यवधान पड़ेगा, यह सोचकर अमर दबे पांवों मां के सोने वाले कमरे के भीतर गया, कुछ देर तक सोई हुई अचेत स्त्री के चेहरे की तरफ देखता रहा और फिर संतुष्ट होकर बाहर लौट आया।

अचानक याद आने की तरह सुषमा को खोजने लगा, “सुषमा ! सुषमा कहाँ गई? उसका दवाई लेने का समय हो गया है। ऐ विनि, भाभी कहां गई, जरा देख तो? उसे दवाई लेने के लिए कह दे, काफी देर हो गई है।”

बहिनों के आश्चर्य और शंका का समाधान करने के लिए संक्षिप्त में कहने लगा - “आजकल उसकी तबीयत ठीक नहीं रहती है, बिल्कुल ठीक नहीं रहती है।”

मगर विनि ने जब भाभी को यह बात कही तो उसे लगा कि वह बीमार नहीं है और ना ही बीमार पड़ेगी। देखिए न, किस तरह वह बिल्ली को सलहा रही है। वास्तव में बिल्ली का भगवान समय का भगवान है। उन्हें किसी भी हालत में रोग-बीमारी नहीं हो सकती है।

अनंतकाल के अधिकारी की तरह पता चलने पर सुषमा ने स्वेच्छा से बिल्ली को प्यार करना बंद कर दिया और जल्दी ही कपड़े बदलकर सुनंदा देवी के पास चली गई। चिकित्सा की सारी व्यवस्था को समझ लेने के बाद पहनी हुई सफेद सिल्क साड़ी ने आंचल को कमर में ठूंस दिया। एक चिरपरिचित यात्री की तरह वीणा ने वीथी को कहा- “तुम सब जाओ, कामधाम खत्म कर लो, मैं यहां हूं।”

रात की तुलना में दिन इतना अलग क्यों होता है? कल रात को यही घर आत्मगौरव से सिर उठा रहा था. यहां के लोग उत्तम गुणों से भरे होने के कारण मनुष्य लग रहे थे। यहां सुनंदा देवी मरने के लिए नहीं बैठी है, वरन मरणयज्ञ चल रहा हो, ऐसा लग रहा था. इसी समय वे सब असंख्य लोगों की दिख रहे थे। जैसे शाल के एक पेड़ पर अनामधेय चिड़ियों का दल इसडाली से उस डाली पर चूं-चूं करते हुए पंख फड़फड़ा रही है। उनमें से कौन जिंदा है, कौन मर गया है उसका हिसाब रखते हुए।

मगर इस निवास का कुछ महत्व नहीं? दृष्टि घुमाने से पता नहीं कितने सफेद रंग के मकान, पीले रंग के मकान लंबे और ऊंचे मकान नजर आएंगे। ‘सुनंदा निवास’ के पिछली दीवार पर काई बना हुआ है। दीवार के पास काले रंग के बाज की तरह नाला आवाज करते हुए बह रहा है, नाले के किनारे गरीब लोग रहने लगे हैं, दूसरे मकानों के चारों तरफ भी वह दृश्य नजर आने लगता है। क्योंकि यह शहर बहुत पुराना है और यहां बड़े बड़े लोग बुजुर्ग हैं, तो फिर उनके मकान पुराने कैसे नहीं दिखेंगे? इतने बड़े-बड़े आंगन, इतने सारे कमरे (बैठक कक्षको मिलाकर अठारह), चिकना फर्श एवं मकड़ी के जालों लोहे के पाइप और कड़ी के अलावा कहां होंगे? और --गौरेया चिडियां शमन कक्ष के दर्पण में मुंह देखकर चपल खेल खेल रहे हैं। यहां अतीत की आत्मा नहीं रो रही है, हड्डियों की माला दिखाकर जोर-जोर से हंस रही हैं। स्वयं सुनंदा देवी ने उसे पाल पोषकर रखा है, उड़कर जाने नहीं दे रही है। इधर देखिए, अमर की सातवीं कक्षा के इतिहास के नोट्स एक टेबल पर पुराने कागजों के ढेर पर रखे हुए हैं। मास्टरजी के लाल पेंसिल के निशान अभी तक साफ दिख रहे हैं। कहीं पर भ्रमर की फटी हुई फुटबाल का ब्लेंडर दिख रहा है तो कहीं पर वीणा की संगीत-शिक्षा का परिचय प्राप्त हो रहा है। (वह एक दिन संगीत सीख रही थी, मां के कहने पर उसने अधूरा छोड़ दिया)। यही ही नहीं, कहीं पर वीथी के विवाह के कागज तो कहीं पर विनि का कांच का डिब्बा।

