पैबंद / से.रा. यात्री
मनीष ने अपनी खटारा साइकिल बहुत नामालूम ढंग से दीवार के सहारे टिका दी और कमरे में पड़ी एकमात्र कुर्सी पर जा कर धम्म से बैठ गया। हलकी-फुलकी टीन की कुर्सी उसके बोझ से बुरी तरह डगमगा गई पर चलो खैर हुई, कुर्सी उलटी नहीं। दूसरे कमरे में बच्चे चीख-चीख कर अंग्रेजी की राइम रट रहे थे, 'हम्टी-डम्टी सेट आन ए वाल...' हालाँकि आसानी से वह अपना संतुलन नहीं खोता; आड़े वक्त पर कई बार किताबों की पढ़ाई और उनसे टपकती हुई दार्शनिकता उसे सँभाल ले जाती है। बाज मौकों पर बच्चों की चीख-पुकार से उसके थके हुए मस्तिष्क की शिराएँ झनझना उठती हैं, पर वह तर्क से स्वयं को समझाता है, 'बच्चे चीखें-चिल्लाएँगे नहीं तो क्या बुड्ढों की तरह सिर दाब कर बैठेंगे!' लेकिन आज उसकी तबियत हुई कि जोर से बच्चों का डाँट दे या उनके कान पकड़ कर उन्हें जमीन से ऊपर उठा ले। जब देखो कंबख्त घर को मछली-बाजार बनाए रहते हैं और उसकी आँखों में खामख्वाह वह दृश्य कौंध गया जब लोग अपने बच्चों की जबरदस्ती प्रशंसा करवाने के लिए घर आए मेहमानों को यह ऊल-जलूल राइम सुनवाते हैं और उन्हें उकसाते हैं, 'हैं-हैं-हैं, अच्छे बच्चे अंकल को नमस्ते करते हैं, पोइम सुनाते हैं, हैं-हैं-हैं, सुनाओ बिट्टू, शर्माओ मत... हम्टी डम्टी सेट..' मनीष का सिर भन्ना गया, उसने अपनी कनपटियों को कस कर दबाया।
तात्कालिक दबावों से आदमी की प्रखरता कितनी जल्दी टें बोल जाती है इसे मनीष अपनी 'आनर्स' की पढ़ाई से नहीं जान पाया था। पिछले कुछ बरसों में नई साइकिल को खड़खडिया बनते देख कर वह बखूबी इस किस्म का फलसफा समझ गया है। यही वजह थी कि 'अभावों और असंतोष के खटरागों' को वह बरसों से रोमांटिक बनाता आ रहा था मगर आज उसे लगा कि उसकी कमर बुरी तरह टूट गई है। शाम को साइकिल बाहर निकालता था, उसका जैसे आज अंत हो गया है।
तीन महीने पहले उसने एक कुर्ता-पायजामा सिलवाने की बात सोची थी और उससे भी तीन मास पहले एक पाँच-सात रुपए वाली सस्ती-सी चप्पल लेने की बात। वह बात सोचते-सोचते अब इतनी निर्जीव हो गई थी कि चप्पल खरीदने का उत्साह बिलकुल खतम हो चुका था, उसी तरह जैसे उछाह से किसी से मिलने जाओ, और पहुँचते-पहुँचते रास्ते में ही इतने तंग हो जाओ कि मिलने की आतुरता ही दम तोड़ बैठे। संयोग से उसके मित्र आनंद ने पच्चीस रुपए का एक जूता खरीदा था लेकिन पता नहीं उसके पैर में जूता कैसे छोटा पड़ गया। एक दिन मनीष को अपने घर से उसने वह जूता जबरदस्ती पहना कर भेज दिया। मनीष ने ऊपर से काफी संकोच दिखाया था, उसे डर था कि कहीं आनंद की पत्नी उसे बहुत हीन खयाल न करे... भला जूता भी कोई दोस्तों को दी जाने वाली चीज है! पर आनंद की पत्नी ने उसका संकोच निवारण करते हुए कहा था, 'आपके पैर में तो एकदम फिट बैठा है।' मनीष से जब कोई उत्तर नहीं बन पड़ा था तो जबरदस्त ठहाका लगा कर बोला था, 'भाभी, यह इस साले का षड्यंत्र है, दरअसल यह पिछले जन्म का मोची है इसलिए जबरदस्ती जूता भेंट करने पर तुला है,' और जूता पैरों से उतारते हुए बोला था, 'चल हरामी, मैं नहीं लेता तेरा यह दान।'
