पेंशन / शिवजी श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फूलो यकायक ही धधकते हुए ज्वालामुखी में तब्दील हो गई, उसके रोम-रोम से चिंगारियाँ से निकलने लगीं, सारा शरीर काँपने लगा, बर्तन मलते हुए हाथ रुक गए। जलती हुई आँखें मुझ पर टिकाकर मुँह से लावा-सा उगलने लगी-"पिंशन मिले चाए भाड़ में जाए, पर जे कभउँ नईं हो सकत, इत्ती बड़ी बात आपने लिख कैसे दई। "

उसकी मुद्रा, बात कहने का ढंग निहायत ही आपत्तिजनक था, मैं तिलमिला गया; पर अपने को संयत रखते हुए इतना ही कहा, "अजीब औरत हो तुम भी, सब तुम्हारे भले के लिए ही किया और तुम हो कि आँख दिखा रही हो।"

रमा अंदर सफाई कर रही थी, वह बाहर निकल आई। उसका चेहरा तमतमाया हुआ था, मैं बड़बड़ाता हुआ कमरे के अंदर आ गया।' इन लोगों को कभी अकल नहीं आएगी...रहेंगे मूर्ख के मूर्ख...जाहिल, गँवार , हुँह! ‘और करो समाज सेवा’ मेरे पीछे रमा ने आते हुए मुझ पर ही प्रहार किया।' देख लिया न होम करते हाथ जला! '

बाहर बर्तन जोर से खड़क रहे थे, लग रहा था फूलो बर्तन उठाकर पटक रही है। रमा टी.वी. के ऊपर लगी गर्द झाड़ती हुई बड़बड़ाती जा रही थी" आपने ही इसे सर चढा लिया, कैसे बेहूदगी से बात कर रही है, जब आई थी तब मक्खियाँ भिनभिनाती थीं चेहरे पर, अब दो रोटी मिलने लगीं तो दिमाग खराब हो गया।"

अचानक जोर से बर्तन भड़भड़ा कर गिरे, रमा ने झाड़न हाथ से पटका और मुझे घूरती हुई बाहर निकल गई।

अभी बरस भर भी तो नहीं हुआ फूलो को यहाँ आए हुए। जब आई, तब चेहरे पर मक्खियाँ भले ही न भिनभिना रही हों, मगर एक अजीब-सा दीनता का भाव पसरा था, जो देखने वाले के अंदर करुणा जगाता था, पहले-पहल धोबी रामसिंह लेकर आया था इस मुसीबत की मारी को, उसी के गाँव की थी। अच्छे खाते-पीते घर की थी, पर दुर्भाग्य ने उसके ऊपर अपने पंजे जल्दी ही गड़ाने शुरू कर दिए थे, सो चालीस की होते-होते विधवा हो गई। तीन लड़कियाँ थीं, उन्हें पति ही ब्याह गया था। एक लड़का था सात-आठ बरस का-जब तक वह समझदार न हो, तब तक की चिंता फूलो को होने लगी थी, पर देवर-जेठों ने वह चिंता अपने ऊपर ले ली थी सो फूलो निश्चिन्त हो गई थी। गुजारी लायक काफी खेती थी वह भी देवर-जेठ देखने लगे थे। पूरे दस साल फूलो देवरानियों-जेठानियों के तलवे सहलाती रही, बेगार करती रही, इसी आस में कि उसका लड़का बड़ा होगा, तो उसे सुख मिलेगा। उसे क्या मालूम था कि उसके देवर-जेठों की नीयत में कितना बड़ा खोट आ गया है, वे सब फूलो का हिस्सा हड़पने के चक्कर में उसके लड़के को दुलार करने की आड़ में खूब बिगाड़ते गए। वह सारा दिन गाँव के आवारा छोकरों के साथ घूमता, जुआ खेलता, नशापत्ती करता। फूलो खीझती, डाँटती फटकारती पर सब बेकार, चाचा-ताऊओं से शह मिलती और पैसा भी। फूलो रोकती-टोकती तो यही जवाब मिलता-"अरे, खेलने-खाने की उमर है, अपने आप अकल आ जाएगी।"-फूलो चुप रह जाती, सन्तोष कर लेती, पर कुछ दिनों से घर में जो रोज खुसुर-पुसुर होती थी उससे फूलो का माथा ठनका था, फिर धीरे-धीरे पड़ोस के शुभचिंतको-हितचिंतकों ने भी उसे जब बतलाया कि उसके देवर-जेठ उसके बेटे को राह का काँटा समझते हैं और उसे निकालने के लिए कुछ भी कर सकते हैं, तो वह काँप गई और बस...एक दिन मौका पाकर लड़के को लेकर यहाँ भाग आई इस उम्मीद से कि शहर में चार-छह घरों में काम-काज करके गुजारा कर लेगी, लड़का भी मेहनत-मशक्कत करके थोड़ा-बहुत कमाएगा, तो उसके दुःख के दिन कट ही जाएँगे। संयोग से उन्ही दिनों कॉलोनी की एक महरी काम छोड़ कर गई थी। रामसिंह ने उन्हीं घरों में उसे काम दिलवा दिया, रहने को एक कोठरी भी दिला दी। बस फूलो की गाड़ी चल निकली। फूलो ने भी खूब लगन से काम करके हम लोगों का दिल जीत लिया। फूलो दिन भर घरों में बर्तन माँजती, पर लड़का अपनी कोठरी में ही पड़ा रहता, शाम को छैल-छबीला बनकर निकल जाता और देर रात घर वापस आता, कोई फूलो से कहता भी-"इस लड़के को कुछ काम करने को क्यों नहीं कहती, पहाड़-सी देह, दिन भर चारपाई तोड़ता रहता है।"

