पूज्य निरालाजी / शिवपूजन सहाय
विवेकानन्द-सोसाइटी (कलकत्ता) से जब हिन्दी ‘समन्वय’ निकलने का निश्चय हुआ तब उसके योग्य एक सम्पादक की खोज में सोसाइटी के विद्वान सन्यासी स्वामी माधवानन्द सीधे आचार्य द्विवेदीजी के पास पहुंचे। द्विवेदीजी ने ही निरालाजी को चुनकर सोसाइटी में भेजा।
कहते हैं, महात्मा गाँधी ने नेहरू-सा नगीना चुना था। महापुरुष सचमुच सच्चे पारखी होते हैं। द्विवेदीजी ने निराला-सा नगीना परखा। प्रतिमा की जो परख उन्होंने की, उसका लोहा कीन न मानेगा? निरालाजी को पाकर सोसाइटी धन्य हुई। स्वामी माधवानन्दजी के सामने ज्यों-ज्यों निरालाजी का जौहर खुलता गया, त्यों-त्यों वह द्विवेदीजी की सौंपी हुई थाती को अनमोल रतन की तरह जुगाने लगे।
‘मतवाला’-मण्डल के मकान में ही उक्त सोसाइटी भी थी। मैंने स्वयं देखा था कि स्वामीजी बराबर निरालीजी की सेवा और सुख-सुविधा का ध्यान रखते थे। यहाँ तक कि वे सदा निरालाजी का मुँह जोहते रहते थे। निरालाजी का शील-सौजन्य ही ऐसा था कि एक बार जिसने उस पारस को परसा वह सोना होकर रहा। ‘मतवाला’-सम्पादक श्री महादेव प्रसाद सेठ का जब सम्पर्क हुआ, तब ये निरालाजी के हाथों बिक-से गये। उनके समान निराला-भक्त आज तक कोई हुआ ही नहीं। यदि वे जीवित रहते तो निरालाजी को कभी कोई विक्षिप्त नहीं कहने पाता।
सोसाइटी के अन्य संन्यासी लोग भी निरालाजी का बड़ा सम्मान करते थे। वे सभी बंगाली थे और बंगला भाषा तो निरालाजी के लिए मातृभाषा के समान ही थी। उन विद्वान संन्यासियों के साथ दार्शनिक बातचीत में निरालाजी ही वजनदार निकलते थे। स्वामी वीरेश्वरानन्दजी ने एक बार उनकी विलक्षण तर्क-शक्ति पर विस्मित होकर कहा था ‘‘एमन की मानवेर मेधा?’’
‘मतवाला’-सम्पादक सेठजी कभी-कभी कोई बात छेड़कर बहस का मजा लेने के लिए मुंशी नवजादिकलाल श्रीवास्तव और निरालाजी को भिड़ा देते थे। मुंशीजी तो सचमुच मुंशी थे, मगर निरालाजी की सरस्वती जब मुखर होती थी तब उस विवाद का दृश्य देखने योग्य होता था। निरालाजी को मुंशीजी भी इसीलिए उत्तेजित करते जाते थे कि अधिक-से-अधिक उनकी वाग्विदग्धता का आनन्द लिया जा सके। निरालाजी की तार्किकता की तारीफ यह थी कि उसमें कहीं से असंयम नहीं आ पाता था। उनकी स्मृति-शक्ति और युक्तियुक्त बात का कायल होना ही पड़ता था।
‘मतवाला’ में निरालाजी की कविता तो बराबर छपती ही थी, समालोचना भी वही लिखते थे, पर उसमें अपना नाम देते थे गरगजसिंह वर्मा। उन्होंने ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित रचनाओं पर कुछ अंकों में लगातार लिखा। उस समय भी आदरणीय बख्शीजी ही सम्पादक थे। आचार्य द्विवेदी की इतनी अधिक ममता ‘सरस्वती’ पर थी कि उन्होंने रोषवश ‘मतवाला’ के उन अंकों को आद्योपान्त रंग डाला था। उन्हें देखकर निरालाजी इतना अधिक हंसे कि उतनी देर तक उन्हें अविराम हंसते मैंने कभी नहीं देखा। उस समय उनकी बैसवाड़ी बोली में द्विवेदीजी की स्तुति सुनने योग्य थी।
निरालाजी कुछ दिन काशी में रहे थे। मैं भी उन दिनों वहीं था। ‘प्रसाद’ जी के साथ खूब बैठक होती थी। मध्य गंगा में बजरे पर कविता-पाठ भी हुआ था। निरालाजी ने हारमोनियम बजाकर ‘श्री रामचन्द्र कृपालु भज मन’ पद गया था। ‘प्रसाद’ जी ने परोक्ष में उनकी बड़ी प्रशंसा की थी। साहित्य और संगीत दोनों शास्त्रों में उनकी असाधारण गति देखकर ‘प्रसाद’ जी बहुत प्रभावित हुए थे। ‘प्रसाद’ जी राग-द्वैषरहित व्यक्ति थे। उन्होंने उसी समय निरालाजी को कई बार तौलकर कहा था कि हिन्दी को ईश्वर की देन हैं निराला। वह भविष्यवाणी आज प्रत्यक्ष है।
‘पंचवटी’ कविता का पाठ करते समय निरालाजी की भावभंगी देखकर मंुशीजी को बंगीय रंगमंच के कुशल अभिनेताओं की भंगिमा याद हो आती थी। निरालाजी की नाट्यकला भी जिसने कभी देखी है उसकी आंखों में आज भी उनका कौशल कौंधता होगा।
