पृथ्वी पर सूर्य का प्रभाव / कविता भट्ट

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पृथ्वी पर सूर्य का प्रभाव

सम्भवतः पृथ्वी पर सूर्य को बहुत-सी ऊर्जा - विद्युत चुबंकीय विकिरण के माध्यम से पहुँचती है। इसका मुख्य कारण है सूर्य की सतह पर त्रणात्मक हाइड्रोजन आयन की जो परत मौजूद है, वह बहुत सारे विकिरण को सोख लेती है। बहुत सारी तंरग लंबाइयों की ऊर्जा इन आयनों द्वारा सोख ली जाती है जिस कारण वह सूर्य की सतह पर फ़ैल जाती है। इस तरह सूर्य की सतह पर फ़ोटोस्फ़ीयर का निर्माण होता है। यह ऊर्जा का पुनः विकिरण करता है। फ़ोटोस्फ़ीयर ब्लैक बॉडी की तरह व्यवहार करता है और इसमें निकलने वाली ऊर्जा सभी ओर चलती है। इसकी गति भी समान ही होती है।

इसे मापने के अनेक प्रयास किए गए हैं। । बडे़ गुब्बारे, ऊँचें उड़ रहे विमान व अंतरिक्षयान में ऊर्जा-मापन यंत्र रखकर मापन किया गया है और इससे ज्ञात हुआ है कि प्रति वर्गमीटर क्षेत्र में औसत 1-353 किलोवाट प्रकाशीय ऊर्जा मिलती है।यदि पृथ्वी पर सूर्याताप का भौगोलिक अध्ययन करें तो इसके वितरण एवं प्राप्यता में पर्याप्त भेद मौजूद है।

सर्वाधिक सूर्यातप 20-45 उत्तर-दक्षिण अक्षांशीय कटिबन्ध में होता है, किन्तु इस प्रदेश में भी सूर्यताप आन्तरायिक रूप से बादलों के आच्छादन तथा वर्षा के कारण कम-ज्यादा होता रहता है। उसी तरह दैनिक तथा ॠत्विक घट-बढ़ भी होती रहती है। अतः सूर्यताप की कुल क्षमता अत्यधिक होते हुए घटती-बढ़ती प्राप्यता के कारण उसका उपयोग अधिक हो सकता है। यदि उसे संचित किया जा सके. फि़र भी भोजन बनाने, घर या जल गर्म करने, सिंचाई-यन्त्रों में उपयोग करने आदि ऐसे कार्यों में जिसमें सतत् शक्ति आवश्यक न हो, इसका उपयोग हो सकता है। अब फ़ोटो वोल्टीक विधि एवं जल-तालाबों द्वारा सौर्य ऊर्जा से विद्युत उत्पादन भी होने लगा है। भारत में जोधपुर के निकट मठियाँ में एक सौर विद्युत गृह बना है।

बड़े पैमाने पर सूर्यातप-शक्ति के उत्पादन-उपयोग में निम्न कठिनाइयाँ रहीं है-1-सूर्यातप की केवल निम्न कटिबन्धों में समुचित प्राप्ति 2-आन्तरिक प्राप्यता, जैसे रात्रि में या बरसात या बादलों के कारण यह प्राप्य नहीं होता। 3-संयत्रों का अत्यधिक खर्चीला होना। अभी सूर्य-शक्ति की उपयोग-दक्षता अत्यधिक कम (केवल 5 से 15%) होना जिसका आंशिक कारण यह है कि उससे सीधे विद्युत उत्पादन सम्भव नहीं है; पहले ऊष्मा प्राप्त होती है। शक्ति की न्यून गहनता एक वर्ग मीटर प्रतिदिन आदर्श परिस्थिति में तेज सूर्यताप पड़ने पर केवल छह से आठ किलोवाट के बराबर ऊष्मा प्राप्त होगी।