प्रश्न उठता है-- जय नारायण बाबू कहां है? पूजाघर में उनकी तस्वीर लटकी हुई है। बस, और कहीं पर कुछ नहीं। क्या वे इस घर के पिताजी नहीं थे? सुनंदा देवी के साथ उनकी शादी नहीं हुई थी। इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है, मानों सुनंदा देवी ने उन्हें अपने भीतर छुपाकर रखा है।

... दिन के दस बज गए हैं।

इस समय देखा गया है कि बुजुर्ग नौकर यदु रसोई घर के बरामदे में बैठकर नीचे से ऊपर तक देख रहा है। मुंह अधखुला है, नजरें झुकी हुई है। क्योंकि सुषमा परदेशी है। किस मुद्रा में खड़ी है।

सुषमा की नजरों में जरूर विनय भाव नहीं था, मगर ध्यानपूर्वक देखने से पता चलेगा कि उसकी नजरों में दुख छुपा हुआ था। मानो उसे अपने आप पर अटल विश्वास है कि वह कर सकेगी, मगर यह घर उसे अपना नहीं समझता। कुछ ही समय हुआ है कि वह सास के पास से उठकर आई है, विश्राम करने के बहाने क्यों आई है? किसने मना किया? बुढ़िया की कठोर दृष्टि हीनता ने? (तू नहीं, तू नहीं, तुम मेरे बेटे की पत्नी हो।) वीणा दीदी की उदास भावना? (मैं तुमसे नफरत नहीं करती हूं, मार-पीट नहीं करती हूं, मेरा वह समय पार हो चुका है।)... विनि का त्रस्त हरिणी के भाव? (इस घर में तुम एकदम नई हो, ज्यादा काम करती हो और सुंदर भी हो। कुछ उलटापुलटा करके तोड़ फोड़कर भाग तो नहीं जाओगी? ) ... नहीं और कुछ? सुषमा आंगन के बीच लगे बेर पेड़ को देखती रही और अपनी उपस्थिति को दर्ज करने का प्रयास करने लगी।

वीणा सुबह के सारे नित्यकर्मों से निवृत होकर मां के सिरहाने के पास अपनी पहली वाली जगह पर बैठ गई। वह भगवत गीता का जल्दी-जल्दी पाठ करने लगी। आखिरकार इस दूसरे अभ्यास को तो कम से कम पूरा करना होगा। डॉक्टर के कहने का क्या भरोसा? कौन जानता है?

वीथी सुबह से मां के पास नहीं गई है। बच्चों के काम खत्म कर आएगी, सोचकर अभी तक नहीं गई है, बल्कि अपने तीसरे बेटे बिट्टु को अकारण तीन बार बुलाकर गले लगाई, शर्ट के बटन बंद की, भूख लगी या नहीं, कहकर पूछने लगी। अभी मां के पास जाने से पहले फिर एक बार बेटे को बुलाकर पुचकारने लगी। दुखी होकर सिर से लगाकर पांव तक प्यार करते करते कहने लगी, “तू मेरा बेटा है, केवल मेरा बेटा है। मुझे कहीं छोड़कर मत जाना।”

बाद में अपना मुंह निकालकर बेटे की आंखों में आंखें डालकर कहने लगी - “तू खेल, मैं बुलाऊंगी तब आना, नानी के घर में मत जाना, समझे? याद रखाना। मेरे सोना बेटे।”

