पूर्व वक्‍तव्य / सहजानन्द सरस्वती

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आज तक पश्‍चिमा, भूमिहार, जमींदार, त्यागी, महियाल आदि नामधारी ब्राह्मणों के सम्बन्ध में जितने आक्षेप-कटाक्ष हुए हैं उनका सारांश यही है कि इन लोगों में ब्राह्मणों के यजन यजनादि, अर्थात पुरोहिती का नितान्त अभाव है। यद्यपि यह कथन सर्वांश में सत्य नहीं है, कारण, गजरौला-बिजनौर वगैरह स्थानों के त्यागी और हजारीबाग के इटखोरी और चौपारन थानों के भूमिहार वंशपरम्परा से पुरोहिती पेशावाले हैं और गया के देवों का सूर्यमन्दिर भी भूमिहार-सोनभदरियों के ही हाथ बराबर रहा है और वही उसके पुजारी रहे हैं। प्रयाग-त्रिवेणी के पण्डे भी भूमिहार या जमींदार ही हैं और तिरहुत के मुजफ्फरपुर, दरभंगा आदि जिलों में जैथरिया, दोनवार, दिघवैत आदि मूल के भूमिहार या पश्‍चिमा लोग ही महापात्र का काम करते हैं। फिर भी, भूमिहार, त्यागी, जमींदार या पश्‍चिमा लोग उसे अच्छा नहीं समझते रहे हैं और उनका यह बराबर यत्‍न रहा है कि पुरोहिती का नाम भी समाज में न रह जावे, जिसका भयंकर दुष्परिणाम आज आँखों के सामने है। प्रस्तुत पुस्तिका में यही दिखलाया गया है कि भूमिहारों या त्यागियों वगैरह की यह धारणा नितान्त भ्रान्त है। इसलिए अपने समाज में पुरोहिती को निर्मूल करने की उनकी प्रवृत्ति सर्वथा और सर्वदा हानिकर अतएव हेय है। फलत: इस प्रवृत्ति का जितनी जल्दी अन्त हो के समाज समष्टि रूप से यजन-याजनादि षट कर्मों को अपनावे उतना ही श्रेयस्कर है। इसी से समाज की लुप्तप्राय प्रतिष्ठा की पुन: प्राप्ति एवं अन्यान्य ब्राह्मण समाजों की समकक्षता में गणना हो सकेगी।