पूर्व का रोम गोवा / संतोष श्रीवास्तव
नवंबर का सुहावना महीना मैं लेखिका प्रमिला वर्मा के साथ ट्रेन से गोवा के सफर पर हूँ। लगभग 2 महीने पहले से वरिष्ठ कथाकार और मेरे मित्र्रोहिताश्व जी गोवा में हमारे आने का इंतजार कर रहे थे लेकिन अफसोस हमारे रवाना होने के हफ्ते भर पहले उनके भाई गंभीर रूप से बीमार पड़ गए और उन्हें हैदराबाद जाना पड़ा..."संतोष जी आप बिल्कुल फिक्र न करें। मेरी पीएचडी स्टूडेंट किरण आपको कर्मली स्टेशन पर मिल जाएगी। आप के रहने की व्यवस्था मेरे घर पर की गई है।"
मुझे गहरे अवसाद ने घेर लिया। कब से रोहिताश्व जी के साथ गोवा घूमने का कार्यक्रम था। लेकिन वक्त से कौन जीता है। कार्यक्रम टाला नहीं जा सकता था। वक्त का तकाजा था। मैंने खिड़की के शीशे पर नजरें टिका दीं। सहयाद्रि घाटों को पार करती अंधकार और उजाले से आँख मिचौली करती लंबी-लंबी ढेरों सुरंगे, ऊंचे-ऊंचे पुल और कभी-कभी सागर तट को लगभग छूती हुई कोकण रेल्वे की ट्रेन के एसी कोच से जब मैं कर्मली स्टेशन पर प्रमिला के साथ उतरी तो एक अजनबी लड़की को अपनी प्रतीक्षा करते पाया। स्टेशन निचाट सूना था। मुश्किल से 25, 30 यात्री उतरे होंगे। स्टेशन क्या था जैसे हरियाली की गोद में कोई साफ सुथरा खिलौना।
"मैम मैं किरण"
"समझ रही हूँ क्योंकि यहाँ प्रतीक्षा करने वालों में और कोई नहीं है"
वह मुस्कुराई।
"भारत के 25 वें राज्य गोवा में आपका स्वागत है"
मैंने उसे गले से लगा लिया। स्टेशन से बाहर निकल हमने ऑटो लिया। किरण अपने स्कूटर पर आगे-आगे रास्ता बताती चल रही थी। रोहिताश्व जी के घर अल्टो रायबंदर तक का रास्ता हरे-भरे नीलगिरी, काजू, नारियल के दरख्तों से घिरा था। कहीं-कहीं हरियाली से झांकती लहरे दिख जाती जो शायद मांडवी नदी की होंगी। मैंने कयास लगाया। रोहिताश्व जी का घर मुख्य सड़क से ऊंचाई पर यानी कि एक पहाड़ी पर है। मोड पर एक पुर्तगाली चर्च है और सड़क की रेलिंग से लगी मांडवी की अथाह जलराशि। लगातार ऊंचाई पर चढ़ता घुमावदार रास्ता...
रास्ते के एक ओर पहाड़, ऊंचे-ऊंचे पेड़ ...दूसरी और बगीचों से घिरे घर। मानो प्रकृति उत्सव मना रही है। बहार ठिठकी हुई-सी है। घर बेहद सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा था। बैठक की खिड़की से दिखती मांडवी नदी के शांत जल पर तैरते मालवाहक जहाज और नदी से लगा पर्वत। अद्भुत दृश्य था। इस जगह पर कितनी रचनाएँ जन्म ले सकती हैं मैंने सोचा।
टूरिस्ट प्लेसेस की तमाम जानकारी देकर किरण यूनिवर्सिटी चली गई यह कहकर कि 2 दिन तो वह अधिक व्यस्त है। इन दो दिनों में हम नॉर्थ (उत्तरी) और साउथ (दक्षिणी) गोवा घूम लें। बहराल इतना ही काफी था कि एक अजनबी शहर में हमें रहने का ठिकाना और बिल्कुल घर जैसा माहौल मिल गया था॥ अब हमें अकेले ही अपना सफर तय करना है। जो कम रोमांचकारी नहीं था। यूं तो मैं मुंबई पर्यटन विभाग से गोवा की सारी जानकारी नक्शे, पर्यटन स्थलों के नाम आदि लेकर चली थी। मैं अपनी सैलानी प्रवृत्ति को बड़ा कीमती मानती हूँ। मेरा अपना घुमक्कड़ी शास्त्र है। मेरे साथ कोई हो न हो पर गंतव्य की पूरी जानकारी का पुलिंदा, मोबाइल और कैमरा जरूर साथ होता है। फिर भी हम तैयार होकर गोवा टूरिज्म गए जो कि पंजिम में है। गोवा टूरिज्म से ही पर्यटन स्थलों के लिए पैकेज टूर मिलते हैं लेकिन आज के सभी टूर जा चुके थे। लिहाजा हमने अलग-अलग दिनों के पैकेज टूर्स की टिकट बुक करा ली और शाम की रिवर क्रूज की टिकटें भी। क्रूज़ शाम 7 बजे का है। अभी दोपहर के 2 बजे हैं। घर लौट कर खाना पकाना, खाना और फिर