पूर्वमीमांसा दर्शन/ भाग-1 / गीता हृदय: परिशिष्ट-2 / सहजानन्द सरस्वती
प्रत्येक प्राणी के चित्त में सर्वदा यह उत्कंठा बनी रहती है कि दु:ख मुझे न हो किंतु सुख ही सर्वदा बना रहे। अतएव सभी तदनुकूल ही यत्न क्षेत्र में पदार्पण भी करते हैं परंतु पूर्णतया पदार्थज्ञान न होने से उचित उपायों का अनुसरण न कर अपने अभीष्ट का सम्यक लाभ नहीं कर सकते, किंतु आनंदकण के ही भागी होते हैं और वह भी अचिरस्थाई तथा मधुमिश्रित-विषभक्षण-जन्य-सुख के सदृश होता है। दु:ख-निवृत्ति का तो नाम भी नहीं, प्रत्युत सर्वत्र उनको दु:खों से ही सामना करना पड़ता है, फलत: वे अपना मनोरथ नहीं सिद्ध कर सकते। हाँ, केवल मनुष्य में यह शक्ति ईश्वर प्रदत्त है कि वह जो चाहे सो प्राप्त कर सकता है और इसीलिए उपरोक्त नियमानुसार वह भी उसी धुन में लगता है परंतु यह वार्ता गुप्त नहीं कि प्रत्येक वस्तु के प्राप्त करने के उपाय होते हैं जिनसे ही वह वस्तु प्राप्त की जा सकती है। अतएव मनुष्यता के कारण कार्याकार्यी-विचारक्षम होने से वह भी उपायांवेषण में दत्तचित्त होता है, परंतु स्मरण रहे कि उपदेष्टा के बिना इष्टसिद्धि के उपाय जाने नहीं जाते। सब का ज्ञानभंडार उत्पत्ति के साथ ही फूट नहीं पड़ता किंतु अंततोगत्वा ताले में कुंजी तो लगानी ही पड़ती है। विश्वविद्यालय के बनाए नियमों के बिना बी. ए. की डिग्री प्राप्त करना तथा उससे फल प्राप्त करना संभव नहीं, इसके अलावे सदुपदेश न मिलने पर वंचक लोगों को तो उपदेश मिलेगा ही, जिसका परिणाम यह होगा कि लक्ष्यसिद्धि तो दूर रही उससे सैकड़ों कोस पड़ जाना होगा। जैसे कोई बालक शिक्षाकाल में उचित शिक्षा स्थानों में प्राप्त न हो दुष्टसंसर्ग से भ्रष्टसंस्कार होकर मनुष्यशरीर-साध्या-लक्ष्य से वंचित रह जाता है और उसका जीवन भविष्य में माता-पिता तथा अन्य संबंधियों का महान अनर्थकारी हो जाता है तथा कितने ही भावी सपूतों की आशा पर उसके संसर्ग से पानी फिर जाता है। ठीक वही दशा मनुष्य की भी हो सकती है। इसीलिए दयालु महर्षिगणों द्वारा दर्शनों का प्रादुर्भाव हुआ। जो सदुपदेश तथा असदुपदेश की शाण रूप हैं, इस बात को आगे प्रसंगवश स्पष्टतया तत्र यत्र प्रदर्शन करेंगे। उनका उद्देश्य केवल यही है कि उनसे ज्ञान लाभ कर पुरुष स्वार्थ तथा परार्थ को यथोचित रीति से सिद्ध कर सके। जैसा कि बालक सभी स्वकीय एवं स्वसंबंधियों की इष्टसिद्धि में समर्थ हो सकता है जब शिक्षालय में प्राप्त होकर उचित शिक्षा क्रम से ग्रहण करे। कितनों का यह कथन है कि तो फिर दर्शनों का परस्परविरोध क्यों? एक-दूसरे का खंडन-मंडन क्यों करता है? द्वैत तथा अद्वैत दोनों तो सत्य हो ही नहीं सकते, पदार्थों की सात और चौबीस या पच्चीस संख्या तो हो ही नहीं सकती, एक ही बात सत्य होगी, इससे जाना जाता है कि दर्शनकर्त्ता भी पारंगत न थे। किंतु जिसकी बुद्धि में जैसा आया वैसा ही लिख मारा। कितने लोग ऐसा भी कहते हैं कि जैसे जलवायु प्रभृति ईश्वरीय पदार्थ सबके लिए समान हैं वैसे ही ईश्वरप्राप्ति का मार्ग भी सबके लिए एक ही होना चाहिए अर्थात एक ही धर्म व दर्शन चाहिए न कि नाना इत्यादि। इस सब कथनों का तत्त्व तथा समाधान उपरोक्त बालक दृष्टांत से ठीक-ठीक समझ में आ जाएगा। दर्शन नाम ज्ञान का तथा जिस द्वारा ज्ञानप्राप्ति होती है उसका है। यद्यपि ज्ञान प्रद से सभी घट घटादि ज्ञानों का ग्रहण हो सकता है तथापि शास्त्रीतय संकेत, प्रकरण और तात्पर्यादि वश से मोक्षोपयोगी आत्मज्ञान ही यहाँ पर लिया जाता है, अतएव जिससे उसकी प्राप्ति होगी वह भी उन्हीं पदार्थों का प्रतिपादक होना चाहिए जो उस ज्ञान के उपयोगी होवें, इस प्रकार से आत्मज्ञानोपयोगी पदार्थ प्रतिपादक वाक्यसमूह का ही नाम दर्शनशास्त्र हुआ। अब विचारना चाहिए कि क्या उस ज्ञानप्राप्ति के अधिकारी सब समान ही हैं जिससे सबके लिए एक प्रकार का ही उपदेश या दर्शन होना चाहिए? क्या स्कूल या कॉलिजों में सब बालकों के लिए एक ही प्रकार के क्लास, किताबें या उपदेश होते हैं? क्या प्राइमरी क्लास के बालकों के लिए बी. ए. इत्यादि क्लासों की शिक्षा विरोधिनी नहीं होती जिससे वे हटाकर नीचे दर्जों में भर्ती किए जाते हैं? हाँ पढ़-लिख लेने पर कोई भी शिक्षा विरोधिनी नहीं हो सकती। ठीक वही दशा दर्शनों की भी समझनी चाहिए। ये भी बालकवत अधिकारी के अनुरोध से प्रवृत्त हुए हैं और उसी दृष्टि से परस्पर विरुद्ध भी प्रतीत होते हैं परंतु विचारदृष्टि से नहीं, इस विषय को आगे प्रत्येक दर्शन में प्रतिपाद्य विषयों के अधिकारी आदि निरूपण प्रसंग में विस्तार से दिखलावेंगे। इसीलिए इनको Six schools of Philosophy कहते हैं। स्कूल पद से उपरोक्त ही तात्पर्य का ग्रहण उचित है। वस्तुत: तो दर्शनों का परस्पर विरोध है ही नहीं किंतु विचार बिना ही प्रतीत होता है इस बात को परस्पर संगति दिखलाते हुए प्रदर्शन करेंगे। अत: ऋषिगणों की पारंगतता में कोई संशय नहीं है। सबके लिए जल, वायु आदि समान हैं यह भी कहना असंगत ही है, प्रत्येक प्रदेशों की भूमि, जल, वायु आदि भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं, किसी की प्रकृति के अनुकूल ही जलादि दूसरे के प्रतिकूल हैं, शीत, प्रदेशवासियों के विरुद्ध गर्म देश हैं और इनके लिए गर्म देश विरुद्ध हैं, इत्यादि। और भी देखना चाहिए कि एक ही गृह में पिता पुत्रादि का धर्म जब समान नहीं होता तो सृष्टि मात्र का कैसे समान हो सकता है। क्या बड़े राजे-महाराजों के पास पंडित, मूर्ख, ब्राह्मण और चांडाल की बराबर पहुँच हो जाती है और उनकी वहाँ बराबर ही प्रतिष्ठा होती है? इससे स्पष्ट है कि सबके लिए एक धर्म या दर्शन बनाना गोया सब स्कूल या कॉलिजों में बालकमात्र के लिए एक ही क्लास तथा उपदेशकादि बनाना है। इसलिए सब लोगों को सामान्यत: यह बात मान लेनी होगी कि आर्षदर्शनों की प्रवृत्ति के नियमानुकूल लोगों के बोध होने के लिए ही है। जैसे किसी ऊँचे मकान की छत पर पहुँचने के लिए सोपान होते हैं वैसे ही परमात्मा जो अति दुर्ज्ञेय होने के कारण ऊँची छत के तुल्य है उसकी प्राप्ति के लिए दर्शन सोपानवत है। जैसे एक सोपान से दूसरे पर जाने से ही सकुशल ऊपर पहुँच सकता है, वैसे ही एक दर्शन ज्ञानोत्तर अन्य दर्शन ज्ञान से ही परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है अन्यथा नहीं यह वार्त्ता आगे स्पष्ट की जावेगी।