सौर ऊर्जा, विशेषतया विकासशील देशों के लिए, जहाँ माँग क्षेत्रीय दृष्टि से अति बिखरी हुई मिलती है, अधिक उपयुक्त है। इसके उत्पादन की दो प्रमुख विधियाँ है-सौर ताप-संग्रह एवं फ़ोटो वॉल्टेक सेलों द्वारा सूर्य किरणों का अधिग्रहण एवं सीधे विद्युत-शक्ति में परिवर्तन। सौरताप संग्रह प्रायः ऐसे जलाशयों में किया जाता है, जिनकी सतह में नमक की मोटी परत बिछा दी जाती है। नमक सूर्य किरणों के ताप को आत्मसात कर लेता है इससे पानी का तापमान सैकड़ों डिग्री सेण्टीग्रेड तक बढ़ाया जा सकता है। इस गर्म खौलते जल के वाष्प से विद्युत प्राप्त किया जा सकता है। फ़ोटो वॉल्टेक सेल (दस गुणा वर्ग सेमी) द्वारा ग्यारह से तेरह प्रतिशत सौर ऊर्जा विद्युत ऊर्जा में परिणत की जा सकती है। दूसरे शब्दों में तीव्र किरणों से 1 वर्गमीटर क्षेत्रफ़ल में प्राप्त ऊर्जा से 250 से 300 वाट विद्युत उत्पन्न की जा सकती है। अब तक एक तीसरी क्रांतिकारी विधि सौर ऊर्जा को हाइड्रोजन में परिवर्तित करने की है। इस हाइड्रोजन को संचित एवं स्थानान्तरित भी किया जा सकता है तथा आवश्यकतानुसार उचित समय एवं स्थान पर इसका उपयोग संग्रही-विद्युत उत्पादन हेतु किया जा सकता है। सौर ताप अथवा फ़ोटो वॉल्टेक विधि से क्रमशः विद्युत पैदा करके, इस विद्युत की सहायता से अखनिजीकृत जल के हाइड्रोजन एवं आक्सीजन तत्वों को इलेक्ट्रोलाइजर प्रक्रिया से विलग कर दिया जाता है। हाइड्रोजन को गैसीय अवस्था में परिणत करके गैस प्रवाही नलिकाओं से कहीं भी भेजा जा सकता है। पुनः उपयोग स्थल अथवा समय पर इसमें वायुमण्डल से आक्सीजन मिश्रित करके इसे काटलिटिक हीटरों द्वारा ताप अथवा हाइड्रोजन / ऑक्सीजन शक्ति गृहों में परिणत किया जा सकता है। परियोजना के अन्तर्गत सौर ऊर्जा से प्राप्त हाइड्रोजन नलिका द्वारा स्वीट्जरलैंड तक ले जाने की योजना है। इस हाइड्रोजन से स्वीट्जरलेण्ड एवं पड़ोसी देशों की कुल ऊर्जा खपत के 50 प्रतिशत की आपूर्ति होगी। इससे चार सौ छः अरब का वित्त प्राप्त होगा। इस योजना के 1994 ई॰ तक पूरा हो जाने की सम्भावना थी। इससे प्राप्त विद्युत प्रति किलोवाट घण्टा 3 रुपये मात्र खर्च आएगा।

प्रकट है कि सौर ऊर्जा उपयोग की असीम सम्भावनाएँ अब वास्तविकता में परिणत हो रही है। इससे विशेषतया विकासशील निर्धन देशों की देहाती क्षेत्रों की बिखरी मांग की आपूर्ति कम खर्चे में हो सकेगी। सौर ऊर्जा से सिंचाई हेतु पम्प, रेफ्रिजेटर, घर में प्रकाश तथा दूर संचार साधन जैसे-रेडियो, टेलीविजन, टेलीफ़ोन चलाने की सुविधा हो जाएगी। स्पष्ट है कि उससे भारत जैसे सौर-ऊर्जा समृद्धि सौ किलो वाट का सौर-ऊर्जा स्थल भारत में अलीगढ़ एवं नरोरा के निकट कल्याणपुर गांव में क्रियाशील है।

यद्यपि सौर ऊर्जा में किसी कच्ची सामग्री के प्रयोग की समस्या नहीं है तथा फ़ोटो वॉल्टेक सेलों का रख-रखाव समस्या रहित है तथापि देहाती क्षेत्रों में सौर ऊर्जा के प्रयोग की दशा में सबसे बड़ी बाधा, इन सौर सेलों की महँगी कीमत है। । इनकी कीमत कम से कम दस-गुना कम होने पर ही गरीब देशों में इसका व्यापक उपयोग सम्भव होगा। अनेक देशों के लिये, जहाँ इन्जीनियरों का अभाव है, इसके प्रयोग हेतु विदेशी विकसित देशों पर निर्भरता भी एक बड़ी बाधा है।