अखिल भारतीय हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन का महाधिवेशन कलकत्ता विश्वविद्यालय के सिनेट-हॉल में हुआ था। कविवर रत्नाकरजी अध्यक्ष थे। हॉल से बाहर निकलकर निरालाजी सामने के पार्क (वेलिंग्डन स्क्वायर) में खड़े हो गये। कुरता उतार लिया। छाती तानकर भुजाओं की मांसपेशियों को उभारने और तौलने लगे। सिर पर जुल्फें झूम गई। चारों ओर से तमाशा देखनेवाले आ जुटे। शक्ति और सौन्दर्य का वह पुंज, वह निराला बस निराला ही था। राजस्थानी चित्रकार पं. मोतीलाल शर्मा की चित्रावली कलकत्ता में प्रकाशित हुई। उसके चित्रों के नीचे निरालाजी ने ब्रजभाषा में परिचयात्मक कविताएं लिखीं। उन्हें पढ़कर कालपी-निवासी श्रीकृष्णबलदेव वर्मा चकित होकर मुंशीजी से काफी देर तक तारीफ करते रहे। वर्माजी महाकवि केशवदास के विशेषज्ञ माने जाते थे। ‘विशाल भारत’ वाले ब्रजमोहन वर्मा के वह चाचा थे। निरालाजी का पार्थिव शरीर नहीं रहा, पर उनका यशःशरीर उनकी कृतियों के रूप् में चिरकाल तक विद्यमान रहेगा।
निरालाजी अपनी जवानी में कुश्ती भी लड़े थे। ‘मतवाला’-कार्यालय में भी वे धूल लगाकर कसरत किया करते थे। मुंशीजी जब अपने घर (जिला बलिया) जाते थे तब उनके लिए गंगा की चिकनी मिट्टी लाया करते थे। उस समय उनके सिर पर काली-काली जुल्फें थीं। सेठजी उनके लिए केश-रंजन और जवाकुसुम तेल लाकर रखे रहते थे। इतना ही नहीं, उनके जूते में रोज पालिश भी किया करते थे। जब वे बाहर घूमने निकलते, सेठजी उनकी जेब में रुपए-पैसे डाल देते। किन्तु लौटने पर एक पैसा भी उनके पास बचा न रहता और कोई भी चीज खरीदकर नहीं लाते। भिखारी भी उन्हें पहचान गये थे, क्योंकि वैसा अवढरदानी कलकत्ता-भर में कोई मिला न था। जेब में हाथ पड़ने पर जो कुछ अनायास निकल आता वह आगे पसरे हाथ पर बेसुधी से रखकर अपनी राह चले जाते। उनके अक्खड़ मिजाज की थाह कभी मिलती न थी। मुंशीजी प्रायः चेतावनी देते रहते थे कि हाथ सम्भालिए और भविष्य के लिए संचय भी कीजिए। वर्तमान का भी उन्हें ध्यान न था तो भविष्य की क्या कथा! वे तो व्यायाम के समय अपनी फूली छाती और मांसल भुजाओं की मांसपेशियां ही देख-देखकर प्रसन्न होते थे, बुढ़ापे की कल्पना उनके उत्फुल्ल मस्तिष्क में क्यों आती! वे पुरुषार्थ के कवि थे। उनके तन-मन में सदा पौरुष का तेज-ओज भरा रहता था। पहले-पहल उनकी कविता-पुस्तक ‘अनामिका’ निकली, तब अभिनय की भावभंगी के साथ वे उसे जब सुनाने लगे, उनके पुरुषत्व का रोमांचकारी रूप सामने खड़ा हो गया। वे बड़े कुशल और सफल अभिनेता थे। महाषादल (बंगाल) के राजा उनके अभिनय-कौशल पर मुग्ध होकर उन्हे राजकुमार की तरह लाड़-प्यार करते रहे। किन्तु निराला किसी प्रकार के राजसी प्रलोभन के शिकार होनेवाले व्यक्ति न थे। गोकुल से मथुरा चले आये तो भूले-भटके भी गोकुल की और रुख न किया। शौकीनी का मजा भी खूब लिया। भारतेन्दुजी की तरह अंजलि में इत्रा की शीशी उड़ेलकर वस्त्र में पोता और कभी मैले-कुचैले पहने ही तलहथी पर सुरती मलते बाजार की ओर नंगे पांव, नंगे बदन निकल गये। उन्हें इसका भान ही न था कि कल जिसने चूनदार धोती-कुरते में देखा है वह आज फटेहाल देखेगा तो क्या कहेगा! किसी के कुछ कहने-सुनने की परवाह उन्हें थी ही नहीं।
एक बार पुष्प-प्रदर्शनी (कलकत्ता) में सेठजी ने पांच रुपये में खरीदकर एक सुन्दर गुलदस्ता निरालाजी के हाथ में थमाया। जब घूम-फिरकर सब लोग कार्यालय में आये तब पता चला कि वह गुलदस्ता प्रदर्शनी में ही कहीं छोड़ आये, जिसके लिए उनको साथ लेकर सेठजी फिर ट्राम पर प्रदर्शनी गये, पर निरालाजी को स्मरण ही न रहा कि कहाँ छोड़ा। सेठजी फिर ट्राम पर प्रदर्शनी गये, पर निरालाजी को स्मरण ही न रहा कि कहाँ छोड़ा। सेठजी ने जाड़े में उनके लिए शकरपारे की एक निहायत नफीस दुलाई बनवाई। बड़े प्रेम से ढाका-मलमल खरीद लाये, बढ़िया रंगों में दोनों पल्ले रंगवाये, रुई भी लाल-हरी रंगी गई, उस पर अबरक की परतें जड़ी गई, साटन का चौड़ा हाशिया चारों ओर लगा, ऊपर से घनी सुजनी भी पड़ी। निराला ओढ़कर मुस्कुराये भी, पर एक-दो सप्ताह बाद उसे एक भिखमंगे को ओढ़ा दिया। कड़ाके की सर्दी मे वह मंगन खुले अंग उनके सामने आ गया, बस झट अपने तन से उतारकर उसकी देह पर अपने ही हाथों लपेट दिया। मैंने औचक ही देखा, तो सेठजी और मंुशीजी को प्रेस में से बुलाने दौड़ा। जब तक वे दोनों बाहर आये तब तक नकलची मंगन छूमन्तर हो गया। कल्पनातीत प्रसाद पाते ही उसके पैरों में पंख लग गये। सेठजी स्चयं दौड़ पड़े, पर वह भाग्यवान क्यों मिलने लगा! और निरालाजी? वे खिलखिलाकर हंसते ही रहे ‘क्यों आप लोग परेशान हो रहे हैं बेचारा आराम से जाड़ा काटेगा!’ सेठजी ने हंसकर ही कहा ‘‘आप धन्य हो, महाराज!’’