आनंद ने आँखें तरेर कर कहा था, 'तो फिर समझ तेरे सिर और इस जूते का रिश्ता बहुत दिनों तक बना रहेगा - रोज आए सौ जूते खा गए। और न हो तो पैसे दे देना, मरता क्यों है बे, बहरहाल इस जूते का लौटाना अब मुमकिन नहीं है; दान तो फिर दान ही ठहरा। कहा भी है किसी ने चर्म दानम् महादानम्।' मनीष आनंद की बात सुन सकपका गया, कहीं साला आगे की बात भी न बक जाए; भाभी सामने बैठी हैं। मनीष और आनंद जब अकेले में बैठ कर फोहश मजाक करते थे तो कहते '...बेटा...दानम्।' लेकिन आनंद की पत्नी को इस पृष्ठभूमि का कोई स्पष्ट संदर्भ ज्ञात नहीं था, इसलिए उसने कोई नोटिस नहीं लिया।
लेकिन अब? अब जाड़ा बीत चुका था; वसंत का मौसम चल रहा था। जाड़े के दिनों में मनीष गरम कपड़ों - गरम कपड़े भी क्या झग्गर-झोला किस्म की पुरानी पतलून और कोट - के साथ आनंद के जूतों को चढ़ाता रहा था, लेकिन कुर्ते-पायजामे के साथ अब यह जूते बिलकुल भी नहीं घिसट पा रहे थे। मनीष ने मजाक में दोस्तों से कई बार कहा, 'एक कुरते-पायजामे का सवाल है बाबा, एक सस्ती-सी चप्पल का सवाल है बाबा।' सब लोग उसकी बातों पर हँस देते थे लेकिन असलियत किसी-को मालूम नहीं थी कि मनीष जो कुर्ता-पाजामा पहन कर दफ्तर आता है और जो हमेशा झकाझक दिखाई पड़ता है उसे वह रोज रात को धो लेता है और सुबह इस्तरी करके पहन आता है।... खद्दर के कपड़े पहनने का शौक उस हालत में शौक नहीं मातम हो जाता है जब किसी आदमी के पास उनकी गिनती महज एक अदद तक जाती हो।
दफ्तर की तनख्वाह के अलावा कहीं से एक पैसे की आमदनी नहीं। ढाई सौ मिलते थे मगर हालत यह थी कि सौ में से पचास चीजें अगले महीने (जन्म) के लिए टाल दी जाती थीं और यह टालने का सिलसिला कुछ इस तरह शुरू हुआ था कि इसके अंत का कहीं सूत्र ही दिखलाई नहीं पड़ता था। बच्चों के कपड़े अगले महीने, सिनेमा अगले महीने, किसी दोस्त या संबंधी के यहाँ जाना अगले महीने, एक चप्पल अगले महीने... एक कुर्ते-पाजामे का सवाल है बाबा... अगले महीने, अगले महीने। 'अगले महीने' मनीष के दिमाग में अब इस तरह बजने लगा था जैसे आपसे कोई भिखारी कुछ माँगे और आप बिना एक क्षण भी सोचे कहें, 'आगे देखो बाबा।'
निशा उससे हर बार कहती, 'नौ साल मुझे इस घर में आए हो गए, अपने हाथ में पैसा रखने की मैंने कभी जिद नहीं की लेकिन भले आदमी, तुम खाली एक महीने की तनख्वाह मेरे हाथ पर ला कर रख दो; एक कुर्ता-पाजामा और चप्पलें तो तुम्हें दिलवा ही दूँगी कम से कम।' वह परम आस्तिक भाव से निशा की बात सुनता। उसके चेहरे पर बात मान जाने वाले बच्चे का भाव आ जाता और वह स्वीकार की मुद्रा में गर्दन हिला कर कहता, 'बिलकुल सही कहती हो, मेरा भी खयाल है। देख लेना अगले महीने मैं यही करने वाला हूँ।' लेकिन अगले मास जब वह दफ्तर से लौटता तो दफ्तर के बंधुओं का उधार चुकाने के बाद उसके पास कठिनाई से इतने रुपए बचते कि दूध, बच्चों की फीस और मकान का किराया चुकाया जा सके। मकान मालिक एक ही हरामी था; पहली की शाम को छाती पर आ खड़ा होता था और मकान का किराया 'अग्रिम में झटक ले जाता था; यह बात शायद कतई महत्व नहीं रखती थी कि मनीष पिछले चार साल से उसी मकान में 'बैठा' हुआ था।
