पृथु की कथा / ठाकुर प्रसाद सिंह

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यह सबसे पहली साहित्यिक रचना है, जो वैदिक काल में लिखी गयी। आर्यों का संक्रमणकाल समाप्त हो चुका था। उनके सामाजिक और राजनीतिक जीवन में स्थिरता आ गयी थी। तभी कुछ ऐसी घटनाएँ घटीं, जिनसे उनका जीवन उद्वेलित हो उठा। उसी उद्वेलनकाल की एक महागाथा, जो सारी स्थितियों के पुनर्मूल्यांकन और पुनर्निर्माण का कारण बनी।

बिजली चमकी और बुझ गयी। दुस्सह आवेश का एक क्षण कौंधकर निकल गया, तो लोगों ने देखा कि क्रोध से जलते हुए ऋषियों के पैरों के पास प्रतापी राजा वेन मृत पड़ा हुआ है।

वैवस्वत मनु ने चारों ओर असुरों, गन्धर्वों, किन्नरों और कितनी ही जन-जातियों के बीच से बचाकर जिस विश को सरस्वती नदी के किनारे ले आकर प्रतिष्ठित किया था, वह उनकी सातवीं पीढ़ी में ही जैसे जड़-मूल से हिलने लगा था।

आखिर यह सब हो क्यों गया? चारों ओर शत्रुओं से घिरे हुए आर्य इतने निश्चिन्त कभी भी नहीं थे कि वे आपस में लड़ने के लिए इस सीमा तक तैयार हो जाएँ कि अपने ही चुने हुए राजा को अपने ही हाथों से मार डालें। जिन लोगों ने कभी ऋचाओं के गायन से प्रसन्न होकर ऋषियों को विशेषाधिकार दिया था और उन्हें सरस्वती के तीर वाली सबसे अच्छी भूमि कृषि के लिए दी थी, उन लोगों ने शायद ही कभी सोचा होगा कि यह विशेषाधिकार एक दिन उनके वंशजों के प्राण लेगा।

पूरे विश पर अकाल की घनघोर छायाएँ झुक आयी थीं। वर्षा के अभाव में खेत सूख गये थे और शताब्दियों पहले स्थापित की हुई नियम की परम्पराएँ टूटने की स्थिति में आ गयी थीं। इस नियमन को मनु के वंशज ‘ऋत’ कहते थे और उसकी कल्पना मात्र से रोमांच का अनुभव करते थे। आज वही ऋत रथ के ऊपर टँगे ध्वज की तरह तेज हवा और झंझावात में तड़फड़ा रहा था। आर्यों की सभी बस्तियाँ उदास थीं और बुभुक्षा की चपेट में उनके अंग उघड़ रहे थे। पर सरस्वती के किनारे ऋषियों के लिए सुरक्षित क्षेत्रों में अब भी फसल लहलहा रही थी और ऋषि सुख से यज्ञ कर रहे थे। पूरे जन की भूखी आँखें सरस्वती किनारे की इस लहलहाती पट्टी पर टिकी हुई थीं। उनके मन में प्रश्न उठ रहा था कि आखिर जब पूरा विश भूख से तड़फड़ा रहा हो, तो ऋषियों को इस सुविधा में निवास करना क्या उचित है?

पर इस प्रश्न को उठाने का दुखद परिणाम सबके सामने था। विश के प्रधान वेन का वध हो चुका था। लेकिन वेन की गलती भी क्या थी? उसने तो यही कहा था कि जब अभाव है, तो बाँटकर विपत्ति भोगनी चाहिए। वेन पूरे विश का प्रधान था और वह सबकी भूखी आँखें कब से देख रहा था। उसने तो केवल अपने मन का संशय प्रकट भर किया था।

