पेंशन / कृष्णा वर्मा
दिन-रात पेंशन के लिए चक्कर लगाते चक्करघिन्नी से हो गए थे सुमेर चौधरी। आए दिन दफ्तर के एक से दूसरे कमरे के चक्कर लगाते सुबह से शाम हो जाती और हाथ लगती फिर वही निराशा, जिसे जेब में डाल भारी कदमों से चल देते घर की ओर। इंतज़ार करती पत्नी ने आज फिर लटका मुँह देखा तो रुआँसी हो बोली–अजी कब तक चलेगा ऐसा, मीरा के पापा। अब तो रसोई के सब डब्बे भी मुँह चिढ़ाने लगे हैं। आठ वर्षीय ननिहाल आई धेवती की ओर इशारा करती बोली-एक लाड़ ना लडा सकी इसे। आज तो चावल का दाना तक नहीं है घर में। जाओ बाज़ार से पाँव भर चावल ही ले आओ.
बाज़ार का नाम सुनते ही गुड़िया नाना के साथ जाने को मचलने लगी।
बिटिया तुम थक जाओगी बहुत दूर है बाज़ार। धूप भी बहुत तेज़ है किसी दिन शाम को ले चलूँगा तुम्हें।
ले क्यों नहीं जाते–ज़रा मन बहल जाएगा बच्ची का।
ढीले हाथ से जेब टटोलते हुए उदास आवाज़ में बोले-'पाव भर चावल भी मुश्किल से हो पाएगा।' बेबसी से गुड़िया की ओर देख बोले-'इसने यदि किसी गुब्बारे पर भी हाथ रख दिया, तो क्या होगा?' सुमेर ने ठण्डी साँस भरी। -0-