पिछले कुछ दिनों से मिलने-जुलने वालों का आना भी मनीष को रास नहीं आ रहा था। गो कि वह चाहता था लोग खूब आएँ-जाएँ; हँसी-मजाक चले, गप्प-गोष्ठियाँ जमें लेकिन मामूली-से चाय-नाश्ते में जो दो रुपए टूट जाते थे उनकी कसक भी कम नहीं होती थी। उसे अब पुराने रीति-रिवाज अच्छे लगने लगे थे। जब लोग महज दो वक्त खाना खाते थे। कोई खाने के वक्त आ गया तो ठीक वरना बेवक्त आनेवाले को पानी के गिलास या शरबत से ही टरका दिया जाता था। बहुत हुआ हुक्का सामने ला कर रख दिया। एक चिलम-तंबाकू पाँच आदमी मजे में पी सकते थे - कितने अच्छे थे किफायतसारी के वे दिन! और अब? अब मुसीबत यह है कि जाड़े में चाय पिलाओ और कुछ खाने को भी दो। गर्मियों में उससे भी बड़ी मौत; घर का बना शर्बत-शिकंजी कोई प्रसन्नता से पीता नहीं; बाजार से कोकाकोला मँगाओ तो चार रुपए की चपत मामूली बात है। आनेवालों को मुस्कराते हुए पेश करो और भीतर से कुढ़ते हुए उनके साथ खुद भी पीओ।
मनीष दफ्तर से लौट कर चाय खतम करते ही निशा से कहता, 'अब घर से जलदी-जल्दी निकलने की तैयारी करो। मैं बच्चों को कपड़े पहनाता हूँ, तुम भी धोती बदलो; कहीं कोई आ न मरे।' निशा कहती, 'अभी थोड़ी देर में दूधवाला आएगा; दूध का कैसे होगा?'
'दूध-फूध छोड़ो, चौधरी साहब से कह देंगे।'
और इस तरह चौधरी, वर्मा और खन्ना सभी पड़ोसी मनीष का दूध लेते-देते तंग हो चुके थे। अब वह उन लोगों से दूध लेने के लिए कहता तो जवाब मिलता, 'भाई, अब आपका दूध कब तब रखें; आपका कोई ठिकाना तो है नहीं, कभी रात नौ बजे तो कभी दस बजे लौटते हैं।' और इतनी लबड़ धों-धों करते-करते कभी तो कोई ठीक उस वक्त द्वार खटखटाया जब मनीष बच्चों को कपड़े पहना चुका होता और निशा महज ब्लाउज और पेटीकोट पहने जूड़े, आँखों के काजल या होंठों की लाली में उलझी होती। द्वार पर होनेवाली खटखट से मनीष का दिमाग खराब हो जाता, वह निशा पर खौखिया उठता, 'लो और लगाओ छह घंटे सिंगार-पटार में, अब आ मरा कोई साला, दो घंटे से पहले हिलने का नाम नहीं लेगा।'
ऐसे अक्सर पर निशा बेचारी एक लंबी साँस ले कर रह जाती और अभी दो मिनट पहले उतारी हुई मैली धोती फिर से लपेटने लगती ।
