पैसे पेड़ पर नहीं उगते ! / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 25 सितम्बर 2012
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा हाल ही में दिए वक्तव्य के एक वाक्य को आधार बनाकर विपक्ष उनका मखौल उड़ा रहा है। यह एक सरल सत्य है, जो सदियों के अनुभव से गुजरा है कि पैसे पेड़ पर नहीं उगते। इसका मखौल बनाना उतना ही हास्यास्पद है, जितना इसे सार्वकालिक महान बात मान लेना। यह वाक्य धन के महत्व को बताता है। पेड़ पर लगे फलों से पैसे जरूर बनाए जाते हैं और हमारे वन रक्षा कार्यक्रम की असफलता से यह भी सिद्ध हो चुका है कि पैसे से पेड़ नहीं उगते। हमारा भ्रष्ट तंत्र नहीं उगा पाया। हमसे अधिक वृक्ष अन्य देशों में काटे जाते हैं, परंतु वहां काटे गए वृक्षों से दस गुना अधिक पहले लगाए जाते हैं। हमने अपने वृक्षों की रक्षा नहीं की, अपनी नदियों को सूखने से नहीं बचाया। सभी शहरों में इलेक्ट्रिक शवदाह की व्यवस्था नहीं कर पाए, इसलिए हमारे शव जंगल खाते हैं। वृक्ष का महत्व, उसकी उपयोगिता और उसकी पीड़ा निदा फाजली ने इस तरह बयां की है -
'चीखे है घर के द्वार की लकड़ी हर बरसात।
कटकर भी मरते नहीं पेड़ों में दिन-रात।'
यह महज इत्तफाक की बात है कि जब यह वाक्य उछाला गया, तब मैं ताज हसन का उपन्यास 'द इनएक्सप्लिकेबल अनहैप्पीनेस ऑफ रामू हज्जाम' पढ़ रहा था। उसमें गांव में वृक्ष के नीचे रामू ऊंची जाति के सूबेदार सिंह की हजामत बना रहा था। वृक्ष के ऊपर से गिलहरी ने सूखी टहनी का अत्यंत छोटा हिस्सा रामू के हाथ पर गिराया और उस्तरे से सूबेदार साहब के चिकने गाल पर हल्की-सी खरोंच आ गई। दो बूंद खून क्या निकला, सूबेदार साहब ने रामू की जमकर धुनाई कर दी। रामू के बेटे ने अपने पिता पर हुए अन्याय से क्षुब्ध होकर माओवादी संगठन का सदस्य होना पसंद किया। बेचारे रामू हज्जाम के शेव करते हाथ पर सूखी टहनी गिरी और सदियों पूर्व न्यूटन के सिर पर फल गिरा था और उन्होंने गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत खोज निकाला, जिसने इतिहास को नई दिशा दी। इसके भी सैकड़ों वर्ष पूर्व कहा जाता है कि एक व्यक्ति वृक्ष की उसी डाल को काट रहा था, जिस पर वह बैठा था। इस व्यक्ति को मूर्ख माना गया, परंतु उसने बाद में 'मेघदूत' रचा, 'कुमार संभव' रचा और 'अभिज्ञान शाकुंतलम' भी रचा। कालिदास की इन रचनाओं को पढऩे के लिए आज भी कई लोग संस्कृत सीखना चाहते हैं। एक ही व्यक्ति को कभी मूर्ख तो कभी महान माना जाता है।