क्रूज़ के लिए लौटना नामुमकिन था। गोवा टूरिज्म सेंटर के ऊपर टेरेस रेस्तरां है। टेरेस पर बैठकर खुले माहौल में लंच लेकर गोवा की सड़कों पर इधर-उधर चहल कदमी करने के विचार से हमने वेज बिरयानी का ऑर्डर दे इत्मीनान की सांस ली। सामने दूर-दूर तक फैली मांडवी की जल राशि पर कच्चा लोहा, मैंगनीज़ आदि ढोते मालवाहक जहाज तैर रहे थे। यही यहाँ का मुख्य व्यवसाय है। खनिज, काजू और पर्यटन। काजू के पौधे पुर्तगालियों की देन है। वे इसे ब्राजील से लाए थे और तमाम गोवा में इन्हें रोपकर समृद्धि प्रदान की थी। लंच के बाद हमने घूमते हुए काजू के पैकेट खरीदे और मांडवी नदी के किनारे फ्लोटिंग रेस्तरां को नजदीक से देखते रहे।
क्रूज़ में रिपोर्टिंग टाइम 6 बजे का था। हम पैदल ही सांता मोनिका पहुँच गए जहाँ से क्रूज़ छूटते हैं। वहाँ अलग-अलग नामों के कई क्रूज़ खड़े थे। पहले टिकट खिड़की से हमने गोवा टूरिज्म से मिली पेमेंट की पर्ची दिखाकर टिकट ली। फिर लाइन में खड़े हो गए। आधे घंटे के बाद जहाज का लंगर नुमा गेट खुला। सीढ़ियाँ चढ़कर फिर लाइन। 15 मिनट की प्रतीक्षा के बाद क्रूज में जाने मिला। सभी यात्री टेरेस पर लगी कुर्सियों पर आकर बैठ गए। सामने स्टेज था और क्रूज़ की सजावट ऐसी थी जैसे कहीं बरात जा रही हो। घंटे भर की क्रूज यात्रा में स्टेज पर पारंपरिक लोक नृत्य कलाकारों ने प्रस्तुत किए। फिर सारे यात्री नाच गाने में मशगूल हो गए। संगीत तेज़ था और किसी का भी ध्यान बाहर के खूबसूरत नजारों पर नहीं था। हुल्लड़बाजी, फोटोबाजी और कुछ न कुछ खाते पीते रहना। कुछ लोग तो छोटे से केन को मुंह से लगाए शराब पी रहे थे। पर्यटन का यह स्वरूप चौकाने वाला था। क्या इसी को पर्यटन कहते हैं। मैंने सोचा और दूर जलती बुझती रोशनियों की शहतीरों पर नजर दिखा दी। मांडवी की लहरों पर जो अंधेरे में बिल्कुल खाली दिख रही थी आसमान ने सितारे टांक दिए थे। जब हम घर लौटे रात के सन्नाटे में रायबंदर की सड़कें जन विहीन किसी तपस्वी-सी शांत थी। हवाओं में रातरानी और जुही के फूलों की खुशबू थी।
दूसरे दिन सुबह 6 बजे हम तैयार होकर पंजिम के लिए निकल पड़े। जहाँ से नॉर्थ गोवा के लिए बस लेनी थी। सुबह के नजारों ने मन मोह लिया था। बस में सबसे आगे की सीट पर बैठते ही ठंडी हवा ने शरीर सहलाया। आंखों के आगे मीलों दौड़ती सड़क पर दाएँ बाएँ हरियाली का विस्तार था। कहते हैं कि परशुराम ने यहाँ तपस्या की थी और तपोभूमि के लिए सहयाद्रि पर्वत पर जब तीर चलाया तो एक नया टापू धरती से निकला जो गोमांचल, गोमांतक, गोपुरम, गोशास्त्रा नामों से पुराणों में जाना जाता है। इसी गोमांतक द्वीप का नाम गोवा है। गोवा को पूर्व का रोम भी कहा जाता है। यहाँ के स्थापत्य रोमन स्थापत्य से मिलते जुलते हैं। वैसे यहाँ पुर्तगाली असर हर जगह दिखाई देता है। गोवा को पुर्तगाल से 19 दिसम्बर 1961 को आजादी मिली। इसे केंद्र शासित प्रदेश के रूप में भारत में शामिल किया गया। 30 मई 1987 को गोवा को संपूर्ण राज्य घोषित कर भारतीय गणराज्य के 25 वें राज्य के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। तब से अब तक यहाँ 10 बार सरकार बदल चुकी है। यहाँ की जन संख्या 14 लाख है। हिंदू, कैथोलिक और इस्लाम धर्म के अनुयाई तो है ही। अन्य धर्मों के अनुयायियों का भी यहाँ निवास है।
हमारे साथ गाइड संदीप है
"आप जानती हैं अन्य राज्यों में गाहे-बगाहे औरतें सती हो जाती हैं पर यहाँ सती प्रथा बिल्कुल बंद है"
गर्व करूँ इस बात पर या उन राज्यों पर अफसोस जहाँ अभी भी जिंदा औरत चिता पर चढ़ा दी जाती है?