वेन की मृत्यु किसी भी समस्या का समाधान नहीं थी। उसने तो समस्या को और भी उभारकर सामने रख दिया। वेन भूखे विश के लिए मरा है, यह बात बुभुक्षित लोगों के लिए बहुत बड़ी थी। उसके बाद जो प्रलय उठी, उसका शमन ऋषियों के बस की बात नहीं थी। ऋचाएँ आकाश में बिखर गयीं। लहलहाती कृषि रौंद दी गयी और सम्पूर्ण विश एक आत्मघाती युद्ध में डूब गया।

वेन का पुत्र पृथु वेन से अलग जा पड़ा था। वह उस समय तो कुछ नहीं कर सका, लेकिन उसने सोचना बन्द नहीं किया। अपने कुछ साथियों के साथ सरस्वती के किनारे से हटकर वह समस्या का समाधान खोजने के लिए चला तो गया, लेकिन उसके सामने रह-रहकर वे सारे दृश्य नाच जाते थे।

सरस्वती के किनारे बढ़ते-बढ़ते पृथु जहाँ आकर रुका, वहाँ अत्यन्त सघन वन था। एकान्त देखकर वह जल में उतरा और अंजुलि में जल लेकर उसने अपने मरे हुए पिता का तर्पण किया। जल में उसका खण्डित प्रतिबिम्ब बार-बार स्थिर होता था और फिर बिखर जाता था। उसका पूरा मानस आन्दोलित था और प्रज्ञा तप रही थी। दस दिन तक बिना खाये-पीये वह जल में खड़ा रहा और अपने को न्योछावर कर देने की एक तीखी प्रेरणा उसे मथने लगी। पिता की मृत्यु का बदला वह पूरे विश को मृत्यु के मुख में झोंककर भी नहीं ले सकता था। जिन लोगों के लिए पिता मरे हैं, वे अब भी भूखे हैं और विक्षिप्तों की तरह वे अपना सब-कुछ नष्ट करने पर तुले हैं। पिता का बदला है इस भूखे, ऋतविहीन भटकते हुए विश को अबाधित जीवन देना।

एक दृढ़ विश्वास के साथ पृथु पीछे लौटा। अग्नि की सहायता से उसने उस सघन वन को जलाया। धीरे-धीरे धरती ने अपना अन्तर खोला और पृथु ने उसे अन्न देने के लिए नये सिरे से जोतना शुरू किया। इसके पहले उसने आर्यों को धरती में तीखी नोक वाली लकड़ी से गड्ढे खोदकर उनमें बोते देखा था। पृथु ने अनुभव किया कि इस धरती को जल के अतिरिक्त हल की धारा देनी चाहिए, और एकाएक उसे हल बनाने की परिकल्पना समझ में आ गयी। जली हुई वनस्पतियों की खाद और धार की जुताई के बाद धरती ने जैसे अपना हृदय खोलकर रख दिया।

बुभुक्षित और सूखे स्रोत से विनाश के कगार पर खड़ी एक जाति को जैसे एक नयी चेतना ने छू लिया। विश ने वेन के पुत्र पृथु को पुनः अपने कन्धे पर बिठाया और अपने इस नये जीवन का आभार स्वीकारने के लिए उन्होंने उस दिन से धरती का नाम बदलकर पृथ्वी कर दिया। पृथु ने धरती को दरवाजे पर खड़ी गाय की तरह सेवा से वश में किया और उसे अपनी इच्छा के अनुसार दुहा।

कब का रुका हुआ जीवन-प्रवाह अजस्र भाव से सरस्वती के किनारे पुनः बह निकला। नयी पताका की तरह आर्यों ने फिर नये ऋत की स्थापना बस्तियों के ऊपर की, लेकिन यह ऋत केवल ऋषियों की बस्तियों पर उड़ने वाली पताका जैसा नहीं था। यह पूरे विश का ऋत था, जिसमें सबको समान अधिकार थे, और सब सुख-दुख में समान मन, समान चित्त और समान गति से एक साथ बढ़ने की भावना से प्रेरित थे।