जो मनुष्य मद्यपान करके विचारहीन हो रहा है उससे किसी ने हँसी में कह दिया कि तुम्हारे मुख पर कालिमा-पूर्ण बिंदु विद्यमान है, उसने विचार में अक्षम होने के कारण स्वयं विचार न करके दूसरों से पूछा तो किसी ने कहा कि 'नहीं' और दूसरे हास्यप्रिय ने उत्तर दिया कि 'हाँ'। बस, अब क्या था? उसका लोगों के कथन पर विश्वास जाता रहा और वह अपने इस क्लेश के निवारण का यत्न सोचने लगा। इतने ही में किसी वृद्ध ने उसे यह सम्मति दी कि तुम्हारे गृह के अमुक भाग में एक दर्पण है, उसमें अपने मुख का अवलोकन कर स्वकीय संशय और तज्जन्य दु:ख इन दोनों को हटा सकते हो। परंतु स्मरण रहे कि वह दर्पण बाहर नहीं है किंतु उसके ऊपर सूक्ष्म वस्त्र का आच्छादन लगा तदनंतर काष्ठा के ढक्कन से ढक कर पृथ्वी के नीचे गाड़ दिया गया है, इसलिए प्रथम तुम्हें यही उचित है कि उसके ऊपर का मल (मिट्टी) हटाकर ढक्कन सहित उसे ऊपर करो, तदुपरांत काष्ठा का परदा भी हटाना होगा और उसके बाद सूक्ष्म वस्त्र आवरण को दूर कर स्वच्छंदतापूर्वक स्वमुख निरीक्षण कर संपूर्ण क्लेशों का निवारण कर सकते हो। इस उचित और परमोपयोगी उपदेश को सुनकर उस पुरुष ने क्रमश: तीनों कार्य करके निर्मल दर्पण को प्रकट किया और उसमें अपने स्वरूप का प्रतिबिंब सुस्पष्ट रूप से अवलोकन कर मुक्त क्लेश हुआ। यदि प्रथम ही वह मुख ही देखना चाहता और कुछ व्यापार (कर्म या क्रिया) नहीं करता अथवा वस्त्र रूप आवरण या काष्ठ को ही प्रथम हटाना चाहता तो क्या कभी भी उसके सफल मनोरथ होने की संभावना भी हो सकती थी या है? अथवा क्या कभी भी विचार में यह बात आ सकती है कि जिस पुरुष ने उसे मुँह देखने के लिए प्रथमत: 'न' कहकर मल (मिट्टी) हटाने के ही लिए उसे उपदेश दिया उसका तात्पर्य दर्पण में मुख देखने में नहीं है? उसमें मुख को देख लेना तो फल है, अत: उसके लिए उपदेश करना व्यर्थ है, साधनों के होने से वह अपने आप ही सिद्ध हो सकता है। जो मनुष्य किसी की बुभुक्षा (भूख) का निवारण करना चाहता है वह उसे 'भोजन करो' ऐसी आज्ञा वा उपदेश न देकर 'चावल, लकड़ी इत्यादि लाओ' इस प्रकार से भोजन के साधनों का ही उपदेश करता है। यह तो हुई दृष्टांत की बात। अब दार्ष्टांत में आइए। मनुष्य का हृदय सत्य गुण का कार्य होने के कारण दर्पण से भी निर्मल है इसीलिए वही दर्पण स्थानापन्न है। जिसमें यह जीव...
ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखराशी।
सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा। वारि वीचि इव गावहिं वेदा ॥
इस अपने वास्तव परमात्मस्वरूप का साक्षात्कार करके विविध नामों से रहित होता है, जिस जीव के वास्तव स्वरूप के विषय में वेदों की ये घोषणाएँ हैं कि - 'अहं ब्रह्मास्मि, तत्त्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म, प्रज्ञानं ब्रह्म, यत्त्परं ब्रह्म सर्वात्मा विश्वस्यायतनं महत्। सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरं नित्यं, तत्त्वमेव त्वमेव तत्॥' गीता में भगवान श्रीकृष्ण जी ने भी यही कहा है कि 'क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत' (गीता अ. 13) परंतु उस अंत:करण (हृदय) रूप दर्पण के ऊपर पूर्वोक्त मिट्टी, काष्ठ और वस्त्र की तरह तीन आवरण (परदे) पड़े हैं जिन्हें क्रमश: मल, विक्षेम और आवरण कहते हैं। इसलिए जब तक ये तीनों परदे हटाए न जावें तब तक अंत:करण रूप दर्पण में महामोहमदन्मत्त जीवात्मा अपने वास्तव पूर्वोक्त स्वरूप को नहीं देखता है और जैसे पूर्वोक्त पुरुष कालिमा के संशय से दु:खी रहता है उसी प्रकार यह जीव भी भिन्न-भिन्न ग्रंथों में भिन्न-भिन्न बातें सुनकर इस संदेह में मग्न रहता है कि जीवात्मा ईश्वर से भिन्न है अथवा उसी का स्वरूप और इसी संशय अथवा विपरीत निश्चय से कि जीव ईश्वर से भिन्न ही हैं, अपने को दु:खी, सुखी कर्त्ता और भोक्ता इत्यादि माना करता है। मनुष्यों के हृदय में जो राग-द्वेष, मद, छल और कपट प्रभृति दुर्गुण भरे रहते हैं उनका ही नाम प्रथम (सबसे ऊपर) या मल का परदा है। और चित्त की प्रबल चंचलता - जिसे गीता में स्पष्ट ही कह दिया है कि -
चंचलं हि मन: कृष्ण , प्रमाथि बलवद् दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये , वायोरिव सुदुष्करम्॥
अर्थात मन अत्यंत चंचल है जिसका रोक सकना वायु को रोक रखने के समान है - का नाम विक्षेम अथवा दूसरा परदा है और अपने वास्तव स्वरूप की अप्रतीति वा अज्ञान तीसरा अथवा आवरण रूप परदा है। इन तीनों की निवृत्ति क्रमश: कर्म, उपासना और ज्ञान से होती है। क्योंकि यदि किसी के मकान में धूल पड़ी होवे तो वह क्रिया (झाड़ू देने) से ही हट सकती है न कि किसी का ध्यांन या विचार करने से। इसी प्रकार विक्षेप रूप मन की चंचलता किसी इष्ट देव या वस्तु के ध्या न रूप उपासना से ही हट सकती है क्योंकि अत्यंत चंचल जंतुओं के रोकने का उपाय यही होता है कि वे एक ही स्थान में बाँध दिए जाते हैं। तीसरा आवरण या अज्ञान रूप परदा ज्ञान से ही निवृत्ति हो सकता है क्योंकि ज्ञान ही अज्ञान का नाशक है। इसीलिए वेदों या गीता में तीन कांड पाए जाते हैं, कर्म, उपासना और ज्ञान, जिनके अनुसार ही सभी दर्शन तीन भागों में विभक्त हैं, या तो कर्म के प्रतिपादक हैं अथवा उपासना या ज्ञान के।
उनमें से पूर्वमीमांसा दर्शन कर्म का ही प्रतिपादक है और उसी में उसका पर्यवसान है। न्याय, वैशेषिक और योग इन तीन दर्शनों का प्रधानत: प्रतिपाद्य विषय उपासना है। यद्यपि उनमें ज्ञान की भी झलक प्रतीत होती है तथापि वह उनका उद्देश्य या प्रधान विषय नहीं है किंतु उपासना के अनुगुण होने से उपासना ही उनका मुख्य उद्देश्य और प्रतिपाद्य विषय है। इसकी सविस्तार मीमांसा आगे होगी। सांख्य और वेदांत इन दोनों का मुख्य विषय अथवा उद्देश्य ज्ञान मात्र ही है। उनमें से भी सांख्य का ज्ञान आंशिक और वेदांत का सर्वांगपूर्ण है। इस स्थान पर इतना और हृदयंगम कर लेना अच्छा होगा कि यद्यपि न्याय और वैशेषिक दर्शनों का पर्यवसान उपासना में ही है तथापि योगदर्शन उपासना के अतिरिक्त कुछ ज्ञानपक्ष की भी सहायता करता है और उससे कुछ ही अंशों में अधिक सहायता ज्ञान की सांख्य दर्शन करता है अतएव उसका मुख्य विषय ज्ञान ही माना गया है। तात्पर्य यह है कि वेदांत दर्शन जिस ज्ञान का प्रतिपादन करता है वह वही है जैसा कि पूर्व कह चुके हैं कि 'सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा' इत्यादि। परंतु उस वेदांतप्रतिपाद्य ब्रह्मज्ञान - जीव