फूलो हँस देती-"अभी बचपना है भइया, अकिल आ जावेगी अपने आप।"

अकल आई, तो लड़के को, पर अपने आप नहीं। एक दिन शाम को फूलो बदहवास-सी आई और बिलख-बिलख कर रोने लगी-"ओ भइया, हमाए लला को बचा लेओ, पुलिस पकड़ ले गई। "

"पुलिस, क्यों भला?" मैं कुछ सहमा, पुलिस के चक्कर में कौन पड़े।

"कहीं चोरी-वोरी की है क्या?" रमा ने प्रश्न दागा।

"अरे ना, इन सब कामन में नईं है वो, बस तिपतिया खेलवे की आदत है, उसी में पकड़ लिया।" आँचल से आँसू पोंछते हुए उसने बात पूरी की।

"मतलब जुआ खेलते हुए पकड़ा गया।" मैंने इस झमेले से बचने की कोशिश की-"देखो पुलिस-थाने की बात मैं क्या समझूँ, ये कानूनी मसला है, पीछे जो वकील साहब रहते हैं उनसे मिल लो " मेरी बात सुनकर उसने मेरे पैर पकड़ लिये-"भैया चले चलो एक बार, वकील साब घर पर नईं हैं, उनके घर गए थे हम।" उसके आँसू नहीं रुक रहे थे।

"अरे, अरे पैर तो छोड़ो, चलते हैं।" मैं अंदर कपड़े बदलने आ गया। रमा ने आगाह किया-"आप कहाँ चक्कर में पड़ रहे हैं जी, कहीं चोरी-वोरी ही की होगी, आवारा तो है ही।"

रमा की बात में भी दम था, पर फूलो जो जार-जार करके रोए जा रही थी उसे कैसे इन्कार किया जाए।

"भैया ओ भैया।" वह आँगन से ही चीखे जा रही थी-"जल्दी चलो छुड़ा लो हमाए लाल को, अभी तो चौकी में ही बिठाए हैं।"

अजीब धर्मसंकट था, मैने उसे फिर इन्कार करने के लिए बहाना बनाना चाहा; पर उसके बिलख-बिलखकर रोने के कारण मैं कुछ कह नहीं सका।

"भइया, अभी कुछ ले-दे के मामला निपट जाएगा," कहते हुए उसने धोती के छोर से खोलकर एक मुड़ा-तुड़ा पचास रुपये का नोट निकाला-"पचास हमाए पास हैं, और जो लगें आप लगा देना, पाई-पाई चुका देंगे हम।"