"यहाँ सिविल मैरिज का ज्यादा चलन है। मुसलमान तीन तलाक नहीं बोल सकते।"
बस, नारवा पार कर सप्तकोटेश्वर मंदिर के पास आकर रुकी। हमारी बस में एक हनीमून जोड़ा था। वे दुनिया से बेखबर हाथ में हाथ डाले बस से उतरे और मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़कर गर्भ ग्रह में समा गए। मैं मंदिर के कंगूरों पर बैठे कबूतरों के झुंड एक साथ उड़ान भरते देखने में तल्लीन हो गई। सप्तकोटेश्वर के बाद महारुद्र मंदिर, वन देवता मंदिर, श्री पांडुरंग मंदिर आदि देखते हुए हम मापुसा टाउन के अंदरुनी मार्गों को पार करने लगे। पुर्तगाली स्थापत्य की इमारतें, बगीचे और सड़कों पर देशी विदेशी पर्यटकों का सैलाब... मंदिरों, चर्चा और मस्जिदों से भरे गोवा की साझी धर्मनिरपेक्ष विरासत अपनी सांस्कृतिक जीवंतता के साथ विश्व समुदाय के सामने बतौर उदाहरण पर्यटकों के स्वागत के लिए हमेशा तत्पर रहती है।
"मेयम लेक हम पहुँच चुके हैं यह लेक पंजिम से 35 किलोमीटर दूर एक बेहद खूबसूरत पिकनिक स्पॉट है। यहाँ हम लंच लेंगे और अगर आप चाहें तो लेक की सैर बोट से भी कर सकते हैं। यहाँ डेढ़ घंटे का हॉल्ट है।"
कहते हुए संदीप बस से नीचे उतर गया। सब तेजी से रेस्तरां की तरफ भागे। लंच में शाकाहार कुछ नजर नहीं आ रहा था। वही फिशकरी, झींगा फ्राई, चावल और नारियल से तैयार अन्य व्यंजन जो गोवा की खास पहचान है। गोवा में समुद्री भोजन ही विशेष तौर पर पसंद किया जाता है। बहरहाल हमने तो बिस्किट के पैकेट और नारियल पानी खरीदा और सबसे पहले झील के किनारे लगाए गए लंबे चौड़े फूलों से भरे बगीचे में पहुँच गए। जहाँ बड़े-बड़े पीले पंजो वाली बत्तखें झुंड में विचर रही थी। उनके साथ फोटो खिंचवाने की इच्छा थी पर नजदीक जाते ही वे भाग जाती। काफी देर की आँख मिचोली के बाद आखित फोटो खिंचवाने में कामयाबी मिल ही गई। लेकिन तभी उनके संरक्षक ने उन्हें एक छोटे से बूथ में बंद कर दिया। सहयाद्रि की घाटी में छलकती झील के निर्मल जल में आकाश पर छाए इक्का-दुक्का बादलों का अक्स था लेकिन थोड़ी ही देर में सैलानी नौकाटन करने लगे। बादल लहरों में बिला गए। मैं बैंच पर बैठी मुग्ध हो एक-एक फूल के पौधों के नाम याद करती रही। सहयाद्रि के पांव पखारता अरब सागर अपने शानदार पश्चिमी किनारे से गोवा को अलौकिक आभा प्रदान करता है। इसके तत्वों पर विदेशियों का जमघट हमारे अपने ही देश को विदेश बना देता है। जहाँ महाराष्ट्र की सीमा गोवा को छूती है वही कर्नाटक इसे दक्षिण पूर्व से घेरता है। तीराकोल, मांडवी, जुआरी कपोरा, सल और तलपोना नदियाँ राज्य के जंगलों, शहरों में बहती हुई उन्हें अपार सुंदरता सौंपती अरब सागर में समाने से पहले झील और खाड़ियों का निर्माण करती है। जिससे गोवा का सौंदर्य कई गुना बढ़ जाता है।
हम वागातोर बीच पर थे जो गोवा की राजधानी पणजी से 20 किलोमीटर दूर है। यह बीच फोटोग्राफी के शौकीन लोगों को आमंत्रित-सा करता है। नरम मुलायम सफेद रेत में पैर धँस-धँस जाते हैं। यही एक छोटी-सी पहाड़ी है जिस पर एक किला बना है। सागर तट को छूती हर लहर इस किले के अतीत की साक्षी है। रेड लैटेराइड पत्थरों से निर्मित यह किला छपोरा और शाहपुर नामों से जाना जाता है। 1617 में इस किले को मराठो और मुसलमानों ने विकसित किया। 1648 में इस किले पर मराठा शासक का अधिकार हो गया लेकिन 1717 के बाद से यह पुर्तगालियों के कब्जे में ही रहा। यहाँ एक अंडर ग्राउंड टनल (भूमिगत गुफा) है। शायद सुरक्षा की दृष्टि से बनवाई गई है। यहाँ से वागातोर बीच का दृश्य बहुत लुभावना दिखता है। साथ ही गोवा की ग्रामीण खूबसूरती भी दिखाई देती है।
वागातोर के बाद अंजुना बीच... लहरों के साथ किनारे चलते हुए रेत पर पैरों के अनगिनत निशान देख मैं सोच रही थी कि यहाँ लहरों के साथ-साथ जिंदादिली भी उफान मारती है। अंजुना बीच पर हर बुधवार को लगने वाला बाज़ार बहुत प्रसिद्ध है। इसे एक विदेशी पर्यटक ने शुरु किया था।
"यह बाज़ार रात को 12 बजे से 4 बजे सुबह तक अपने चरम पर रहता है।"
मेरे सहयात्री ने जानकारी दी जो गोवा दूसरी बार आए थे।
"पुराने सिक्कों से लेकर मसाले तक, गोवा की परंपरागत शराब काजू फेनीऔर कोकोनट फेनी तक बिकती है लेकिन यहाँ शराब बिना परमिट के नहीं खरीदी जा सकती।"
"अच्छा!"