निशा बाहर निकलने से पहले जब मनीष से पूछती कि कौन-सी साड़ी पहनूँ तो मनीष की झुँझलाहट का कोई ठिकाना न रहता। वह झुँझला कर कहता, 'कोई भी पहन लो भागवान, बेकार की बातों में सिर मत खपाओ।' वह मनीष की ओर बड़ी-बड़ी आँखों से चुपचाप देखती। उन आँखों में घिरी निरीहता जैसे पुकार-पुकार कर कहती, 'पहले तो तुम ऐसे नहीं थे; शादी के बाद शुरू में न जाने कितने दिनों तक 'आप-आप' करके बोलते थे। इन बालों में अपना चेहरा छुपा लेते थे। अब इन बालों में कंघी करने की छूट देना भी तुम्हें बरदाश्त नहीं है। यहाँ तक कि अपनी पसंद की साड़ी भी नहीं बता सकते!' वह वेधक दृष्टि मनीष अदेखी कर जाता लेकिन जब मनीष रात को बिस्तर पर लेटता और उसकी बाँह पर सिर टिकाए निशा आराम से सो जाती तो उसे पूरी फिजा में निशा की वही दो बड़ी-बड़ी कातर आँखें तैरती दिखाई पड़तीं। मनीष देर तक जागता पड़ा रहता, वह करवट भी न बदलता, कहीं निशा की नींद न टूट जाए। निशा का शांत, सलोना चेहरा उसके मन में पश्चाताप जगाता, 'मैं इसे कितनी बेरहमी से डाँट देता हूँ। बेचारी!'
पानी सिर के ऊपर से हो कर गुजरने लगा तो मनीष बराबर इसी उधेड़बुन में लग गया कि अब क्या हो; दिन कैसे कटे? लोग उपदेश तो देते हैं कि जो आमदनी हो आदमी को उसी में खर्च चला कर आड़े वक्त के लिए दो पैसे बचाने चहिए, मगर यह कोई नहीं बताता कि आदमी आखिर आधा बन कर कब तक जिए। और चलो आदमी खुद को दूसरा समझ कर अपने साथ निर्ममता का व्यवहार कर सकता है लेकिन बीवी-बच्चों को यह कैसे समझा सकता है कि भई, तुम लोग स्वयं को कुछ और खयाल करके अपने साथ दुश्मनों जैसा व्यवहार करो।
चाह और राह के सिद्धांत को ले कर आमदनी यानी ऊपरी आमदनी का एक सिलसिला निकल ही आया। एक परिचित धनी सज्जन मल्होत्रा साहब की लड़की इंटर की परीक्षा दे रही थी। परीक्षा का एक-डेढ़ महीना बाकी था। मनीष ने साहित्यरत्न पास कर रखा है और यह उसने अपने दरवाजे की तख्ती पर भी जड़ रखा है, 'मनीषचंद्र बी. ए. आनर्स, साहित्यरत्न।' पड़ोस के लोग इसी साहित्यरत्न के चक्कर में उसे शास्त्री जी कहने लगे थे। मल्होत्रा साहब एक दिन सब्जी वाले की दुकान पर मिल गए तो कहने लगे, 'बच्ची इंटर का एक्जाम दे रही है; हमें भी आपके ज्ञान का लाभ मिल जाए। थोड़ी देर उसे देख लिया करें तो क्या कहना।' अपनी सारी अकर्मण्यता झाड़ कर मनीष बोला, 'हाँ, हाँ, क्यों नहीं; जरूर! मैं कल ही आऊँगा।'
और इस तरह अतिरिक्त आय का साधन निकल आया। मनीष ने निशा और बच्चों को घुमाना छोड़ दिया। दफ्तर से लौटते ही चाय पीता और एक सिगरेट पीते हुए साइकिल निकालता। निशा कहती भी, 'एक फर्लांग दूर उनका घर है पैदल ही क्यों नहीं चले जाते; घूमना भी हो जाएगा?' वह क्लर्कों की दार्शनिकता बघारता, 'क्लर्क के पास अपनी दो ही चीज तो होती हैं - एक घरवाली, दूसरी साइकिल; दो में से एक हमेशा साथ रहनी चाहिए।'
महीना जिस दिन पूरा हुआ मल्होत्रा साहब ने सत्तर रुपए लिफाफे में रख कर दिए। वह बोला, 'अभी ऐसी क्या जल्दी थी, आ जाते,' लेकिन उसने रुपए जल्दी से जेब के हवाले किए और इस तेजी से घर लौटा गोया जीवन में अपने परिश्रम की कमाई आज पहली बार उसके हाथ आई हो। मनीष ने लिफाफा निशा के हाथ में दिया तो वह प्रश्नसूचक दृष्टि से उसे देखने लगी। वह गदगद स्वर में बोला, 'पहले महीने की कमाई है।' निशा ने लिफाफा खोले बगैर ही पूछा, 'कितने हैं ?'
