पूत-कपूत / जगदीश कश्यप
सुबह जब वह आँगन में नल पर हाथ धो रहा था तो उसके पिता बड़बड़ाए— 'सारी दुनिया ही हरामख़ोर हो गई है । क्या ज़माना आ गया है— लड़कियाँ सर्विस करें और भाई शर्म और बदनामी भरे काम करे.... लड़कियों को छेड़ेंगे... प्रेम करेंगे।'
और घृणा से सिगरेट का टोटा फेंककर पाख़ाने में घुस गए ।
वह तेज़ी से सीढ़ियाँ चढ़ गया और पलंग पर बैठकर हाँफ़ने लगा । उसे क्या करना चाहिए.... कहाँ जाना चाहिए ? पिता उसकी प्रेमिका को लेकर इतने उत्तेजित थे कि....।
वह बड़बड़ाता हुआ नीचे उतरा और तीर की तरह निकल गया ।
रवि के नाम पिता ने डाकिए से लिफ़ाफ़ा ले लिया । यह चिट्ठी थी ।
'हूँ.... प्रेमपत्र होगा कोई !' घृणा से उन्होंने पत्र फाड़ डाला और जल्दी-जल्दी पढ़ने लगे—‘प्रिय महोदय! आपको बधाई । कहानी प्रतियोगिता में आपकी कहानी को प्रथम पुरस्कार मिला है । इस राशि का चैक संलग्न है । कृपया संलग्न वाउचर भरकर हमें भेज दें ।' --प्रबंध संपादक
'क्यों जी, तुमको क्या हुआ ?' रवि की माँ ने पति का उतरा हुआ चेहरा देखकर पूछा ।
'कुछ नहीं ।' उन्होंने एक बार फिर एक हज़ार रुपए की राशि के चैक को देखा— 'ये रवि को दे देना ।'
पत्नी को आश्चर्य हुआ कि इस बार पत्र पढ़कर उन्होंने रवि के लिए हरामख़ोर शब्द का उच्चारण क्यों नहीं किया ?