लड़के को मैने छुड़वा दिया। दो सौ रुपये देने पड़े। फूलो मेरी डेढ़ सौ की कर्जदार हो गई उससे ज्यादा कर्जदार हो गई थी उसकी ममता। फूलो उठते-बैठते हम लोगों को असीसती, दुआएँ देती, हमारे हर छोटे-बड़े काम के लिये हर समय तैयार रहती। अब वह अपना बचा हुआ अधिकांश समय हमारी घर में ही व्यतीत करती। गेहूँ बनाना, दाल-चावल बीनना, सब्जी काटना जैसे छोटे-मोटे कामों में रमा को हाथ भी नहीं लगाने देती। रमा भी खुश थी कि इतनी सस्ती नौकरानी भला कहाँ मिलेगी, वह भी खूब घुट-घुटकर फूलो से बातें करती थी।

लड़के को उस दिन फूलो ने खूब डाँटा-डपटा, हम लोगों ने भी उसे खूब जलील किया, उसकी जिम्मेदारी का अहसास कराया। लड़का चुपचाप सर झुकाकर सुनता रहा। उसने अपनी गलती स्वीकार की और भविष्य में ऐसी गलती न करने की कसमें खाकर हम लोगों से विदा ली।

फूलो और रमा के मध्य शीघ्र ही अंतरंगता-सी स्थापित हो गई। अब रमा फूलो के हर सुख-दुःख की हिस्सेदार थी, अपने अतीत के एक-एक पृष्ठ को वह रमा के सामने खोलकर रख चुकी थी। कभी-कभी उसके प्रति करुणा उत्पन्न होने लगती। मैंने एक दो बार उससे कहा भी कि फूलो तुम गाँव से क्यों भाग आईं, अपने हिस्से के खेत लेकर अलग रहती। फूलो उदास हो जाती-"भइया, खेतन से ज्यादा हमें लड़का प्यारा है। हमें कुछ न मिले, हमारा लड़का खुश रहे बस।"

सचमुच फूलो के जीवन का ध्येय लड़के की खुशी ही थी। वह लड़के को कहीं काम पर लगाने के लिए चिंतित रहने लगी थी। कई बार मुझसे भी कहा कि मैं अपने कॉलेज में चपरासी बनवा दूँ। आखिर लड़के को एक होटल में काम मिल गया तो मैंने चैन की साँस ली।

लड़के को नौकरी मिलने के बाद फूलो खुश-खुश और संतुष्ट-सी दीखने लगी थी। काम करती जाती और अपनी आपबीती बखानती जाती-"अब देखो बिटिया भगवान भी परिच्छा लेता है सो उसने हमाई हर तरह से परिच्छा ली, अबतो समझो परिच्छा के दिन ख़तम।घूरे के दिन भी बहुरते हैं हम तो इंसान हैं...भगवान के घर देर है अँधेर नहीं।"

रमा जब कभी उसे टोक भी देती-"तुम्हारा लड़का अब तो जुआ नहीं खेलता, अब तो उसके हाथ में पैसा भी आने लगा।"

"नईं बिटिया।" फूलो के सूखे चेहरे पर स्निग्धता झलकने लगती।"अब तो उसने कसम खाई है, बिल्कुल बदल गया अब तो।"

"सो तो ठीक है, पर रुपये पैसे का हिसाब लेती हो उससे कभी?" रमा आदत के मुताबिक टोक देती। फूलो बड़े सरल भाव से कहती-"अब तो बिटिया हम अपने रुपया भी उसी के पास रख देते हैं,उसके ब्याह के लिए रुपया जोड़ना है।"

"देखना,"-रमा मुझसे कहती-"एक दिन ये बुढ़िया पछताएगी...सब कुछ उस लड़के को सौंप देती है।" ...मुझे भी लगता फूलो बेवकूफी कर रही है। उसे अपने भविष्य के लिए कुछ अपने पास रखना चाहिए, इस लड़के का क्या भरोसा।

पर फूलो को भविष्य की इस प्रकार की कोई चिंता नहीं थी। उसकी आँखों में भी भविष्य के सुनहरे सपने थे, पर अपने ही तरह के सपने, हम लोगों के सपनों से भिन्न सपने, जिसमें यदि कोई था तो उसका लड़का और लड़के का सुखी संसार। अब वह दिन रात अपने बेटे को दूल्हे के रूप में देखने के सपने देखती रहती थी ...सहसा एक दिन उसे गहरा आघात लगा, उसके सपने बिखर गए और फूलो अंदर ही अंदर घुटकर रह गई।