हिन्दी-संसार में महाकवि निराला के समान त्यागवृत्ति का कोई साहित्य-सेवी अब तक देखने में नहीं आया। उनकी त्याग-भावना इतनी प्रबल थी कि जीवन-भर काफी पैसे कमाकर भी फक्कड़ ही बने रहे। गीता के भगवद्वाक्य ‘त्यागाच्छान्तिर्निरन्तरम्’ के अनुसार उन्हें अपने त्याग-बल से ही ऐसी शान्ति प्राप्त हो गई थी कि सब तरह की कठिनाइयों और असुविधाओं को अविचल धैर्य और सन्तोष के साथ झेलते चले गये। प्रकाशकों या पत्रा-पत्रिकाओं से उनके लब्धांश का द्रव्य मिले या पुरस्कार का, सुबह-शाम में उड़ जाता था। पर उनका एक पैसा भी फालतू खर्च में नहीं जाता था। आरम्भ से ही उनकी यह दशा थी। जब पहले-पहल घर से रामकृष्ण-मिशन की सेवा में कलकत्ता आये, लगभग डेढ़-दो साल तक न अपने परिवार को कुछ भेजा और न किसी सगे-सम्बन्धी को। उनका कुटुम्ब तो हर जगह था। विवेकानन्द सोसाइटी से हर महीने ठीक समय पर वेतन मिल जाता था। ‘मतवाला’-सम्पादक श्रीमहादेवप्रसाद सेठ हर घड़ी उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति में दत्तचित रहते थे। पुस्तक-प्रणयन से भी पैसे मिल ही जाते थे। किन्तु ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सिद्धान्तों के लिए तो कुबेर का भण्डार भी पर्याप्त नहीं है।
भगवद्विभूतियां उन्हें खूब मिली थीं। आकर्षक रूप, लम्बे-तगड़े डीलडौल का शरीर, व्यायाम के अभ्यास से सुगठित स्वास्थ्य, विलक्षण मेधाशक्ति, ललित मनहर कण्ठ, दयार्द्र हृदय, चिन्तनशील मस्तिष्क, उद्भावना-शक्ति-सम्पन्न बुद्धि सब कुछ भगवान् ने उन्हें भरपूर दिया था। बड़ी-बड़ी सुहावनी-लुभावनी आंखें, दमकती दाड़िम-दशनावली, घुंघराली अलकावली, लघु मुखविवर, पतले-पतले अधर, पतली-पतली बांकी अंगुलियां, प्रशस्त वक्षस्थल, हर तरह सिरजनहार ने उन्हें संवारा था। जिस मण्डली में बैठ जाते थे, उसे अपने व्यक्तित्व से जगमगा देते थे। उनकी जुल्फें टकटकी बांध लेती थीं। कविता-पाठ की भावभंगी श्रोताओं के हृद्गत भावों को उद्दीप्त कर देती थी। ‘मतवाला’-मण्डल (कलकत्ता) में एक बार एक धनी-मानी बंगीय परिवार से उनके विवाह का प्रस्ताव भी आया था। पर वे तो एकपत्नीव्रत थे। उनके पास तो युवती छात्राएं भी साहित्यिक उद्देश्य से आती थीं। छात्रा भी आते थे। पर वे किसी छात्रा से वार्तालाप करते समय आंखें बराबर नहीं करते थे। कामिनी-कंचन का त्याग करके वे गृहस्थाश्रम में ही संन्यासी बने रहे। यदि उन दिनों मोहक पदार्थ के प्रति उनके मन में आसक्ति होती तो उन्हें हस्तगत करनेवाले गुण उनमें पर्याप्त थे। किन्तु सांसारिक सुख-भोगों की वासनाएं उनकी पत्नी के साथ ही विलीन हो गईं। कंचन की कामना कभी उनके भीतर झांकने भी न पाई। द्रव्य के लिए उनका करतल प्रवाह-क्षेत्रा मात्र था। द्रव्य-संचय उनका ध्येय कभी रहा ही नहीं। धन उनके पास अतिथि के समान अल्पावधि तक ही टिकने आता था। अगर हजार आया, तो डेढ़ हजार के खर्च का चिट्ठा पहले से तैयार है। अभावग्रस्तों के अभाव उनके दिमाग के दायरे में मंडराते रहते थे। भरपेट खाने के लिए तरसनेवाले निकौड़िए से लेकर मेहनत-मशक्कत करनेवाले मजदूर तक उनकी निगाहों में बसे हुए थे और जब कभी उनके मन-माफिक अर्थलाभ हो जाता, वे तुरन्त उन मरभुक्खों की ओर दौड़ जाते। ‘‘जिनके लहहिं न मंगन नाहीं, ते नर बर थोरे जग माहीं।’’ उन्हीं थोड़े लोगों में वे भी एक थे।
‘मतवाला’-मण्डल में भिखमंगी की समस्या पर और अखबारों में छपे इस विषय के समाचारों या लेखों पर जब कभी बातचीत होती थी, यदि निराला वहाँ उपस्थित रहते, तो बड़े आवेश में वे अपने युक्तियुक्त तर्क उपस्थित करते। वे देश में फैली हुई आर्थिक विषमता पर शब्दास्त्र-सन्धान करते समय उग्रतम साम्यवादी प्रतीत होते थे। यद्यपि हृष्ट-पुष्ट भिक्षुओं के प्रति उनकी सहानुभूति भी उन्मुख नहीं थी, तथापि असमर्थ या अपाहिज भिखारियों की दयनीय दशा के लिए वे शासन और समाज की ही तीव्र आलोचना किया करते थे। लंगड़े, लूले, अन्धे, कोढ़ी और निकम्मे दीन-दुखियों पर ही उनकी दृष्टि अटकती थी, फिर तो वे अपनी वास्तविक परिस्थिति को बिलकुल भूल जाते थे। कलकत्ता-सदृश महानगर की सड़कों की दोनों पटरियों पर वे ढूंढ़ते फिरते थे कि वस्तुतः कौन बेचारा कैसी दुर्गति में है। उनका अधिकांश अवकाशकाल दीनों की दुनिया में ही बीतता था। वहाँ फुटपाथों पर भिखारियों के सिवा बहुतेरे निराश्रित गरीब और कुली-कबाड़ी भी रात में पड़े रहते हैं। उनके लिए बीड़ी, मूढ़ी, भूजा, चना, मंूगफली आदि खरीदकर वितरण करनेवाला धनकुबेरों की उस महानगरी में निराला के सिवा दूसरा कोई न देखा गया। बड़े-बड़े सेठ धनीधोरी रात में भी उन पटरियों पर से गुजरते थे, पर कहीं-कहीं कभी दो-चार पैसे फेंकनेवाले भले ही दीख जायँ, निराला की तरह उन दीनों से आत्मीयता स्थापित करनेवाले ढूंढ़े भी नहीं मिल सकते थे। उस महानगर में नाना प्रकार के मनोरंजन के साधन हैं। क्या उन्हें उपलब्ध करने के लिए निराला को पैसों की कमी थी? किन्तु उनका मनोरंजन तो दीन-दुखियों को सुख पहुंचाने से ही होता था। कोई मित्र उन्हें सिनेमा-थिएटर भले ही ले जाय, उनके पैसे तो भूखे-रूखे गरीबों की सेवा में ही लगने पर अपनी सार्थकता समझते थे।
