पूना पैक्ट दलित गुलामी का दस्तावेज / एस आर दारापुरी
भारतीय हिन्दू समाज में जाति को आधारशिला माना गया है। इस में श्रेणीबद्ध असमानता के ढांचे में अछूत सबसे निचले स्तर पर हैं जिन्हें १९३५ तक सरकारी तौर पर ‘डिप्रेस्ड क्लासेज’ कहा जाता था। गांधी जी ने उन्हें ‘हरिजन’ के नाम से पुरस्कृत किया था जिसे अधिकतर अछूतों ने स्वीकार नहीं किया था जब उन्होंने अपने लिए ‘दलित’ नाम स्वयं चुना है। जो उनकी पददलित स्थिति का परिचायक है। वर्तमान में वे भारत की कुल आबादी का लगभग छठा भाग (१६.२० प्रतिशत) तथा कुल हिन्दू आबादी का पांचवा भाग (२०.१३ प्रतिशत) है। अछूत सदियों से हिन्दू समाज में सभी प्रकार के सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक व शैक्षित अधिकारों से वंचित रहे हैं और काफी हद तक आज भी हैं।
दलित कई प्रकार की वंचनाओं एवं निर्योग्यताओं को झेलते रहे हैं। उनका हिन्दू समाज एवं राजनीति में बराबरी का दर्जा पाने के संघर्ष का एक लम्बा इतिहास रहा है। जब श्री. ई.एस. मान्तेग्यु, सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इंडिया, ने पार्लियामेंट में १९१७ में यह महत्वपूर्ण घोषणा की कि अंग्रेजी सरकार का अंतिम लक्ष्य भारत को डोमिनियन स्टेट्स देना है तो दलितों ने बम्बई में दो मीटिंगें कर के अपना मांग पत्र वाइसराय तथा भारत भ्रमण पर भारत आये सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इंडिया को दिया। परिणामस्वरूप निम्न जातियों को विभिन्न प्रान्तों में अपनी समस्यायों को १९१९ के भारतीय संवैधानिक सुधारों के पूर्व भ्रमण कर रहे कमीशन को पेश करने का मौका मिला।
तदोपरांत विभिन्न कमिशनों, काफ़्रेंसों एवं कौंसिलों का एक लम्बा एवं जटिल सिलसिला चला। सन् १९१८ में मान्तेग्यु चौमस्फोर्ड रिपोर्ट के बाद १९२४ में मद्दीमान कमेटी रिपोर्ट आई जिसमें कौंसिलों में डिप्रेस्ड क्लासेज के अति अल्प प्रतिनिधित्व और उसे बढ़ाने के उपायों के बारे में बात कहीं गयी। साईमन कमीशन (१९२८) ने स्वीकार किया कि डिप्रेस्ड क्लासेज को पर्याप्त प्रातिनिधित्व दिया जाना चाहिए। सन् १९३० से १९३२ एक लन्दन में तीन गोलमेज कान्फ़्रेंसे हुयीं जिन में अन्य अल्प संख्यकों के साथ साथ दलितों के भी भारत के भावी संविधान के निर्माण में अपना मत देने के अधिकार को मान्यता मिली। यह एक ऐतहासिक एवं निर्णयकारी परिघटना थी। इन गोलमेज कांफ़्रेंसों में डॉ. बी. आर. आंबेडकर तथा राव बहादुर आर. श्रीनिवासन के दलितों के प्रभावकारी प्रतिनिधित्व एवं जोरदार प्रस्तुति के कारण १७ अगस्त, १९३२ को ब्रिटिश सरकार द्वारा घोषित ‘कमिनुअल अवार्ड’ में पृथक निर्वाचन का स्वतन्त्र राजनीतिक अधिकार मिला। इस अवार्ड से दलितों को आरक्षित सीटों पर पृथक निर्वाचन द्वारा अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार मिला और साथ ही सामान्य जाति के निर्वाचन क्षेत्रों में सवर्णों को चुनने हेतु दो वोट का अधिकार भी प्राप्त हुआ। इस प्रकार भारत के इतिहास में अछूतों को पहली बार राजनैतिक स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त हुआ जो उनकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकता था।