हुआ ये कि जिस लड़के को दूल्हे के रूप में देखने के अरमान फूलो बरसों से सँजोये थी, उस लड़के ने दूल्हा बने बिना ही एक औरत को घर लाकर बिठा लिया । दो-चार दिनों तक तो हम लोगों को कुछ मालूम ही नहीं पड़ा, बस फूलो बहुत चुप-चुप, उदास-उदास दिखी, तो लगा उसके अंदर कोई पीड़ा है। रमा ने पूछ लिया तो फफक-फफककर रो पड़ी-"का बताएँ बिटिया, इस लड़के ने हमें कहीं का न छोड़ा, एकदम कपूत निकला।"

"पर हुआ क्या...?" यह पूछने पर वह बड़ी कठिनाई से हिलकियाँ ले लेकर पूरी दास्तान सुना पाई। दरअसल कसमें खाने के बाद भी लड़के की पत्ते खेलने की लत नहीं छूटी थी। होटल के सामने एक चाट वाले का घर था, वहीं अकसर महफ़िल जम जाया करती थी, चाट वाले की बीबी खूबसूरत थी और चंट भी, उसने अपने रूप जाल में इस लड़के को फँसा लिया। इश्क भला कितने दिन छुपता, एक दिन जब चाट वाले को भी बात मालूम हुई, तो उसने गुस्से में अपनी बीजी को बहुत मारा-पीटा और घर से निकाल दिया। बस, इसने लाकर उसे अपने घर बिठा लिया।

"मैंने कहा था न ये बुढ़िया एक दिन पछताएगी।" उसके पीठ पीछे रमा ने मुझसे कहा था-"आवारा लड़का है ससुरा, जाने कहाँ से भगा लाया। अब पुलिस-वुलिस का चक्कर पड़े, तो आप मत जाइएगा।" पर फूलो को उसने सांत्वना ही दी थी, "तुम्हारी बिरादरी में तो यह सब चलता है, इतना अफसोस काहे करती हो। अब बहू आ गई !"

"का आ गई बिटिया," -उसने गहरा निःश्वास लिया-"हमाए मन की तो सब मन मेई रै गई, न बधाए बजे न मौर धरौ,न हल्दी चढ़ी...और बहू घर आ गई।"

उस दिन से लगा जैसे फूलो के सामने अब कोई सपना ही नहीं है, कोई मकसद ही नहीं है जीने का। बस, पराजित -सी, परास्त-सी आती, चुपचाप काम करती और चली जाती। न ज्यादा हँसती, न बोलती, बस चुप निरीह-सी सिर झुकाए बर्तन माँजती रहती। उसे देखकर वेदना होती, उसके लड़के पर क्रोध आता, पर हम लोग कर भी क्या सकते थे,लेकिन फूलो की यह स्थिति अधिक दिनों तक नहीं रही, धीरे-धीरे उसका उल्लास फिर लौटने लगा। स्वर में फिर उत्साह आने लगा, चेहरे पर फिर प्रसन्नता की लहरें झिलमिलाने लगीं। वह फिर चहकने लगी थी। उसकी बहू ने अपनी सेवा से उसका मन मोह लिया था। अब फूलो अकसर बहू की तारीफ करती-"कुछ भी हो बिटिया, बहू है बड़ी गुनी, सारे घर की जिम्मेदारी सम्हाल लई बाने, हम तो अब पैर पसारकर सोते हैं।"

कुछ दिनों के बाद लड़के ने होटल की नौकरी छोड़कर चाट का ठेला लगाना शुरू कर दिया। बहू चाट बना देती, लड़का ठेला लगाकर बेच आता, ठेले में उसे अच्छी कमाई होने लगी थी, फूलो फिर खूब सपने देखने लगी थी। उसका मन फिर ऊँची-ऊँची उड़ान भरने लगा था। वह आह्लाद में भरकर बताती कि अब तो खूब आराम है। बहू कहती है कि ये सब काम छोड़कर घर पर आराम करो।

