पूर आई थी मन की नदिया / ममता व्यास

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अजीब है प्रकृति के खेल प्यास बुझाने वाले बादल जब फटते हैं तो जि़न्दगी लील जाते हैं। जीवन देने वाली नदियाँ बस्तियां उजाडऩे लगती है।

कहीं तो बूंद-बूंद पानी को तरसा जाती है कुदरत तो, कहीं इसी पानी में डूब-डूब कर ना जाने कितनी मौते हो जाती हैं, हमारा मन भी तो प्रकृति की मानिंद होता है कभी दुख की धूप से झुलस कर दर्द के रेगिस्तान में बूंद को तरस जाता है, तो कभी मन की नदियाँ में ऐसे तूफान आते हैं, ऐसी बाढ़ आती है कि सारे अहसास, सारी भावनाएं, इच्छाएं बह जाती हैं। फिर कुछ शेष नहीं बचता।

नदी का स्वभाव ही है बहना, लेकिन हम इंसान भी हर पल बहते हैं हर क्षण बहते हैं जो हम अभी इस पल है, अगले पल कुछ और ही हो उठेंगे। पानी की तरह हम कहीं भी ठहरते नहीं तो क्या हमारे अहसास, भाव या संवेदनाएं ठहर पाती होंगी? कभी नहीं, कतई नहीं वो भी बह जाती है समय के साथ आज जो खुशबू फूलों में है, जो रवानगी हवा में है, जो तीव्रता धड़कनों में है क्या कल भी होगी? कौन जाने आने वाले पल में कुछ भी ना बचे, जिन आंखों से आज गंगा जमुना किसी के लिए बहती है कल वहाँ उजड़े रेगिस्तान नजर आये।

हम जीवित रहते हैं क्योंकि हमारी साँसों का सौदागर कोई और है, लेकिन अहसासों पर किसी का पहरा नहीं होता, भावनाएं किसी की गुलाम नहीं होती, संवेदना किसी की दासी नहीं होती वो तो मन की नदी में रहती है छुप-छुप कर, चुप-चुप कर।

और जब इस नदी में 'पूर यानी बाढ़ आती है तो सब बह जाता है अहसासों के कोमल घरौंदे। ख्वाइशों की बस्तियां और फ ना हो जाती हैं हसरतों की हवेली।

फिर कुछ नहीं बचता कुछ भी नहीं... इससे पहले की मन की नदी सब कुछ बहा ले जाए हमें सहेजना होगा उन अनमोल मोतियों को जो किसी बाजार में नहीं मिलते, छुपा लेना होगा उन सच्चे हीरों को जो हम कभी खरीद नहीं पायेंगे वरना सब बह जाने के बाद हम किनारों पर पहुंचे तो नदी कह उठेगी।

'पूर आई थी मन की नदियाँ बह गए सब अहसास रे जोगी... और फि र नदी क्या दे पाएगी जोगी तुम्हें, खाली हाथ ही लौटना होगा खाली हाथ... नदी की भी एक सीमा है जोगी वो अपनी सीमा से बाहर नहीं जा सकती। वो तुम्हारे कमंडल में नहीं आ सकती। जोगियों को ही आना होता है किनारे पर। योगियों को भी। कमोबेश भोगियों को भी। जैसे देह के किनारों पे भोगी मर मिटते हैं वैसे ही रूह की खुशबू से कोई जोगी पागल हो जाता है। नदी कहीं नहीं जाती कभी अपने दुखड़े रोने। वो कभी नहीं जाती अपनी मन्नतों के दीपक सिराने। वो कभी रोती भी नहीं जड़ किनारों के पास आकर, लेकिन मन तो उसका भी है न, मन तो उसका भी भरता होगा न कोई जब उसकी नहीं सुनता तो उसके मन में भी 'पूर आते हैं बाढ़ आ जाती है। हाँ कभी जब पूर आती है नदी तब बह जाती है तमाम जलराशि-जैसे मन में कैद भाव और अहसास जी भर के रो लेने से बह जाते हैं। आँखें फि र नयी हो जाती हैं। नदी फि र शांत हो जाती है। बस फिर कुछ नहीं शेष रहता। जैसे किनारों पे निशान रह जाते हैं 'पूर के। जैसे गालों पे चिपके रहते हैं सूखे आंसू ... जी भर के रो लेने के बाद।