निराला केवल शहरों या बाजारों और स्टेशनों के अन्दर मिलनेवाले दीन जनों पर ही ध्यान नहीं देते थे, अपने गांव और पड़ोस के गरीब गृहस्थों की सहायता का भी ध्यान रखते थे। उनके गांव और जिले के भी कई आदमी उनकी उदारता या दानशीलता की कहानी सुनकर उनके पास आ धमकते थे। अतिथि भी उनके विचित्रा भांति के होते थे। परिचितों और कुटुम्बियों के अतिरिक्त ऐसे लोग भी कलकत्ता तक दौड़ लगाकर उनका पीछा करते थे, जो उनसे किसी-न-किसी प्रकार का लगाव जोड़कर उनके शील-सौजन्य से लाभ ऐंठ लेते थे। भोजन के सिवा कपड़े-जूते की मांग तो होती ही थी, चलते समय राह-खर्च की फरमाइश भी होती थी। देखनेवालों को भले ही यह नागवार मालूम होता हो, पर निराला की शान्ति भंग नहीं होती थी। उनकी शान्ति तो तभी भंग होती थी जब किसी जरूरतमन्द की मदद नहीं कर सकते थे। किसी आदमी को अपने से अनुचित लाभ उठाते देखकर भी उनके धैर्य को ठेस नहीं लगती थी। दूसरों के अभाव को अपने ऊपर ओढ़ लेने से भी उनका शान्त-गम्भर हृदय कभी विचलित होता नहीं देखा गया। अगर कोई कहता भी था कि आप इतना खटराग क्यों पालते हैं, ऐसे पर-मुण्डे फलाहार करनेवालों को टरकाया कीजिए, तो मुस्कुराकर ही रह जाते थे। उनको भला सीख कौन दे सकता था! वे तो स्वयं ही नीति और धर्म के मर्मज्ञ थे।
यह विशेषता निराला में ही देखी गई कि अपनी आवश्यकताओं को भुलाकर दूसरों की आवश्यकताओं को दूर करने के लिए परेशानियां और कठिनाइयां झेलने में अधीर नहीं होते थे। उन्हें अपने खाने-पीने या कपड़े-लत्ते की कभी चिन्ता ही नहीं हुई। अच्छा कपड़ा-जूता भी कुछ ही दिनों तक उनके पास टिकता था। तोशक-रजाई तक किसी को दे डालने में तनिक हिचक न होती थी। न उनके पास कुंजी रह पाती थी और न कभी कपड़े या रुपए-पैसे रखने के लिए कोई टंªक या बक्स ही खरीदा। गद्दे या लिहाफ की परवाह न करके जैसे-तैसे सो रहे और उतने ही में आराम से दिन गुजार लिये। सुन्दर पलंग या शानदार कुरसी-मेज की कभी कामना ही नहीं की। जिस कमरे में रहना है उसकी सजावट का कभी सपना भी न देखा। यद्यपि उन्होंने ‘मतवाला’-सम्पादक के अविरल स्नेह के प्रसाद-स्वरूप अच्छे-से-अच्छे कपड़े और तेल-फुलेल तथा खानपान का सुख अच्छी तरह भोग लिया, तथापि अपनी कमाई के पैसों से इसी भोग-विलास की सामग्री नहीं बेसाही। कलकत्ता छोड़ने पर जब वे लखनऊ और प्रयाग में रहे, तब भी वे मस्तमौला फकीर की तरह ही जीवन-यापन करते रहे। जहाँ कहीं रहे, आस-पास के दूकानदारों को मुंहमांगा दाम देकर निहाल कर दिया। इक्के-तांगेवाले भी उनकी दरियादिली से परिचित थे और उन्हें देखते ही दूसरे के साथ तय किया हुआ भाड़ा छोड़कर उन्हें साग्रह बिठा लेते थे। अड़ोस-पड़ोस के गरीब उनसे इतने अधिक उपकृत रहते थे कि उन्हें राहत चलते देख असीसने लगते थे। याचकों के लिए तो वे कल्पतरु थे ही, अपने मित्रों के लिए भी मुक्तहस्त दोस्त-परस्त थे। मित्रों, परिचितों और अतिथियों के स्वागत-सत्कार का वैसा हौसला अब देखने में नहीं आ रहा।
बहुत-से लोगों को निराला-सम्बधी ये बातें अतिरंजित जान पड़ेंगी। पर मैं तो निराला के साथ वर्षों रहकर उनके प्रतिदिन के जीवनक्रम को बहुत ही निकट से देख चुका हूं और उनके स्नेह-भाजन के रूप में उनका प्रगाढ़ स्नेह भी पाता रहा हूं। किन्तु आधुनिक युग में ऐसी बातों को अतिशयोक्ति समझनेवाले सज्जन यह सोचें तो सही कि भूखे को देखते ही अपने आगे परसी हुई थाली उसके सामने रख देनेवाले कितने महानुभाव आज के समाज को विभूषित करते हैं। निराला खुद मामूली कपड़ों में गुजर करके गरीब को अपने नये कपड़े दे डालते थे और जाड़े में भी पुराने कम्बल के सहारे जिन्दगी बसर करके अपना नया लिहाफ तक गरीब को उढ़ा देते थे। इस तरह के आचरण के लोग साहित्य-जगत् में तो नहीं देखे गये हैं। जिस व्यक्ति में अन्यान्य लोगों से जो अधिक विशिष्ट गुण हों उनका स्मरण न करना-कराना ईश्वर की दी हुई वाणी को व्यर्थ करना है।
उनके त्याग की कहानियां तो अनन्त हैं। उसकी डायरी लिखी जा सकती है। ‘मतवाला’ प्रति शनिवार को निकलता था। उस दिन प्रातःकाल ही कई बंगाली युवक स्नातक अपनी साइकिल लेकर पहुंच जाते थे। वे प्रति सप्ताह अखबार बेचकर अपना कमीशन ले लेते थे। ‘मतवाला’ की काफी धूम और धाक थी। गरीब छात्रों को उसकी बिक्री से पर्याप्त सहायता मिल जाती थी। एक दिन एक अत्यन्त दीन-मलीन छात्रा से निरालाजी हालचाल पूछने लगे। उसने बतलाया कि भाड़े की साइकिल पर अखबार बेचता हूं। उसे फटेहाल देख ऐसे द्रवित हुए कि डेढ़ सौ रुपये की नई साइकिल तो खरीद ही दी, उसके लिए डबल सूट भी बनवा दिया और कहा कि सवावलम्बन का सहारा मत छोड़ों तथा पुस्तकें खरीदने के लिए पैसे मुझसे लेते जाओ। ‘मतवाला’-सम्पादक को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने निरालाजी से पूछा कि दो-ढाई सौ रुपये इस समय कहाँ से आपको मिल गये। निरालाजी ने हंसकर टाल दिया। फिर पता चला कि उन्होंने श्रीमहादेवप्रसाद झुनझुनवाला (पुस्तक-प्रकाशक, बड़तल्ला) के एक पुस्तक लिखने का वचन देकर पेशगी ऋण लिया है।