ब्रह्म से वास्तव में पृथक नहीं है। ऐसे ज्ञान में ब्रह्म और जीव के वास्तव स्वरूपों के जानने की आवश्यकता है क्योंकि तभी यथार्थ ब्रह्मज्ञान हो सकता है। जब तक हम दो पदार्थों के वास्तविक स्वरूप को न जानें तब तक यह क्योंकर जान सकते हैं कि एक पदार्थ दूसरे का स्वरूप ही है अथवा उससे पृथक इसीलिए उस ब्रह्म के शुद्ध स्वरूपज्ञान में योग दर्शन साहाय्य प्रदान करता है और जीव के शुद्ध स्वरूपज्ञान में सांख्य दर्शन। इस विषय में जो विशेषता सांख्य दर्शन की योग दर्शन से है वह आगे विदित होगी। अब इन दोनों की सहायताओं को पा वेदांत दर्शन उन द्वारा रही सही त्रुटियों को हटाकर विशुद्ध ब्रह्मज्ञान उत्पन्न कर देता है जिससे परम पुरुषार्थ रूप मोक्ष की सिद्धि हो जाती है। जैसे न्याय योगादि दर्शन उपासना द्वारा ज्ञान के सहायक होते हैं वैसे ही पूवमीमांसा दर्शन उपासना की सहायता द्वारा ज्ञान में परम्परया उपयोगी होता है। सारांश यह है कि मीमांसा या विचार का प्रारंभ पूर्वमीमांसा दर्शन से प्रारंभ होता है। इसलिए इसे पूर्वमीमांसा कहते हैं और न्याय, वैशेषिक, योग और सांख्य दर्शनों द्वारा पुष्टि को प्राप्त होता हुआ वेदांत दर्शन में समाप्त हो जाता है इसी से वेदांत दर्शन को उत्तर मीमांसा दर्शन भी कहते हैं जिसका अर्थ यही है कि मीमांसा का अंत या समाप्ति इस प्रकार सभी आर्ष (ऋषि प्रणीत) दर्शन एक ही विचार रूप सरणि या मार्ग में शृंखलाबद्ध हैं। अब देखना यह है कि पूर्वमीमांसा दर्शन इस विचारमार्ग में कहाँ तक और क्योंकर उपयोगी है। यह आस्तिक सिद्धांत है कि पूर्वमीमांसा दर्शन विचारमार्ग का प्रथम सोपान है। यह बात इस दर्शन के सूत्रों और भाष्यों की रचना शैली ही प्रमाणित कर रही है। यद्यपि न्याय दर्शन प्रभृति के भी सूत्र भाष्यादि रचना में विलक्षण हैं तथापि इतनी सूक्ष्मता और कठिनतापूर्ण विचित्र लेखनशैली किसी में भी नहीं पाई जाती है। इस तरह ज्यों-ज्यों जो-जो दर्शन सूत्र या उनके भाष्यों का निर्माण पीछे होता गया त्यों-त्यों वे सरल होते गए हैं, यहाँ तक कि वेदांतदर्शन का भाष्य सबके अंत में रचे जाने के कारण प्राय: आधुनिक लेखन प्रणाली से ही लिखा गया है और सांख्य दर्शन सूत्रों का भाष्य तो बहुत हाल में बना है अत: उसकी भाष्यशैली बिलकुल ही आधुनिक है। इसमें संशय नहीं है कि महर्षि पाणिनि कृत व्याकरणसूत्रों की अष्टाध्यायी और उसके भाष्य तो मीमांसा दर्शन से भी प्राचीन हैं इसीलिए उनकी रचनाशैली और भी विचित्र है। प्राचीन लोगों की यह रीति थी कि लेख को बहुत ही संक्षिप्त करते थे। अतएव पाणिनीय सूत्रों में बहुत ही संक्षेप पाया जाता है यहाँ तक कि दूसरे-दूसरे सूत्रों के ही पद अन्य सूत्रों में मिलकर उनके अर्थ में सहायक होते हैं। इससे बढ़कर संक्षेप क्या हो सकता है। अतएव वैयाकरणों का यह सिद्धांत है कि -
'अर्द्धमात्रालाघवेन पुत्रोत्सवं मन्यंते वैयाकरणा:'
जिसका अभिप्राय यह है कि यदि सूत्रों के निर्माण में एक रीति को अवलंबन करने से आधी मात्रा की भी बचत होवे तो वे लोग उतने ही से पुत्रजन्म के समान आनंद मानते हैं। यह भी देखा जाता है कि मीमांसादर्शन भाष्य में बहुत जगह पाणिनीय सूत्रों अथवा उनके अंशों को ज्यों का त्यों लिखा है। अत: पाणिनिसूत्र और उनका भाष्य सभी दर्शनों से प्राचीन है, इसीलिए जैसे व्याकरण महाभाष्य में जिन गावी, गोणी, गोता और गोपोतलिका शब्दों का संकीर्त्तन है उन्हीं का मीमांसा दर्शन में भी परंतु उस भाष्य में इसकी रचना शैली कुछ सुगम अवश्य है, अत: वह भी इससे प्राचीन ही है। अस्तु, चूँकि पूर्वमीमांसा दर्शन विचार का प्रथम सोपान या सीढ़ी है, और मोक्षमार्ग के लिए यत्न करने में सबसे प्रथम कर्मों की ही आवश्यकता पड़ती है जैसा कि पूर्व में ही कहा जा चुका है, इसीलिए पूर्वमीमांसा दर्शन ने कर्मों पर ही विशेष रूप से दबाव डाला। इस दर्शन के कर्त्ता महर्षि प्रवर जैमिनि जी का यह दृढ़ विचार था कि मनुष्य को सबसे पहले कर्मवीर होना चाहिए उसके बाद सभी सिद्धियाँ अथवा सभी वस्तुएँ उसे प्राप्त हो जाती हैं। इसी से उन्होंने कर्मवीर बनाना ही अपना मुख्य कर्तव्य समझा है। ठीक भी है, क्योंकि हृदयदर्पण के ऊपर जो सबसे मोटा आवरण या परदा राग द्वेषादिरूप मलों का पड़ा हुआ है तो उस दर्पण से दूसरा काम कैसे हो सकता है? उस बुद्धि से दूसरे सूक्ष्म विचार कैसे हो सकते हैं। इसीलिए पूर्वमीमांसा दर्शन कर्मकांड कहलाता है। परंतु चूँकि जब तक मनुष्य को यह न विदित हो जावे कि जो वस्तु हम चाहते हैं उसकी प्राप्ति के लिए अमुक (फलाँ) साधन ही ठीक है न कि दूसरे भी उपाय हैं तब तक वह नि:संशयरूप से उस यत्न में नहीं लगता। क्योंकि उसे यह संशय लगा रहता है कि हमारा उपाय झूठा तो नहीं है, दूसरे उपाय हमारे साधन की अपेक्षा सहज तो नहीं हैं? अथवा उनसे शीघ्र फल की प्राप्ति तो न हो जाएगी? और जब तक संशय बना हुआ है तब तक उचित यत्न किसी भी वस्तु की प्राप्ति के लिए कैसे हो सकता है? अतएव भगवान श्रीकृष्ण जी ने भी यही कहा है :
नायंलोकोऽस्तिन परो , न सुखं संशयात्मन: (गीता)।
अर्थात जिसके चित्त में संदेह को स्थान मिल गया है उसके न तो ऐहिक ही कार्य सिद्ध हो सकते हैं और न परलौकिक ही क्योंकि संशयाक्रांत हो जाने से सभी कार्य छूट सकते हैं। और चूँकि सभी विवेकियों को मोक्ष की ही आंतरिक अभिलाषा रहती है, इसलिए जैमिनि भगवान ने अपने मीमांसा दर्शन में यही दिखलाया कि मोक्ष के साधन यदि कोई हैं तो वे कर्म ही हैं। इस प्रकार से उन्होंने कर्मों पर इतना जोर दिया जिसको कह नहीं सकते। इसलिए उन्होंने उपासना और ज्ञान दोनों की निंदा की जिसका तात्पर्य केवल इतना ही है कि लोग निस्संदेह कर्मों में प्रवृत्त हों, न कि उनका वास्तव में निंदा में ही तात्पर्य है। अतएव पूर्वमीमांसा भाष्यकार शंबर स्वामी ने कई जगह लिखा है कि 'नहिं निंदा निंद्यं निंदयितुं प्रवर्त्तते, किंतु निंद्यादितरत्प्रशंसयितुम्' अर्थात किसी की निंदा इसलिए नहीं कि जाती या की गई है कि वास्तव में वह वस्तु ऐसी ही है, बल्कि उस निंदा का अभिप्राय उस निंदित पदार्थ से भिन्न अपने अभीष्ट वस्तु की प्रशंसा में ही होता है। उन्होंने यह समझा कि चाहे जैसे हो अधिकारी पुरुष को कर्म में प्रवृत्त कर दो। जब कर्मों के करने से उसका हृदयदर्पण निर्मल हो जाएगा तो उसमें उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ वस्तुएँ आप ही भान होने लगेंगी - उस पुरुष को यह बिना कहे ही विदित हो जाएगा कि मोक्ष क्या वस्तु है और उसके साधन ज्ञान अथवा उपासना हैं वा नहीं।
