पूर्वरंग / वर्तमान सदी में मार्क्सवाद / गोपाल प्रधान
सोवियत पतन के बाद का मार्क्सवाद विरोध नए हालात के मद्देनजर धीमा हुआ है और एक ओर अमेरिकी साम्राज्यवाद के विध्वंसक उभार तथा हाल में आर्थिक मंदी की चपेट और दूसरी ओर लातिन अमेरिका में एक के बाद एक देशों में मार्क्सवाद समर्थक दलों की विजय ने मार्क्सवाद को दोबारा प्रासंगिक बना दिया है।
सोवियत संघ के पतन का धक्का इतना जबर्दस्त था कि एकबारगी उससे सँभलने में वक्त लगा। चारों ओर पूँजीवाद की जीत का इतना तगड़ा जश्न मनाया जा रहा था और उत्तर आधुनिकता के ही प्रासंगिक दर्शन रह जाने के इतने बड़े-बड़े दावे किए जा रहे थे कि 'मंथली रिव्यू' में भी कुछेक प्रतिबद्ध लोगों को छोड़ कर किसी की रुचि महसूस नहीं होती थी। इसी दौर में एजाज अहमद की किताब 'इन थियरी' का प्रकाशन हुआ। एजाज अहमद उर्दू साहित्य के विद्वान हैं और उत्तर आधुनिकता, उत्तर औपनिवेशिकता आदि सिद्धांतों का साहित्य से बहुत कुछ लेना-देना था इसलिए वे इस सैद्धांतिक बहस में भी कूदे। ज्यादातर साहित्यिक सिद्धांतों पर केंद्रित होने के बावजूद इस किताब में तत्कालीन बहसों में हस्तक्षेप करते हुए क्लासिकीय मार्क्सवादी नजरिया अपनाया गया था। कुछ मामलों में उन्होंने ग्राम्शी पर विचार करते हुए उन्हें भी शास्त्रीय मार्क्सवादी परंपरा में स्थापित करने की कोशिश की।
इसी समय जब सब कुछ उत्तर हो रहा था तो मार्क्सवाद के भीतर भी तरह-तरह की मान्यताएँ घुसा कर उसे भी उत्तर मार्क्सवाद बनाया जा रहा था। मसलन अंतोनियो नेग्री की किताब 'एंपायर' आई जिसमें साम्राज्यवाद को नया अवतार ग्रहण किया हुआ बताया गया था। किताब में कहा गया था कि साम्राज्यवाद आज मार्क्सवादियों ने जैसा उसे बताया था वैसा नहीं रह गया बल्कि पुराने जमाने के साम्राज्यों की तरह का हो गया है और उससे लड़ाई भी विविधवर्णी हो गई है। साफ है कि विश्व सामाजिक मंच में जिस तरह भाँति-भाँति की शक्तियाँ शामिल हो रही थीं उसी के कारण इस तरह के सिद्धांत भी पेश किए जा रहे थे। पुस्तक में साम्राज्यवाद से लड़ने की माओवादी नीति 'तीन दुनिया' के सिद्धांत पर यह कहकर सवाल उठाया गया था कि तीसरी दुनिया में भी एक पहली दुनिया बन गई है और उसी तरह विकसित देशों में भी एक तीसरी दुनिया दिखाई पड़ती है। इस बीच फ्रांसिस ह्वीन लिखित और 2000 में नार्टन, न्यूयार्क द्वारा प्रकशित मार्क्स की एक जीवनी 'कार्ल मार्क्स: ए लाइफ' भी पश्चिमी देशों में बहुत लोकप्रिय हुई जिसमें व्यक्ति मार्क्स को केंद्र में रखा गया था और कुछ-कुछ चरित्र हनन भी करने की कोशिश की गई थी, मसलन जेनी मार्क्स के साथ उनकी सेवा के लिए परिवार की ओर से भेजी गई हेलेन देमुथ के साथ मार्क्स के अवैध संबंधों का संकेत किया गया था, लेकिन पुस्तक में दिए गए तथ्य ही मार्क्स की बनिस्बत एंगेल्स की उनसे अधिक करीबी साबित करते थे। बहरहाल, सब कुछ के बावजूद किताब में मार्क्स की 'पूँजी' को ले कर कुछ नई बातें कहने की कोशिश की गई थी। लेखक ने 'पूँजी' को उन्नीसवीं सदी के महाकाय उपन्यासों की तरह पढ़ने की सलाह दी थी। इस किताब की जटिल शैली को ले कर लेखक का कहना था कि मार्क्स ने जिस विषय को व्याख्या के लिए चुना था वही इतना जटिल था कि विषय की जटिलता उनकी शैली में भी चली आई। लेखक के अनुसार मार्क्स का ध्यान वस्तु के बजाय उसके रूप के प्रसार के रहस्योद्घाटन पर था इसलिए नाजुक विषय को स्पष्ट करने की शैलीगत बेचैनी उनकी किताब में दिखाई पड़ती है।
वैसे भी मार्क्सवाद कोई ऐसा दर्शन नहीं रहा है कि महज तार्किक रूप से सच होने के आधार पर उसकी प्रासंगिकता बनी रहे। इसी बीच लातिन अमेरिकी देशों में नई शुरुआतों की खबरें आने लगीं। ब्राजील में लुला की जीत से और कुछ हुआ हो अथवा नहीं, विश्व आर्थिक मंच के समानांतर विश्व सामाजिक मंच के गठन और उसकी पहलों ने ध्यान खींचना शुरू कर दिया। अमेरिका के सिएटल में हुए प्रदर्शनों से लगा कि यह कोई तात्कालिक परिघटना नहीं है। इन चीजों को कुछ दिनों तक उत्तर आधुनिक व्याख्या के ढाँचे में समेटने की कोशिश होती रही लेकिन जल्दी ही आंदोलनकारियों और प्रतिरोध की ताकतों को मार्क्सवाद पर बात करते हुए सुना जाने लगा। ध्यान रखना होगा कि इस क्रम में मार्क्सवाद में एकदम से कोई नया तत्व नहीं जोड़ा गया बल्कि उसके कुछ पहलुओं को उभारा गया है जो अब तक थोड़ा-बहुत उपेक्षित रह गए थे। लेकिन इस दौर के मार्क्सवाद संबंधी विचार-विमर्श की एक विशेषता पर ध्यान देना जरूरी है। बीच में मार्क्सवाद का शैक्षणिक रूप बहुत ज्यादा उभारा गया था। उसके मुकाबले इस दौर में आंदोलनों से उसके जुड़ाव को सहज ही महसूस किया जा सकता है।