पेड़ का तबादला / अंजना वर्मा
सुदूर कहीं निर्जन में एक अनाम पेड़ था जिसे वहाँ के लोग अब तक पहचान नहीं सके थे। धरती की गहराई से एक जीवन निकला था-हरे रंग का जीवन, एक बिरवा। कोमल-कोमल दो चार पत्तियों को लेकर इठलाता हुआ। उसके भीतर पूरी जिजीविषा भरी हुई थी। वह अपने चारों ओर फैले निसर्ग को बड़े कौतूहल के साथ देखता, पहचानता और स्वीकार करता। उसे यह दुनिया बहुत प्यारी लगती थी और घटित होने वाली एक-एक बात उसे जीने के लिए प्रेरित करती थी। बच्चे की तरह वह अपने परिवेश को जानने और समझने की कोशिश करता था और एक-एक रहस्य पर से पर्दा उठाकर देखना चाहता था कि यह हो रहा है तो कैसे? यह क्या है? वह क्या है? इस तरह की जिज्ञासाओं की कमी न थी उसके दिल में। बीतते हुए हर दिन के साथ वह कुछ-न-कुछ नया सीखता था। कई बातें उसने गिरह बाँधकर रख ली थीं वे बातें जिनसे उसकी सुरक्षा जुड़ी हुई थी। ऐसे स्थावर होने के नाते उसकी बहुत सारी मजबूरियाँ थीं, पर उसे तो अपने अस्तित्व की सीमाओं के भीतर ही जीना था। अपने चारों ओर की संवेदनाओं को वह पूरी ऊर्जा के साथ ग्रहण करता था और उसके एहसास बहुत घने होते थे। जब वह सुखी होता तो हँस लेता, दुखी होता तो रो लेता। केवल बोल नहीं सकता था, चल नहीं सकता था। वह बाल-पेड़ बढ़ रहा था और उसे बढ़कर एक वृक्ष बना जाना था।
कालक्रम से वह बढ़ता भी गया और जैसे-जैसे बढ़ता गया, वैसे-वैसे अपने चारों ओर के वातावरण, अपने साथी-समाज का ज्ञान उसे होता गया। वह धीरे-धीरे बहुत कुछ सोचने-समझने लगा कि दुनिया क्या है? अपने चतुर्दिक खड़े पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं को पहचानने लगा। मौसमों का आना-जाना भी समझने लगा, इस तरह कि ऋतुओं का पूर्वाभास भी उसे होने लगा। कब किस मौसम में उसके चारों ओर का परिवेश क्या रूप ले लेगा, उसे मालूम रहता था।
जब वह एक छोटा झुरमुट था तो छोटी-छोटी चिड़ियाँ आतीं और उसकी डालों पर बैठकर फुदकतीं। चीं-चीं-चीं-चीं बोलतीं और उड़ जातीं। तितलियाँ आतीं और उसकी पत्तियों को छूती हुई निकल जातीं। कई पंछी उसे अपनी रात का बसेरा-बसेरा बनाए हुए थे। कितने कीड़े-मकोड़े उसकी डालियों पर रेंगते या चलते। किशोरावस्था में ये सारी गतिविधियाँ और बढ़ गई और उसे यह सब बड़ा अच्छा लगने लगा, क्योंकि ज़िन्दगी का हर अनुभव उसके लिए अभी नया-नया था। उसे दुनिया की सारी बात नई लगती। इन्हीं अनुभवों में कुछ अनुभव प्रिय होते, कुछ सामान्य, कुछ अप्रिय, कुछ पीड़ादायक। पंछी-प्राणियों का उसके पास आना, उससे मिलना-जुलना उसे बहुत सुख पहुँचाता था। हवाएँ और हल्की धूप भी सुख देती थीं। प्रचंड सूर्य-किरणों से कष्ट तो होता था, परंतु वह उनसे जूझना सीख रहा था। तब वह अपने पैरों से जमीन के कलेजे की सरसता टटोलने लगता और जमीन से ठंडक पाकर सूर्य से लड़ता। हाँ, आँधी से उसे कठिन पीड़ा होती। वह जैसे समूल उखाड़कर उसे नष्ट कर देना चाहती थी। उसकी डालियों को थप्पड़ लगाती, हिलाती-झुकाती, उड़ाने लगती। तब वह बेबस हो जाता। उसे भय लगता था तेज आँधियों से। वर्षा तो उसकी दोस्त थी। बचपन से उसे जीवन-दे रही थी, परंतु कभी-कभी वह भी क्यों दुश्मन बन आँधी का साथ देने लगती थी? यह बात उसकी समझ में नहीं आती थी।