चार्वाक आदि नास्तिकों ने देह अथवा इंद्रियादि को ही आत्मा मानकर स्मरण को ही मुक्ति, सांसारिक विषय सुख को ही स्वर्ग, दु:ख को ही नरक और राजा को ही ईश्वर माना था, या अब तक भी वे मानते ही हैं, अतएव उनके मत में धर्माधर्म कोई वस्तु नहीं है, क्योंकि उसके फल सुख और दु:खों को स्वर्ग, यमलोक या जन्मांतर में भोगनेवाला कोई जीव मरणांतर रही नहीं जाता, जिसे उसका भय अथवा उसी की प्राप्ति की अभिलाषा हो। इसी से उन्होंने ये सिद्धांत निकाला कि -
' यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।
भस्मीभूतस्य देहस्य , पुनरागमनं कुत:॥ '
अर्थात 'जब तक शरीर रहे तब तक आनंद से रहे और ऋण लाकर भी अच्छी तरह घी, दूध, खावे, क्योंकि मरणोत्तर जब शरीरात्मा का दाह हो जाएगा तो फिर संसार में आना थोड़े ही है जिससे सुख-दु:ख का भय हो।' इसलिए पूर्वमीमांसा दर्शन ने कर्मवाद चलाया और यह युक्तियों से सिद्ध किया कि धर्म का ही फल सुख और अधर्म का फल दु:ख है, जिसे अवश्य ही परलोक या जन्मांतर में भोगना पड़ता है। अत:एव शरीरादि से भिन्न ही आत्मा को मानना पड़ेगा, नहीं तो इस शरीर से किए गए धर्माधर्म के फलों को पीछे कौन भोगेगा? यदि कर्ममूलक यह सृष्टि न मान कर अकस्मात् ही मान ली जावे तो इसकी विचित्रता भंग हो जावेगी, क्योंकि बिना विचित्र कारणों के विचित्र कार्य नहीं होते, यह भी नहीं देखा गया कि केवल रक्त या श्वेत तंतुओं से चित्र रंग का वस्त्र तैयार होता है अथवा बिना भोजन किए ही तृप्ति होती है। यदि पुनर्जन्म न माना जावे तो कृतहानि और अकृताभ्यांगम रूप दोष भी होगा। तात्पर्य यह है कि इस शरीर से मरणोपर्यंत जो कुछ किया है उसका बिना भोग के ही नाश, और बाल्यावस्था से लेकर ही इस शरीर के सुख-दु:खों की प्राप्ति बिना कुछ किए ही होगी, क्योंकि भोगने वाला शरीर तो प्रथम था ही नहीं, तो अच्छे या बुरे कर्म किसने किए? परंतु ऐसा इस संसार में नहीं देखा जाता है कि जो चोरी न करे उसकी सजा हो और चोर जान बूझकर छोड़ दिया जावे। यदि सोने के बाद जागना और जागने के बाद सोना यह संसार का अटल नियम है और मृत्यु भी एक प्रकार की गहरी निद्रा ही है तो उसके बाद फिर पुनर्जन्म रूप जागरण क्यों न होगा? जो बालक थोड़ा पढ़ता है उसका ज्ञान अल्प होता है अधिक पढ़ने वाले का अधिक। अर्थात जिसने जितना ही अधिक अर्जन किया है उसका ज्ञान उतना ही अधिक होता है, परंतु जो जन्म के थोड़े दिन बाद ही बिना पढ़े-लिखे ही विशेष ज्ञानवान होता है उसने इस शरीर से तो ज्ञानार्जन किया है नहीं, इसलिए मानना ही पड़ेगा कि दूसरे शरीर में ही उसने यह कमाया था। जन्म के साथ ही मनुष्य बालक जंगल के पशु या कीड़े जो माता के स्तन पीने लग जाते और यदि उन्हें कोई मारने चले तो भागने लग जाते हैं इत्यादि, इससे सिद्ध है कि वे जीवन अदृष्ट (धर्माधर्म) के प्रभाव से जन्मांतरीय स्तनपान के सुख और मारने के दु:ख को स्मरण करके ही ऐसा करते हैं, क्योंकि इस जन्म में तो अब तक उनहोंने ऐसे सुख या दु:ख का अनुभव किया ही नहीं, और बिना अनुभव के स्मरण हो नहीं सकता, क्योंकि बिना जानी बात को याद कौन कर सकता है? यदि ऐसा कहा जावे कि जिस माता-पिता से बालक की उत्पत्ति हुई है उसी के हाथ, पाँव और मुखादि जैसे बालक के भी हाथ, पाँव आदि जिस तरह होते हैं न कि, जन्मांतर जैसे, उसी तरह माता-पिता के स्तनपान प्रभृति धर्म भी बालक में प्राकृतिक नियमानुसार आ जाते हैं, न कि इनके लिए जन्मांतर की आवश्यकता है, तो फिर यह प्रश्न किया जा सकता है कि फिर पंडितों के बच्चे मूर्ख और मूर्खों के पंडित क्यों हुआ करते हैं? पिता का पांडित्य पुत्र में वैसे ही क्यों नहीं चला आता? काले पिता के गोरे पुत्र और गोरे के काले क्यों हुआ करते हैं? और अन्धोंय और बहिरों के बच्चे आँख और कान वाले क्यों हुआ करते हैं? जिन लोगों का यह कहना है कि कोई बुद्धिमान और कोई निर्बुद्धि कोई धनी और कोई निर्धन, कोई मनुष्य और कोई पशु इत्यादि सृष्टि की विचित्रता इसलिए नहीं हुई कि उन्होंने पूर्वजन्म में विचित्र कर्म (धर्माधर्म) किए थे, किंतु पृथ्वी, जल और वायु आदि के परमाणुओं के विलक्षण-विलक्षण रासायनिक संयोग से विलक्षण-विलक्षण वस्तुओं की उत्पत्ति हुई। जो रासायनिक संयोग से उत्तम या उससे उत्तम वस्तु बनी, एवं मध्य्म से मध्यपम इत्यादि। अत: उसके लिए धर्माधर्मों के मानने की कोई आवश्यकता नहीं। इसी तरह शरीर से पृथक जीवात्मा भी कोई वस्तु नहीं है, किंतु जैसे कत्था, पान और सुपारी आदि के मेल या रासायनिक संयोग से रक्तिमा उत्पन्न हो जाती, है, जो प्रत्येक में नहीं होती। अथवा जैसे महुआ और गुड़ के मेल से मादकता (नशा) कोयला और कबूतर के पर इत्यादि के संयोग से विद्युत (बिजली) पैदा हो जाती है इत्यादि, जो प्रत्येक वस्तुओं में नहीं रहती। उसी प्रकार इन्हीं पूर्वोक्त पृथिवी आदि के परमाणुओं के रासायनिक संयोग से ही चेतना पैदा हो जाती है जिसे जीवात्मा कहते हैं और उन्हीं परमाणुओं के उस रासायनिक संयोग के बिगड़ जाने से चेतनता नष्ट हो जाती है जिसे मृत्यु कहते हैं।
यदि किसी का यह प्रश्न उन नास्तिकों (चार्वाक आदि) के प्रति होवे तो फिर जिस विलक्षण संयोग (रासायनिक संयोग) से विलक्षण वे पदार्थ बने वह रासायनिक संयोग विलक्षण-विलक्षण क्यों हुआ? सभी संयोग एक ही प्रकार के क्यों न हो गए? इससे उसी विलक्षण के लिए अदृष्ट (धर्माधर्म) रूप कोई कारण अवश्य मानना होगा। तो इस समस्या को वे लोग इस प्रकार हल करने का यत्न करते हैं कि यह तो स्वभाव (Nature) है जिससे सभी रासायनिक संयोग एक प्रकार के नहीं होते, और इस स्वभाव के विषय में प्रश्न किया जा नहीं सकता, क्योंकि अग्नि उष्ण क्यों हुई और जल शीतल क्यों हुआ? ऐसे प्रश्न हो ही नहीं सकते। इन्हीं बातों को उन्होंने यों कहा है -
अत्र चत्वारि भूतानि , भूमि वार्यनलानिता : ।
चतर्श्य : खलु भूतेभ्यश्चैतन्यमुपाजायते॥ 1 ॥
किण्वादिभ्य : समेतेभ्यो , द्रव्येभ्यो मदशक्तिवत्।
अहं स्थूल : कृशोऽस्मीति समानाधिकरण्यत : ॥ 2 ॥
देह : स्थोल्यादियोगाच्च स एवात्मा नवापर : ।
मम देहोऽय मित्युक्ति : संभववेदौपचारिकी॥ 3 ॥
नित्यस त्त्वा भ वंत्ये के , नित्यस त्त्वा श्च केचन।
विचि त्रा : केचिदित्यत्र , तत्स्वभावो नियामक : ॥ 4 ॥
अग्निरुष्णो जलं शीतं , समस्पर्श स्तकाऽनिल : ।