उक्त अवार्ड द्वारा दलितों को गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट, १९१९ में अल्प संख्यकों के रूप में मिली मान्यता के आधार पर अन्य अल्प संख्यकों-मुसलमानों, सिक्खों, ऐंग्लो इंडियऩज तथा कुछ अन्य के साथ साथ पृथक निर्वाचन के रूप में प्रांतीय विधायकाओं एवं केन्द्रीय एसेम्बली हेतु अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार मिला तथा उन सभी के लिए सीटों की संख्या निश्चित की गयी। इसमें अछूतों के लिए ७८ सीटें विशेष निर्वाचन क्षेत्रों के रूप में आरक्षित की गयीं।
गाँधी जी ने उक्त अवार्ड की घोषणा होने पर यरवदा (पूना) जेल में १८ अगस्त, १९३२ को दलितों को मिले पृथक निर्वाचन के अधिकार के विरोध में २० सितम्बर, १९३२ से आमरण अनशन करने की घोषणा कर दी। गाँधी जी का मत था कि इससे अछूत हिन्दू समाज से अलग हो जायेंगे जिससे हिन्दू समाज व हिन्दू धर्म विघटित हो जायेगा। यह ज्ञातव्य है कि उन्होंने मुसलमानों, सिक्खों व ऐंग्लो-इंडियऩज को मिले उसी अधिकार का कोई विरोध नहीं किया था। गांधी जी ने इस अंदेशे को लेकर १८ अगस्त, १९३२ को तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री, श्री रेम्जे मैंकडोनाल्ड को एक पत्र भेज कर दलितों को दिए गए पृथक निर्वाचन को समाप्त करके संयुक्त मताधिकार की व्यवस्था करने तथा हिन्दू समाज को विघटन से बचाने की अपील की जिसके उत्तर में ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने अपने पत्र दिनांकित ८ सितम्बर, १९३२ में अंकित किया, ‘ब्रिटिश सरकार की योजना के अंतर्गत दलित वर्ग हिन्दू समाज के अंग बने रहेंगे और वे हिन्दू निर्वाचन के लिए समान रूप से मतदान करेंगे, परन्तु ऐसी व्यवस्था प्रथम २० वर्षो तक रहेगी ताकि हिन्दू समाज का अंग रहते हुए उनके लिए सीमित संख्या में विशेष निर्वाचन क्षेत्र होंगे जिसमें उनके अधिकारों और हितों की रक्षा हो सके। वर्तमान स्थिति में ऐसा करना नितांत आवश्यक हो गया है। जहाँ जहाँ विशेष निर्वाचन क्षेत्र होंगे वहां वहां सामान्य हिन्दुओं के निर्वाचन क्षेत्रों में दलित वर्गों को मत देने से वंचित नहीं किया जायेगा। इस प्रकार दलितों के लिए दो मतों का अधिकार होगा-एक विशेष निर्वाचन क्षेत्र के अपने सदस्य के लिए और दूसरा हिन्दू समाज के सामान्य सदस्य के लिए हम ने जानबूझ कर- जिसे आप ने अछूतों के लिए सम्प्रदायिक निर्वाचन कहा है, उसके विपरीत फ़ैसला दिया है। दलित वर्ग के मतदाता सामान्य अथवा
हिन्दू निर्वाचन क्षेत्रों में सवर्ण उम्मीदवार को मत दे सकेंगे तथा सवर्ण हिन्दू मतदाता दलित वर्ग के उमीदवार को उसके निर्वाचन क्षेत्र में मतदान कर सकेंगे। इस प्रकार हिन्दू समाज की एकता को सुरक्षित रखा गया है।’ कुछ अन्य तर्क देने के बाद उन्होंने गाँधी जी से आमरण अनशन छोड़ने का आग्रह किया था।