बेटा हाँ-हाँ कहते चला गया। मगर वीथी उठकर नहीं जा पाई। अपने हृदय में उठ रहे स्पंदन को तसल्ली देने लगी - “मैं क्या करूं? मैंने ऐसा सपना क्यों देखा? कल रात का वह भयंकर सपना फिर याद आने लगा और देख नहीं पाऊँगी सोचकर अपने चेहरे को हाथों से ढक लिया।

... मां बिट्टू को मांग रही है। कह रही है, मैं तुम्हारे इसी बेटे को लूंगी। ऐसा कहकर जोर-जोर से हंसने लगी। मां-मां की तरह नहीं दिख रही थी। मर जाने के बाद आदमी जैसा जिंदा होकर दिखता है, वैसा दिख रही थी जैसे डाकिनी बन गई हो। झूठ से जैसे सत्य निकल आता है... वीथी उन्हीं यादों में से बाहर निकली। आग लगे उस अशुभ सपने को। मेरी मां वैसी नहीं है। उसके बाद वह धीरे-धीरे ऊपर घर की तरफ गई जहाँ, मां सोई हुई थी।

अमर ने स्नान करने के बाद पुराने ट्रंक में से अपनी धोती निकालकर पहन ली और पूजाघर में भगवान से प्रार्थना करने लगा - “भगवान ! मेरी मां को बचा लो। मेरे से जितना दूर रहती है, फिर भी वह मेरी मां है। उसको मुझसे मत छीनो।”

प्रार्थना करते-करते वह बार-बार आंखें खोलने के लिए विवश होता है क्योंकि उसकी निर्मिलित आंखों के अंधेरे के भीतर वह मूर्तिवत दिखाई दे रही है। सुषमा अपने पति की ओर देख रही है। मैं नहीं देखूंगी तो क्या तुम गलत कर दोगे, नहीं न? अमर उसके प्रेम के पहरे को स्वीकार नहीं कर पा रहा है, इसलिए आंखें खोलकर बारबार उस दृश्य का खंडन कर रहा है। सुषमा कौन? वह मेरी पत्नी हो सकती है, प्रेमिका हो सकती है, मगर वह हमारे घर की नहीं है। वह हम मां-बेटे के बीच नहीं है। उसे रहना भी नहीं चाहिए। असल में मुझे पहले से आ जाना चाहिए था। ऐसी बात भी नहीं है कि केवल सुषमा के कारण आने में विलम्ब हुआ। मुझे पता था मेरे आने तक मां को कुछ भी नहीं होगा। मेरे मन का विश्वास। अमर विश्वास। अमर ने पूजाघर में आनेवाली स्त्री को बाहर निकाल दिया, मगर उसे निकाल देने के पुरुषार्थ ने उसकी प्रार्थना में खलल डाल दिया। शक्ति प्रयोग के एक नजदीकी इतिहास ने उसकी चेतना पर धावा बोल दिया।

तिन-चार दिन पहले की बात। उस दिन घर से तार आया था। उस रात में न कोई कामना थी, न कोई क्रोध का आवेश। मैने सुषमा के शरीर का मनवांछित उपयोग किया। कुछ ज्यादा ही किया। उसकी बात को भी नहीं सुना। मृत्यु की दीवार को भी नहीं माना। पता चल गया था कि...। अमर और प्रार्थना नहीं कर पाया। सोचने लगा कि आज अनिद्रा और दुःचिंता की वजह से सिर भारी है। मगर जाने समय उसे याद आ गई उस क्रोधाविष्ट रात की अंतिम अनुभूति। नतीजन ग्लानि से वह हार गया, अपने आप को खत्म कर दिया और वे जीत गए- सुषमा, मां, नारी। हमेशा से जीतती आ रही है।

विनि एक छोटे कमरे में, जिसे आचार घर कहते हैं, अकेली बैठकर आचार हांडी के साथ काल्पनिक खेल खेल रही है। अगर किसी ने पत्थर मारकर हांडी तोड़ दी तो उसमें से क्या निकलेगा? आम का आचार या बैर का? आम निकला तो मां ठीक हो जाएगी और अगर बैर निकला तो...? मैं क्या बच्ची हूं? भगवान क्या सोचेंगे?