‘मतवाला’ कार्यालय का दरवान गोरखपुर-बस्ती की ओर का रहनेवाला एक बड़ा खूबसूरत नौजवान था। वह निरालाजी को ‘गुरुजी’ कहा करता था। उसकी शादी ठीक हुई तो उसने उनसे निवेदन किया कि मेरी बरात में अवश्य चलिए। किन्तु उसकी शादी के ऐन मौके पर निरालाजी का भतीजा, जिसे वे:‘बड़कौना’ कहा करते थे, बीमार हो गया। तब भी उन्होंने रेशी साड़ी, मलमली कुर्ती, सोने का इयर-रिंग (कर्णाभरण), इत्र-फुलेल आदि खरीदकर उसे दस रुपये नेवते के साथ दे दिया। यह काम उन्होंने बिलकुल गुपचुप किया जब वह शादी के बाद लौटा, तब यह रहस्य खुला। वे अपने ऐसे गुप्त उपकारों की कभी कहीं चर्चा तक न करते थे। उनकी कमाई के अधिकांश पैसे मौन भाव से परोपकार में ही खर्च होते थे।
सुहृद्-संघ (मुजफ्फरपुर) के वार्षिकोत्सव से लखनऊ लौटते समय मुझसे मिलने के लिए बीच में छपरा उतरे तो रिक्शेवाले की फटी गंजी देख उससे हाल-चाल पूछने लगे और एक नई गंजी तथा एक नया अंगोछा खरीदकर अपने सामने ही फटी गंजी निकलवाई और नई पहनाई। वह बेचारा रोता हुआ उनके चरणों पर लोटने लगा। ऐसे उपकार वे किया करते थे।
निराला अपने गुरुजनों के प्रति जैसे शिष्ट थे वैसे ही स्वाभिमानी और त्यागी भी थे। जिस प्रकार वे स्वयं किसी आदरणीय व्यक्ति का सम्मान करते थे उसी प्रकार वे उस व्यक्ति से भी सम्मान पाना चाहते थे। एक बार वे एक साहित्यिक सभा (कलकत्ता) में गये तो उसके सभापति ने उठकर उनका स्वागत नहीं किया। मंच पर चढ़ तो गये, पर क्षण-भर खड़े रहकर नीचे उतर आये। तब भी सभापति ने उन्हें नहीं रोका-टोका। ‘मतवाला’-सम्पादक उनका रुख समझ उनके पीछे लग गये। किन्तु निरालाजी बाहर आते ही टैक्सी पर आगे निकल गये।
वह एक कवि-सम्मेलन में कवियों की जो नामावली सुनाई गई उसके अन्त में उनका नाम था ताकि श्रोता अन्त तक बैठे रहें। परन्तु नामावली के आरम्भ में ही अपना नाम न सुनकर वे उठकर चल पड़े। हम साथियों ने रोकना चाहा तो कहने लगे कि मैं कविता चाहे अन्त में ही पढ़ता, पर नामावली में सबसे नीचे मेरा नाम क्यों दिया और मुझसे पूछा भी न गया।
आखिर चले गये। उनका स्वाभिमान बड़ा दुलार चाहता था। उसका नाज उठाना सबके वश का न था।
मैं नवम्बर, 1960 में उन्हें देखने प्रयाग गया था तो 24 नवम्बर को त्रिवेणी-स्नान के समय देखा कि एक चमचमाती ‘बस’ पर बम्बई से प्रसिद्ध अभिनेता श्रीराजकपूर और कुछ चलचित्रा-तारिकाएं आई थीं। हजारों दर्शकों की अपार भीड़ थी। ‘गंगा-जमुना’ के देश का चित्रा बननेवाला था। मैंने निरालाजी के पास जाकर उस दृश्य का वर्णन किया। सुनकर कहने लगे कि राजकपूर के पिता पृथ्वीराजजी जब कभी प्रयाग आये तब मेरे पास अवश्य ही आये, पर राजकपूर अब तक नहीं आया। ऐसा उनका मिजाज शरू से था।
‘मतवाला’-मण्डल के मुंशी नवजादिकलाल श्रीवास्तव के साथ वे एक दिन पण्डित नारायणप्रसाद ‘बेताब’ से मिलने गये। बेताबजी नामी नाटककार थे। उन्होंने अपने निवास-स्थान पर एक नाट्य-गोष्ठी का आयोजन किया। उसमें निरालाजी को भी आमन्त्रित किया। पर हम लोगों के बहुत आग्रह पर भी वे नहीं गये। बोले कि मैं पहले-पहल उनके घर जाकर उनसे मिला और आज तक वे मुझसे मिलने मेरे पास नहीं आये। यदि उन्हें अवकाश नहीं तो आज मुझे भी नहीं है। ऐसे असंख्य प्रसंग हैं जो उनके आत्माभिमान के गौरव-शिखर को दूर से ही इंगित करते हैं।
निरालाजी आचार्य द्विवेदी के कृपापात्र ही नहीं, स्नेह-भाजन भी थे। सबसे पहले द्विवेदीजी ने ही उनकी मेधाशक्ति को परखा। द्विवेदीजी के हार्दिक आशीर्वाद के साथ ही वे हिन्दी के साहित्य-क्षेत्र में अवतीर्ण हुए थे। इस बात को वे स्वयं मुक्तकण्ठ से स्वीकार करते थे।
जब वे ‘मतवाला’ में ‘गरगजसिंह वर्मा’ के कल्पित नाम से अन्य पत्र-पत्रिकाओं के साथ ‘सरस्वती’ की भी आलोचना करते थे, तब द्विवेदीजी को इसका पता न था कि निराला ही आलोचना लिखा करते हैं। ‘सरस्वती’ की आलोचना जब उन्हें असह्य हो उठी तब जितने अंकों में आलोचना छपी थी सबको आद्यन्त संशोधित करके भेज दिया और लिखा कि दूसरे का छिद्रान्वेषण करने से पहले अपनी ओर देख लेना चाहिए। द्विवेदीजी ने पेन्सिल से ही सब अंकों को आपादमस्तक काट-छांटकर रजिस्ट्री से भेजा था। निरालाजी उस समय बहुत देर तक हंसते-हंसते थक गये और उस दिन से आलोचना के लिए कभी ‘सरस्वती’ को हाथ में न लिया। उनका आग्रह था कि आचार्य की लेखनी से शोधे गये पृष्ठ प्रकाशित कर दिए जायँ, पर ‘मतवाला-सम्पादक ने उन पृष्ठों को तिजोरी में सदा के लिए कैद कर दिया। यदि वे पृष्ठ आज मिल सकते तो अनमोल समझे जाते।
उनके ध्वन्यात्मक विनोद भी नहीं भूलते। मेरा तीसरा विवाह हुआ तो मेरी धर्मपत्नी को देखने काशी आये। भाई उग्रजी पहले ही आकर देख गये थे। देखकर बहुत प्रसन्न हुए। मैं कालभैरव की चौमुहानी के पास रहता था। वहाँ बूढ़ा महादेव मलाईवाला बड़ा नामी था। भोजन के समय पूआ-पूरी और खीर के साथ वह गाढ़ी मलाई भी थी। मैंने कहा कि महादेव की मलाई की तारीफ यह है कि उसमें उंगली नहीं गड़ती। हंसकर बोले ‘‘अच्छा तो अपने नये अनुभव के अनुसार किसी दूसरी ऐसी चीज का नाम बतलाइए, जिसमें उंगली न गड़ती हो और जिसका स्वाद भी ऐसा ही आनन्ददायक हो।’’ मेरी देहाती पत्नी इस विनोद को न समझ सकी, पर हम दोनों खूब हंसे। किन्तु जब मैंने कहा कि पूरी और शाक ही अधिक खा रहे हैं, पूआ, खीर-मलाई भी मांग-मांगकर खाइए, तब फिर हंसकर कहने लगे कि मैं भोजन के स्वाद का आनन्द लेने में उकताता नहीं और रसीली वस्तु का आनन्द रसे-रसे लेने से ही तृप्ति होती है। मैं हंसने लगा और मेरी पत्नी झट वहाँ से उठकर चौके में चली गई, तब उनका भी हास्य उस स्थान को मुखरित करने लगा। उनके स्नेह की स्मृति बहुत सालती है।
