पेट और तोंद / राजेन्द्र वर्मा

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पेट, पेट होता है और तोंद, तोंद! एक पुल्लिंग है, दूसरा स्त्रीलिंग। तोंद स्त्रीलिंग होने के बावजूद 'बेचारी' नहीं कहलाती। यह स्त्री-सशक्तीकारण का प्राकृतिक विधान है।

तोंद मनुष्यों में ही पायी जाती है। पशुओं में इसका थोड़ा-बहुत परिचय मिलता है, विशेषतः अमीरों के घर पालतू गाय-भैसों में, पर इतना नहीं कि उस पर कोई व्यंग्य लिखा जा सके. इस बात से यह सिद्ध हो जाता हैं कि प्रकृति भी यही चाहती है कि ये सभी अस्तित्व में रहे, साथ-साथ फूलें-फलें। भगवान, अल्लाह मियाँ, जीजस या जो आसमानी ताकत हो, उसकी भी यही इच्छा है कि पेट और तोंद, दोनों से यह संसार शोभायमान रहे। नीली छतरी वाले के सभी रिप्रेजेंटेटिव धर्मगुरु पेट और तोंद के बने रहने में कोई समस्या नहीं देखते। वे दोनों को ईश्वर के ही पक्ष में देखते हैं, क्योंकि, दोनों ही ईश्वर के बनाये हुए हैं और दोनों ही उसकी पूजा-इबादत करते हैं-पेट तोंद बनना चाहता है। तोंद सुरक्षा का कवच चाहती है। ईश्वर दोनों का है। वह दोनों की मनोकामनाएँ पूरी करता है। किसकी मजाल कि वह पेट और तोंद के अस्तित्व में बाधक बने!

पेट शरीर के साथ चिपटा रहता है, जबकि तोंद बाहर की ओर निकली रहती है। पेट यदि लगातार भरा रहे, तो वह तोंद का आकार लेने लगता है। ...भरा पेट बैठे-बैठे आराम करने का काम करता है। कभी-कभी वह आराम करते हुए कुछ काम कर लेता है, लेकिन शारीरिक श्रम कदापि नहीं करता। ...चलता-फिरता नहीं, दौड़ता-भागता नहीं। धीरे-धीरे वह तोंद का मालिक बन जाता है।

तोंद समृद्धि की निशानी है। खानदानी खाते-पीते आदमी की पहचान है। एक बिस्कुट खाकर भी आदमी अपनी तोंद पर हाथ फेरकर अपने समृद्ध होने का परिचय दे सकता है। 'लाफिंग बुद्धा' तोंद दिखाते हुए हंसने की मुद्रा में रहता है। मानने वाले इसे शुभ मानते हैं। पेट इसे और भी शुभ मानता है, क्योंकि वह अदृश्य शक्ति से समृद्ध होना चाहता है। दृश्यमान शक्तियाँ तो उसे समृद्ध होने देती नहीं! तोंद पर हाथ फेरने का जो मजा है, वह पेट नहीं उठा सकता। इसलिए पेट तोंद से ईर्ष्या करता है। ...लेकिन ईर्ष्या के मामले में इधर कुछ परिवर्तन हुआ है। पेट के पक्षधर माक्र्सवादी भी अब समझ गये हैं कि ईर्ष्या से कुछ नहीं हासिल होने वाला! इसलिए वे ईर्ष्या करना छोड तोंद की ओर हसरत भरी निगाह से देखने लगे हैं। ... अनुभव को गाँठ बाँध पेट ने तोंद का सम्मान करना प्रारम्भ कर दिया है, ताकि वह स्वयं को भर सके और परिवार का पालन कर सके. पेट यह कार्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी करता है। इससे छुटकारा उसे तभी मिलता है जब वह स्वयं तोंद की श्रेणी में आ जाता है। यही विधि का विधान है। पंडो-पुजारियों, मौलानाओं या फादरों की खूबसूरत तोंदें इस विधान का पक्का सुबूत हैं।

तोंदों के विश्लेषण करने पर आप पायेंगे कि तोंद का होना समाज में उतना ही आवश्यक है जितना पृथ्वी पर पहाड़। पेट न हो, तो लोगों की जुबानें सेठ कहने को तरस जाएँ! सिनेमा वाले किसका मजाक उड़ायें? तोंद हिला-हिलाकर नाचने वाले कितना मनोरंजन करते हैं? यह किसी से छिपा है क्या? याद कीजिए-अमिताभ बच्चन वाली 'डॉन' फि़ल्म का गाना-'खाइके पान बनारस वाला...!'