भ्रमर अपने शयनकक्ष में हाथ पैर फैलाकर सोया है, जैसे कि आज के इस अनावश्यक दिन उठने के लिए वह राजी नहीं है। जरूरत पड़ने पर या रात होने पर वह उठेगा। सोने के कारण उसके चेहरे की खासियत- उसकी बड़ी-बड़ी आंखों की गहराई और आवेश ढक कर रह गया।

परिवार वालों की इन्हीं भावनाओं के मोड़पर आशा की किरण जगी। सुनंदा देवी का एक हाथ थोड़ा मुड़ा।

वीणा ने देखा, फिर देखने के लिए इंतजार करने लगी, मगर कुछ समय बाद वीथी, आगंतुक मौसा महीबाबू, कमला दीदी और पास में खड़े कई लोगों ने नए-नए लक्षण देखे। देखकर फुसफुसाने लगे- “मुझे लग रहा है सांस बदल रही है, देखिए न होठ भी थोड़े थर्रा रहे हैं। ग्लूकोज पानी चम्मच से मुंह में डालेंगे? ... और सबी बच्चों को बुला देंगे। इत्यादि।

सुनंदा देवी इंतजार करने लगी। लगभग दो घंटे के बाद उसने आंखें खोली मानो नींद से जाग रही हो। उपस्थित लोगों को पहचानने जैसे देखने लगी और उसके बाद हाथ ठंडे पड़ने लगे। ग्लूकोज पानी? भगवत गीता? वीथी के हाथों में शोभायमान आठपटिया चूड़ियां? कई बार ऐसा लग रहा था जैसे पैरों के पास खड़ी सुषमा को पहचान रही हो और उसके सारे सत्यों को जानना चाह रही हो। सुषमा के कुछ कहने से पहले ही वीथी और वीणा एक साथ कह उठी- “मां, भाई आ गया है।”

फिर भी उन जागी हुई आंखों और रेखान्वित होठों पर मुस्कराहट दिखाई नहीं पड़ी। मन ही मन विचार करते उसने आंखें फिर से बंद कर ली।

सुषमा के मन में एक अजीबोगरीब ख्याल आया। उसे लग रहा था उसके पुराने शरीर की खिड़कियां खुल चुकी है। वह मरेगी या बचेगी, यह दूसरी बात है, क्योंकि उसका जीवन प्राणगत नहीं था, बल्कि पदार्थगत था। सूखी लकड़ी या निरस पेड़-पौधे, कभी नहीं, कभी नहीं।

अच्छी खबर पाकर अमर मां के घर दौड़ा चला आया। बाकी सब किनारे हो गए। अमर उन बंद आंखों के पास जाकर टूटी-फूटी भाषा में भाव-विह्वल होकर कहने लगा- “मा-आ !”

सुनंदा ने कहना शुरु किया- “सुषमा आई है। उसे देखा नहीं? कह रही थी, जैसे भी होगा, मैं वहां जाऊंगी, देर होने पर भी जाऊंगी... टोनी (बच्चे) को छोड़कर आई है... क्योंकि उसकी पढ़ाई-लिखाई मतलब परीक्षा... पंद्रह दिन की छुट्टी लेकर आया हूं, जरूरत पड़ने पर और लूंगा।”

सुनंदा देवी मानो कुछ भी नहीं सुन रही हो। मगर ऐसा लग रहा था जैसे उसे समझ में आ रहा है। उसके अपने फैलाए हुए जीवन सूत्र को यत्नपूर्वक पकड़कर रखी हो, एक बार देखकर छोड़ देगी या पकड़कर रखेगी।