केनेदं रचितं तस्मात् स्वभावात्तद्व्यवस्थति : ॥ 5 ॥
इसका तात्पर्य वही है जैसा कह चुके हैं, केवल इतना ही अधिक इसमें है कि उन्होंने देह को ही आत्मा मानने से यह भी युक्ति दिखलाई है कि जब 'हम स्थूल हैं, कृश हैं' ऐसी प्रतीति हो रही है तो देह से भिन्न आत्मा की सत्ता हो कैसे सकती है? क्योंकि स्थूलता प्रभृति तो शरीर के ही धर्म हैं। 'मेरा शरीर है' ऐसी प्रतीति जब कहीं भी होती है तो उससे यह न समझ लेना चाहिए कि जैसे 'मेरा घर है,' ऐसा कहने वाला घर से पृथक है, वैसे ही 'मेरा शरीर' कहने वाला जीव शरीर से भिन्न है, क्योंकि वह तो प्रतीति ऐसी ही है जैसी राहु का सिर यह प्रतीति। क्योंकि राहु तो सिर का नाम है ही, फिर उसका कौन-सा सिर हो सकता है? परंतु फिर भी ऐसा व्यवहार होता रहता है, उसी प्रकार आत्मा तो शरीर रूप ही है, फिर भी 'शरीरात्मा का शरीर' यह व्यवहार होता रहता है, इससे यह स्पष्ट है कि आत्मा शरीर से अलग कोई वस्तु नहीं है, किंतु पूर्वोक्त रीति से चेतना उत्पन्न होने पर उसे ही अथवा वह चेतन शरीर ही जीवात्मा है।
यहाँ पर नास्तिकों से यह पूछना चाहिए कि जिन विलक्षण-विलक्षण रासायनिक संयोगों से वस्तुओं की विचित्रता हुई वे संयोग बिना कारण ही विचित्र-विचित्र क्यों हो गए? यदि इस प्रश्न को वे लोग स्वभाववाद का अवलंबन कर टालने का यत्न करें, तो उन्हें यह कह कर रोकना चाहिए कि यदि आपको आगे चल कर निरुत्तर होने पर स्वभाववाद का ही आश्रयण करना था तो रासायनिक संयोग तक क्यों गए? चेतनता और विचित्रता को ही स्वाभाविकी क्यों न मान लिया? यदि इस चेतनता आदि का आप कारण ढूँढ़ते और मानते हैं, तो फिर इसी प्रकार आपको इसके कारण विलक्षण रासायनिक संयोग का भी कारण बलात मानना ही पड़ेगा। यदि प्रथम से ही अथवा आगे चलकर ही आपके इस स्वभाव रूप समाधान को मानें तो भी उसका तात्पर्य यही हो सकता है कि आप यथावत उत्तर नहीं दे सकते। अर्थात 'हम नहीं जानते' इसी बात को 'स्वभाव से ही' इस शब्दांतर से कहते हैं। क्योंकि यदि आपका स्वभाववाद रूप निर्मूल समाधान (उत्तर) सत्य और उचित मान लिया जावे तो बड़ी-बड़ी लीलाएँ दृष्टिगोचर होंगी, क्योंकि जो बात आप कहते हैं उससे विरुद्ध पक्ष को ही यदि कोई आस्तिक सिद्ध करना चाहेगा तो कुछ देर तक आपका उत्तर देता रहेगा और जहाँ पर उसे उत्तर न आवेगा वहीं 'स्वभाव से ही' ऐसा कह बैठेगा, जिससे आपको पराजय मानना ही होगा। साथ ही इस प्रकार का स्वभाववाद लेकर इस संसार में सभी बातें सत्य ही सिद्ध की जा सकती हैं। इसलिए आपको स्वयं ही अवश्य स्वीकार करना होगा कि इस प्रकार 'स्वभाव से ही' यह उत्तर उचित नहीं है किंतु इसका तात्पर्य यही है कि 'हम नहीं जानते।'
जो अग्नि और जल का दृष्टांत देकर आप स्वभाववाद का अवलंबन करते हैं वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि वैसे ही दृष्टांत आपसे विपरीतवादी को भी मिल सकते हैं। दूसरी और सत्य बात तो यह है कि स्वभाव उसका नाम है जिसे सभी लोग प्रत्यक्ष प्रमाण से जानते हों और जिसमें किसी को विवाद न हो, जैसे जल की शीतता अथवा अग्नि की उष्णता को सभी लोग प्रत्यक्ष ही जानते हैं और इनमें किसी को भी विवाद नहीं है। अत: ये उष्णता आदि स्वभाव कहे जाते हैं। परंतु भूतों या परमाणुओं (Atoms) की चेतनता और रासायनिक संयोग की विलक्षणता में तो विवाद भी है और वे प्रत्यक्ष भी नहीं हैं, क्योंकि चेतनता मात्र का प्रत्यक्ष है न कि वह चेतनता परमाणुओं में ही है, ऐसा भी प्रत्यक्ष है, क्योंकि यदि ऐसा होता तो अग्नि की उष्णता की तरह उसमें विवाद ही नहीं होता। और जैसे सभी अग्नि उष्ण ही देखी जाती है वैसे सब परमाणु चेतन नहीं देखे जाते, क्योंकि मिट्टी का ढेला जड़ ही होता है इत्यादि, इसी से उसमें विवाद है। और रासायनिक संयोग तो बिलकुल ही अप्रत्यक्ष है, इसीलिए उसके स्वरूप और कारणता दोनों में ही विवाद है, ऐसी दशा में अग्नि के औष्ण्य की तरह वहाँ भी स्वभाव मान कर समाधान नहीं किया जा सकता, प्रत्युत ऐसा नितांत भ्रम है।
और जो दृष्टांत मदिरा की मादकता अथवा पान की रक्तिमा का दिया गया है वह प्रकृत में असंगत है, क्योंकि वहाँ तो प्रत्यक्ष ही देखा जाता है कि रासायनिक संयोग से ही मादकता उत्पन्न होती है और रक्तिमा भी वैसे ही देखी जाती है। परंतु चेतनता भी परमाणु संयोग से ही उत्पन्न होती है यह बात तो कहीं भी प्रत्यक्ष नहीं है। अत: कहना पड़ेगा कि उसी मदिरादि के दृष्टांत से यह अनुमान किया जाता है कि चेतनता भी रासायनिक संयोग से ही उत्पन्न होती है, परंतु यह वार्ता भी असंगत है, क्योंकि दृष्टांत मात्र से ही अनुमान नहीं होता, अन्यथा संसार में सभी वस्तुओं का अनुमान सुगमता से हो सकता है, क्योंकि दृष्टांत मात्र सर्वत्र ही सुलभ है।
इसीलिए भगवान कात्यायन ने न्याय दर्शन भाष्य में कहा है कि -
' नहिं दृष्टांतमात्रमप्रतिसंहितंकिंचित्करं।
दृष्टांतवत्प्रतिदृष्टांतस्यापि संभवात्॥ '
अर्थात बिना किसी विशेष हेतु के कोई वस्तु दृष्टांत मात्र से सिद्ध नहीं हो सकती, क्योंकि उस दृष्टानत के विपरीत भी दृष्टांत मिल सकते हैं जिनसे उस वस्तु का उलटा भी सिद्ध किया जा सकता है। अत: आपको विलक्षण रासायनिक संयोग से चेतनता की उत्पत्ति सिद्ध करने के लिए कोई विशेष हेतु देना होगा, जिसमें पूर्वोक्त मदिरा वाली बात दृष्टांत बनेगी। परंतु स्मरण रहे कि अनुमान करने के लिए जो हेतु कहा जाता है उसका और जो वस्तु सिद्ध की जावेगी इन दोनों की व्याप्ति होती है, जिसे अंग्रेजी वाले नियम 'ला' (Law) कहते हैं, जिसका तात्पर्य यह है कि जब कहीं दूर से केवल धुएँ को देखकर वहाँ अग्नि का अनुमान करते हैं तो उस अनुमान से प्रथम ही यह निर्णात रहता है कि जहाँ धुआँ रहता है वहाँ अग्नि भी अवश्य रहती है, जैसा कि रसोई के घर वगैरह में देखा जाता है। इसी नियम को व्याप्ति कहते हैं, जिसमें रसोई का घर दृष्टांत है; इसीलिए धुआँ रूप हेतु उस जगह अग्नि का ठीक-ठीक अनुमान करवा सकता है। इसी तरह प्रकृत में भी रासायनिक संयोग से होनेवाली चेतनता और उस हेतु की व्याप्ति होनी चाहिए जिसका प्रयोग उस चेतनता का अनुमान करवाने के लिए किया जावेगा। परंतु स्मरण रहे कि यह नियम (Law) वा व्याप्ति दो प्रकार की होती है, जिनमें से किसी के भी रहने से साधनीय वस्तु की सिद्धि उस हेतु से हो सकती है, अन्यथा नहीं।