कुछ तोंदें अपने मालिकों पर ऐसी फबती हैं जैसे देवी-देवताओं के सिर पर मुकुट! मुकुट हटा नहीं कि देवी-देवता पहचान को तरसे! तोन्दियलों की पहचान उनकी तोंद से ही होती है। चित्रकार अमीर को दर्शाने के लिए तोंद का सहारा लेते हैं। इस लिहाज से तोंद का कला में अद्वितीय योगदान है। मार्क्सवादी लेखन बिना तोंद के जिक्र के अधूरा है, क्योंकि तोंद पूंजी का पर्याय है।

कुछ लोग तोंद को ऐसे चिपकाये-चिपकाये घूमते रहते हैं जैसे बन्दरिया मरे हुए बच्चे को चिपकाये रहती है। ... कुछ तोंद पेट में ऐसे धँसे रहते हैं, जैसे-मुँहबन्द फोड़े! ऐसी तोंद लेकिन पेट को तकलीफ देने के मामले में वे नार्मल तोंद की भी नानी होती है! खूबसूरत अमीर आदमी को अपनी तोंद को पेट में चिपटाये रखने के लिए कमरे में ही पसीना बहाना पड़ता है। ... तीन-चार घंटे तक उसे महँगी मशीनों के साथ नियमित व्यायाम करना पड़ता हैं। जिस प्रकार 'मशीन' शब्द भारतीय नहीं है, उसी प्रकार पसीना छुड़ाने वाली मशीनें भी विदेशी होती हैं। ... ऐसे चिपटे तोंद की कैटेगिरी में फ़िल्म के ऐक्टर्स-एक्ट्रेसेज़ क्रिकेट के स्टार्स आदि आते हैं। इन्हें देखकर हमें यह भ्रम हो जाता है कि ये आदमी हैं या भगवान के बनाये हुए अजूबे! इनका काम अन्य तोंदधारकों का मनोरंजन करना होता है। पर इस का मतलब यह नहीं कि वे मुफ्त में नाचते-कूदते या रन बनाते हैं। वे पेटवालों की अच्छी खासी कमाई छीनकर अपना जलवा दिखाते हैं। पैसों के लिए ये किसी सीमा तक जा सकते हैं। आदमी से जानवर बनने में इन्हें देर नहीं लगती। पैसा ही इनका भगवान होता है।

पेट और तोंद की मिश्रित रुई के ढेर को जब व्यवस्था की तकली से काता जाता है, तो 'हम' और 'वे' नामक दो प्रकार के मोटे और महीन धागे निकलते हैं। देश की सवा अरब आबादी में से एक सौ चौबीस करोड़ 'हम' हैं, तो एक करोड़ 'वे' । लोकतंत्र की दृष्टि से हम 'लोक' हैं तो 'वे' तंत्र। हम पेट हैं, तो वे तोंद!

पेट किसी तरह भर लिया जाता है, पर तोंद की तो सेवा करनी पड़ती है। छोटे किसान, मजदूर, रिक्शेवाले, ठेलेवाले, चपरासी, भिखारी, भिश्ती, सफाईवाले, ठेलेवाले, खोमचेवाले, नाई, धोबी, राजमिस्त्री, सिक्यूरिटी गार्ड, घरों और होटलों में जूठे बर्तन धोने वाले, कितने ही लोग किसी तरह अपना पेट भरकर काम पर लग जाते हैं। दूसरी तरफ, राजनेता, ब्यूरोक्रेट, कारपोरेट, अधिकारी, ठेकेदार, माफिया, व्यापारी, व्यवसायी जैसे लोग अपनी तोंद भरते-भरते बूढ़े हो जाते हैं और तोंद न भर पाने की वजह से दुनिया में किसी के काम नहीं आ पाते।

दुनिया की अधिकांश आबादी पेट भरने के जुगाड़ में लगी रहती है और पेट है कि ससुरा भरने का नाम ही नहीं लेता। ...जब देखो, तब भूखा! इसलिए पेट को तोंद की नौकरी करनी पड़ती है। नौकरी के साथ-साथ वह उसकी चापलूसी भी करता है। बदले में तोंद अपनी आमदनी का दशांश पेट को देती रहती है ताकि पेट जीवित रहे और तोंद की सेवा में लगा रहे। तोंद यह भली-भांति जानती है कि पेट अगर बिल्कुल खाली रहेगा, तो वह उसके काम कैसे आयेगा? वह विद्रोह कर बैठेगा-"भूखे भजन न होय गुपाला। यह ल्यो अपनी कंठी-माला॥" इसलिए वह इतना इंतजाम तो कर ही देती है कि पेट कम-से-कम आधा भरा रहे। ...पेट को पूरा भरने का जोखिम तोंद नहीं उठा सकती! सभी जानते हैं कि भरे पेट को आलस आता है। वह नींद का शिकार हो सकता है। चैन से सो सकता है। ... तोंद को यह कतई गवारा नहीं कि पेट को नींद आये! चैन आये!