अमर चुप हो गया था। दूसरे लोगों की नई बात छेड़ने से पहले विनि जोर से कहने लगी, “मैं कह रही थी न बड़ी भाभी को देखते ही मां अच्छी हो जाएगी? ” सुनंदा देवी न तो हंसी और न ही उसके मुख से कुछ शब्द निकले। धीरे-धीरे समय बीतता गया। पूर्वराग को रास्ता दिखाने में बड़ी मशक्कत करनी पड़ी थी। कमला दीदी ने सिर पर थपकी देते हए कहा- “कितना कष्ट हो रहा है? मैं तो उस दिन से ही भ्रमर को कह रही थी कि मां को तीर्थ करवा दो, देश-परदेश घूमना भी हो जाएगा। इस घर में पड़े-पड़े बोर हो रही है। मौसा महीबाबू ने उसके तकिए के नीचे पड़े कुचले फूल को देखकर अपने बगीचे से अच्छे-अच्छे चंपा के फूल लाने को कहा, मगर किसी ने भी नहीं सुना। सुनंदा देवी आगे नहीं हुई, फिर याद आया कि वह नहीं बैठ पाएगी. धीरे-धीरे दृष्टि बोझिल होने लगी, अंग-प्रत्यंग शिथिल होने लगे। वीणा बारबार नाड़ी देखकर मुंह उतार रही थी। अमर वीणा के पीछे खड़ा होकर अधीर होकर देख रहा था।

डॉक्टर फिर से आए। गुस्सा जाहिर करने के बाद एक और इंजेक्शन लगाया।

स्पेशियलिस्ट बीच में आकर कई सारगर्भित परामर्श देकर चले गए। बाकी लोगों की भीड़ को बाहर जाने के लिए कहा, मगर बेहोशी की हालात में होने की वजह से सुनंदा देवी ने फिर से आंखें मूंद ली। जानने सुनने वालों ने कहा- “यह अंतिम अवस्था है, इससे कोई नहीं बच सकता है।”

‘सुनंदा निवास’ सांझ के अंधेरों से घिरने लगा। घर में रहने वालों ने आज और एक रात का दायित्व ग्रहण किया और अपने अपने काम में लग गए। कल की तरह नहीं। कल आलोड़न था, हृदय की धकधक, अस्थिरता। आज छाती दब गई है, कुछ धकधक नहीं है, आलोड़न थम गया है। धीरे-धीरे रोने की इच्छा हो रही है। प्रकृति के विकराल नियम ट्रेजड़ी को स्वीकार कर सोचने पर विवश हैं - ये तो होना ही था !

क्योंकि मां मर रही है, इसमें कोई दो राय नहीं है। आधी रात को सब बुदबुदाहट खत्म हो गई। विनि की बात छोड़ दीजिए, बाकी सभी एकांत सेवन कर रहे थे। कुछ समय के उपरांत किसी ने दीर्घ सांस ली - “छोड़ो। काम खत्म हो गया है।”

अचानक सुषमा की सूर्य को पुकारने की इच्छा हुई। उज्ज्वल सूर्य ऐसी रात में कहां से आते। अपने तेज प्रकाश से धुंधले अंधकार को चीर देते। अंधकार काला वाला नहीं बल्कि कुत्सित धुंधलका। जैसे कि कई पुराने झूठे संस्कार सच के साथ मिल जाते हैं, मौत की रात अंधेरे को कोहरा बना देती है। सुषमा को याद हो आया कि जब वह सुबह बैर के पेड़ को देख रही थी, तब वह इस संसार के बारे में नहीं सोच पा रही थी। कुछ नहीं कर पा रही थी, इसलिए दुखी हो रही थी। हाय ! कुछ नहीं कर पाने का सवाल ही नहीं उठता। वे सब इस अश्लील धुंधलके में ढक कर बैठ गए हैं, एक के बाद एक। बिस्तर की गरमी खींच रहे हैं। इनको छूने से नहीं होगा .... असंभव।

