पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
कबीर बहुत समझदार थे। उनको पहले से ही ज्ञात था कि पोथी पढ़ने से कोई आदमी पंडित नहीं बन सकता, मर भले ही जाए अथवा पागल हो जाए। सांसारिक लोगों को इन पोथियों से दूर ही रहना चाहिए। इधर पोथी पढ़ी और उधर परलोक के लिए प्रस्थान करने का टिकट तैयार। कबीर की वाणी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी कई सौ वर्ष पूर्व थी। इसका एकमात्र कारण पोथी न पढ़ना ही है। वे इसलिए खम ठोंककर कहा करते थे-"हम न मरहिं, मरहिं संसारा" , वे पढ़ाकू लोगों की दुर्गति से परिचित थे।
धन की बाढ़ में डूबा हुआ हमारा धनाढ्य वर्ग इस बात को अच्छी तरह जानता है। इसके घर में आपको कई नस्ल के कुत्ते मिल जाएँगे, दीवार पर टँगी मरे हुए शेर की खाल दिख जाएगी। मोची का काम न करने पर भी इन्हें खालों से बहुत प्रेम है। इनका अधिकतम समय निर्धन वर्ग की खाल खींचने में ही बीतता है। खाल में भुस भरा हुआ भेड़िया इनकी राउण्ड टेबुल पर खड़ा मिल जाएगा। ये इस जानवर को आत्मीय समझते हैं। इनके यहाँ गर्म फ़िल्मों और धरती तोड़ गानों के कैसेट मिल जाएँगे। इनकी ज़ुबान पर विदेशी लेखक (जिनका वहाँ कोई महत्त्व नहीं) कसरत करते रहेंगे। ये नाम इन्होंने शराब के नशे में 'नाइट क्लब' की बातों में सुने होंगे। पढ़ने का झमेला क्या मोल लिया जाए। पोथियाँ पढ़कर अकाल मृत्यु का ग्रास बन जाना पड़ेगा। पुस्तकें खरीदना बहुत बड़ा पाप है; पढ़ना उससे भी बड़ा।
श्री मूसलचंद पेशे से शिक्षक है। बी.ए. में इन्होंने कबीर के दोहे की सही व्याख्या पढ़ी थी, तभी से इनको पुस्तकों से एलर्जी हो गई। सिर्फ़ 'ढाई आखर प्रेम का' पढ़ लिया। तब से अब तक कई भद्र और अभद्र महिलाओं से अपना प्रेम निवेदित करके विभिन्न प्रकार की पिटाई का रसास्वादन कर चुके हैं। अभी तक इनकी आत्मा तृप्त नहीं हो सकी है। 'लम्पट शिरोमणि' की सार्वजनिक उपाधि पाकर भी इन्हें कोई अहंकार नहीं हुआ है। इनके विनम्र और विराट व्यक्तित्व की ही यह विशेषता रही है कि सांसारिक मान-अपमान भी इन पर खरोंच नहीं छोड़ पाया है। इनकी अलमारी में जो पुस्तकें रखी हैं, वे इनकी नहीं। इन्होंने समय-समय पर अनेक हितैषियों का भविष्य बचाने के लिए ये पोथियाँ अपने पास रख ली हैं। लौटाकर उनको संकट में क्यों डालते? ये किताबें खरीदने के बजाय भैंय खरीदना ज़्यादा अच्छा मानते हैं। वे दूध देने के साथ-साथ गोबर भी करती हैं। गोबर की खाद खेत की उर्वरा शक्ति बढ़ाती है। श्री मूसलचंद के अनुसार दिमाग़ के लिए गोबर की खाद उपादेय है।
कुछ साहित्यकार भी पुस्तकों के मामले में बहुत सावधान हैं। ये साहित्य की लीद करने में भले ही दिन-रात लगे रहें; लेकिन पढ़ने के संक्रामक रोग से अपने को बचाए रखते हैं। पुस्तकें पढ़ने से दूसरे साहित्यकारों के रोगाणु इनके मस्तिष्क में घुस सकते हैं। अगर किसी ने इनको किताब पढ़ते देख लिया, तो क्या सोचेगा वह? यही सोचेगा कि यदि इनकी गाँठ में कुछ ज्ञान होता, तो पढ़ने की ज़रूरत न पड़ती। इसे खालिस्तान और नखलिस्तान 'शब्द' में कोई भेद नज़र नहीं आता।