"अरे, तो तुम हमारा काम छोड़ दोगी?" -रमा अंदर से सशंकित होते हुए भी हँसकर कहती, तो फूलो चट से उत्तर देती-"न बिटिया, सबके काम छोड़ दें, पर तुमाई देहरी तो मरते दिन तक न छोड़ें। तुमई लोगन ने हमें पहले पहल सरन दई। हमाओ लड़का जो कुछ है तुमई लोगन से तो है।"

पर कुछ दिन बाद मालूम हुआ कि उसकी बहू का पहला मरद अपनी औरत के आचरण से आहत होकर शहर छोड़कर कहीं और चला गया, उसकी खाली पड़ी दुकान को फूलो का लड़का ले रहा है। फूलो ने बड़े उत्साह से बताया-"अच्छा है भइया, ठेला और दुकान में फरक तो होता ही है, पीछे एक कुठरिया भी है उसी में रहेंगे, यहाँ का किराया भी बचेगा और हमे भी आराम हो जाएगा।"

"इसका मतलब हमारा काम छोड़ दोगी तुम?"-रमा ने अपनी आशंका फिर रखी।

"का करें बिटिया" -वह अनमनी हो गई-"अब इत्ती दूर से कैसे आ पाएँगे भला।"

रमा उस दिन से क्षुब्ध रहने लगी, फूलो के प्रति उसका व्यवहार बदलने लगा। वक़्त-वेवक़्त मुझसे ही कहती-"इन लोगों के साथ कुछ करने का धरम नहीं है, इतना सब किया, अब काम छोड़ के चल देगी।" मैं हँसकर समझाती-"अरे भई, जहाँ उसका लड़का रहेगा, वहीं तो रहेगी।"

फूलो रोज दिन गिनती, रमा को अपनी योजनाएँ बताती, पर रमा केवल हाँ-हूँ कर देती। पर फूलो फिर सपने देखती रह गई। लड़का-बहू उसे अकेली छोड़कर यह कहकर चले गए कि जरा वहाँ हिसाब-किताब जम जाए, तब ले जाएँगे। बुढ़िया कई दिन तक इंतज़ार करती रही, पर लड़का उसे लेने नहीं आया...एक दिन आया भी, तो यह कहने कि अब तुम यहीं रहो, वह कोठरी इतनी छोटी है कि दो लोगों की गुजर ही मुश्किल से होती है, फिर यहाँ के काम भी तो हैं।

उस दिन फूलो जैसे पगली-सी हो गई, काम करती जाती और बड़बड़ाती जाती-"कौन जमाना आ गया, कित्ते दुःख सहे जा लड़का के खातिर, पेट काट-काटकर खिलाओ-पिलाओ, पर औरत को देखते ही आँखें फेर लईं जाने।"

हम लोग समझाते, सांत्वना देते, पर उसे कुछ समझ में न आता, हर वक्त लड़के को कोसती रहती, ऐसे लड़के से तो निपूती रहती, तो भली थी, सारी उमर इसी के लिए गला दी, पर इसने जरा-सा खयाल नहीं किया, इससे तो पैदा होते ही मर जाता।

रमा टोक भी देती-"काहे दिन रात लड़के को कोसती है। दोष तो बहू का है, जो उसे अलग कर ले गई।"

फूलो तमतमा जाती-"बहू की का गलती, अगर लड़के की मरजी नहीं होती, तो मजाल का बहू की, लगाता हरामजादी को दो जूते सो सही हो जाती। खुद गया सो गया हमाई जमा-पूँजी भी ले गया। पाई-पाई करके तीन हजार बचाए थे" -बात करते-करते वह रो पड़ती "-अपने नसीबई खोटे हैं बिटिया तो दूसरे को का दोष दें। भरी जवानी में आदमी साथ छोड़ गया, देवर-जेठन ने सारी जैदाद मार लई। बुढ़ापे में लड़के का सहारा था, सो उसने जे गत करी।"

