पेरिस में कंगना के गोलगप्पे / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 10 मार्च 2014
जिस तरह 'हाइवे' आलिया भट्ट की फिल्म है उसी तरह 'क्वीन' कंगना रनावत की फिल्म है। ऐन विवाह के समय दूल्हे द्वारा अस्वीकृत लड़की पेरिस और एमस्टर्डम की यात्रा में कुछ सच्चे लोगों से मिलकर अपना खोया आत्मविश्वास पुन: प्राप्त करती है और इस प्रक्रिया में मुखौटे के पीछे छुपे अपने अहंकारी मंगेतर को पहचान लेती है कि वह उसे अपने पैर के नीचे का कालीन बनाना चाहता है। उसकी वापसी में उसके पहले विवाह से इनकार वाले स्वरूप से अधिक लिजलिजापन है। मंगेतर के शरीर में चुइंगम भरा है और अब कंगना सिर उठाकर चलना सीख गई है। अपने को पा जाने का भाव आप उसके चलने के ढंग में देख सकते हैं। पूरी फिल्म में ही उसका रोम-रोम भावाभिव्यक्ति करता है।
एमस्टर्डम में चार अलग-अलग देशों के युवा साथ रहते हैं और युवा वय के अतिरिक्त उनमें कुछ भी समान नहीं है। उनकी भाषाएं अलग हैं, रहना-सहना, खान-पान अलग है परंतु छिपकली से सभी डरते हैं और अपने डर पर हंसना भी वे जानते हैं। उनके धर्म भी अलग हैं परंतु संवेदना की डोर उन्हें आपस में बांधती है। पहले कंगना को उनसे भय लगता है, इसलिए वह बाहर बेंच पर सोती है तो अगले दिन तीनों बाहर सोने को तैयार है ताकि वह निर्भय होकर कमरे में सो सके। आपसी समझदारी आपसी सहयोग से बनती है, आप किसी की फिक्र करते हैं, यह बात बिना बोले भी उस तक पहुंच जाती है। यह मनुष्य हृदय का कमाल है कि एक जापानी युवा जिसने अपना परिवार सुनामी में खो दिया है, वह कंगना में अपना कोई देखता है, अन्य मित्रों में परिवार पा जाता है। मानवीय संवेदनाओं का जन्म कठिनतम परिस्थितियों में हो जाता है और जीवन सरल बन जाता है। कंगना सबके लिए नाश्ता बनाती है जो नितांत भारतीय मौलिकता से रचा गया है जिसमें अनेक देशों की पाक विद्या शामिल है और वह इसे फ्रेंच टोस्ट कहती है तो उसका एक फ्रांसीसी मित्र कहता है कि यह यकीनन फ्रेंच टोस्ट नहीं है। इस गोलमोल भोजन को सब प्रेम से खाते हैं क्योंकि भूख यह नहीं देखती कि पाक विद्या किस मुल्क की है- भूख सभी देशों को अपनी असहायता से ही सही परंतु जोड़ देती है। विपुल खाद्य सामग्री लोगों को बांटती है, भूख जोड़ती है। कितने विरोधाभास है जीवन में और कितनी विसंगतियां है परंतु मानवीय संवेदनाएं सब पर भारी पड़ती हैं।
एक सड़क पर भोजन परोसने वाला व्यक्ति कंगना को खोजकर उसे रकम वापस करता है क्योंकि कंगना को उसका पकाया भोजन अच्छा नहीं लगा था। वह उसे चुनौती देता है कि उसके द्वारा आयोजित भोजन मेला में वह शिरकत करे। कंगना अपने मित्रों की सहायता से गोलगप्पे बेचने में सफल होती है। एक यूरोपियन ग्राहक एक गोलगप्पा मुंह में रखता है और उसके तीखा होने की बात पर चला जाता है परंतु वह कुछ ही क्षण पश्चात लौटता है कि प्रारंभ में मिर्च लगती है परंतु बाद के स्वाद में मजा है। जिंदगी में भी कुछ ऐसा है कि कोई चीज हम ठुकराते हैं और फिर उसे स्वीकार करते हैं। कंगना को ना कहने वाला दूल्हा उसकी यूरोप यात्रा से प्रभावित है और इसी यूरोपियन गोलगप्पा वाला अनुभव यहां दूसरे रूप में सामने आता है। वह ग्राहक को स्वीकार करती है परंतु इस ढुलमुल दूल्हे को अस्वीकृत कर देती है क्योंकि शादी गोलगप्पा नहीं है।
विकास बहल अपने पहले निर्देशकीय प्रयास में अपनी स्वतंत्र शैली को बेहद नयेपन के साथ प्रस्तुत करते हैं। शायद वे 'चिल्लर पार्टी' नामक फिल्म से जुड़े थे। भारतीय सिनेमा में नई प्रतिभा हर दौर में अनपेक्षित स्रोत से आती रही है। विगत वर्ष अजय बहल 'बीए पास' लेकर आए थे। भारत में प्रतिभा की कमी नहीं है। कंगना भी छोटे शहर से आई है और उनकी सीखने की चाह इतनी तीव्र है कि वह अमेरिका जाकर पटकथा लिखने का कोर्स करके आई है। क्या इस फिल्म में अलग देशों से आए लोगों के बीच मित्रता के दृश्य इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि भारत महान में आज क्षेत्रीयता की छद्म भावनाएं जगाकर एक किस्म का सामाजिक विभाजन रचा जा रहा है?
बहरहाल 'क्वीन' की ताजगी, कंगना की विलक्षण प्रतिभा और निर्देशक की गुणवता का आग्रह इस फिल्म को देखने के कारण हो सकते हैं। 'गुलाब गैंग' भी देखने योग्य फिल्म है और ये सारी विविध फिल्में भारतीय सिनेमा की ताकत का प्रमाण है साथ ही यह भी आश्चर्यजनक है की सिनेमा ही अखिल भारतीयता का भी प्रतीक है।