उसके दिन बड़े मजे में गुजर रहे थे। उसके चारों ओर कई अन्य पेड़ थे और पैरों के पास हरी दूबों से भरी धरती थी जिसमें लड़के अपनी गायों और भेड़ों को लेकर चराने चले आते थे। उन चौपायों को वह निर्विकार भाव से निहारता। कोई-कोई गाय उसकी पत्तियाँ चर जाती तो उसे बहुत पीड़ा होती। वह सोचने लगता कि उस चरवाहे के पास दो हाथ हैं जिनसे वह अपनी रक्षा के साथ-साथ बहुत-कुछ कर सकता है यानी जो चाहे वही कर सकता है। उसके दो पैर भी हैं जिनसे वह चलकर कहीं से कहीं चला जा सकता है। उसे आश्चर्य होता कि कैसे इन्हीं दो पैरों पर वे अपने अस्तित्व को उठाए कहीं से कहीं पहुँच जाते हैं। यह सुख उन जैसे वृक्षों और पौधों को नहीं मिलता। उसके समान जो अन्य पेड़-पौधे हैं वे जमीन में गड़े हुए हैं और गतिशील नहीं हो सकते। उन्हें तो मजबूर होकर अपनी जगह के ही हवा-पानी में रहना है, उसी जमीन पर उसी जगह कीलित रहना है। खैर, यह तो प्रकृति का बना हुआ विधान है। जिसमें कोई इधर से उधर नहीं कर सकता। चलो, यदि उन सबों को जीना है तो इसी तरह जीना है।
वे चरवाहे अक्सर उसकी डालियों पर चढ़ जाते जिनका भार उठाना उसे बुरा नहीं लगता था, क्योंकि उसके पास जितनी शक्ति थी उसकी तुलना में उन बच्चों का, या कभी-कभी सयाने का भी भार क्या था? पर उनसे उसे खीझ होती थी कि बैठेंगे ठंडी छाँह में पर उसके प्रति कृतज्ञ होने के बजाय अपने ढोरों से चरवाएँगे उसकी पत्तियाँ! उफ! ये मनुष्य भी न... सिर्फ़ अपनी ओर से सोचते हैं और मनुष्य ही क्यों? सब अपनी ओर से सोचते हैं। मनुष्य हर-हमेशा जीत इसलिए जाता है कि उसके पास कुटिल बुद्धि का अपरिमित खजाना है। यह सोचते ही अनाम पेड़ मुस्कुरा उठा।
पर उसके बाद से उसे मनुष्यों और चरने वाले पशुओं से डर लगने लगा कि न जाने कब मनुष्य उसे काट दे या पशु उसे चर जाएँ। पर वह कर कुछ नहीं सकता था। पैर तो थे नहीं जो जानवरों की तरह भाग सकता। मुँह तो था नहीं जो अपनी हँसी-व्यथा बयान कर सकता था या चिल्लाकर किसी को अपनी सहायता के लिए बुला सकता? सिर्फ़ सोच और समझ सकता था।
पर यह भी सच था कि उसे अपनी दुनिया बहुत अच्छी लगने लगी थी। एक दिन दो चरवाहे लड़के आए और उसकी छाया में बैठ कर बातें करने लगे। वह उन दोनों की बातें बड़े ध्यान से सुनने लगा।
उनमें से एक ने कहा, " मालूम है? शहर में पेड़ लगाए जा रहे हैं। उसके लिए पेड़ों को उखाड़-उखाड़कर मँगवाया जा रहा है। '
दूसरे ने कहा, "हें... पेड़? पेड़ लगेंगे? कि पौधे लगते हैं?"
"पेड़... पेड़! पेड़ लगाए जा रहे हैं। बड़े-बड़े पेड़।"
"तो इन्हें उखाड़ेगा कौन?"
"मशीन! ये मशीन से उखाड़ लिए जाते हैं और ट्रक पर लादकर ले जाया जाता है उन्हें। फिर रोप दिया जाता है।"
"हाँ... ऐसा क्या?"