आँसू, पीड़ा और घुटन! बस यही था फूलो के जीवन मे। अपने अभावों से उसने एक बार पुनः समझौता कर लिया था। बर्तन माँजने को ही उसने अपनी नियति मान लिया था। उसे शिकायत थी, तो अपने भाग्य से और चिढ़ थी, तो बस अपने लड़के से। लड़का एक-दो बार मिलने भी आया, तो उसने दुत्कार कर भगा दिया।

एक दो जगह फूलो ने अपने काम और बढ़ा लिये थे। उसकी जिंदगी अपनी ही तरह से चल रही थी। उसके अपने दुःख थे, अपनी समस्याएँ थीं, देश कहाँ जा रहा है, इतिहास कौन-सी करवटें ले रहा है, इससे उसे कोई सरोकार न था। देश में सत्ता परिवर्तन हो गया। अखबार, रेडियो, टी.वी.सब चीख-चीखकर कह रहे थे कि मतदाता जागरूक हो गया है, निम्न वर्ग उठ कर खड़ा हो गया है। वह अपने अधिकारों के प्रति सजग और सचेष्ट है ...पर फूलो को इस सब से क्या...उससे पूछा भी-वोट किसे दिया? ...तो उत्तर मिला-"हमने वोट नईं दओ, कोउ नृप होय, हमे का हानी, अब भइया हम चेरी से रानी तो होने से रहे। हमाई किस्मत में तो जे बर्तन मलना लिखा है सो मलत रैहें, चाँए कोई जीते हमाई किस्मत तो बदलेगी नाँय।"

पर एक दिन फूलो को लगा कि उसकी किस्मत शायद बदल जाएगी, सरकारी घोषणा हुई थी कि प्रत्येक वृद्ध को सौ रुपया महीना पेंशन मिलेगी। ये खबर फूलो को भी लग गई। उसके मन में फिर कोंपले फूटने लगीं, फिर एक आशा का संचार होने लगा। मुझसे बोली-"भइया, जहाँ इत्ते अहसान किए एक और कर दो,  तो बुढापा चैन से कट जाए, बस हमे जे पिंशन बँधवा देओ।"

"ये कोई मेरी हाथ की बात थोड़े है, ये तो सरकारी काम है।" मैंने उसे समझाया।

"भइया, आप पढ़े-लिखे हो, कायदा-कानून समझत हो, अफसर लोगन से भी बात कर लोगे।" उसने आग्रह-सा किया।

"अच्छा, देखेंगे"- मैंने टालना चाहा, पर वह पीछे पड़ी रही, रोज दो -चार लोगों के नाम गिना देती, आज फलाने ने फार्म भरा, कल फलाने ने भरा था, ढिकाने ने भरा था। हमारा फार्म भी भर जाता!

"अच्छा भरा देंगे, पर पहले फार्म लाओ तो" -एक दिन मैंने कहा, तो बड़ी दीनता से बोली-"भइया फारम भी आपई ला देओ, चुंगी में बँट रए, भीड़ भौत है ।"

रमा को उसकी बात बुरी लगी-"अजीब औरत है ये, ऐसे कह रही है जैसे हम इसके नौकर हों।"

मैं कई दिनों तक फार्म नहीं लाया, टालता रहा, तब एक दिन फूलो रुआँसी होकर बोली-"भइया हमने सुनी है कि कल लास्ट डेट है कल के बाद फारम जमा करो, तो पिंशन नईं मिलेगी।"

आखिर मुझे फार्म लाना ही पड़ा। "पर फूलो" फार्म देखकर मैंने कहा-"इसमें नियम तो ऐसे हैं कि तुम्हें पेंशन शायद ही मिले।"

यह सुनकर उसके चेहरे पर उदासी छा गई- "कौन कौन से नियम हैं जामे भइया?"