मैं विस्मय से भरी थी क्योंकि गोवा मेरे मन में अपनी तमाम रंगीनियों सहित मौजूद था।
आपको पता है ...यहाँ सार्वजनिक स्थानों पर सिगरेट पीने की भी मनाही है। पकड़े जाने पर हजार रुपया तक जुर्माना। "सहयात्री जोश में भरा था। हम एक जींस और टॉप के स्टॉल पर रुके।" खरीदने से पहले मोलभाव कर लेना वरना घाटे में रहेंगी"
बहरहाल अंजुना बीच से रवाना होने के बाद ही सहयात्री से पीछा छूटा। कैलंगूट बीच पर आते ही मुझे लगा जैसे मैं फ्रांस के नीस समुद्र तट पर हूँ जहाँ मैं इस कदर मंत्रमुग्ध हो गई थी कि मुझे न दिन ढलने का पता चला था घिरते अंधकार को खत्म करने की जद्दोजहद में नियोन लाइट्स के जलने का। मुझे नीस और कैलंगूट बीच को अलग-अलग महसूस करने में वक्त लगा। दूर-दूर तक फैले नीले शफ्फाक जल में तैरते देशी विदेशी सैलानी, लहरों पर शांत मंथर तैरते समुद्री पक्षी और सुनहली रेत पर बॉलीबॉल खेलता हंसता खिलखिलाता युवा समूह।
"लो थोड़ा खा लो, फिर एग्वडा किला चलना है" प्रमिला के हाथ में भजियों से भरा कागज का पुडा था।
बस के चलते ही संदीप फिर शुरू।
"अब हम चल रहे हैं एग्वडा किला जो कि पंजिम से 18 किलोमीटर दूरी पर स्थित है। यह मांडवी नदी और सिंक्वेयम बीच से घिरा है। 1612 ईस्वी में इसे मराठा शासकों के आक्रमण से गोवा को बचाने के लिए पुर्तगालियों ने बनवाया था। एग्वड़ा नाम ताजे पानी के झरने से लिया गया है। जबकि आज भी यह किला मांडवी नदी के किनारे प्रवेश द्वार की तरह खड़ा है।"
बस ने जहाँ छोड़ा वहाँ से लंबा, पथरीला रास्ता पार कर हम किले के प्रवेश द्वार पर पहुँचे। पुर्तगाली शैली में बने बेहद भव्य विशाल किले में ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ बनी थी। प्रमिला नीचे ही रुक गई। आर्थराइटिस की बीमारी की वजह से वह ऊंचाइयाँ नहीं चढ पाती। मैंने कैमरा सम्हाला और घूम-घूमकर किले को देखने लगी। परकोटे की दीवार से गोवा का व्यू बेहद शानदार दिख रहा था। मांडवी और जुआरी नदी के संगम पर दोना पाउला दिख रहा था। दोनों नदियाँ अरब सागर की बाहों में समा रही थी। एक लाइट हाउस है जो 1964 में बनाया गया था। आम तौर पर जो पर्यटक अरब सागर और गोवा के अंदरूनी हिस्सों का ओव्हर व्यू देखना चाहते हैं उनके लिए लाइट हाउस मददगार साबित होता है।
मुझे याद आया एग्वडा जेल से लिखा सुरेश शर्मा का पत्र जिसने हेरोइन रखने के जुर्म में 8 साल की यहाँ काटी थी और जो मुझे नियमित पत्र लिखकर अपनी साहित्यिक रुचि और जागरुकता का परिचय देता था। मैंने अपनी कुछ किताबें भी तो उसे पढ़ने के लिए जेल के पते पर भेजी थी। पूछने पर संदीप ने बताया कि यह लोहे के भारी जंगले से घिरी नीचे जाती सीढ़ियाँ एग्वडा जेल की ही है जो गोवा में सेंट्रल जेल के हिस्से में आता है। यह जेल-सी लेवल पर है जबकि किला ऊंची पहाड़ी पर।
"सॉरी मैडम आप वहाँ नहीं जा सकती, वहाँ जाने के लिए आपको जुर्म करना पड़ेगा।"
संदीप के कहने पर सभी ठहाका मारकर हंस पड़े।
अंधेरा धीरे-धीरे अपने कदम बढ़ा रहा था। बस ने हमें हैंडीक्राफ्ट एंपोरियम पर उतारा और टूर समाप्ति की घोषणा कर संदीप ने हाथ मिलाया। "आप जैसे टूरिस्ट मिले तो सारे दिन बोरियत का पता ही न चले।" वह बस में बैठ कर देर तक हाथ हिलाता रहा। एंपोरियम से प्रमिला ने थोड़ी खरीदारी की। मैंने भी एक मोतियों से जड़ा शोल्डर बैग खरीदा और हम ऑटो पकड़ कर घर लौट आए। आसपास के घरों के गेट पर खिले रातरानी के महकते फूल सन्नाटे को जीवंत कर रहे थे। गरम पानी के स्नान और एक कप गरमा गरम कॉफी ने सारी थकान उतार दी थी।
दूसरे दिन हम दक्षिणी गोवा के टूर पर थे। गाइड जोजेफ संदीप जैसा जिंदा दिल नहीं लगा बल्कि रास्ते की तीन सितारा होटल पर 40 मिनट बस रोककर उसने अधिक पेमेंट करने वाली सवारियाँ बटोरी और हमें दूसरी मिनी बस में बैठने को कहा जो इतनी आरामदायक नहीं थी। उसके इस व्यवहार ने हमारा मूड चौपट कर दिया था। बहरहाल हमें बस से नहीं उतरना था तो नहीं उतरे और एक घंटे देर से हमारी यात्रा आरंभ हुई। सभी यात्री जोज़ेफ़ से नाखुश थे। मेरे मोबाइल पर रोहिताश्व जी का फोन था
