पेट / प्रताप नारायण मिश्र
इन दो अक्षरों की महिमा भी यदि अपरंपार न कहिए तौ भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि बहुत बड़ी है। जितने प्राणी और अप्राणी, नाम रूप देखने सुनने में आते हैं सब ब्रह्मांडोदरवर्ती कहलाते हैं और ऐसे-ऐसे अनेकानेक ब्रह्मांड ब्रह्देव के उदर में स्थान पाते हैं। फिर क्यों न कहिए कि पेट बड़ा पदार्थ है। और बड़े पदार्थ का वर्णन भी बड़ी बात है। अस्मात् पेट की बात इतनी बड़ी है कि भगवान श्री कृष्णचंद्र तक ने अपना नाम दामोदर प्रकट किया है और इससे सबको यह उपदेश दिया है कि पेट ही वह रस्सी है जिसमें बँधे बिना कोई बच नहीं सकता। धर्म की दृष्टि से देखिए तो समस्त मान्य व्यक्तियों में सर्वोपरि अधिकार माता का होता है, क्योंकि उसने हमें नौ मास पेट में रक्खा है। प्राचीन के वीर पुरुषों का इतिहास पढ़िए तो जान पड़ेगा कि अनार्यों (राक्षसों) में सहोदर (रावण के यहाँ का योद्धा) और आर्यों में बृकोदर (भीमसेन) अपने समय तथा अपने ढंग के एक ही युद्धकला कुशल थे।
इधर देवताओं के दर्शन कीजिए तो सबसे पहिले लंबोदर (गणेशजी) ही आदिदेव के नाम से समृत होते हैं। मनोवृत्ति में कुछ रसिकता की झलक हो तो मनोहारिणी सुंदरियों का अवलोकन कीजिए ये भी दामोदरी, कृशोदरी आदि नामों से आदर पाती हैं। जब कि ऐसे-ऐसे प्रेम प्रतिष्ठा के पात्रों की ख्याति उदर से संबंध रखती है तो साधारणों का तो कहना ही क्या है। सब पेट से ही उत्पन्न होते हैं और यदि आवागमन का सिद्धांत ठीक हो तो अंत समय पेट ही में चले जाते हैं। जो आर्यों की फिलासिफी न रुचती हो तौ भी धरती के पेट से अथवा मांसाहारी पशु, पक्षी, कीट, पतंग के पेट से बचाव नहीं है। अब रहा संसार में स्थिति करने का समय, उसमें तो ऐसा कोई बालक वृद्ध, मूर्ख विद्वान, उच्च नीच, धनी दरिद्री है ही नहीं जो दिन रात भाँति-भाँति के कर्तव्य, विशेषत: पेट ही की पूर्ति के अर्थ, न करता हो। यों हम उनको धन्य कहेंगे जो अपने की चिंता न करके दूसरों के पालन में सयत्न रहते हैं। पर ऐसे लोगों की संख्या सदा सब ठौर बहुत स्वल्प होती है।
इससे ऐसों को अदृश्य देवताओं की कोटि में रहने दीजिए और उन्हें भी लंका के महाराक्षसों में गिन लीजिए जो अपना पापी पेट पालने के अनुरोध से दूसरों को कुछ भी कष्ट क्यों न हो, तनिक ध्यान नहीं देते। ऐसे भी लोगों की संख्या यहाँ बहुत नहीं है। किंतु दिन दूनी दुर्दशा के बस हो के दस बीस वर्ष में हो जाए तो आश्चर्य नहीं है क्योंकि 'बुभुक्षित: किन्न करोति पापम्'। रहे सर्वसाधारण, वे जो पेट को धोखा देने के लिए बात-बात पर बहुत फूँक-फूँक पाँव न धर सकें तो कोई विचारशील उन्हें दोष भी नहीं लगा सकता क्योंकि सभी जानते हैं कि पेट की आँच बड़ी कठिन होती है। उसका सहन करना हर एक का काम नहीं है।
