पेड़ पर लटकती देह के यक्ष-प्रश्न? / जयप्रकाश चौकसे

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पेड़ पर लटकती देह के यक्ष-प्रश्न?
प्रकाशन तिथि :25 अप्रैल 2015


कई घटनाएं कल्पना और यथार्थ के बीच भेद मिटा देती हैं, कभी-कभी एेसा होता है कि भविष्य के गर्भ में दबा यथार्थ जाने कैसे किसी लेखक की कल्पना के रूप में वर्तमान में उभर आता है। एक अमेरिकी लेखक ने 1898 में उपन्यास में एक बड़े जहाज की दुर्घटना का विवरण दिया और 1912 में टाइटैनिक त्रासदी घटी। इसका स्पष्टीकरण यह हो सकता है कि समय की नदी में ऊपरी सतह जो मनुष्य को दिखाई देती है, वह वर्तमान है और सतह के नीचे बहती धारा बीता हुआ कल है तथा तीसरी सतह आने वाला कल है। कभी बाढ़ आने पर या धरती के भीतर किसी सतह के करवट लेने के कारण तीसरी सतह पहली के ऊपर कुछ क्षणों के लिए आती है और कोई विरल व्यक्ति उसे देख लेता है। यह भूत, भविष्य और वर्तमान मनुष्य की सुविधा के लिए बनाए खंड हैं, परन्तु समय तो नदी की तरह प्रवाहित है। भारत की सूखती हुई तथा प्रदूषित नदियां भयावह भविष्य का संकेत हैं, परन्तु सत्ता के अंधे इसे नजरअंदाज कर रहे हैं। 15 अगस्त 1985 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की बात की थी और वर्तमान प्रधानमंत्री ने इसे दोहराया भी है, परन्तु खबर है कि जापानी व जर्मन विशेषज्ञों ने इस काम के लिए 21 वर्ष और बड़े बजट का तथ्य सामने रखा है, परन्तु तुरन्त राजनैतिक लाभ की मनोदशा इस तथ्य को नकार रही है।

बहरहाल आमिर खान की 'पीपली लाइव', जिसे दिल्ली की एक विदुषी ने लिखा और निर्देशित किया था, उस समय मुआवजे के लिए किसान आत्महत्या पर बनाया यह व्यंग्य आज दिल्ली में ही सत्य घटना के रूप में सामने आया है। उस महान विदुषी को अमेरिका के लेखक रॉबर्टसन की तरह भविष्य के गर्भ में छुपी घटना दिखाई दी थी। दिल्ली में खेत नहीं राष्ट्रीय टकसाल है और सत्ता का सिंहासन है तथा राजमहल के गलियारों की कानाफूसी है और सत्ता की आपाधापी में समय की नदी की ओर देखने की इच्छा ही किसी की नहीं है। सब अपने प्रसाधन और व्यूह रचना में खोए हुए हैं। उनके लिए भारत एक अदृश्य पात्र है। पंद्रह वर्षों में आत्महत्या करने वाले किसानों के आंकड़े देश की किस्तों में मृत्यु है और जब पूरे जीवन को ही हमने विभिन्न किस्म की किस्त अदायगी में बदल दिया है तब उनकी चिंता कौन करे जो आत्महत्या के लिए लालायित हैं, परन्तु कर नहीं पा रहे हैं। उनमें खाकसार भी शामिल है। माजरा कुछ बादल सरकार के नाटक 'बाकी इतिहास' के तीसरे अंक जैसा है। आत्महत्या के बाद उस पात्र का यह कहना कि मेरी आत्महत्या के कारण खोजने वालो अपने आप से पूछो कि आप आत्महत्या क्यों नहीं कर रहे हैं। दिल्ली के पेड़ से लटकती मृत देह भी यही सवाल दोहरा रही है।

मेरा खयाल है कि तीन दशकों से टीवी पर प्रस्तुत एेश्वर्य से भरी विलासपूर्ण जिंदगी और इंटरनेट के वैकल्पिक संसार के तथ्य मिलकर अय्याशी की लहर चला चुके हैं। आज मध्यम एवं निम्न आय वर्ग तथा किसान अपनी सीमित आय के दायरे में अय्याश हो गए हैं, विलास की इच्छाएं जाग रही हैं और आर्थिक खाई को भयावह बना रही हैं। सभी सोचते हैं कि यह रईसी हम क्यों नहीं कर सकते। साबुन के विज्ञापन में दस करोड़ के बाथरूम में नहाती महिला अब अवाम के सपनों में इच्छा का सांप बनकर लहरा रही है। छुट्टियों में घर लौटा फौजी अपने बेटे की सायकल पर गुबार फेंकती अमीरजादों की फर्राटेदार गाड़ियों को देख रहा है। अमीरी के भौंडे प्रदर्शन ने कहर ढ़ाया है। पहले राजा-नवाबों के महल में जलसाघर होते थे, अब अवाम का दिल एक जलसाघर है। यह छाया जलसाघर ही असल कारण है।

एक दौर में किसान धरती को मां मानता था, वह अपने जख्मों पर मिट्‌टी लगाता तथा फसल लहराने पर थिरकता था। जब सदियों तक उसके परिश्रम को सम्मान नहीं मिला, मुनासिब दाम नहीं मिले तब वह क्यों न खेत बेच दे और उसके धन से कुछ दिन तो रईसों की तरह रहकर देखे कि धरती पर स्वर्ग कैसा है, मेनका और उर्वशी के नृत्य देखे। आज हर किस्म के कार्य की अपनी गरिमा का विनाश हुआ है। विशिष्ट व्यक्ति की संस्कृति अब कैसे मन्ना डे के गीत को चरितार्थ करने देगी, 'धरती कहे पुकार के, बीज बिछाले प्यार के... मौसम बीता जाये..'।