एक तो व्याप्ति ऐसी होती है कि जिस वस्तु को हमें सिद्ध करना है उसी के साथ हेतु की व्याप्ति अन्यत्र निर्णीत हो। जैसे जिस धूम से हमें कहीं अग्नि सिद्ध करनी है उसी अग्नि के साथ उस धूम की व्याप्ति (Law) अन्यत्र पाकशाला आदि में निश्चित रहती है। परंतु इस प्रकार की व्याप्ति प्रकृत में नहीं हो सकती, क्योंकि जैसे अग्नि अन्यत्र प्रत्यक्ष ही निर्विवाद देखी जाती है और वही व्याप्ति का निश्चय होता है, वैसे विलक्षण रासायनिक संयोग से चेतनता की उत्पत्ति कहीं भी प्रत्यक्ष देखी नहीं जाती जहाँ हेतु के साथ उसकी व्याप्ति का निश्चय हो। क्योंकि यदि ऐसा होता तो फिर विवाद ही नहीं होता और सभी लोग चेतनता को रासायनिक संयोगों से ही उत्पन्न करने लग जाते, जिससे इस संसार से यमराज या मृत्यु का काम ही उठ जाता और मृत्युलोक भी देवलोकवत अमरलोक हो जाता।
दूसरी व्याप्ति यह है कि यद्यपि जिस वस्तु को हमें कहीं सिद्ध करना है उसका प्रत्यक्ष कहीं न भी हुआ हो तथापि उसी ढंग की अन्य वस्तुओं का प्रत्यक्ष होने से हेतु के साथ व्याप्ति निर्णीत हो जाने पर भी प्रकृत में उसी हेतु से साध्यओ पदार्थ की सिद्धि हो जाती है। जैसे यद्यपि चक्षुरादि इंद्रियों को प्रत्यक्ष प्रमाण से किसी ने भी नहीं देखा है, क्योंकि इंद्रियों के स्थान (गोलक) आँखों दीखते हैं वे तो इंद्रिय स्वरूप हैं नहीं, अन्यथा उनके बने रहने पर भी जो कभी-कभी उन-उन इंद्रियों से किसी-किसी मनुष्य को विषयों का ज्ञान नहीं होता है वह क्योंकर हो सकता है? और इंद्रियों एवं विषय का संबोधन होने पर ही ज्ञान होता है, नहीं तो दीवार के पीछेवाले पदार्थ भी आँखों दीखते। परंतु वे इंद्रियों के स्थान वा गोलक तो अपनी जगह से हट सकते नहीं और न दूर के पदार्थ ही पास में चले आते हैं। अत: यह निर्विवाद सिद्ध है कि उन गोलकों से इंद्रियाँ भिन्न-भिन्न हैं, जो सूर्य की किरणों की तरह दूर-दूर के पदार्थों तक भी शीघ्र ही पहुँच जाती हैं। इसलिए यह बात सत्य है कि इंद्रियाँ प्रत्यक्ष प्रमाणों से देखी नहीं जातीं। तथापि यह देखा जाता है कि जितनी क्रियाएँ होती हैं वे किसी न किसी कारण से अवश्य ही उत्पन्न होती हैं, क्योंकि कारण का स्वरूप ही ऐसा है जैसा कि भर्तृहरि जी ने अपनी व्याकरण महाभाष्य की कारिकाओं में लिखा है कि -
' क्रियाया: परिनिष्पत्तिर्यद्व्यापाराद नंत रम्।
विवक्ष्यते यदा यत्र , करणं तत्तदा मतम्॥ '
अर्थात जिस वस्तु के व्यापार के अनंतर ही क्रिया की उत्पत्ति होती है उसे ही करण कहते हैं। यह बात छेदन आदि क्रियाओं में प्रत्यक्ष ही है कि जब तक लोहार अपना बसूला नहीं चलाता, तब तक छेदन क्रिया नहीं होती, परंतु जभी उसका बसूला छूटता है तभी छेदन हो जाता है। इसलिए बसूला रूप करण से ही छेदन क्रिया की उत्पत्ति होती है, इसी तरह अन्य क्रियाओं में भी कोई न कोई करण अवश्य ही उनका उत्पादक रहा करता है। इस प्रकार करण के साथ क्रिया की व्याप्ति निश्चित कर, चूँकि ज्ञान भी एक प्रकार की क्रिया ही है, अत: उसके भी करण अवश्य होने चाहिए और चूँकि बसूला वगैरह बाहरी करणों का तो वहाँ संभव नहीं है, इसलिए आंतरिक करण ही सिद्ध होते हैं, जिन्हें इंद्रिय कहा करते हैं। इसी तरह प्रकृत में भी यद्यपि जहाँ-जहाँ चेतनता उत्पन्न होती वह सभी विलक्षण रासायनिक संयोग से ही होती है यह व्याप्ति (Law) निश्चित नहीं है, तथापि इस प्रकार की व्याप्ति हो सकती है कि इस संसार में जितनी वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं उनके कारण अवश्य ही हुआ करते हैं जैसे घट का कारण कुलाल (कुम्हार), मदिरा की मादकता का रासायनिक संयोग या वृक्ष का बीज। और चूँकि चेतनता भी उत्पन्न होने वाली वस्तु है, इसलिए उसका भी कोई कारण अवश्य होगा। परंतु चूँकि दूसरे बाहरी तो वहाँ हो नहीं सकते, इसलिए जैसा मदिरा की मादकता का कारण रासायनिक संयोग है, वैसा ही प्रकृत में भी चेतनता का कारण रासायनिक संयोग ही होगा। इस तरह से विलक्षण रासायनिक संयोग सिद्ध करने के लिए अनुमान का स्वरूप खड़ा किया जा सकता है। परंतु यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि यद्यपि बाहरी कारण वहाँ नहीं है तथापि धर्माधर्म या अन्य कारणों को जो वहाँ ही विद्यमान हैं, न मानकर आपके संयोग को ही क्यों कारण मानेंगे? इसमें कोई विशेषता तो है ही नहीं जिससे अन्यों का अनादर किया जावे।
दूसरी बात यह है कि जब व्याप्ति वा नियम (Law) ठीक रहता है तभी अनुमान भी ठीक होता है। जैसे जहाँ धुआँ रहता है वहाँ अग्नि भी अवश्य रहती है यह नियम सत्य है, इसी से कहीं दूर से भी धुएँ को देख अग्नि का अनुमान करना ठीक होता है। परंतु जहाँ अग्नि रहती है वहाँ धुआँ अवश्य रहता है यह विपरीत नियम ठीक नहीं है, क्योंकि अंगार में अग्नि रहते हुए भी धुआँ नहीं रहता। इसीलिए अग्नि को कहीं देखकर उसमें धुएँ का अनुमान करना ठीक नहीं हो सकता। उसी तरह यदि प्रकृत में यह नियम होता कि जितने कार्य होते हैं वे रासायनिक संयोग से ही बनते हैं, तो चेतनता का कारण भी रासायनिक संयोग ही माना जाता। परंतु यह बात तो है नहीं, क्योंकि घट, पट वगैरह कार्यों की उत्पत्ति तो रासायनिक संयोग से होती ही नहीं, ऐसी दशा में आपका नियम कहाँ ठीक ठहरा? यदि थोड़ी देर के लिए यह स्वीकार भी कर लें कि जितने घट, पट आदि कार्य उत्पन्न होते हैं वे रासायनिक संयोग से ही होते हैं, हाँ वे संयोग विलक्षण-विलक्षण हैं यह दूसरी बात है। तो हम आपसे पूछते हैं कि आपको कुछ न कुछ केवल मूल पदार्थ भी तो मानने पड़ेंगे जिनके मेल या संयोग से रासायनिक पदार्थों की उत्पत्ति, जैसे जब गुड़ और महुआ मूल पदार्थ हैं तभी तो उनके मेल से मादकता (नशा) पैदा होती हैं। इसीलिए यद्यपि काले या हरे इत्यादि रंग रासायनिक संयोग से बनते हैं तथापि उनके कारण स्वरूप लाल या पीले वगैरह दो एक रंग तो वैज्ञानिकों द्वारा अवश्य ही ऐसे माने गए हैं जो किसी के मेल या रासायनिक संयोग से न बनकर स्वयमेव अपने लाल या पीले कारणों से ही बनते हैं। और यदि आप मूल (Original) पदार्थ कोई मानेंगे ही नहीं तो उसके बिना आपका रसायन भी कैसे सिद्ध होगा। अत: रासायनिक संयोग के कारण स्वरूप पदार्थ तो आपको ऐसे मानने ही पड़ेंगे जो रासायनिक संयोग से नहीं बनते। ऐसी दशा में आपका यह नियम व्याप्ति (Law) कहाँ रहा कि सभी पदार्थ रासायनिक संयोग से ही उत्पन्न होते हैं। और जब नियम ही न रहा तो चेतनता का कारण रासायनिक संयोग सिद्ध क्योंकर हो सकता है? क्या अग्नि देखकर भी धुआँ सिद्ध किया जाता है?