"देखो, पहली बात तो यही है कि साठ साल से कम वालो को ये पेंशन नहीं मिलेगी, जबकि तुम्हारी उम्र तो अभी" -उसने मेरी बात बीच में ही काटी।

"अब भइया दो-चार बरस कम हैं साठ में पर देखन से तो साठ से ऊपर केई लगत हैं न?" अपनी बात को उसने रमा से भी पुष्ट कराना चाहा "तुमई बताओ बिटिया, लगत हैं के नईं?" उदासी के कारण उसके चेहरे पर दैन्य कुछ अधिक ही फैल गया था। उसके सूखे चेहरे और झुर्रियों पड़े हाथों को देखकर वास्तव में उसे साठ से कम कोई नहीं कह सकता था।

"तो झूठ लिख दूँ कि तुम्हारी उम्र साठ की हो गई है?" -मैंने फिर एक बार उसकी स्वीकृति लेनी चाही।

क्षण भर कुछ सोचती हुई वह बोली-"लिख देओ भइया, झूठी-सच्ची जो लिखना हो लिख देओ, पर हमाई पिंशन बँध जाए।"

"अच्छा, एक नियम और है," पर उसने मेरी बात सुनी ही नहीं, वह व्यग्रता से बोली-"अब भइया, नियम इयम हमें न सुनाओ, जो आप समझो सो लिख देओ, हमे तो पिंशन से मतलब है।"

फूलो का फार्म जमा हो गया, इतने से ही वह समझने लगी कि उसे पेंशन मिल जाएगी। लड़के-बहू की बातें उसने अब छोड़ दी थीं। उसे तो बस उस दिन की प्रतीक्षा थी जिस दिन से उसे हर महीने सौ रुपये मिलने शुरू होंगे। मैं रमा से कहता भी-"कैसी बावली औरत है, अभी तो सिर्फ फार्म जमा हुआ है, यह इसी से समझ रही है कि पेंशन बँध जाएगी।" रमा उपेक्षा-भाव दिखाती-"होगा, हमें क्या?" मैं भी सोचता इसी बहाने फूलो कुछ दिन और लगन से काम करती रहेगी।

और आज आते ही फूलो ने एक नई शंका रखी-"भइया, हमने सुनी है जिनके लड़का हैं, उन्हें पिंशन नईं मिलेगी?"

नियम तो यही है-"मैंने समाधान किया-" पर तुम्हारे फार्म में मैंने लिख दिया कि कोई लड़का नहीं है।"

"ऐं, " हाथ के बर्तन जमीन पर रखती हुई वह अजीब-सी नजरों से मुझे देखने लगी। उसका मुख खुला का खुला रह गया, उसकी मुद्रा से मुझे कुछ बेचैनी-सी हुई। मैंने उसे समझाने के अंदाज में कहा, "इसमे इतना परेशान होने की क्या बात है?"

पर उसके अंदर कुछ सुलगने-सा लगा था। बहुत धीमे से बोली-पर भइया इत्ता बड़ा झूठ कि लड़का नईं है"

"अरे" मैंने उसे झिड़कने के अंदाज़ में कहा-"जब तुम उमर झूठ लिखा सकती हो, तो इसमें क्या बात है, फिर लड़का कौन-सा तुम्हारे काम आ रहा है?"

"लड़का अबै दूर है तो का भई, है तो हमाओई लड़का, काम तो वोई आयगो, ।हमाए मरे पर हमाओ पिण्डदान को करेगा...हमाओ कारज को करेगा?"

"ओफ्फो!" मै झुँझला गया-"अजीब हो तुम भी, मरने की चिंता कर रही हो और जीते जी जो तुम्हारी दुर्गति हो रही है, सो नहीं देख रही हो!"

"जे तो हमाए करम फल हैं, सो भोगने हैं पर मोच्छ तो तभईं मिलहै।"

मुझे क्रोध आ गया-"बहस मत करो मुझसे, मैंने तो तुम्हारे भले के लिए ही लिखा है। अब अगर तुम्हें पेंशन चाहिए, तो कोई भी पूछने आए, तो तुम यही कहना कि लड़का नहीं है। था पर मर गया, इसी में तुम्हारा फायदा है।"

इतना सुनना था कि फूलो यकायक धधकते हुए ज्वालामुखी में तब्दील हो गई- " फायदा,फायदा हुँह! हर चीज फायदे नुकसान के लिए होती है का? अपने फायदे के लिए जीते जी लड़के को मार डालें, पिंशन मिले चाए भाड़ में जाय, पर जे कभऊँ नईं हो सकत। इत्ती बड़ी बात आपने लिख कैसे दई ! "

कुछ देर वह यूँही दहाड़ती रही, फिर अचानक घुटनों में सिर छुपाकर फूट-फूट कर रोने लगी।

-0-