'मैंने गिने नहीं। '
निशा ने अत्यंत निस्पृह भाव से लिफाफा खोल कर रुपए गिने और बोली, 'सत्तर हैं।'
सब्जी की टोकरी लिए हुए निशा व्यस्तता से कमरे में घुसी। और मनीष को कुर्सी पर माथा थामे देख कर घबरा गई, क्या बात है, ऐसे क्यों बैठे हो, बड़ी जल्दी लौट आए आज?'
मनीष ने जरा-सी आँखे खोलीं और पहलू बदल कर बैठ गया। निशा ने उसके पास पहुँच कर उसकी कलाई छू कर देखी, कहीं बुखार तो नहीं हो गया? मनीष ने उसका हाथ धीरे से हटा दिया और बोला, 'कुछ नहीं हुआ है, एक गिलास पानी भेजो, आज छुट्टी हो गई।'
पहली बार तो निशा की समझ में नहीं आई कि 'छुट्टी हो गई' का क्या मतलब है। वह पूरी बात सुनने के लिए खड़ी रही लेकिन मनीष जब फिर आँखे बंद करके बैठ गया तो वह पानी लेने चली गई। मनीष के हाथ में पानी का गिलास ला कर दिया तो वह बोला, 'शीला इम्तिहान नहीं दे रही है। मैंने आज जा कर पूछा, पर्चा कैसा हुआ', तो वह बोली, 'मास्टर साहब, मैं इस साल प्रविष्ट नहीं हो रही हूँ।' मैं सोचता रहा शायद कोई वजह बताए लेकिन जब उसने कोई साफ कारण नहीं बताया तो मैं उठ कर चला आया। वहाँ बैठ कर अब क्या करता?'
इतने पर भी निशा की समझ में कुछ नहीं आया। शीला इम्तिहान नहीं दे रही है तो न दे, बड़े आदमी की लड़की है। लेकिन मनीष के सिर में दर्द क्यों है? वह मनीष से बोली, 'मैं तो डर गई थी, न जाने क्या बात है जो आप माथा पकड़े बैठे हैं, चलिए कपड़े बदल डालिए।'
मनीष ने हाथ में पकड़े हुए गिलास का पानी एक साँस में खतम कर दिया और दुखी से स्वर में बोला, 'तुम नहीं जानतीं निशा - इससे मौत हमारी ही हुई, उन लोगों को कोई परवाह नहीं है लेकिन हम तो सत्तर रुपए से मारे गए।'
निशा की प्रश्नात्मक मुद्रा देख कर मनीष ने बात साफ की, 'शीला परीक्षा देती तो अभी अठारह-बीस दिन और पढ़ती कि नहीं? अब वह कुल ग्यारह दिन पढ़ी है। मल्होत्रा साहब पिछले माह का हिसाब चुकता कर चुके हैं, ग्यारह दिन के ज्यादा से ज्यादा पच्चीस रुपए बनते हैं और अब तो उन पच्चीस को भी माँगने जाने का बहाना खतम हो गया।'
बजाय दुखी होने के निशा के चेहरे पर मुस्काराहट आ गई। वह ठहाका लगा कर बोली, 'ओ हो !