सूर्य: विभिन्न ऊर्जाओं का जन्मदाता

सूर्य अपार उष्मा का ही द्योतक नहीं है अपितु सूर्य अनेक प्रकार की ऊर्जा भी प्रदान करता है जो पृथ्वी पर विभिन्न ऊर्जा के रूप में कार्य करने में सहायक होती है। सूर्य निम्नलिखित ऊर्जा को जन्म देता है-

1-सौर ऊर्जा-सौर ऊर्जा सूर्य से प्राप्त ऊर्जा का प्रत्यक्ष रूप है। भारत जैसे देश में, जो भूमधय रेखा के नजदीक है, यह प्रचुर मात्र में उपलब्ध है। भारत के अधिकतर हिस्सों में, वर्ष के 250-300 दिनों में सूर्य पूरे दिन चमकता है। इससे प्रति वर्गमीटर चार से सात किलोवाट आवर (यूनिट) ऊर्जा मिलती है। एक अनुमान के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष पाँच हजार ट्रिलियन यूनिट ऊर्जा उपलब्ध होती है, जो कि हमारी कुल आवश्यकता से कई गुना अधिक है। इस ऊर्जा का दोहन मुख्यतः दो प्रकार से होता है। एक के अंतर्गत सूर्य से प्राप्त ऊर्जा से प्रत्यक्ष रूप से बिजली बनाई जाती है। जिसे सौर प्रकाशीय ऊर्जा कहा जाता है। दूसरे के अंतर्गत सूर्य के ताप का उपयोग विभिन्न रूपों में किया जाता है। इसे सौर तापीय ऊर्जा कहा जाता है। सौर तापीय ऊर्जा का प्रयोग खाना पकाने, पानी गर्म करके भाप बनाने, भाप से मोटर चलाने तथा टरबाइन के माध्यम से बिजली बना कर किया जाता है।

इस फ़ोटोस्फ़ीयर से सतत् विद्युत चुंबकीय विकिरण होता रहता है। यह एक ब्लैक बॉडी की तरह काम करता है। इससे निकली हुई ऊर्जा को सौर ऊर्जा कहा जाता है। यह ऊर्जा जब सूर्य से निकलती है, तो सभी ओर समान गति से चलती है। यह पृथ्वी पर भी पहुँचती है। इस ऊर्जा को मापने की एक सरल विधि यह है कि एक बड़े बैलून या ऊँचे उड़ रहे विमान अथवा फि़र अंतरिक्ष यान पर ऊर्जा मापक यंत्र रख दिया जाए. अब तक इस प्रकार के जो माप लिये गए हैं, उनके आधार पर प्रतिवर्ग मीटर क्षेत्र में औसतन लगभग 1-353 किलोवाट प्रकाशीय ऊर्जा प्राप्त होती है।

पृथ्वी पर इस ऊर्जा के पहुँचते-पहुँचते 30% ऊर्जा समाप्त हो जाती है। इसके प्रमुख कारण हैं-वायुमंडल में मौजूद धाूलिकण तथा विभिन्न गैंसे, ऑक्सीजन, ओजोन, भाप, कार्बन डाइऑक्साइड इत्यादि।

2-पवन ऊर्जा-पवन ऊर्जा भी सौर ऊर्जा के समान एक अक्षय ऊर्जा स्रोत है जिसका मूल स्रोत भी सूर्य ही है। वैसे तो सूर्य का ताप व रोशनी लगभग एक-सी पड़ती है, परंतु विभिन्न स्थानों की भौगोलिक स्थितियों के आधार पर अंतर होता है। कुछ स्थानों पर जलाशय है, जैसे-सागर, नदियाँ, झीलें आदि। इन क्षेत्रों पर जब सूर्य का ताप पड़ता है तो जलाशयों का पानी भाप बनकर उड़ता है और वायुमंडल के स्वरूप में परिवर्तन होता है। इसी प्रकार कुछ स्थान ऊंचाई पर होते है, तो कुछ स्थानों पर अत्यधिक हरियाली होती है।