परन्तु गाँधी जी ने प्रत्युत्तर में आमरण अनशन को अपना पुनीत धर्म मानते हुए कहा कि दलित वर्गो को केवल दोहरे मतदान का अधिकार देने से उन्हें तथा हिन्दू समाज को छिन्न-भिन्न होने से नहीं रोका जा सकता। उन्होंने आगे कहा, ‘मेरी समझ में दलित वर्ग के लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था करना हिन्दू धर्म को बर्बाद करने का इंजेक्शन लगाना है। इस से दलित वर्गो का कोई लाभ नहीं होगा।’ गाँधी जी ने इसी प्रकार के तर्क दूसरी और तीसरी गोल मेज कांफ़्रेंस में भी दिए थे जिसके प्रत्युत्तर में डॉ. आंबेडकर ने गांधी जी के दलितों के भी अकेले प्रतिनिधि और उनके शुभ चिन्तक होने के दावे को नकारते हुए उनसे दलितों के राजनीतिक अधिकारों का विरोध न करने का अनुरोध किया था। उन्होंने यह भी कहा था कि फिलहाल दलित केवल स्वतन्त्र राजनीतिक अधिकारों की ही मांग कर रहे हैं न कि हिन्दुओं से अलग हो अलग देश बनाने की। परन्तु गाँधी जी का सवर्ण हिन्दुओं के हित को सुरक्षित रखने और अछूतों का हिन्दू समाज का गुलाम बनाये रखने का स्वार्थ था। यही कारण था कि उन्होंने सभी तथ्यों व तर्को को नकारते हुए २० सितम्बर १९३२ को अछूतों के पृथक निर्वाचन के अधिकार के विरुद्ध आमरण अनशन शुरू कर दिया। यह एक विकट स्थिति थी। एक तरफ गाँधी जी के पक्ष में एक विशाल शक्तिशाली हिन्दू समुदाय था, दूसरी तरफ डॉ. आंबेडकर और अछूत समाज। अंतत: भारी दबाव एवं अछूतों के संभव जनसंहार के भय से गाँधी जी की जान बचाने के उद्देश्य से डाँ. आंबेडकर तथा उनके साथियों को दलितों के पृथक निर्वाचन के अधिकार की बलि देनी पड़ी और सवर्ण हिन्दुओं से २४ सितम्बर, १९३२ को तथाकथित पूना पैक्ट करना पड़ा। इस प्रकार अछूतों को गाँधी जी की जिद्द के कारण अपनी राजनैतिक आजादी के अधिकार को खोना पड़ा।
यद्यपि पूना पैक्ट के अनुसार दलितों के लिए ‘कम्युनल अवार्ड’ में सुरक्षित सीटों की संख्या बढ़ा कर ७८ से १५१ हो गयी परन्तु संयुक्त निर्वाचन के कारण उनसे अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार छिन गया जिसके दुष्परिणाम आज तक दलित समाज झेल रहा है। पूना पैक्ट के प्रावधानों को गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट,१९३५ में शामिल करने के बाद सन् १९३७ में प्रथम चुनाव संपन्न हुआ जिसमें गाँधी जी के दलित प्रतिनिधियों को कांग्रेस द्वारा कोई भी दखल न देने के दिए गए आश्वासन के बावजूद कांग्रेस ने १५१ में से ७८ सीटें हथिया लीं क्योंकि संयुक्त निर्वाचन प्रणाली में दलित पुन: सवर्ण वोटों पर निर्भर हो गए थे। गाँधी जी और कांग्रेस के इस छल से खिन्न होकर डॉ. आंबेडकर ने कहा था, ‘पूना पैक्ट में दलितों के साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ है।’