"संतोष जी, अभी भी भाई आई-सी यू में है। मुझे अफसोस है मैं आपके साथ नहीं हूँ। आप बिल्कुल आराम से रहें और पूरा गोवा घूमें। जो छूट जाए उसे मेरे लिए ड्यू रखें। किचन में किसी चीज की कमी हो तो नीचे दुकान है मेरा नाम बता कर मंगवा लें।" मैं अभिभूत थी। इतने संकट में भी वह मेरी फिक्र कर रहे थे।
मीरामार बीच पर बस रुकी। यहाँ आधे घंटे का समय हमें घूमने के लिए दिया गया। जोजेफ बस में ही बैठा हुआ रुपए गिनता रहा। मैं प्रमिला के साथ में दूर दिखती समाधि जैसी जगह पर पहुँची। समाधि गोवा के पहले मुख्यमंत्री दयानंद बांडोडकर की थी। गेट के खंभे पर उनके बारे में काले हर्फो में खुदा था। नारियल और सुपारी के वृक्षों की सघनता में सफेद पत्थर की समाधि दूर से ही देखी जा सकती है। पूरे तट पर पेड़ के तनों से थोड़ी-थोड़ी दूरी पर ऐसे मंडप से बने थे जैसे आंगन में सेम तुरई की बेल छाने के लिए बनाए जाते हैं। मीरामार पंजिम से बहुत नजदीक है और यही मांडवी नदी अरब सागर से मिलती है। मीरामार के बाद हम बॉम जीसस चर्च आए जो बैसिलिका ऑफ़ बॉम जीसस नाम से जाना जाता है। सोलवी शताब्दी में बना यह चर्च प्रभु यीशु के शिशु रूप को समर्पित है। यहाँ सेंट फ्रांसिस जेवियर की 450 साल पुरानी ममी चांदी की कार्विंग वाले कांच के ताबूत में ज्यों की त्यों रखी है जिसे गोवा के किसी विशेष दिन जनता के दर्शनार्थ रखा जाता है। यह चर्च बाइबल की कहानियों के शिल्प से भरी दीवारों के कारण बेहद आकर्षक दिखता है। इसी के सामने सड़क के पार विशाल घास के मैदान पर बना सेंट कैथेड्रल चर्च है जो एशिया के सबसे विशाल चर्चो में दूसरे नंबर पर है। यह चर्च सेंट केथरीन ऑफ अलेक्जेंड्रिया को समर्पित है। और अपने सोने से बने विशाल घंटों के लिए खास पहचाना जाता है। यहाँ इतना विशाल प्रार्थना हाल है कि एक साथ 15 शादियाँ हो सकती हैं। मैं प्रभु यीशु को मन ही मन प्रणाम करती हूँ जिन्होंने विश्व के अनेक देशों को कैथोलिक धर्म के जरिए एकता के सूत्र में बाँधा। हॉल लोगों से खचाखच भरा था पर ऐसी शांति कि पत्ता भी खड़कने से डरे। हम आगे के गेट से आए और पीछे के गेट से बस के पार्किंग स्थल पर पहुँचे। वहाँ तमाम जूस और स्नैक्स के स्टॉल थे। रास्ता हरा भरा शांत। हमने जूस पी कर खुद को ताजा दम किया और मंगेश मंदिर जाने के लिए बस में आ बैठे जो अब तक नार्मल हो चुका था। वह सड़क के दाएँ बाए लगे वृक्षों का परिचय दे रहा था।
" यह सभी काजू के पेड़ हैं। मैं आपको काजू की होलसेल शॉप पर ले चलूंगा। जहाँ से आप काफी सस्ते दामों में साधारण, छिलके वाले, नमकीन और मसालेदार काजू खरीद सकते हैं। आपको पता है गोवा को ओरिएंट का मोती कहते हैं।
यहाँ के समुद्री तट सुबह एक अलग सुंदरता लिए दिखाई देते हैं तो शाम को एकदम अलग। जैसे ढलता सूरज अपनी ही सुंदरता पर न्योछावर हो। अचानक ही जोज़ेफ़ मुझे अच्छा लगने लगा। हिन्दी, कोंकणी और अंग्रेजी तीनों भाषाओं की उसे गहरी जानकारी थी। वह कमेंट्री भी तीनों भाषाओं में कर रहा था। हम पुराने गोवा के शहरों से गुजर रहे थे जहाँ ग्रामीण संस्कृति की झलक थी।
"यहाँ चूल्हे पर मिट्टी की हांडी में पकाया गया गोवा का खास व्यंजन आप अवश्य खाएँ। इन व्यंजनों को मिट्टी के बर्तनों में या केले के पत्तों पर परोसा जाता है।" जोज़ेफ़ बता रहा था।
बायीं ओर घाटी में हिंटर लैंड फॉरेस्ट था जो इतना घना था कि... घुस सको तो घुस के देखो / घुस न पाती हवा जिनमें।