मगर वास्तव में वे क्या सुखी हैं? वीणा के चेहरे पर दुख के भाव उभरे मानो एक अच्छा पहाड़ बनाने के चक्कर में वह पत्थर का एक टुकड़ा बन गई है। वीथी के संदेह की वजह, मानो उसने अपने छाती के अंदर विपुल धनराशि छुपा रखी हो, सोच रही थी कि कोई लेकर भाग जाएगा, विनि का भय, वह बचने को डर रहही है न मरने को? भ्रमर की नींद से बोझिल आंकें। वह पूरे दिन कहां था? सोया था या उजाले के पीछे छुप गया था...? और ये अमर बाबू, मेरे पति, अकेले मुझे देखर नीचे मुहं क्यों छुका लेते हैं?

तभी याद आ गया उसे कई साल पुराना कॉफी हाऊस और वह शाम। पहली प्रणय-याचना। उस दिन साथ में और कोई नहीं था। कॉफि और कटलेट के व्यवधान में अचानक प्रणय दिखाई देने लगा। सुषमा के मन में होने लगा कि इस आदमी से प्यार करना उचित है, शादी करना भी ठीक रहेगा। उसकी समाज-सेवा के अन्यतम कर्तव्य। एक भीरू छात्र के भरोसे की तरह अमर बाबू डर-डर कर पूछने लगा- “मिस रॉय एक बात कह सकता हूँ? ”

करुणा भरी विनती ने मेरा शून्य स्थान भर लिया। मगर केवल कौन उस समय था? सुषमा की धारण हुई कि उसने अपनी भूल स्वीकार कर ली है। प्रेमी अमर की व्याकुल दृष्टि में अस्वस्थता और दोष के भाव निहित थ। अगर मेरा दोष है तो मुझे सजा दो, चाबुक से मारो ! नहीं, इस तरह दुखी मत होओ, सुखी नहीं हो पाओगे। श्रद्धा को तलवार की धार से तोड़कर एक अनुचित भावना सुषमा के मन में घर कर गई- “बूढ़ी अगर मरेगी तो मर क्यों नहीं जाती? ” सुषमा अपने आपको संभालते समय पास में से किसी की आवाज सुनाई पड़ी -

”वह वापिस वहां चली गई है? ”

“कौन? ” सुषमा ने पीछे मुड़कर देखा तो भ्रमर दिखाई पड़ा। वह आंगन की तरफ देख रहा था और अपने आप से कहता जा रहा था- “विनि, जो कल जा रही थी। आज भी जा रही है। बार-बार जा रही है।”

भ्रमर ने हांफते हुए कहा। सुषमा ने अचरज की निगाहों से देवर की तरफ देखा।

कुछ समय बाद सुषमा को समझ में आ गया कि आंगन के दायी ओर भंडार कक्ष के पास जो छोटा कमरा बना है, विनि वहां जा रही है। वह पूजाघर है। उसकी विशेषता किसी से भी छुपी हुई नहीं है। उसने अपने पति से सुन रखा था कि वहां कोटि-कोटि देवी-देवता निवास करते हैं। बीच में पिताजी का फोटो भी टंगा हुआ है, इसलिए परिवार के हर एक आदमी को दिन में कम से कम एक बार वहां जरूर जाना चाहिए।

भ्रमर की बातों से पता चलता है कि विनि वहां बार-बार जाती है, इसका मतलब वह भगवान का साथ नहीं छोड़ाना चाहती। सती सावित्री की तरह भगवान को आराम से नहीं रहने देना चाहती। भगवान से वरदान मांगती है कि मेरी मां को बचा दो।

सुषमा लज्जित हो गई। कितना अदभुत सरल विश्वास है उसका ! अनविरल स्नेह के झरने का असामान्य अध्यवसाय !! जिस घर में विनि है, वहीं भगवान का घर है। जिसके दिल में प्रेम का दीया जल रहा हो, ऐसे इंसान को मैने हीन दृष्टि से देखा? फिर बुढ़िया को लेकर इतनी नीच भावना !