पेट के सामने अनगिनत दुश्वारियाँ मुँह बाये खड़ी रहती हैं। यों, उसकी ज़िन्दगी कोई ज़िन्दगी नहीं, फिर भी ज़िन्दगी को पालने के लिए वह अपनी जान लड़ा देता है कि वह बेरोजगार न रहे, कोई रोजगार मिल जाएय नौकरी मिल जाए, लेकिन तोंद उसे रोजगार देने के बजाए बेरोजगारी भत्ता देता है। रोजगार पाने के लिए पेट क्रान्तिकारी होना चाहता है, लेकिन हो नहीं पाता। उसके घरवाले ही अडंगा डालते है! जिस प्रकार गुलामी का अपना मजा हैं, उसी प्रकार कायरता का अपना ही आनन्द है!

पेट तोंद को थोड़ी-सी हूल देता है, ताकि नौकरी मिले। रोजगार के साधन जुटें। लेकिन जब उसके सामने भत्ते का टुकड़ा पड़ा मिलता है, तो वह इतने ही से खुश हो जाता है-चलो, कुछ तो इन्तज़ाम हुआ। ...वह क्रान्तिकारी होते-होते रह जाता है। थोड़ी हील-हुज्जत के बाद वह तोंद के काम आना शुरू कर देता है। वह तोंद के लिए तब तक काम करता रहता है, जब तक उसकी जान में जान रहती है। हालांकि पेट उस समय भी काम करने को तत्पर रहता है जब उसकी हालत काम करने लायक़ नहीं रहती। यह हालत भूख-प्यास के लगातार बने रहने, अथवा लम्बी बीमारी, अथवा बुढ़ापे के कारण एक दिन आती ही है। जब भी किसी कारण से पेट तोंद के काम आना बन्द कर देता है, तो उसे भूखा और बीमार रहना पड़ता है। धीरे-धीरे वह इस असार संसार से विदा ले लेता है। पालतू पशुओं की भी यही दशा होती है। पेट आदमी का हो या पशु का-दोनों का एक ही हाल है।

कुछ पेट अजीब किस्म के होते हैं जो तोंद की बिल्कुल नहीं मानते। ये 'नक्सली' कहलाते हैं। तोंद नक्सली से हमेशा बचकर रहता है, भले ही उसे उनको हर महीने चन्दा देना पड़े। चन्दा वसूलने वाले पेटधारक देशद्रोही कहलाते हैं, लेकिन तोंद वाली सरकार उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाती। वह उनसे वार्ता करती और करवाती है। वार्ता यूं भी विफल होने के लिए आयोजित होती है, पर वार्ता का होना अपने आप में लोकतंत्र की निशानी है। चाहे पेट हो या तोंद, दोनों का लोकतंत्र में गहरा विश्वास है।

पेट को कभी अपच नहीं होता, क्योंकि वह अधिकतर खाली रहता हैं। अपच हमेशा तोंद को होता है क्योंकि उसे बार-बार खाने, अधिक खाने या तर माल खाने की आदत होती है। अधिक खाना पचाने के लिए वह अनेक प्रकार के चूर्ण भी खाती रहती है, पर उससे कोई लाभ नहीं होता। वह किसी-न-किसी बीमारी का शिकार हो जाती है। वह वैद्य की शरण में जाती है। वैद्य तोंद से कहता है कि फलाहार करें, फलां आहार न करें, पर वह नहीं मानती। तोंद को खुश करने के लिए उसका मालिक नये-नये स्वाद ढूंढ़ता रहता है। छप्पन प्रकार के व्यंजन चखने के बाद वह यह तय करता है कि कौन से व्यंजन से तोंद की सेवा की जाए-वह किससे खुश होगी!

तोंद को अक्सर यह कहते सुना जा सकता है कि वह अपना खाती है, किसी का छीनकर नहीं खाती! वह धर्म-कर्म भी करती है। किसी भी तीर्थस्थान पर जाइए. वहाँ गरीबों के लिए दो-चार धर्मशालाएँ मिल ही जायेंगी। पता कीजिए-किसी तोंद ने ही बनवायी होंगी! ... वह पेट पर लात नहीं मारती, पर मीडिया है कि 'पेट-पेट' करता हुआ उसे घेर लेता है। उसे नैतिकता के रस्से से बांध लेता है। तोंद को विवश होकर मीडिया को साधना पड़ता है ताकि उसे पेट के आगे शर्मिन्दा न होना पड़े।