इसकी प्रचंडता में लोक परलोक, धर्म-कर्म सभी के विचार भस्मीभूत हो जाते हैं। यह खाल की खलीती यदि उचित खाद्य में, स्वल्प परिश्रम के साथ भरती रहे तौ तो क्या ही कहना है, सभी इंद्रियाँ पुष्ट मन हृष्ट बृद्धि फुरतीली और चित्त वृत्ति सचमुच रसीली बनी रहती है। पर यदि धाए धूपे किसी न किसी भाँति कुछ न कुछ मिलता रहै तौ भी सुख, स्वच्छंदता, नैरुज्य एवं निश्चिंतता का तो नाम न लीजिए। हाँ, जीवन पहिया जैसे तैसे लुढ़कता पुढ़कता चला जाएगा। किंतु यदि, मरमेश्वर न करे, कहीं किसी रीति से ठिकाना न हुआ तो बस कहीं ठिकाना न समझिए। इस क्षुधा यंत्र का नाम ही दोजख अर्थात् नर्क है। फिर इसके हाथों बड़े बड़ों को जीते जी नर्क यातना भोगनी पड़े तो क्या आश्चर्य है। और परमेश्वर की न जाने क्या इच्छा है कि इन दिनों बरसों से चारों ओर जन समुदाय की उदर पूर्ति में विघ्न ही विघ्न बढ़ाते हुए देख पड़ते हैं।
इधर तो करोड़ों देशभाई दिन-दिन 'नहिं पट कटि नहिं पेट अघाही' का उदाहरण बनते जाते हैं और जिनका पेट भरा है वे इनकी ओर से साँस डकार भी नहीं लेते। उधर को हमारे 'कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तु समर्थ' प्रभृ हैं, उन्होंने यह सिद्धांत कर रक्खा है कि 'मोरपेट हाहू, मैं ना दैहों काहू'। यह लक्षण देख-देख के बिचारे भारत भक्त अपनी वाली भर पेट काट-काट के भी उद्धार का उपाय करते हैं और इधर उधर पानी पहाड़ लाँघते हुए, पेट पकड़े दौड़े फिरते हैं। पर जब देखते हैं कि कोई युक्ति नहीं चलती तो विवशत: कोई-कोई पेट मिसूसा मार के बैठ रहते हैं, कोई-कोई दूसरों की पेट पीड़ा दूर करने के उद्देश्य से उसकी भाँति चिल्लाया करते हैं जिसके पेट में पीर उठती है। जहाँ यह दशा है वहाँ सबके सभी लोगों को मुँह बाए पेट खलाए पड़ा रहना उचित नहीं है। नीचेत् जठराग्नि फैलती रहेगी तो एक न एक दिन संभव है कि किसी को जलाए बिना न छोड़े। तस्मात् यही मुख्य कर्तव्य है कि सब जने सबको सहोदर भाव से देखें और समझ रक्खें कि पेट सभी का येनकेन प्रकारेण पालनीय है।
चाहे मखमल सा चिकना और मक्खन सा मुलायम हो, चाहे कठौती सा कठोर हो, चाहे हाँडी सा दृश्य अथवा पुर सा बिहंगम हो, मोटी झोंटी, खरी खोटी चार रोटी सभी के लिए चाहनी पड़ती है। और इन्हीं के प्राप्ति के अलसेठे मिलाना परम कृत्य है। यदि दैव ने हमें कुछ सामर्थ्य दी है तो चाहिए कि उसे अपने ही पेट में न पचा डालैं, कौरा किनका दूसरों की आत्मा में भी डालें। और जो यह बात अपनी पहुँच से दूर हो तो भी केवल मुँह से नहीं बरंच पेट से यह प्रण कर लेना योग्य है कि पेट से पत्थर बाँध के परिश्रम करेंगे, दुनिया भर के पेट में पाँव फैलावेंगे, सबके आगे न पेट दिखाते लजाएँगे, न पेट चिरवा के भुस भराने में भय खाएँगे, पर अपनी और अपनों की पेटाग्नि बुझानें के यत्न में जब तक पेट से साँसें आती जाती रहेंगी तब तक लगे ही रहेंगे। यों तो पेट की लपेट बहुत भारती है पर आज इस कथा को यहीं तक रहने दीजिए और समझ लीजिए कि इतनी भी पेट पड़े गुण ही करेगी!