भौगोलिक स्थितियाँ जलवायु में बदलाव लाती हैं जिससे हवा का प्रवाह प्रारंभ हो जाता है। दो स्थानों की स्थितियों में जितना अधिक अंतर होता है, हवा का बहाव भी उतना ही अधिक प्रभावित करता है। कहीं पर निरंतर तेज हवाएँ चलती रहती हैं तो कहीं पर कुछ अवधि में ही हवाएँ चलती हैं।

अतः हम कह सकते हैं कि हवा या पवन एक विरल पदार्थ हैं। पर इसमें प्रचंड ऊर्जा निहित होती है जिसको यांत्रिक ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है। इसे विद्युत ऊर्जा में भी परिवर्तित किया जा सकता है और इस प्रक्रिया में ऊर्जा का न्यूनतम ह्रास होता है।

इस ऊर्जा का प्रयोग सरलता से अनेक क्षेत्रों, विशेष रूप से ग्रामीण व दूर दराज के इलाकों में सिंचाई तथा पीने के पानी के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसका संग्रह करना भी संभव है।

3-सागर-ऊर्जा-यह ऊर्जा एवं पवन ऊर्जा की भाँति ही एक अक्षय ऊर्जा का स्रोत है। मुख्यतः सागर का जल लवणयुक्त होता है। जब इस पर सूर्य की किरणें पड़ती हैं, तो पानी भाप बनकर उड़ता है। इससे सागर-जल की लवणीयता में तात्कालिक रूप से अंतर आ जाता है फ़लस्वरूप सागर में निरंतर जलधाराएँ बहती रहती हैं। इन जलधाराओं में भी प्रचंड ऊर्जा निहित होती है। इसके अतिरिक्त हवा के बहाव व अन्य कारणों से सागर में निरंतर छोटी-बड़ी लहरें उठती-गिरती रहती हैं। इनमें भी प्रचंड ऊर्जा का समावेश होता है।

सूर्य, विशेष रूप से चन्द्रमा के आकर्षण के कारण समुद्र में ऊँचे-ऊँचे ज्वार-भाटा उठते रहते हैं। जिन दिनों सूर्य व चंद्रमा एक ही दिशा में होते हैं, उन दिनों ज्वार की ऊँचाई अपेक्षाकृत होती है। इस समय के ज्वारों के पानी को एकत्रित करके यदि उसे धीरे-धीरे, नियंत्रित तरीके से छोड़ा जाए तो टरबाइन चलाई जा सकती है और बड़े पैमाने पर विद्युत-निर्माण किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त सागर में काफ़ी तादाद में वनस्पतियाँ होती हैं। इन वनस्पतियों को सुखाकर, जलाकर भी ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है। सागर-जल लवणयुक्त होने के कारण इसके विभिन्न भागों / स्तरों की लवणीयता में अंतर होता है। इस लवणीयता के अंतर का प्रयोग करके भी ऊर्जा तैयार की जा सकती है। सागर-तट पर व सागर के बीच तेज हवाएँ चलती हैं। इन हवाओं से पनचक्की चलाकर ऊर्जा का निर्माण सरलता से किया जा सकता है।

4-पनबिजली-यह जानकर आपको आश्चर्य अवश्य होगा परंतु सत्य है कि नदियों का बहाव भी सूर्य पर ही आधाारित होता है। जब सूर्य का ताप सागर पर पड़ता है तो पानी भाप बनकर उड़ता है। यह भाप बादलों के रूप में स्थल की ओर बढ़ती है। पहाड़ों से टकराकर या पहाड़ों को पार करने के क्रम में ऊँचाई पर जाकर एवं अन्य कारणों से प्रभावित होकर वर्षा करती है। इसके अतिरिक्त सूर्य का ताप जब बफ़ीर्ली चोटियों पर पड़ता है तो बर्फ़ पिघलती है और इन सभी कारणों से नदियों में पानी का बहाव निरंतर जारी रहता है। जहाँ पर भी वे ऊपर से नीचे की ओर गिरती हैं, वहाँ पर उनका उपयोग ऊर्जा उत्पादन हेतु किया जा सकता है।