पश्चाताप के आवेग में सुषमा ने अपने दोनों हाथ जोड़ दिए। छोटे घर के भीतर थी विनि और उसके भगवान। अपमानित वृद्धा सासु समेत सभी के प्रति एक गंभीर श्रद्धा उसके चेहरे पर झलकने लगी।

भाभी के अनुकरण करते हुए भ्रमर ने भी हाथ जोड़ दिए। कल सुबह से ही उसका दिमाग काम नहीं कर रहा था, उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। उसे यह प्रीती अच्छी लग रही थी। मेरा भी उसमें कुछ योगदान है, स्वीकार करते हुए अपने आपको तसल्ली दे रहा था।

विनि की असाधारण प्रक्रिया बढ़ती जा रही थी, इसलिए धीरे-धीरे सब जानने लगे। रात के अंतिम प्रहर में पूजाघर के अंदर से उसकी रोने की आवाज सुनाई दी, बाहर की दीवार पर सिर पीटते नजर आई। यह दृश्य देखकर यदु ने करुणा भरे स्वर में कहा -“छोटी दीदी, रोने से क्या होगा? जो किस्मत को मंजूर है, वही होगा।”

विनि उसकी तरफ देखकर रोते-रोते पूछने लगी - “तू क्या कह रहा है? मां, सच में मर जाएगी?” यदु विश्वस्त होने की तरह नजरें नीची करके चला गया। मगर परिवार वाले उसके इस अंदाज को देखकर न तो विचलित हुए और न ही मुस्कराए। सुषमा उत्तरोत्तर मुग्ध होती गई। भ्रमर ने फिर अनेक बार मन ही मन भगवान को प्रणाम किया। वीणा और मन लगाकर ऊंचे स्वर में भागवत गीता पढ़ने लगी। वीथी नहीं सोई, मां को दुलार करने लगी। अमर के हावभाव गंभीर हो गए।

कहने से सभी विनि को प्यार करने लगे। मानो विनि शोक समग्र विषाद को परिचित करवा रही है। एक परिवार में, एक मां। मां लौटकर नहीं आएगी, दुख दूर नहीं होगा। विनि रो रही है, रोने दो। भगवान को पुकार रही है, पुकारने दो।

रात समाप्त होते-होते यह विषाद अचानक शांति में बदल गया। डॉक्टर महोदय पहुंचकर प्रसन्न भाव में कहने लगे- “लक्षण अच्छे लग रहे हैं।” फिर !!!

यह डॉक्टर है या जादूगर? करतब दिखा रहा है? सुषमा ने विनित भाव से अंग्रेजी में पूछा- “डॉक्टर, आर यू स्योर ? ” बाकी सब घूर-घूरकर डॉक्टर की ओर देखने लगे।

मगर विनि बिना किसी का इंतजार किए खुशी से हंसने लगी। बच्चों की तरह खिलखिलाकर हंसने लगी। ऐसा लग रहा था जैसे वह इसी वक्त तालियां पीट-पीटकर झूमने नाचने लगेगी।

हर बात की एक सीमा होती है। स्वयं डॉक्टर ने संदेहभरी दृष्टि से विनि की ओर देखा तथा सोचने लगे कि शायद वह इस घर की बच्ची है। एक हफ्ते बाद। विनि और पूजाघर का एक और दृश्य। भोर के नरम उजाले में सभी देवी-देवता अत्यधिक दयालु और अपनापन लिए दिखाई दे रहे हैं। चंपा और गंगाशिवली के फूलों की खुशबू आ रही है। विनि कृतज्ञतापूर्वक गद्गद् होकर भगवान से बत कर रही है।

ऊपरी मंजिल के मंझोले कमरे में मनपसंदीदा खरीदा हुआ नाश्ता थाली भरकर रखा हुआ है। सुषमा समेत सारे भाई-बहिन इंतजार कर रहे हैं। विनि के आने पर सभी एक साथ बैठकर खाएंगे। मां के ठीक हो जाने की खुशी में उत्सव मनाया जाएगा। विनि का इंतजार हो रहा है। वह गप लगा रही है - “भगवान ! तुम्हें कोटि-कोटि प्रणाम। तुमने मेरी प्रार्थना सुनी और मां की रक्षा की। मैं भी कितनी बेवकूफ? मैं सोच रही थी जैसे मां हमें छोड़कर चली जाएगी? मां हमें डरा रही थी। वह तो उसकी पुरानी आदत है।”