कम्युनल अवार्ड के माध्यम से अछूतों को जो पृथक निर्वाचन के रूप में अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने और दोहरे वोट के अधिकार से सवर्ण हिन्दुओं की भी दलितों पर निर्भरता से दलितों का स्वंतत्र राजनीतिक अस्तित्व सुरक्षित रह सकता था परन्तु पूना पैक्ट करने की विवशता ने दलितों को फिर से सवर्ण हिन्दुओं का गुलाम बना दिया। इस व्यवस्था से आरक्षित सीटों पर जो सांसद या विधायक चुने जाते हैं वे वास्तव में दलितों द्वारा न चुने जा कर विभिन्न राजनैतिक पार्टियों एवं सवर्णों द्वारा चुने जाते हैं जिन्हें उन का गुलाम या बंधुआ बन कर रहना पड़ता है। सभी राजनैतिक पार्टियाँ गुलाम मानसिकता वाले ऐसे प्रतिनिधियों पर कड़ा नियंत्रण रखती हैं और पार्टी लाइन से हट कर किसी भी दलित मुद्दे को उठाने या बोलने की इजाजत नही देती। यही कारण है कि लोकसभा तथा विधान सभाओं में दलित प्रतिनिधियों की स्थिति महाभारत के भीष्म पितामह जैसी रहती है जिस ने यह पूछने पर कि ‘जब कौरवों के दरबार में द्रोपदी का चीर हरण हो रहा था तो आप क्यों नहीं बोले?’ इस पर उन का उत्तर था, ‘मैंने कौरवों का नमक खाया था।’
वास्तव में कम्युनल अवार्ड से दलितों को स्वंतत्र राजनैतिक अधिकार प्राप्त हुए थे जिससे वे अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने के लिए सक्षम हो गए थे और वे उनकी आवाज बन सकते थे। इस के साथ ही दोहरे वोट के अधिकार के कारण सामान्य निर्वाचन क्षेत्र में सवर्ण हिन्दू भी उन पर निर्भर रहते और दलितों को नाराज करने की हिम्मत नहीं करते। इस से हिन्दू समाज में एक नया समीकरण बन सकता था जो दलित मुक्ति का रास्ता प्रशस्त करता। परन्तु गाँधी जी ने हिन्दू समाज और हिन्दू धर्म के विघटित होने की झूठी दुहाई दे कर तथा आमरण अनशन का अनैतिक हथकंडा अपना कर दलितों की राजनीतिक स्वतंत्रता का हनन कर लिया जिस कारण दलित सवर्णों के फिर से राजनीतिक गुलाम बन गए। वास्तव में गाँधी जी की चाल काफी हद तक राजनीतिक भी थी जो कि बाद में उनके एक अवसर पर सरदार पटेल को कहीं गयी इस बात से भी स्पष्ट है—
‘अछूतों के अलग मताधिकार के परिणामों से मैं भयभीत हो उठता हूँ। दूसरे वर्गो के लिए अलग निर्वाचन अधिकार के बावजूद भी मेरे पास उनसे सौदा करने की गुंजाइश रहेगी परन्तु मेरे पास अछूतों से सौदा करने का कोई साधन नहीं रहेगा। वे नहीं जानते कि पृथक निर्वाचन हिन्दुओं को इतना बाँट देगा कि उसका अंजाम खून खराबा होगा। अछूत गुंडे मुसलमान गुंडों से मिल जायेंगे और हिन्दुओं को मारेंगे। क्या अंग्रेजी सरकार को इस का कोई अंदाजा नहीं है? मैं ऐसा नहीं सोचता।’ (महादेव देसाई, डायरी, पृष्ठ ३०१, प्रथम खंड)
गांधी जी के इस सत्य कथन से आप गाँधी जी द्वारा अछूतों को पूना पैक्ट के लिए बाध्य करने के असली उद्देश्य का अंदाजा लगा सकते हैं।