नदियों का पानी भी अपने साथ बड़ी मात्रा में ऊर्जा लेकर चलता है। छोटी नदियों में घराट का प्रयोग कर घरेलू एवं लघु उद्योगों के लिए बिजली तैयार की जा सकती है। दूसरी ओर, बड़ी नदियों पर बाँध बनाकर बडे़ पैमाने पर बिजली का उत्पादन किया जा सकता है। इससे विस्तृत क्षेत्रों में विद्युत ऊर्जा की आपूर्ति की जा सकती है। इस ऊर्जा का प्रयोग बड़े उद्योग को चलाने में किया जा सकता है।

साधाारणतः विद्युत-उत्पादन के लिए बड़े बांधा का निर्माण करके पानी को रोका जाता है और फि़र उसे धीरे-धीरे नियंत्रित करके छोड़ा जाता है। छोडे़ गए पानी की तीव्रता इतनी होनी चाहिए जिससे टरबाइन के पखें चल जाएँ और बिजली का निर्माण हो सके.

5-बायो गैस / जैविक ऊर्जा-यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सूर्य से ही पृथ्वी पर जीवन संभव है। सूर्य के प्रकाश से ही बहुत-सी वनस्पतियाँ और फ़सलें उगती हैं।फ़सलों के अवशेष बहुत अधिक जगह घेरते हैं। यदि इन्हें कम्पोजिटन न किया जाए तो यह स्थल-प्रदूषण का कारण बनते हैं। साथ ही पड़े-पडे़ सड़तें हैं तो दुर्गंधा फ़ैलाते हैं। ये मिट्टी को भी प्रदूषित करते हैं। परंतु इन्हें छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर और कुचलकर इनका भंडारण सरलता से किया जा सकता है। इन्हें सूर्य के ताप से सुखाकर खाद का निर्माण किया जा सकता है, साथ ही इन्हें जलाकर ऊर्जा भी प्राप्त की जा सकती है।

इसके अतिरिक्त जैविक कूड़े से भी ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है। उसे नियंत्रित रूप से सड़ाकर बायो गैस तैयार की जा सकती है। जानवरों व मनुष्यों के मल से भी गैस निर्मित की जा सकती है। इस प्रकार इन पदार्थों का प्रयोग करके न सिर्फ़ उपयोगी ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है, अपितु प्रदूषण से भी मुक्ति मिलती है। इस प्रक्रिया में बचा अवशेष भी व्यर्थ नहीं जाता; अपितु बचा हुआ अवशेष बेहतरीन खाद के रूप में काम आता है।

सूर्य ग्रहण

पृथ्वी सूर्य के और चन्द्रमा पृथ्वी के चारों ओर घूमता रहता है। जब पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए चन्द्रमा सूर्य और पृथ्वी के बीच आ जाता है अर्थात् तीनों एक ही सीध में आ जाते हैं, तो चन्द्रमा की परछाई पृथ्वी पर पड़ने लगती है तथा पृथ्वी के कई भागों में लोग सूर्य का कुछ भाग नहीं देख पाते, ऐसी स्थिति को ही सूर्य ग्रहण कहते हैं। यह ग्रहण अमावस्या को ही होता है। पृथ्वी के जिस क्षेत्र में चन्द्रमा की प्रच्छाया पड़ती है, उस क्षेत्र से सूर्य को देखना सम्भव नहीं है; अतः इस क्षेत्र में पूर्ण सूर्यग्रहण होता है। उपच्छाया के क्षेत्र से सूर्य केवल आंशिक रूप से दिखाई देता है, ऐसे स्थान पर खण्ड सूर्यग्रहण लगता है।

उस समय चन्द्रमा केवल सूर्य के मध्य भाग को ही ढकता है। जब वह पृथ्वी से दूर और सूर्य से करीब होता है। इस परिस्थिति में सूर्य का मध्य भाग काला हो जाता है और किनारों से वह एक चमकते हुए वलय के समान दिखाई देता है, जिसे करोना कहा जाता है। यह चमकता हुआ वलय बहुत कम समय के लिए बनता है। इसे वलयाकार सूर्यग्रहण कहते हैं। -0-