हम उसे मरने नहीं देते। उसके बिना हमारा कौन है? क्या है? उसने हमें सोख लिया है। अपनी सारी आशा-आकांक्षाओं की बलि देकर हमारे लिए खुशी लाई है। मां जानती है किसका कैसे मंगल होगा, उसे सब पता है। उसने पिताजी को जल्दी मरने के लिए कहा (अपने हाथों से मारने पर क्या ज्यादा होता? ) क्योंकि ज्यादा दिन जिंदा रहते तो सुखी होते... उनकी इच्छा थी कि बड़ी दीदी खूब धन कमाएं। उसके अलावा और कुछ नहीं सुहाता था। बड़ी दीदी एक दिन सितार बनाना सीख रही थी संगीत से प्रेम हो जाएगा, कौन कह सकता था? उनकी इच्छा थी कि वीथी दीदी एक सुंदर लंपट पति के बच्चे पैदा करे, और पैदा करती जाए। वीथी दीदी और किस चीज के योग्य थी? उसने बड़े भैया पर अधिकार करना चाहा, एक तरफ बांधकर बैठ गई थी। बड़े भैया पापा की तरह दिखने के लिए। उसने भ्रमर भैया के सपनों को दबा दिया, यहां नाक रगड़ते रहने को कहा। बेचारा, सपने लेकर क्या करता?

उसके प्यार के चुंगल से कोई भी नहीं बच पाया। बड़े भैया ने कोशिश की थी। अस्त-व्यस्त होकर आकाश में कूदे थे। कूद पाए?

कितनी बार उसने अपने आपको पूछा- “और मैं”? ऐसा लग रहा था जैसे यह अंतिम सवाल हो। बाद में जोड़ते हुए कहा- “मैं कौन? मैं सबसे छोटी। रोने-धोने वाली डरपोक। मुझसे क्या छीनकर ले गए हो? क्या, याद नहीं आ रहे हो? ”

विनि अपने आप से झूठ नहीं बोल पाई। देवी देवता मधुर-मधुर मुस्कराने लगे. मुरलीधर तिरछी नजर से देख रहे हैं। विष्णु वरदान दे रहे हैं। भोलेनाथ आधी आंखें खोले आशीर्वाद दे रहे हैं। विनि को साहस आ गया, सोचने लगी कि वे सब उसके साथ हैं। वहां रखे खूब सारे फोटो में से एक फोटो उसने लिया जैसे खींचकर निकाला हो। पापा का फोटो। उस फोटो को वह अपने सीने से लगाकर चूमने लगी।

वह मां को बिना सुलाए नहीं रह पाई। मां, तुम क्या सोच रही हो कि मरने पर देवताओं के फोटो बन बन जाते हैं? यहां आसन लगाकर मेरी तरह देखती? वास्तव में?

बाहर आकर उसने ऊपरी मंजिल पर जाकर देखा कि सारे लोग उसका इंतजार कर रहे हैं, मगर बड़े भैया एक गरम आलुचाप या और कुछ में रखकर “बढ़िया है, बढ़िया है !” कहकर चिल्ला रहे थे। विनि को देखते ही बोले, “अरे ! अब तक कहां थी? मैं और अपने को नहीं रोक पाया...। और कुछ खाने से मुंह जलने पर मुंह बिगाड़ते हुए)... मां तो ठीक हो गई है, फिर भगवान को इतना क्यों पुकार रही थी? ”

सभी के हंसने की ध्वनि।

सुनंदा देवी बिस्तर पर बैठी हुई थी। उसके चेहरे की चमक देखने से पता चल रहा था कि आखिर वह और सौ साल जिएगी।