दरअसल विगत पैंसठ वर्षों में सभी प्रांतीय और केंद्र सरकारों ने ऐसी फिजूलखर्ची की, मानो पैसे पेड़ों पर उगते हों। इस गरीब देश को बहुत महंगी व्यवस्था से शासित किया गया है। आम आदमी ने सरकारी नौकरी पाते ही स्वयं को देश का दामाद मान लिया है और उसका व्यवहार विशेष जैसा हो गया है। सरकारी संपत्ति को हमारा अवाम हमेशा पेड़ों पर उगती वस्तुएं मानता रहा है। हमारी प्रवृत्ति ही ऐसी है कि 'माले मुफ्त दिले बेरहम'। सारे राजनीतिक दलों द्वारा किए गए भ्रष्टाचार में तंत्र में कार्यरत तकरीबन हर आदमी शामिल रहा है और वही उसके विरोध के जलसे में भी जाता है।
एक महान भारतीय वैज्ञानिक का कथन है कि पेड़ थमे हुए व्यक्ति हैं और व्यक्ति चलते-फिरते पेड़। अनेक जनजातियों में सल्फी का एक वृक्ष एक परिवार पाल लेता है। आजकल चलते-फिरते पेड़ों को भ्रष्टाचार की खाद लगती है और थमे हुए व्यक्ति पर फल नहीं लगते। जेम्स कैमरॉन की फिल्म 'अवतार' में दूसरे ग्रह पर गए इस धरती के लोग वृक्ष गिराते हैं तो एक पात्र कहता है कि वृक्ष कहीं गिराया जाए, सारे वृक्षों पर इसका बुरा असर पड़ता है। इस ग्रह पर किया गया अन्याय, धरती के वृक्षों को हानि पहुंचा सकता है। गोयाकि वृक्षों की रिश्तेदारी इंसानी रिश्तों से ज्यादा संवेदनशील है। एक अंधविश्वास के तहत किसी कन्या का विवाह पहले वृक्ष से किया जाता है, ताकि उसका वैधव्य योग वृक्ष सहे। बाद में शादी वर से कराई जाती है। बेचारे वृक्ष क्या कुछ नहीं सहते। १८५७ के गदर के बाद अंग्रेजों ने सैकड़ों हिंदुस्तानियों को पेड़ों पर लटकाकर मार दिया और आजाद हिंदुस्तान में अनेक गरीब किसान पेड़ पर लटककर आत्महत्या करते हैं।
बहरहाल, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने उस संक्षिप्त वक्तव्य में १९९१ के आर्थिक सुधार की बात की है। उस परिवर्तन के लिए जाने क्यों तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव को श्रेय नहीं दिया जाता, जबकि न केवल उद्योग मंत्रालय उनके अधीन था, वरन उस परिवर्तन के लेखक भी वहीं थे। बहरहाल उस परिवर्तन ने एक 'शाइनिंग इंडिया' दिया, परंतु विशाल भारत सतत अंधकार में है। आर्थि उदारवाद ने अनेक सामाजिक परिवर्तन भी प्रस्तुत किए, परंतु सामाजिक कुरीतियों और जातिवाद के जुल्म पहले की अपेक्षा अधिक मजबूत हुए। सबसे भयावह बात यह है कि सबसे विकराल कुरीति और अंधविश्वास भौतिकवाद अत्यंत मजबूत हो गया। उपयोगितावाद उसी की शाखा है और यह धारणा भी मजबूत हुई कि दुनिया में पैसे से अधिक महत्वपूर्ण कुछ नहीं है और अगर कुछ है भी, तो वह पैसे से खरीदा जा सकता है। इस आर्थिक उदारवाद ने इच्छाओं के घोड़ों को बेलगाम छोड़ दिया।
बहरहाल मौजूदा दौर में दो ही चीजें महत्वपूर्ण हैं - ट्री अर्थात वृक्ष और टेक्नोलॉजी; और इन्हीं से सारी व्याधियों का इलाज संभव है। सारे विरोधी दल भीतरी द्वंद्व से त्रस्त हैं और कांग्रेस अपनी हताशा से इतनी परेशान है कि अपने अच्छे कार्यों पर भी प्रकाश नहीं डाल पा रही है। आम जनता महंगाई से ज्यादा त्रस्त इस बात पर है कि उन्हें कहीं अवतारी नेता नजर नहीं आ रहा है।