दलितों की संयुक्त मताधिकार व्यवस्था के कारण सवर्ण हिन्दुओं पर निर्भरता के कारण दलितों की कोई भी राजनैतिक पार्टी पनप नहीं पा रही है चाहे वह डॉ. आंबेडकर द्वारा स्थापित रिपब्लिकन पार्टी ही क्यों न हो। इसी कारण डॉ. आंबेडकर को भी दो बार चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा क्योंकि आरक्षित सीटों पर भी सवर्ण वोट ही निर्णायक होता है। इसी कारण सर्वण पार्टियाँ ही अधिकतर आरक्षित सीटें जीतती हैं। पूना पैक्ट के इन्हीं दुष्परिणामों के कारण ही डॉ. आंबेडकर ने संविधान में राजनैतिक आरक्षण को केवल १० वर्ष तक ही जारी रखने की बात कहीं थी। परन्तु विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ इसे दलितों के हित में नहीं बल्कि अपने स्वार्थ के लिए अब तक लगातार १०-१० वर्ष तक बढ़ाती चली आ रही हैं क्योंकि इस से उन्हें अपने मनपसंद और गुलाम सांसद और विधायक चुनने की सुविधा रहती है।
सर्वण हिन्दू राजनीतिक पार्टियाँ दलित नेताओं को खरीद लेती हैं और दलित पार्टियाँ कमजोर हो कर टूट जाती हैं। यही कारण है कि उत्तर भारत में तथाकथित दलितों की कही जाने वाली बहुजन समाज पार्टी भी ब्राह्मणों और बनियों के पीछे घूम रही है और ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है’ जैसे नारों को स्वीकार करने के लिए बाध्य हैं। अब तो उसका रूपान्तरण बहुजन से सर्वजन में हो गया है। इन परिस्थितियों के कारण दलितों का बहुत अहित हुआ है वे राजनीतिक तौर पर सवर्णों के गुलाम बन कर रह गए हैं। अत: इस सन्दर्भ में पूना पैक्ट के औचित्य की समीक्षा करना समीचीन होगा। क्या दलितों को पृथक निर्वाचन की मांग पुन: उठाने के बारे में नहीं सोचना चाहिए?
यद्यपि पूना पैक्ट की शर्तो में छुआ-छूत को समाप्त करने, सरकारी सेवाओं में आरक्षण देने तथा दलितों की शिक्षा के लिए बजट का प्रावधान करने की बात थी परन्तु आजादी के ६५ वर्ष बाद भी उनके किर्यान्वयन की स्थिति दयनीय ही है। डॉ. आंबेडकर ने अपने इस अंदेशों को पूना पैक्ट के अनुमोदन हेतु बुलाई गयी २५ सितम्बर, १९३२ को बम्बई में सवर्ण हिन्दुओं की बहुत बड़ी मीटिंग में व्यक्त करते हुए कहा, ‘हमारी एक ही चिंता है। क्या हिन्दुओं की भावी पीढ़ियां इस समझौते का अनुपालन करेंगी?’ इस पर सभी सवर्ण हिन्दुओं ने एक स्वर में कहा था, ‘हाँ हम करेंगे’। डॉ. आंबेडकर ने यह भी कहा था, ‘हम देखते हैं कि दुर्भाग्यवश हिन्दू सम्प्रदाय एक संगठित समूह नहीं है बल्कि विभिन्न सम्प्रदायों की पेâडरेशन है। मैं आशा और विश्वास करता हूँ कि आप अपनी तरफ से इस अभिलेख को पवित्र मानेंगे तथा एक सम्मानजनक भावना से काम करेंगे।’ क्या आज सवर्ण हिन्दुओं को अपने पूर्वजों द्वारा दलितों के साथ किये गए इस समझौते को ईमानदारी से लागू करने के बारे में थोड़ा बहुत आत्म चिंतन नहीं करना चाहिए। यदि वे इस समझौते को ईमानदारी से लागू करने में अपना अहित देखते हैं तो क्या उन्हें दलितों के पृथक निर्वाचन का राजनैतिक अधिकार लौटा नहीं देना चाहिए?