प्रिऑल गाँव में इक्का दुक्का ग्रामीण घर मिट्टी से बने लेकिन रंग बिरंगे। यही मंगेश मंदिर है। बस कच्चे रास्ते पर रुकी। लगभग आधे घंटे पैदल चलना होगा। तब मंगेश मंदिर आएगा। हमारी लता मंगेशकर यही की है। कहते हुए जोज़ेफ़ साथ-साथ चलने लगा। धूप छाँव से भरा रास्ता। आसपास कटे हुए फलों से सजे ठेले, नारियल पानी, रंगीन शरबत, शंख सीपी से बने खिलौनों की दुकानें और पेड़ों पर उछलते-कूदते लंगूर। थकावट ने छुआ तक नहीं। मंगेश मंदिर सोलहवीं सदी में बना शिवजी का मंदिर है। पत्थर का भव्य स्थापत्य ...मंदिर परिसर में और भी मंदिर है जो हिंदू मंदिरों की विशेषता है। लौटते हुए प्रमिला ने एक सुपारी वाले से मोलभाव करते हुए सुपारी चखने को मांगी तो वह भड़क गया और कोंकणी में प्रमिला को जाने का रास्ता दिखा दिया। हम उसके व्यवहार पर देर तक हंसते रहे।
लौटते हुए शांति की देवी शांतादुर्गा का मंदिर, विष्णु जी के अवतार मोहिनी का महालक्ष्मी मंदिर आदि के दर्शन करते हुए जोजेफ की बताई दुकान से काजू खरीदते हुए हम कोलवा बीच जा रहे थे। जो गोवा का सबसे बड़ा बीच है। जिसकी लंबाई 18 किलोमीटर है। रास्ते में मारगोवा शहर पड़ा जो गोवा की एक कमर्शियल सिटी है। यह शहर काफी बड़ा और खूबसूरत है। सड़कों पर चलते लोगों की चुप्पी मुझे परेशान कर रही थी। कितना ख़ामोश है गोवा। कोलवा बीच मारगोवा से 6 किलोमीटर की दूरी पर है। तट पर अथाह खूबसूरती का समंदर ठाठें मार रहा था। दूर-दूर फैली सफेद रेत और ताड़ के पेड़। सीढ़ियाँ उतर कर चट्टाने ही चट्टाने। चट्टानों को छूती नीले समंदर की दूधिया लहरे ...समंदर के ऊपर दौड़ती फास्ट स्पीड वाली नौकाएँ और आकाश पर पैरा राइडिग की रंगीनी ...काफी देर तक हम बीच पर टहलते रहे। मुझे दूर दिखती चट्टानों तक जाना था। प्रमिला चल नहीं पा रही थी। वह पेड़ की छाया में बैठ गई। चलते-चलते मैं इतनी दूर निकल गई कि प्रमिला बौने की तरह नजर आ रही थी। सुनसान तट पर ऊंची नीची खूबसूरत चट्टाने... कोई पत्थर भूरा तो कोई नीला, कोई स्फटिक-सा चमकदार। चट्टानों की आड़ में लेटे बिल्कुल नग्न विदेशी जोड़े, दुनिया से बेखबर, खुद में तल्लीन। कुछ लड़कियाँ उन्हें देर तक देखती रही। मुझे अपनी ओर देखते पा वे शरमा गई। उन्होंने कैमरा मेरी ओर बढ़ाया ...
"आंटी हमारी तस्वीर लेंगी?"
मैंने उनकी अलग-अलग पोज में कई तस्वीरें खींची। वे हंसती खिलखिलाती मैंग्रोव्ज़ की झाड़ियों के पार चली गई। आपस में यह चर्चा करती हुई कि शाहरुख खान की फिल्म की शूटिंग इसी बीच पर हुई थी। अपना-अपना जमाना है मैं जब इनकी उम्र की थी तो गोवा हिप्पियों की पसंदीदा जगह थी। तब इन तटों पर हिप्पी चरस गांजा पीते सुध बुध खोए पड़े रहते थे।
मुझे पुराना गोवा भी देखना था जिसे आदिलशाह ने सोलहवी शताब्दी के पहले दशक में बनवाया था और पुर्तगालियों ने इसे पूर्व का रोम नाम दिया था। देखूं तो जैसा रोम मैंने देखा है क्या सचमुच पुराना गोवा वैसा ही है।
यहाँ एक ढाई सौ साल पुरानी कोठी है जो हरियाली की गोद में नगीने-सी जड़ी है। कहते हैं यह गोवा के सबसे अधिक अमीर व्यक्ति की कोठी है। जिसमे वह अपने परिवार के 26 सदस्यों के साथ रहता था। कोठी के कमरे ठीक वैसे ही सजे हैं जैसे अमीर के समय सजे रहते थे। खाने के कमरे की विशाल गोल मेज पर जब 26 सदस्यों के साथ अमीर खाना खाने बैठता था तो 20 नोकर खाना परोसते थे। वहाँ म्यूजियम भी है लेकिन हमने तो पेड़ के टूटे तने पर बैठकर गन्ने का रस पिया और तृप्ति की सांस ली।
सुहानी शाम में गोवा की रंगीनियाँ अंगड़ाई ले रही थी। जोज़ेफ़ ने दोना पाउला ले जाना स्थगित किया और हमें ले जाकर पंजिम बस अड्डे पर छोड़ दिया। कई पर्यटक जोजेफ से उलझ पड़े। जब पैकेज में दोना पाउला शामिल था तो दिखाया क्यों नहीं? टूर तो उसकी वजह से ही 1 घंटे देर से शुरू हुआ था।
कल सुबह की हमारी दूधसागर जलप्रपात की बुकिंग थी। वहीं खड़े-खड़े तय किया कि नमकीन फल आदि खरीद लें क्योंकि वहाँ जंगल में क्या मिलेगा?
खरीदी के बाद ऑटो पर बैठते ही प्रमिला बोली "आलू के पराठे बना लेंगे कल के लंच के लिए"
"हाँ यह ठीक रहेगा।" लिहाजा राय बंदर के मोड से हमने आलू और दूध के पैकेट खरीदे। घर आते ही रोहिताश जी का फोन
" क्या घूमा? '
ढेर सारे मंदिर, चर्च, दक्षिणी गोवा और...