उनकी सेवा-साधना का तो कहना ही क्या! ‘मतवाला’ के प्रथम कार्याल्य (23 शंकर घोष लेन) के पिछवाड़े विद्यासागर कॉलेज था। उसकी एक सभा में हम लोग जा रहे थे। कार्नवालिस स्ट्रीट के फुटपाथ पर आर्यसमाज मन्दिर के सामने एक कुत्ता कराहता पड़ा था। उसकी पीठ पर एक पका घाव था। देखते-देखते उसके पास बैठ गये। सभा का समय हो गया था। पर वे झट उठकर सामने के दवाखाने से मरहम उसके घावों पर लेप दिया। उसके बाद ही नल पर हाथ धोकर सभा में गये। मुंशीजी ने सभा से लौटती बार विनोद किया कि बेचारे को कुछ खाना भी दे दीजिए, तो तुरन्त खोमचेवाले से पकौड़ियां लेकर कुत्ते के आगे रख दीं। वह आतुरता से गपकने लगा तो खिलखिलाकर हंसने लगे। ऐसी बहुतेरी बातें हैं जिनसे निरालाजी के करुणार्द्र हृदय का परिचय मिलता है।
मेरी दूसरी पत्नी रोग-शय्या पर शोचनीय स्थिति में पड़ी थी। मैं वाराणसी घोष स्ट्रीट में ‘हिन्दू-पंच’ के सम्पादक पण्डित ईश्वरीप्रसाद शर्मा के साथ रहता था। ‘मतवाला’ की सेवा में व्यस्त रहने से उसकी सेवा-सुश्रूषा में कठिनाई होती थी। दोनों स्थानों के बीच काफी दूरी थी। निरालाजी ने सम्पादक और मंुशीजी से कहकर मेरे संकेत करने पर उसको कार्यालय में ही लाकर रखने का प्रयत्न किया। एक कमरा खाली कराया। उसके आ जाने पर चिकित्सा और सेवा में उन्होंने जो तत्परता और सहानुभूति प्रदर्शित की वह उन्हीं के योग्य थी। यहाँ तक कि मल-मूत्रा की सफाई करने में भी तनिक न हिचके। मैं हाथ जोड़कर कहता कि आप ब्राह्मण होकर मुझ पर पाप लाद रहे हैं, तो कहते कि जिस संस्था (रामकृष्ण-मिशन) में रहता हूं, उसका मुख्य सिद्धान्त सेवाव्रत का पालन ही है। ऐसा आदर्श पुरुष हिन्दी में कहाँ कोई है?
उनको लोग जीवन के अन्तिम दिनों में अर्द्धविक्षिप्त कहने लग गये थे, पर वास्तव में किसी प्रकार का उन्माद उनमें नहीं था। अपनी ही चिन्तनधारा में सतत तल्लीन रहने के कारण वे प्रायः बाह्य-ज्ञानशून्य रहा करते थे। यह उनका जन्मजात स्वभाव था। ‘मतवाला’ के समय से ही मैं उन्हें देखता आया कि चिन्तनशीलता के कारण सामने ही होती हुई बातचीत वे नहीं सुन पाते थे। कई बार सभा-सम्मेलनों में जाकर वे लौटने पर पूछने लगते थे कि अमुक वक्ता ने क्या-क्या कहा। ऐसे विदेह चिन्तक होने से ही वे जीवन-भर स्वार्थी शोषकों द्वारा चूसे गये। उन्हें यदि अपने ठगे या छले जाने का ज्ञान भी हो आता था तो वे अपने अंगीकृत शील की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते थे। कभी-कभी तो वे जान-बूझकर प्रत्यक्ष प्रवंचनाओं और प्रतारणाओं को हंसते-हंसते उपेक्षित कर देते थे। अपनी प्रतिभा और कमाई से दूसरों को अनुचित लाभ उठाते देखकर भी वे उन लोगों के प्रति सदा सहानुभूतिशील ही बने रहे। दूसरों के लाभ और हित के लिए अपनी अर्जित द्रव्यराशि का स्वेच्छा और सन्तोष के साथ उत्सर्ग करने में वे स्वभावतः सुख का अनुभव करते थे। परोपकार करते रहने की उनकी सहज प्रकृति थी, पर कभी कहीं उसकी चर्चा न करते थे।
नवम्बर, 1960 में उनकी अस्वस्थता का विवरण बतानेवाला एक छपा पर्चा मुझे प्रयाग से मिला। मैं 23 नवम्बर को उन्हें देखने के लिए प्रयाग गया। लीडर प्रेस में भारती-भण्डार के व्यवस्थापक पण्डित वाचस्ति पाठक के घर पर सामान रखकर सीधे उनके पास दारागंज चला गया। मेरे साथ मेरा ज्येष्ठ पुत्रा (आनन्दमूर्ति) और मेरा पंाच वर्ष का पौत्र (लल्लू) भी था। मुझे अपने आगे उपस्थित देख वे अत्यन्त प्रसन्न हुए। कुशल-मंगल के बाद हाल-चाल पूछकर बोले कि आप दूर की यात्रा में थके हैं। रात हो रही है, जाकर विश्राम कीजिए और कल प्रातःकाल यहाँ आ जाइए, तब दिन-भर बातचीत होगी, भोजन भी यहीं मेरे साथ करना होगा। उस समय मैंने देखा कि उनके पैरों में कुछ सूजन है। उनके एकमात्रा सुपुत्रा पं. रामकृष्ण त्रिपाठी भी उनकी सेवा में आ गये थे। पता चला कि उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमन्त्राी डॉ. सम्पूर्णानन्द और शिक्षामंत्री पं. कमलापति त्रिपाठी वहाँ उन्हें देखने गये थे तो विशेषादेश द्वारा रामकृष्णजी का तबादला झांसी से प्रयाग करा दिया था। वे झांसी में संगीत के प्राध्यापक परिवार अभी झांसी में ही था। उनकी इच्छा थी कि दारागंज में एक मकान लेकर परिवार के साथ पिताजी की सेवा करते रहें। किन्तु यह जानकर भी मुझे आश्चर्य नहीं हुआ कि निरालाजी स्थान-परिवर्तन करना नहीं चाहते। उक्त मन्त्रियों और डॉक्टरों की सलाह मानकर वे सरकारी अस्पताल में जाने को भी तैयार न थे। मैंने भी उनसे निवेदन किया, पर उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि बरसों से जो मेरी देखभाल करते आ रहे हैं उनका तिरस्कार करके अन्त में अपनी सेवा का श्रेय दूसरों को देना मुझे पसन्द नहीं। बाद में भी मैंने सुना कि वे अन्त तक अस्पताल जाने को राजी न हुए। उनका यह आग्रह कुछ नया न था। जो मन में निर्णय कर लेते थे उसमें किसी के समझाने-बुझाने पर भी हेर-फेर नहीं करते थे। वे दुराग्रही नहीं थे, पर अपने हृदय की बातों पर कान दिये रहते थे और उनका हृदय अतिशय भावुक था।