न पढ़ने के कई लाभ हैं। परिचित साहित्यकारों की पुस्तकें पढ़ने से मर्मान्तक पीड़ा होने लगती है। अच्छे लेखक के सामने अपना लेखन दो कौड़ी का लगने लगता है। ईर्ष्या की ज्वाला रोम-रोम को झुलसाने लगती है। मित्रता, शत्रुता में बदल जाती है। इससे बचने का यही उपाय है कि किसी का लिखा, पढ़ा ही न जाए। ऐसा करने से मन में हीन भावना नहीं आएगी। दूसरों की पुस्तकें पढ़ने का एक कारण यह भी माना जाता है कि आप स्वयं कुछ लिखने की स्थिति में नहीं हैं। अगर आप स्वयं लिखते होते तब पढ़ने की फुर्सत कैसे मिल सकती थी। इसलिए लेखन की व्यस्तता का रोब ज़माने के लिए यह कहना बहुत ज़रूरी है-"लिखने में इतना समय चला जाता है कि पढ़ने का समय ही नहीं मिल पाता।"
कबीर क्योंकि हिन्दी के कवि थे; अतः हिन्दी प्रकाशन पढ़ने के दुष्परिणाम से भली-भाँति परिचित हैं। ये पुस्तकों का दाम चार-पाँच गुना इसलिए रखते हैं कि पुस्तकें कुपात्र के हाथों में न पड़ें। जिसने जान हथेली पर रख ली हो, कबीर के शब्दों में-'सीस उतारे भुइँ धरै' अर्थात् जिसका इरादा आत्महत्या करने का हो, वही व्यक्ति पोथियाँ पढ़े। कोई समझदार व्यक्ति अपनी जान जोखिम में न डाले। आख़िर बीबी बच्चों को अनाथ छोड़कर चल देना कहाँ की समझदारी है? प्रकाशन अकेले ही इस पावन कर्म का सम्पादन नहीं कर सकता। इनमें वे आस्थावान् खरीददार भी शामिल हैं, जिन्हें चालीस प्रतिशत कमीशन चाहिए। कमीशन नहीं लेंगे, तो पुस्तकों में प्राण प्रतिष्ठा नहीं होगी। जो बेटी शादी के कुछ ही महीनों बाद जला दी जाती है, वह भी बाप के घर से हजारों रुपये लेकर आती है। जिस पुस्तक को कम से कम साठ-सत्तर साल तक ससुराल रूपी पुस्तकालय की 'शोभा' बढ़ाना है, उसे कमीशन की दहेज के बिना कौन पूछेगा?
फ़िल्मों में अधनंगे विज्ञापन, भुतहे महाराज की शोभा-यात्रा, नामर्दी का शर्तिया इलाज, कनफटे बाबा के नगर में आगमन की सूचना देने वाले पर्चे, राजनीतिक दलों द्वारा किया गया पोस्टर चिपकाऊ कार्यक्रम, बहुत सारे पोथी पढ़ने वालों की प्राण-रक्षा करते हैं।
यदि कोई निराश हो चुका हो, जीवन से तंग आ चुका हो और पढ़ने की लत छोड़ने में असमर्थ हो, उसके लिए कुछ सुरक्षात्मक उपाय ज़रूरी हैं-कभी खरीदकर पुस्तक न पढ़े, मुफ़्त में मिले तो पढ़े। ऐसी पुस्तकें पाठक को कम नुक़सान पहुँचाती हैं। माँगकर पढ़ना इससे भी उत्तम है; लेकिन इसके साथ एक शर्त है कि उस माँगी हुई पुस्तक को वापस न करें। कोई बेशर्म होकर माँगे, तो उसे प्रेमपूर्वक समझा दें-"मैंने पुस्तक आपको वापस कर दी थी। आप भूल गए।" ऐसा करने से आपको पड़ने वाला मिर्गी का दौरा बिना जूता सुँघाए दूर हो जाएगा। फ़्लैप पर जो लिखा हो, केवल उसे ही पढ़ें। आखिरकार जिसने यह फ़्लैप लिखा था, उसने भी पुस्तक कब पढ़ी थी? इस प्रकार पढ़ने से उदरशूल नहीं होगा, खट्टी डकारें नहीं आएँगी।
आज ऐसे भी लोग मिलेंगे, जो पोथी पढ़कर नहीं; बल्कि मोटे-मोटे ग्रन्थों को ड्राइंग रूम की अलमारी में सजाकर रखते हैं, ताकि आने वाले पर उनके बुद्धिजीवी होने का प्रभाव पड़े। ग़लती से यदि आपने पूछ लिया कि सामने करीने से सजी 'अमुक' पुस्तक में क्या है? तो उनका मासूम-सा उत्तर होगा-बहुत दिन पहले पढ़ी थी। आज तो याद नहीं। कुछ ऐसे पुस्तक-प्रेमी भी मिलेंगे कि जहाँ से मिले पुस्तक झटक लीजिए। पढ़ना तो दूर, जिसने डाकखर्च का भुगतान करके मुफ़्त में पुस्तक भेजी है, उसको प्राप्ति-सूचना भी नहीं देंगे। जो सूचना दें-'ऐसो को उदार जग माहीं।'
लेख आपने पढ़ ही लिया है। इसके बाद आपको यदि तन-मन का कोई विकार हो जाए, तो उसकी जिम्मेदारी मेरे ऊपर नहीं।