"हाँ... ऐसा...! ऐसा होता है।" दूसरे लड़के का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया।
इधर यह सुनते ही अनाम पेड़ की पत्तियाँ हिलने लगीं। पेड़ भय से काँपने लगा। वह सोचने लगा क्या पता उसे भी उखाड़ लिया जाए? ना... ना...ऐसा न हो। ऐसा न हो... वह दिल में मनाने लगा। उसे उन दोनों लड़कों की बातों पर विश्वास हो गया था कि जब वे बोल रहे हैं तो सही ही बोल रहे हैं।
अब वह डर के मारे सहमा-सहमा रहने लगा था। न हवा अच्छी लगती थी, न अपने माहौल की कोई अन्य चीज। बस एक ही चिंता समाई हुई थी कि कहीं उसे उखाड़ न लिया जाए. उस लड़के के शब्द याद आ रहे थे... "हें! पेड़ लगेंगे कि पौधे लगते हैं?"
"पेड़... पेड़! पेड़ लगाए जा रहे हैं।"
"मशीन! ये मशीन से उखाड़ लिए जाते हैं... फिर रोप दिया जाता है।"
उसे दुख हुआ अपने अस्तित्व पर। उसके पास पैर नहीं... नहीं तो वह दौड़कर कहीं भाग जाता और छुप जाता।
और सचमुच वह दिन आ गया। उस दिन कुछ लोग आए और पेड़ों का चुनाव करने लगे। एक ने उसे देखकर कहा "अरे! यह देखो तो? यह कौन-सा पेड़ है?" कैसा खुबसूरत है? यहाँ इसे कौन देख रहा है? "
"हाँ सचमुच! ऐसा पेड़ मैंने नहीं देखा। इसकी पत्तियों का कटाव देखो और इसका हरापन देखो। ...आखिर इसका नाम क्या है?"
"पता नहीं क्या है? ...क्यों न इसे ही ले चलें?"
"नहीं, कहीं यह विरल जाति का पेड़ है उखड़ने से कही सूख न जाए!"
" नहीं इसे हम ध्यान से रोपेंगे और इसका ख्याल रखेंगे। यह सुनकर पेड़ रोने लगा। उसकी पत्तियाँ हिल-हिल कर छटपटाने लगीं। कुछ दिनों बाद वह ट्रक पर लदा हुआ भागा जा रहा था। बिना पैरों के ही दौड़ रहा था। गति... गति... गति... इतनी तेज गति। सारी पृथ्वी उसे घूमती हुई मालूम पड़ रही थी। उसे चक्कर आ रहे थे। एक जगह पहुँचकर रोपा गया उसे।
उसे दूसरी धरती मिली। बिना वर्षा के ही पानी मिल गया। अब वह खड़ा था एक सड़क के किनारे मनुष्य की गुलामी करता हुआ। उसकी सड़कों को ठंडक पहुँचाता हुआ। हरित महानगर के हरे सपने को पूरा करता हुआ। उसने कभी इस दिन की कल्पना भी न की थी। कहाँ पहले वह जी रहा था अपनी दुनिया में जहाँ उसे ज़रूरत न थी अन्य कुछ की। सब कुछ था उसके चारों ओर। अद्भुत प्रकृति और प्रकृति का लाड़-प्यार।
और कहाँ यह पंछियों और जीवों से शून्य लोहे और कंकड़-पत्थर की नगरी जहाँ रंग-बिरंगी गाड़ियाँ ही दौड़ रही थीं चारों ओर। उससे नजर उठी तो मनुष्य पर गई. कभी-कभार गायें और कुत्ते भी दिख जाते थे। परंतु सब जैसे अपनी मंजिल से दूर दीन-हीन बने भटक रहे हों। वह कहाँ आ गया था? यह कौन-सी दुनिया थी?
वह याद करता पंछियों को, छोटे-छोटे प्राणियों को। पंछी यहाँ भी थे, पर ये दूसरे किस्म के थे। फिर वह हरी-भरी दुनिया, ठंडी बहती हुई हवा, उसकी छाया में सुस्ताते चौपाए, गरीब चरवाहे। उसके भाई-बंधु, आत्मीय पेड़-पौधे सब सपने हो गए. सड़क के किनारे खड़ा, वह प्रतिपल अपने अतीत को याद करता रहता था।