दूसरे दिन मैं त्रिवेणी-स्नान कर प्रातःकाल ही निरालाजी के पास पहुंचा। मैं दोहरी अण्डी-चादर ओढ़े हुए था, तब भी बार-बार आग्रह करके उन्होंने अपने हाथों लिहाफ ओढ़ाया और मकान-मालकिन को बुलाकर कहा कि मूंग-उड़द की दाल बनाओ, चावल के साथ पूरियां भी रहें, हरी भाजी और उड़द-चने की बड़ियां मंगाओं। सारांश यह है कि भोज्य पदार्थोंं की पूरी तालिका बता दी। फिर छात्र-हितकारी पुस्तकमाला के संचालक वयोवृद्ध पं. गणेश पाण्डेय को भी बुलाया और साथ खिलाया। कहने लगे कि अकेले भोजन करने में आनन्द नहीं आता। मेरे पोते को अपनी गोद में बिठाकर दुलराते रहे। एक सज्जन फोटो लेने आ गये तो मुझे पनी शय्या पर बगल में बिठाकर फोटो खिंचवाया। अपराह्न तीन बजे तक नई-पुरानी बातों का क्रम चलता रहा। यहाँ तक कह डाला कि आपके आने से मेरा आधा रोग अच्छा हो गया। मेरा उत्साह बढ़ा और मैंने हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि रोग-निवारण के लिए संयम और विश्राम पर विशेष ध्यान रखिए तथा बातचीत बहुत न कीजिए। पर वे बगल में रखी ‘अभिज्ञान शाकुन्तल’ की पोथी लेकर चुने हुए श्लोक सुनाने और अर्थ की बारीकी सुझाने लगे। मैं उन्हें बोलने के लिए छेड़ने से जितना ही परहेज करता था उतना ही वे बोलते चले जाते थे। कभी कवीन्द्र रवीन्द्र की पंक्तियां पढ़ने लगते, कभी शेली और मिल्टन की कविताएं मुखागर ही करते जाते। मैं उठकर जाने से भी लाचार था। मुंशी नवजादिकलाल श्रीवास्तव (‘मतवाला-मण्डल-सदस्य) के परिवार का हाल पूछने लगे, जिसे अपने पुरस्कार के इक्कीस सौ रुपये वे दे चुके थे। प्रोफेसर नन्ददुलारे वाजपेयी और डॉक्टर रामविलास शर्मा तथा पं. विनोदशंकर व्यास की भी चर्चा करने लगे। जब तक मैं बैठा रहा तब तक मेरे चुप्पी साधने पर भी बोलते ही रहे। मेरे निषेध करने पर भी उनकी धारा शान्त न हुई। मित्रों और स्नेहियों के प्रति उनका हृदय बराबर उत्कण्ठित रहता था। संयम और विश्राम के लिए करब़द्ध प्रार्थना करके जब मैं लीडर प्रेस लौटा तो पीछे से रिक्शा पर मकान-मालकिन के साथ वहाँ आ धमके। वहाँ वाचस्पति के अतिरिक्त ‘भारत’ के सहकारी सम्पादक पं. विश्वम्भरनाथ जिज्जा और श्रीभगवतीचरण वर्मा बैठे हुए थे। सबने विस्मय और विषाद से कहा कि आपको यहाँ आने का कष्ट नहीं करना चाहिए था, डॉक्टरों की हिदायत के मुताबिक चलने से ही स्वास्थ्य सुधरेगा। किन्तु निरालाजी एक तो स्वयं बड़े भारी वेदान्ती थे, दूसरे फिर ब्रह्म ले उन्हें दार्शनिक कवि भी बना दिया था, तीसरे वे ऊंचे-से-ऊंचे दर्जे के मस्तमौला मनमौजी भी थे, इसलिए वे सुन तो सबकी लेते थे, पर करते अपने मन की ही थे। यही उनकी स्वच्छन्द मनोवृत्ति उनके लिए घातक सिद्ध हुई। शरीर की क्षण-भंगुरता और संसार की अनित्यता पर उनसे कौन शास्त्रार्थ कर सकता था! जीवन का मूल्यांकन करने की शिक्षा देने योग्य उनके परिचितों और इष्ट मित्रों में कोई न थरा। उनके ज्ञान की सीमा बहुत विस्तृत थी, पर उनकी प्रकृति में जन्मजात निरंकुशता थी।
निरालाजी संसार से ऐसे निस्संग रहे कि जीवन-भर फक्कड़शाह बने रहे। उनके पास न अपना कोई सन्दूक था, न ताली-कुंजी थी। कपड़े-लत्ते और रुपये-पैसे की मोह-ममता तो थी ही नहीं। कितने कपड़े सिले और कितने धुले, उन्हें कुछ याद नहीं। दर्जी और धोबी के ईमान पर ही विश्वास रखते थे। कपड़ों की हिफाजत की भी फिक्र नहीं कर पाते थे। अपनी धुन में मस्त रहने से फुरसत ही कहाँ थी! रुपये-पैसे का हिसाब-किताब रखने का अभ्यास ही नहीं था। तकिये के नीचे नम्बरी नोट पड़े रहते। नोटों को उनके पास पड़े रहने का अवकाश कहाँ मिलता था! पूरे चौबीस घण्टे तक उनके पास जो द्रव्य ठहर जाये, उसका अहोभाग्य! जो सुबह आया वह किसी तरह शाम तक रहा और जो शाम को आया वह सुबह होते-होते ठिकाने लग गया। वे दुर्व्यसनी नहीं थे, विषयी भी नहीं थे। परन्तु यारों को पता रहता था कि उनके पास रुपये आये हैं और वे जरूरतमन्दों के सामने इनकार नहीं कर सकते। उनकी मुक्तहस्तता से लाभ उठाने के लिए बहुतेरे लोग बरबस जरूरतमन्द बन जाते थे। रेशमी कुरता और रेशमी चादर भी गायब हो जाय तो उसकी खोज या चिन्ता में तनिक भी परेशान नहीं होते थे। तकिया-तले कितने रुपये रखे थे और कितने खर्च होने से बच गये हैं, यह याद रखना उनके लिए शक्य नहीं था। उनके इस निस्संग स्वभाव से जो लोग परिचित थे, वे उन्हें कल्पवृक्ष ही मानते थे। कल्पवक्ष तो वे दीन-दुखियों के थे ही, पर नकली या बनावटी दुखिया भी उनके पास पहुंचकर बहती गंगा में हाथ धो लेते थे। सचमुच वे उन अन्य पुरुषों में थे ‘जिनके लहहिं न मंगन नाहीं।’ कामिनी-कांचन से उदासीन और विरक्त रहनेवाला ही तो महापुरुष कहलाता है!