"यार हमारे साथ जाने को कोई तो जगह छोड़ो" मैं हंस पड़ी। मन ही मन सोचा कल किसने देखा है। क्या पता दोबारा गोवा न आ पाऊँ। प्रमिला कॉफी के गरमा-गरम प्यालों के साथ हाजिर। पहली घूँट पीते ही थकान छूमंतर।
गोवा टूरिज्म सेंटर से ठीक 7: 30 बजे बस दूधसागर जलप्रपात के लिए रवाना हो गई। मेरे हाथों में इस जलप्रपात का हवाला देती बुकलेट थी और नजरें खिड़की के बाहर। आज गोवा में हमारा चौथा दिन था। इसलिए काफी जगह जानी पहचानी लग रही थी। थोड़ी ही देर में बस पुराने गोवा में थी। यानी कि 'पूर्व का रोम'। मध्यकालीन और पुर्तगाली कला का सदियों पुराना स्थापत्य लेकिन इतना ठोस, मजबूत, खूबसूरत... सचमुच मुझे लगा जैसे मैं रोम की सड़क पर हूँ।
" आप कैबो किला और तेरेखोल किला देखकर तो समझ ही नहीं पाएंगे कि आप रोम में हैं कि गोवा में। गाइड ने जानकारी दी।
बहरहाल हम पंजिम से 40 किलोमीटर पूर्व में स्थित पोंडा तालुका से गुजर रहे थे जहाँ के हरे भरे कुंजो में बहुतायत से पक्षी देखे जा सकते हैं। यहाँ विदेशों के बर्फीले इलाकों से आकर हर प्रजाति, हर रंग के पक्षी डेरा डालते हैं। बर्फ पिघलते ही वह अपने देश लौट जाते हैं। अदभुत देशप्रेम! ढूँढने पर दूर फुनगी पर बैठी एक लाल परो और नीली चौच वाली चिड़िया दिखी जिसे मैंने कैमरे में कैद कर लिया। हम मोलेम पहुँचे जहाँ से चार-चार की संख्या में जिप्सी में बैठकर हमें दूध सागर जाना था। यह जीप अधिकतर नेपाली या पहाड़ी ही चलाते हैं। साथ में हैल्पर भी रहता है। जिप्सी ने भगवान महावीर वाइल्डलाइफ सेंचुरी में प्रवेश किया। 240 स्क्वायर किलोमीटर फैले इस जंगल में काफी सारे जंगली जानवर है। धीरे-धीरे जिप्सी घने जंगल में पथरीले रास्ते को पार करने लगी। कि अचानक सामने नदी ...और जब हम नदी में से गुजरे तो पानी जिप्सी में हमारे जूतो तक भरा आया। एक के बाद एक तीन बार नदी में से जिप्सी गुजरी। लगा जैसे हॉलीवुड की फिल्मों की मैं एक पात्र हूँ और जंगल के जोखिम को झेल रही हूँ। इतनी रोमांचक यात्रा शायद ही कभी की हो। जंगल की सघनता में कभी-कभी पक्षियों की आवाज़ चौंका देती थी। दूर हिरन कुलांचे भरते नज़र आये। थोड़ा आगे बढ़े तो नीलगाय भी दिखी। रास्ता बेहद खतरनाक था। ड्राइवर का हाथ सधा न हो तो ...ओह! रोंगटे खड़े हो गए। लगभग 40 मिनट की इस रोमांचक यात्रा के बाद हम जहाँ पहुँचे वहाँ से आगे पैदल जाना था।
सब अपने-अपने मित्रो सम्बंधियों के साथ आगे बढ़ गए। ऊंची-ऊंची चट्टानों को फलांग ना था। कहीं-कहीं पानी का सोता बह रहा था जिस में गोल चिकने पत्थरों पर पैर जमा कर आगे बढ़ना था। कहीं केवल भुरभुरी मिट्टी में उतराई कि जूते फिसलने का डर। पेड़ों के तने, जड़ों को पकड़-पकड़ कर हम नीचे उतरे। ट्रैकिंग और हाईकिंग के शौकीनों के लिए यह एक उम्दा जगह है। एडवेंचर स्पोर्ट्स से भरी। झरने की तेज ध्वनि कानों में पड़ते ही ज्योंही आंखे ऊपर उठी कि पैर ठिठक गए। सैकड़ों फीट ऊंचाई से गिरते जलप्रपात का दूधियापन धूप में चमक उठा था। यह पानी कर्नाटक से बहता हुआ आता है। और एक विशाल धारा के साथ आसपास फैले पर्वतों पर से कई छोटी-छोटी धाराओं में गर्जना करता गिरता है। विशाल धारा जहाँ गिरती है वहाँ एक बड़ा कुंड-सा है जो तीन ओर चट्टानों से घिरा है। इस कुंड में कई सैलानी तैराकी कर रहे थे। कई विदेशी जोड़े बिकिनी हाफ पैंट में भीगा बदन लिए चट्टानों पर लेटे धूप स्नान कर रहे थे। जलप्रपात के बाई ओर 10 मिनट चलने पर एक छोटा-सा खूबसूरत झरना बड़ी अदा से घाटी में गिर रहा था। उसका पानी कहाँ जा रहा था पता ही नहीं चल रहा था। घाटियाँ आकर्षक पत्तों, फूलों, जंगली फलों वाले पेड़ों से लदी थी। बैटरी खत्म होने का सिग्नल जब कैमरे में आया तब हमने प्रकृति के खुले आंगन में लंच का पैकेट खोला। 2 घंटे बाद वापसी। कुछ लोग लंच नहीं कर पाए थे। उनके लिए मोलेम रिसॉर्ट में हम रुके। फिर तांबडी सुरला में 11 वीं सदी में बने शिव मंदिर में शिव जी के दर्शन किए। जो कदम्ब यादव के वास्तुशिल्प से आधुनिक रूप ले चुका है। मंदिर को भक्तो ने मोगरे और चांदनी के फूलों से सजाया था। काले पत्थर से बने मंदिर में सफेद फूल अलग ही आभा बिखेर रहे थे।