पेट के सामने कुछ परेशानियाँ हैं, तो कई आसानियाँ भी हैं। वह शारीरिक रूप से फिट रहता है। स्लिम और स्मार्ट रहता है। कुछ भी खाये-पिये, सब हजम हो जाता है। कब्ज़ भी नहीं सताता। उसे हाजत के लिए 'कमोड' की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। उसे हेल्थ-क्लब जाने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। दिन भर थककर चूर हो जाने से उसे बेहोशी की सीमा तक नींद आती है। तनाव जैसी बीमारी उसके आस-पास नहीं फटकती। 'ब्लड प्रेशर' से भी उसका परिचय ही नहीं हो पाता। 'हार्ट अटैक' का तो वह मरते दम तक अहसास ही नहीं कर पाता। अखबार की खबरों से इन बीमारियों के बारे में अन्दाज़ा लगाता रहता है। शरीर से पसीना निकलने के कारण उसे चर्म रोग की भी शिकायत नहीं रहती। ... हाँ, धूप में काम करने के कारण उसकी त्वचा का रंग अवश्य काला पड़ जाता है। ...लेकिन काले तो भगवान भी हैं! सालिग्राम साहब के तो कहने ही क्या? इतने काले तो आदमी के बाल भी नहीं हो सकते, वह कैसी भी डाई लगा ले!

उधर तोंद के सामने परेशानियां-ही-परेशानियाँ हैं। वह हेल्थ-क्लब ज्वाइन करने के बावजूद 'स्लिम' नहीं हो पाता। मोटापा, ब्लडप्रेशर और तनाव, शुगर उसे ताजिन्दगी घेरे रहते हैं। महर्षि वात्स्यायन के अनुसार, स्त्रियों की पहली पसन्द छहरहा पुरुष ही है। यह छहरहापन 'पेट' की श्रेणी में ही मिलता है। वे बेचारी तोंद को तो इसलिए झेलती हैं ताकि उन्हें कीमती साडि़यों और जेवरों का टोंटा न पड़े। ...तोंद के घर में अक्सर पेट नौकर होता है। ऐसी घटनाएँ अक्सर सामने आती रहती हैं कि पेट तोंद की पत्नी या प्रेयसी को उड़ा ले गया और तोंद बेचारा देखता ही रहा। तोंद के भाग्य में 'पद्मिनी' कहाँ?

तोंद से लाभ कम, हानि अधिक है। लाभ तो बस दो ही हैं-एक, यदि बैठकर चाय पीनी हो, तो तोंद पर चाय का प्याला रखा जा सकता है। दो, उस पर हाथ फेर कर पेट को चिढ़ाया जा सकता है। हानि की लिस्ट लम्बी है-तोंद को ढँकने के लिए कुर्ते या शर्ट का कपड़ा अधिक लगता है। पैंट का घेरा अधिक लगता है। तोंद पर पैंट बिना बेल्ट के रुकती नहीं और अगर ज्यादती की जाए, तो वह बेल्ट समेत पैंट के घेरे को उलट देती है। अगर कोई कुत्ता दौड़ा ले, तो तोंद दौड़ नहीं सकता। नाभि में चौदह इंजेक्शन भले लग जाएँ।

तोंद पर पेट की रक्षा का भार है, क्योंकि वह व्यवस्था के केन्द्र में है। लोग लाख कहें कि तोंद को पेट की चिन्ता नहीं, किन्तु यह अर्धसत्य है। यदि चिन्ता न होती, तो अब तक पेट का रामनाम सत्य न हो जाता! सदियों पुराना पेट यदि आज भी ज्यों-का-त्यों बना हुआ है-यह तथ्य ही इस बात का प्रमाण है कि तोंद को सदा से उसकी चिन्ता रही है और आज भी है-प्रत्यक्षं किं प्रमाणं?

तोंद को जब योजना बनानी होती है, तो सबसे पहले वह पेट के लिए ही योजना बनाता है। अपने लिए तो उसे सोचने का वक्त ही नहीं मिलता। कितनी ही पंचवर्षीय योजनाएँ उसने बनायीं, वर्ल्ड बैंक से कितना ही कर्ज काढ़ा, लेकिन बेचारे पेट को अब तक दो वक्त की रोटी का मुकम्मिल इन्तजाम नहीं कर पाया। ... कपड़ा, मकान, दवाई और बच्चों की शिक्षा जैसी बातें तो बाद की हैं। इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के लिए वह बहुत ही शर्मिन्दा है। इसकी ख़ातिर वह मगरमच्छ से भी अधिक आँसू बहाता है। ... इन आँसुओं में मीडिया भी तैरता नजर आता है। ... ऐसे आँसू विरल होते हैं। पेट को इनका आचमन करना चाहिए.