निरालाजी की रचनाओं पर विचार करने का यह अवसर नहीं है। पर यह तो विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि वे भाषा के असाधारण पारखी थे। भाषा की प्रकृति, शैली, धारा और शुद्धता परखने में उनकी दृष्टि बड़ी पैनी थी। ‘मतवाला’ में वे ‘गरगजसिंह वर्मा’ के नाम से पत्र-पत्रिकाओं और नई पुस्तकों की भाषा पर आलोचनात्मक दृष्टि से विचार किया करते थे। शब्दों के चिन्त्य प्रयोगों पर वे हमेशा ध्यान रखते थे। कविता या गद्य की कोई पुस्तक या रचना पढ़ चुकने के बाद उसकी अशुद्धियों तथा भाषा-भाव-विषयक असंगतियों पर बड़ी मार्मिकता से अपनी निर्णयात्मक सम्मति व्यक्त करते थे। हिन्दी-संसार के धुरन्धर-से-धुरन्धर साहित्यकारों में भी जो बात उन्हें खटक जाती थी उसे स्पष्ट प्रकट कर देते थे। इस विषय में उनकी सूक्ष्मदर्शिता विलक्षण थी। भाषा की बारीकियों की पहचान में पं. जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी बड़े दक्ष थे, किन्तु ऐसा प्रसंग छिड़ने पर उन्हें भी निरालाजी का लोहा मानना पड़ता था। निरालाजी के युक्तियुक्त तर्क से कायल होते उन्हें भी मैंने देखा है। यह काम निरालाजी कभी राग-द्वेष से प्रेरित होकर नहीं करते थे। हिन्दी के स्वरूप् को निष्कलंक बनाये रखने के लिए ही वे शब्द-योजना और वाक्य-विन्यास पर गहरी निगाह रखते थे। भाषा-सम्बन्धी अराजकता उन्हें असह्य थी। तब भी इस विषय के विवाद में किसी से उलझना उन्हें अभीष्ट न था। इसीलिए वे कल्पित नाम से ‘मतवाला’ में लगातार लेखमाला लिखते रहे। हिन्दी की तो बात ही क्या, बंगला भाषा के दुष्प्रयोगों पर वह अपने सहवासी विद्वान् बंगाली संन्यासियों को चुनौती दिया करते थे। भाषा की खूबियों और खामियों पर उनके समान सूक्ष्मेक्षिका दृष्टि रखनेवाला कोई सहज प्रहरी अब नहीं सूझ पड़ता।
निरालाजी क्रान्तिकारी विचार के थे। उन्होंने काव्यशैली में क्रान्ति उपस्थित कर दी। वे युग-प्रवर्तक थे, साहित्य-क्षेत्रा में नवयुग का सुप्रभात दिखाकर उन्होंने अपना नाम सार्थक किया सब सही है, पर सबसे बढ़कर वे देवोपम मनुष्य थे। उनकी मनुष्यता ने ही समस्त लोक-मानस को अपनी ओर आकृष्ट किया। यदि वे निष्कपट हृदय पर एकाधिपत्य स्थापित न कर पाते। पूर्ण मानवता ने उनकी प्रतिभा को विशेष उद्दीप्त कर दिया। उनके मनुष्यत्व की महिमा से जो परिचित हैं वे उनके विषय में फैली हुई भ्रान्त धारणाओं को सर्वथा निराधार मानते हैं।
निरालाजी खड़ीबोली की नई धारा के क्रान्तिकारी कवि तो थे ही, ब्रजभाषा के भी रससिद्ध कवि थे। मारवाड़ी चित्रकार पं. मोतीलाल शर्मा (कलकत्ता) की चित्रावली में प्रत्येक चित्र के नीचे उनका लिखा ब्रजभाषा का पद्यात्मक चित्रा-परिचय प्रकाशित हुआ था, जिसे देखकर कालपी (उत्तरप्रदेश) वयोवृद्ध साहित्य-सेवी बाबू कृष्णबलदेव वर्मा चकित होकर निरालाजी की ओर बड़ी देर तक मुग्ध मुद्रा से देखते रह गये। वे महाकवि केशवदास के विशेषज्ञ माने जाते थे और ‘विशाल-भारत’ के संयुक्त सम्पादक बाबू ब्रजमोहन वर्मा के पितृव्य थे। ‘मतवाला’ कार्यालय में वे प्रायः आया करते थे। निरालाजी के कविता-पाठ का अभिनय भी देख चुके थे। जानते थे कि निरालाजी हिन्दी के प्राचीन साहित्य से अनभिज्ञ हैं पर उस दिन ब्रजभाषा की कविता-रचना में निराला की निपुणता देखकर वे रीतिकाल की कसौटी पर निराला को परखने लगे। निराला ने तुलसी से केशव की तुलना उस स्थल पर की जहाँ राम की वन-यात्रा में सीता और लक्ष्मण सावधानीपूर्वक राम के पदांक को बराकर चलते हैं। ‘रामचरितमानस’ और ‘रामचन्द्रिका’ के ऐसे ही कई स्थानों पर जब निराला ने तुलसी के साथ केशव को भिड़ाकर दोनों के जौहर दिखाये, तब वर्माजी को उनकी विचार-सरणी में अभूतपूर्व नवीन अथवा अदृष्टपूर्व विलक्षण चमत्कार दीख पड़ा, साथ ही लोहा भी मानना पड़ा। निराला की बहुमुखी प्रतिभा से कितने ही लोग विस्मित हो चुके हैं, पर जब तक वह प्रतिभापुंज रहा, हमने नहीं पहचाना।