हमारे साथ मेघालय से आया एक सोशल साइंस का विद्यार्थी था। वह मेरे नजदीक आकर बोला ..."यह सारे मंदिर पुर्तगालियों ने तोड़ डाले थे। उनसे आजाद होते ही सब को नया रूप दिया गया। लेकिन पुराना स्थापत्य नहीं बदला। आपका मुंबई सात द्वीपों से बना है। जबकि गोवा में 17 द्वीप है। आपको पता है पुर्तगालियों ने अंग्रेजो को मुंबई दहेज में दिया था।"
तभी एक लंगूर ने पेड़ से छलांग लगाई और उसके हाथ में पकड़े नमकीन के पैकेट को छीन कर यह जा वह जा। वह हंसता हुआ बंदर के पीछे भागा लेकिन लगातार हॉर्न बजाती जीप ने हमें जल्दी लौटने पर मजबूर कर दिया था।
घर लौटने से पहले हमने पंजिम से शॉपिंग कर ली क्योंकि कल भर का दिन शेष था और मित्रों, पड़ोसियों के मंगवाए गए काजू आदि की फेहरिस्त लंबी थी। यहाँ के छिलके वाले काजू बड़े सौंधे लगते हैं। मूंगफली की तरह छीलकर खाते जाओ। मुझे पिक्चर पोस्टकार्ड भी लेना था पर कहीं दिख नहीं रहे थे। उनके लिए गोवा टूरिज्म सेंटर ही जाना पड़ा।
सुबह-सुबह किरण का फोन आया... "आ रही हूँ, आपको यूनिवर्सिटी और दोना पाउला देखना है न।"
आज हम वैसे तो आराम के मूड में थे पर दोना पाउला देखना भी जरुरी था। यूनिवर्सिटी देखनी तो थी पर छूट भी जाए तो क्या हर्ज है। रोहिताश्व जी होते तो यूनिवर्सिटी जाते। यूनिवर्सिटी तालेगांव में है। वही किरण का होस्टल है। सुबह 11 बजे किरण आ गई। 3 बजे उसे लेक्चर अटेंड करना था। इतनी धूप में दोना पाउला घूमने का मन नहीं था। लिहाजा वहाँ हमने अकेले ही जाने का मन बना लिया और किरण के साथ गपशप करते खाना खाते कब 2 बज गए पता ही नहीं चला। उससे बिदा हो हमने एक-एक झपकी ली और तरोताजा हो कर शाम 5 बजे घर से निकले। 6 बजे हम दोना पाउला में थे। बेहद खूबसूरत लेकिन बिल्कुल अलग ढंग का बीच है ये। गेट के अंदर सड़क पर चलते हुए बाई ओर किनारे से लगी नौकाएँ बंधी थी और दाहिनी ओर बाज़ार के स्टॉल। यानी रेतीला तट कहीं नहीं था। और आगे चलने पर एक छोटा-सा पुल और पुल की दीवारों को छूती समुद्री लहरें लेकिन किनारे का उथलापन पानी में पड़े पत्थरों चट्टानों के कारण दूर से दिखाई दे रहा था।
आगे एक दो मंजिली इमारत घुमावदार बगीचे और लाल टाइल्स वाली... वही एक स्त्री पुरुष की सिलेटी पत्थरों से बनी मूर्ति। ये मूर्तियाँ दो ना और पाउला की थी। दोना पुर्तगाली वायसराय की बेटी थी जिसका पाउला से इश्क चलता था लेकिन सामाजिक और पारिवारिक मान्यता न मिलने के कारण दोनों ने यहाँ समुद्र में कूदकर जान दे दी थी। मुझे याद आया यही तो "एक दूजे के लिए" फिल्म की शूटिंग हुई थी और इसी इमारत से कूदकर रति अग्निहोत्री और कमल हासन ने फिल्मी आत्महत्या कर ली थी। मैं इमारत के टेरेस के बीचो-बीच बने मंडप नुमा कमरे में आई। कमरे की छत तो थी पर चारों और दीवारे नहीं थी। कंगूरेदार रेलिंग था जहाँ एक बड़ी दूरबीन रखी थी। ₹5 की टिकट खरीदकर मैंने दूरबीन से तालेगांव में यूनिवर्सिटी देखी और चारों ओर के गोवा का खूबसूरत व्यू। दोना पाउला को लवर्स पैराडाइस यानी प्रेमियों का स्वर्ग भी कहते हैं। शायद इसीलिए यहाँ हनीमून मनाने आए जोड़े अधिक दिखाई दे रहे हैं। यह एडवेंचर्स प्लेस भी है विंड सर्फिंग, वाटर स्कीग, पैरासेलिंग हारपून, फिशिंग लांचिंग, वाटर स्कूटर, राइडिंग आदि करने वाले देशी विदेशी सैलानियों की यह मनपसंद जगह है।
आज से कुछ बरस पहले विदेशी पर्यटकों के लिए भारत में पर्यटन का मतलब ही गोवा था। शायद यही वजह है कि यहाँ के तमाम समुद्र तटों पर संपूर्ण नग्नावस्था में धूप स्नान करते विदेशी जोड़े यहाँ के निवासियों के लिए अजूबा नहीं रह गए हैं। वे गार्डन छतरी लगाए एक दूसरे में डूबे पड़े रहते हैं। कोई उनकी इस आदम अवस्था पर ध्यान तक नहीं देता।
दोना पाउला से हम गोवा टूरिस्ट सेंटर आए। पिक्चर पोस्टकार्ड खरीद कर हम देर तक सामने बहती मांडवी नदी को निहारते रहे। कल मुंबई वापसी।
विदा गोवा ... सप्ताह भर तुममें बिताकर मैंने पाया है कि तुम पूर्व के रोम नहीं हो बल्कि रोम तुम्हारे जैसा है।