पच्चीस रुपए के गम में माथा पकड़े बैठे हैं। आपकी हालत हमारे मोहल्ले के बरकत चाचा जैसी है। बरकत चाचा मुर्गे-मुर्गियाँ पालते थे। एक दिन एक कुत्ता बरकत चाचा का एक चूजा मुँह में दबा कर भाग खड़ा हुआ। चाचा डंडा ले कर गालियाँ बकते हुए उसके पीछे दौड़े। दूर जा कर कुत्ता पकड़ में आया तो उन्होंने उसकी पीठ पर कई डंडे पटका दिए। तब कहीं जा कर चूजा कुत्ते के मुँह से बाहर आया। लेकिन चूजा अधमरा तो हो ही चुका था। ओह, देखने लायक था वो सीन! उन्होंने दबे-कुचले चूजे को उठा कर उसके सिर पर कई चपत मारे और रो कर उसे छाती से लगा लिया। जब वह घर लौट रहे थे तो उनकी दाढ़ी आँसुओं से तरबतर थी और बरकत चाचा चूजे को ऐसी-ऐसी गालियाँ दे रहे थे कि क्या बताऊँ! बोल हरामी, फिर निकलेगा दड़बे से बाहर, बोल हरामी...।' हाँ, यह बात दूसरी है कि उन्हीं बरकत चाचा के घर पूरा मुर्गा किसी भी दिन भून लिया जाता था; घर का मुर्गा दाल बराबर जो ठहरा।'
निशा ने मनीष का लटका हुआ चेहरा देखा और उसे गुदगुदा कर बोली, 'सच बताओ, ट्यूशन छूट जाने का दुःख है या असली दु:ख उस लड़की से संपर्क टूट जाने का है? कहीं उसके प्यार में तो नहीं पड़ गए? यह मास्टर कौम इसीलिए बुरी होती है; लड़की का साथ मिला और भावुक हो कर आत्मा का संबंध जोड़ बैठे।' निशा दुष्टता से मुस्कराते हुए उठी और दूसरे कमरे की ओर जाते हुए बोली, 'मैं अभी आती हूँ, इतने में मेरी बात पर 'गहन विचार' कीजिए।'
दस मिनट बाद लौटी तो चाय का प्याला और पाँच रुपए का एक नोट हाथ में पकड़े हुए थी। चाय का प्याला मनीष के हाथ में दे कर वह उसकी आँखों के करीब नोट जा कर खड़खड़ाने लेगी। मनीष ने उसकी इस क्रिया को बहुत नासमझ अंदाज में देखना शुरू कर दिया। वह हँसते हुए बोली, 'पच्चीस तो नहीं, हाँ, पाँच रुपए मैं आपको दे सकती हूँ क्योंकि इस महीने के ट्यूशन से आपको एक चप्पल की कामना थी। लीजिए यह नया नोट और चप्पल खरीद लाइए।'
मनीष ने मुक्त रूप से हँसती हुई निशा का चेहरा देखा और उसे पहली बार अनुभव हुआ कि जिंदगी के जिन दबावों को वह जीवन-मरण का प्रश्न बनाए हुए है और सहसा शुरू हुए किसी ट्यूशन के यकायक छूट जाने पर माथा पकड़े बैठा है, वह निशा के लिए कोई विचारणीय मुद्दा नहीं हैं। छोटे-छोटे बोझ सिर पर लादते चले जाने से आदमी का यही हश्र होता है।
मनीष के मन में गहरा पैठा हुआ विषाद एक क्षण में तिरोहित हो गया। दूसरे कमरे में शोर मचाते बच्चों की आवाज अब उसे उतनी कर्कश नहीं लगी। निशा की यह बेबाकी उसे भीतर तक हल्का कर गई। उसने देखा, निशा अभी सुंदर है। जिंदगी के अभाव बहुत कटु हैं लेकिन अभाव शायद कभी खतम नहीं होंगे पर निशा का सौंदर्य हमेशा ऐसा नहीं रहेगा। किसी अनोखी प्रेरणा के वशीभूत हो कर वह सहसा उठा और निशा को प्रगाढ़ आलिंगन में बाँध लिया।