यदि रासायनिक संयोगों से ही पदार्थों की विलक्षणता और चेतनता की उत्पत्ति होती रहती तो फिर, जिस तरह पान, सुपारी और कत्था वगैरह सभी के मेल से जो रक्तिमा उत्पन्न होती है वह उनमें से किसी एक के भी न रहने से नहीं होती। अथवा महुआ और गुड़ दोनों में से एक के न रहने से जैसे, मादकता की उत्पत्ति नहीं होती है, उसी तरह जिस प्राणी के हाथ-पाँव आदि अंगों में से एक भी टूटे या कट जाए उसे तत्काल चेतनताहीन अर्थात मृतक हो जाना चाहिए।
यदि वे लोग इस कठिन समस्या के हल करने का साहस यों करें कि, यद्यपि रासायनिक वस्तुओं के कारण जितने पदार्थ हैं उनमें से किसी की भी कमी होने से उस रासायनिक पदार्थ की उत्पत्ति नहीं होती या उसका नाश हो जाता है, तथापि उन सभी पदार्थों को रासायनिक रीति से संयुक्त करके उस वस्तु की उत्पत्ति होने के पश्चात उन सम्मिलित पदार्थों के कुछ संयुक्त अंश के हटा देने पर भी जिस प्रकार रासायनिक पदार्थ बना रहता है। क्योंकि चार बीड़ा पान के साथ सभी चूना और कत्था प्रभृति को मिलाने पर जब उसमें रक्तिमा पैदा हो जाती है तो पुन: एक बीड़ा पान और उसी के अनुगुण चूना वगैरह इन सभी मिश्रित पदार्थों यानी संपूर्ण पदार्थ के चतुर्थांश को विभक्त करने पर भी अवशिष्ट तीन अंशों में लालिमा बनी ही रहती है। वैसे ही यदि किसी प्राणी का कोई अंग कट जाता है तो उससे रासायनिक संयोग के आधार किसी एक ही वस्तु की कमी न होकर सम्मिलित द्रव्यों (वस्तुओं) की ही न्यूनता हो जाती है। इसी से चेतनता पूर्ववत ही बनी रह जाती है।
तो इस पर उन लोगों से यह कहा जा सकता है कि तो फिर गला वगैरह अंगों के कट जाने पर मनुष्य को चेतन या जीता ही रहना चाहिए। अथवा जैसे रासायनिक संयोग के आधार सम्मिलित द्रव्यों का जो अंश पृथक किया जाता है उसमें भी रक्तिमा आदि रासायनिक पदार्थ रहते हैं उसी तरह धड़ से अलग हो जाने वाले हाथ, पाँव और मस्तक में भी अवश्य ही चेतनता रहनी चाहिए और कटे हुए सिर को भी बोलना चाहिए।
साथ ही उन लोगों को यह भी विचारना चाहिए कि जब रासायनिक संयोग के आधार स्वरूप सम्मिलित वस्तुओं में से कुछ अंश विभक्त कर देते हैं तो संपूर्ण मिश्रित द्रव्यों के रहने से जितना परिमाण उस रासायनिक पदार्थ का रहता है उतना नहीं रह जाता है, किंतु यदि चतुर्थांश द्रव्य अलग कर दिया जावेगा तो रासायनिक वस्तु भी चतुर्थांश जाती रहेगी। इसी तरह आधा निकाल देने से आधी इत्यादि। यदि चेतनता भी रासायनिक संयोगों से ही बनी रहती तो हाथ, पाँव आदि दो चार अंगों के कट जाने पर जीवों में वह आधी ही अथवा उसी हिसाब से ही रह जाती। परंतु देखा जाता है कि ऐसे-ऐसे पंगु वगैरह हैं जिनकी दोनों जाँघें वगैरह काट दी गई हैं, लेकिन यदि जीते हैं तो उनकी चेतनता प्रथम से कुछ भी न्यून नहीं हुई है।
एक बात यह भी है कि जिन पदार्थों के सम्मिश्रण से रासायनिक द्रव्यों की उत्पत्ति होती है वे जब एक दूसरे से बिलकुल ही अलग कर दिए जावें तभी उस द्रव्य का नाश होता है न कि उनके कुछ अंशों के मिले और कुछ के अलग रहने से। जैसे ऑक्सिजन और हाइड्रोजन (Hydrozon) स्वरूप जिन दो वायुओं के मेल से जल उत्पन्न होता है उनको सर्वात्मना एक-दूसरे से पृथक कर देने पर ही उस जल का नाश हो जाता है न कि उनके कुछ अंश मिले भी रहते हैं। इसी तरह अन्य रासायनिक वस्तुओं में देखा जाता है। तद्वत प्रकृत में मरणकाल में सर्वशरीरव्यापिनी चेतना का कारण जो सर्वांगवर्त्ती रासायनिक संयोग है उसका नाशक कौन है? गला काट लेने या एक वाण के किसी अंग में लग जाने से जो प्राणी ज्ञानशून्य हो जाता है उसके संपूर्ण अंग प्रत्यंगों से चेतनता का वियोग कराने वाली कौन-सी वस्तु है इसको वे लोग क्यों कर बतला सकते हैं? इत्यादि सहर्षों दूषण इस रासायनिक संयोगवाद में दिए जा सकते हैं।
इससे निर्विवाद रूप से यह स्वीकार करना होगा कि रासायनिक संयोग से चेतनता की उत्पत्ति और वस्तुओं की विलक्षणता नहीं होती या हो सकती है, किंतु चेतन जीवात्मा नित्य है और मनुष्य शरीर से धर्माधर्म का अर्जन करता हुआ ज्ञान आदि का भी संग्रह करता है। जिन धर्माधर्मों के होने से ही सृष्टि की विचित्रता होती है। अर्थात कोई निर्धन कोई धनी एवं सुखी, दु:खी बुद्धिमान और मूर्ख हुआ करते हैं।
इसी तरह आर्हत (जैन) मतानुयायियों ने जो सिद्धांत स्थिर किया है कि यद्यपि रासायनिक संयोग से जीवात्मा अथवा चेतना की उत्पत्ति नहीं है, तथापि जैसा मीमांसकों ने जीव को विभु (व्यापक) और भगवान रामानुज या बौधायन प्रभृति के अनुयायियों ने परमाणु स्वरूप माना है, वैसा वह नहीं है, किंतु जिस शरीर में वह रहता है उतना ही बड़ा होता है। अर्थात चींटी के शरीर में चींटी जैसा और हाथी के शरीर में उसी जैसा। इसी को मध्याम परिमाण वाला भी कहते हैं। क्योंकि यदि उसे व्यापक मान लेवें तो शरीर से बाहर भी दीवार वगैरह में सभी जीवों को सुख-दु:ख का अनुभव होना चाहिए। और देवदत्त आदि सभी की आत्माएँ व्यापक हैं तो एक ही शरीर में सबके विद्यमान रहने से एक के दु:ख, सुखादि को सभी अनुभव क्यों नहीं करते? इस दूषण के उद्धार के लिए यदि जीवात्मा को परमाणु स्वरूप मान लेवें तो फिर शरीर में सिर प्रभृति किसी एक स्थान में चंदन लगाने या चोट लगने से संपूर्ण शरीर में शैत्य अथवा व्यथा का अनुभव न होना चाहिए, क्योंकि अनुभव करनेवाला तो शरीर के किसी एक ही कोने में रहेगा। हाँ, यदि उसे शरीर जितना ही बड़ा मान लेवें तो पूर्वोक्त कोई भी दूषणों का अवकाश नहीं है। यदि यह कहा जावे कि जब शरीर के बराबर वह है तो फिर हाथी के मरने पर वह जीव यदि चींटी का शरीर पावे तो उसमें क्योंकर समा सकता है? अथवा चींटी के शरीर से हाथी के शरीर में जाने पर क्योंकर उतना बड़ा हो सकता है? तो वे लोग कहते हैं कि जैसे दीपक छोटे स्थान में रहने से उतनी ही दूर में प्रकाश करता और बड़े स्थान में फैल जाता है ठीक वही दशा जीवात्मा की है। वह भी प्रकाशस्वरूप होने से स्थानानुसार संकोच और विकासशील होती है।
परंतु उन लोगों का यह सिद्धांत भी उचित नहीं है। यदि आत्मा को संकोच और विकासशील अथवा मध्युम परिमाण वाला मानेंगे तो फिर वह विनाशी हो जाएगा। क्योंकि संसार में जितने भी ऐसे पदार्थ दीपक या घट, पट आदि हैं सभी विनाशशील ही देखे जाते हैं। और जब उसे आप आगमापाई स्वीकार कर लेंगे तो फिर वही पूर्व वाले कृतहान और अकृताभ्यागम, एवं सृष्टि वैचित्र्य-भंग आदि रूप सहस्त्रों दोष होंगे। साथ ही जिसका नाश होता है उसकी उत्पत्ति भी इस जगत में देखी जाती है। अत: आपको भी उसकी उत्पत्ति माननी पड़ेगी। परंतु उत्पत्ति मानने में तो पूर्वोक्त रासायनिक संयोगवाद वाले सभी दूषण आपके मत्थे पड़ेंगे।
यदि आप वह कहें कि हम तो किसी भी वस्तु का अत्यंत नाश नहीं मानते, किंतु संसार के सभी पदार्थ केवल परिणामी हैं। अर्थात जैसे घड़े का सर्वात्मना नाश न होकर उसका कपाल या चूर्ण रूप रूपांतर ही हो जाता है। एवं कपड़े का तंतु रूप इत्यादि, इसी तरह जीवात्मा का भी यदि नाश होगा तो सर्वात्मना (अत्यंत) न होकर केवल उसका भी रूपांतर हो जाएगा। एतावता पूर्वोक्त कोई भी दूषण नहीं लग सकते, क्योंकि हम यदि उसका अत्यंत अभाव व नाश मानते तो पुन: उसकी उत्पत्ति आदि की आवश्यकता होती।
परंतु यह भी कथन निस्सार है, क्योंकि रूपांतर मान लेने से भी आपका काम न चल सकेगा और पूर्वोक्त दूषण सहस्त्र आपके सिर पड़ेंगे ही। कारण कि जिस कपड़े या घड़े का रूपांतर हो जाता है उसी की उत्पत्ति देखी जाती है, तो फिर इस तरह आत्मा की उत्पत्ति को आप क्योंकर हटा सकेंगे? दूसरी बात यह है कि जब वस्त्र या घट का रूपांतर उसके नाश होने पर हो जाता है तो जो काम उससे प्रथम पहनना या पानी लाना वगैरह होते थे वे अब नहीं हो सकते। इसीलिए उन कामों के लिए दूसरे घड़ों वा कपड़ों की आवश्यकता होती है। अथवा उस घट में जो पदार्थ रहता है उसके फूल जाने या रूपांतर हो जाने पर वह उसमें नहीं रह सकता। सारांश यह कि प्रथम के होने वाले कोई भी काम उससे अब नहीं हो सकते। उसी तरह जब जीवात्मा का नाश या रूपांतर हो जावेगा तो फिर वह शरीर वा इंद्रियों का प्रकाश नहीं कर सकता। अर्थात उसके रहने से शरीर में जो चेतनता रहती थी अथवा सुख-दु:खादि के ज्ञान होते थे वे अब न हो सकेंगे और उनके लिए दूसरे जीवात्मा की आवश्यकता अनिवार्य होगी। और उसमें जो प्रथम ज्ञानों के संस्कार या धर्माधर्मादि थे वे भी न रह सकेंगे और न वे अपने काम ही कर सकेंगे। क्योंकि जब जल का हाइड्रोजन और ऑक्सिजन स्वरूप रूपांतर हो जाता है तो उससे कपड़े गीले नहीं हो सकते। फल इसका यह होगा कि पूर्व देखी, सुनी वस्तुओं के स्मरण न हो सकेंगे और न सृष्टि की विचित्रता ही हो सकेगी और पूर्व के कृतहान आदि भी गले में मढ़ दिए जावेंगे।
एक बात और भी विचारने की है कि यदि आप जीवात्मा को दीपक के प्रकाश की तरह संकोच और विकासशाली मानेंगे तो वहाँ कुछ विपरीत ही बात होगी। क्योंकि यह देखा जाता है कि यदि दीपक का प्रकाश अधिक स्थान में फैल जाता है तो वह संपूर्ण स्थान में एक-सा न होकर कहीं अधिक, कहीं मंद प्रतीत होता है। इसी तरह यदि आत्मा भी दीपक के प्रकाश सदृश ही माना जावे तो यदि वह हाथी के शरीर में रहे तो उसके सर्वांगों में उतनी चेतनता प्रतीत नहीं होनी चाहिए किंतु अल्प ही। परंतु जब वही चींटी के शरीर में प्रवेश करता है तो उस शरीर में चेतनता वा ज्ञान हाथी के शरीर की अपेक्षा लाख या करोड़ गुना होने चाहिए। परंतु यहाँ तो विपरीत ही देखा जाता है कि चींटी की अपेक्षा हाथी या मनुष्य शरीर में ही अधिक चेतना ज्ञान वा विवेक होता है।
यह भी स्मरण रहे कि यदि आत्मा को घट घटादि की तरह मध्य म परिणाम वाला मानेंगे तो उसे बलात सावयव (अवयव वाला) स्वीकार करना होगा। क्योंकि जो ही वस्तु मध्यउम परिणाम वाली होती है वही सावयव होती है। यदि वे लोग इसे भी मान लेवें तो फिर यह प्रश्न होगा कि जब वह सावयव है तो उसके प्रत्येक अवयवों में भिन्न-भिन्न चेतनता होती है अथवा अवयवों के समुदाय में ही? प्रथम पक्ष में जितने अवयव होंगे उतने ही चेतन वा जीवात्माएँ उस शरीर में होंगी। फल यह होगा कि जब दो एक की सम्मति सर्वदा एक-सी नहीं रहती, किंतु कभी-कभी झगड़े या विवाद होकर वे मनमाना काम करने लग जाते हैं, तो फिर सहस्त्रों रहेंगे वहाँ कब एक-सी सम्मति होने की? परिणाम यह होगा कि किसी भी कार्य में एक यदि शरीर को पूर्व की ओर खींचेगा तो दूसरा पश्चिम, तीसरा उत्तर और चौथा दक्षिण की ओर। और जैसे दो पत्नी वाला पति दोनों तरफ खींचा जाकर बीच में उसी जगह मर जाता है उसी तरह शरीर की भी किसी ओर प्रवृत्ति न होगी और एक ही जगह उसकी धज्जियाँ उड़ जावेंगी। यदि इस दोष की निवृत्ति के लिए अवयवों के समुदाय में ही केवल एक ही चेतनता मानी जावे तो फिर कर चरणादि किसी भी अंग के कट जाने पर उतने दूर के जीव के अवयवों के नष्ट हो जाने से वह पूर्व वाला अवयव समुदाय न रह गया, इससे लूले या लंगड़े मनुष्य को मर जाना चाहिए। क्योंकि जिस समुदाय में चेतनता रह सकती है वह तो समुदाय है ही नहीं। निराश्रय वस्तु क्योंकर रह सकती है? इत्यादि अनेकों दूषण आर्हत (जैन) मतानुयायियों के भी मत में हैं।
अत: निर्भ्रांत सिद्ध हो गया कि जीवात्मा शरीर परिमाण वाला नहीं है, किंतु व्यापक ही है। तो भी जिस आत्मा का मन जहाँ रहता है वहीं उसको सुख-दु:ख का अनुभव होता है और वह मन प्रत्येक जीव के अपने-अपने शरीर में ही रहता है। इसलिए आत्मा के व्यापक होने पर भी शरीर से बाहर अथवा अन्य के सुख-दु:खों का अनुभव अन्य को नहीं हो सकता।