पौणा के हुड़के और गिरदा / गिरीश तिवारी गिर्दा
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लेखक:मदन चन्द्र भट्ट
डॉ. शेखर पाठक की इच्छा थी कि ‘पहाड़’ पत्रिका के प्रथम अंक के विमोचन (अक्टूबर 1983 ई.) के अवसर पर नगरपालिका हाल पिथौरागढ़ से बगवाल की ‘कट्कु’ शैली का ‘हुड़क्याबौल’ प्रारम्भ किया जाये जो पुरानी बाजार से के.एम.ओ.यू. स्टेशन तक जाकर लौटे और वहाँ से नई बाजार होते हुए जिला परिषद हॉल में जाकर समाप्त हो। कत्यूरियों के महर और फर्त्याल धड़ों की तरह विमोचन समारोह के लिये उत्तराखंड के विविध स्थानों से पिथौरागढ़ पहुँचे लेखक, शोध छात्र और पर्यटक जूलूस में चले। उस हुड़क्याबौल में थोकदारी परम्परा के दो हुड़के बजाते हुए ‘गिर्दा’ अपनी प्रसिद्ध कविता- ‘हम ओढ़ बारुडि़’ गाये।
लगभग वही दृश्य उत्तराखंड की नई पीढ़ी के सामने बिम्ब के रूप में दिखायी दे जो 1458 ई. में ‘शोर देश’ के रजबार ‘प्रतापबम’ आत्मज ‘शक्तिबम’ के समय ‘भड़कट्या’ में बगवाल खेलने के लिये चम्पावतीगढ़ का राजकुमार रतनचन्द और डोटीगढ़ का राजकुमार नागमल के दलबल सहित आने पर पिथौरागढ़ में उस समय निवास करने वाली जनता ने देखा होगा। सुमेरू संग्रहालय में राजा विजयबम (1420-1430 ई) के समय के दो हुड़के थे लेकिन ‘गिरदा’ के बजाने के लिये मैंने पौणा गाँव से थोकदारी परम्परा के दो हुड़के मंगवाये। उन्हें बजाकर ‘गिरदा’ का अन्तस गदगद हो गया। विमोचन स्थल में ज्यों ही मैंने ‘गिरदा’ से लेकर वे दोनों हुड़के अपने जेयष्ठ पुत्र राहुल को घर ले जाकर रखने को दिये तो ‘गिरदा’ ने तरह-तरह के प्रश्नों की मुझ पर वर्षा कर दी।
डॉ. शेखर पाठक द्वारा ‘पहाड़’ के प्रथम अंक के विमोचन समारोह के लिये घोषित मुख्य अतिथि की अब तुरन्त स्थानीय स्तर पर व्यवस्था करनी थी। पिथौरागढ़ सीमान्त और सैनिक बहुल क्षेत्र होने से यहाँ ‘पहाड़’ जैसी शोधपरक पत्रिका के विमोचन के लिये किसी अधिकृत विद्वान का मिलना संभव नहीं था। केवल एक व्यक्ति विमोचन के मुख्य अतिथि हो सकते थे- राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय के प्रधानाचार्य डॉ. कृष्णानन्द जोशी लेकिन वे ‘पहाड़’ के ‘उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी’ की पत्रिका समझने के भ्रम में पिथौरागढ़ से छुट्टी लेकर अपने घर नैनीताल चले गये थे।
डॉ. शेखर पाठक का पत्र मिलते ही उन्हें लगा कि जिस तरह अल्मोड़ा और नैनीताल में ‘उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी’ सक्रिय है। अब पिथौरागढ़ में भी अपने पाँव पसारेगी। डॉ. ललित पन्त ने ‘बिणा’ गाँव से स्वतंत्रता सेनानी श्री लक्ष्मणसिंह महर को बुलाकर मुख्य अतिथि की समस्या सुलझायी। हुड़के पर मैंने ‘गिरदा’ के प्रश्नों के उत्तर दिये। चूँकि ठेकी, बिण्डे की तरह अस्कोट के बनरौत हो ‘हुड़के’ की लकड़ी बनाते थे अतः पिथौरागढ़ जनपद ही हुड़के की मूलभूमि रही है। वनरौतों को संस्कृत में ‘किरात’ कहा जाता है अतः हुड़का प्राचीन किरात जाति का वाद्य रहा है। पांचवी सदी के तालेश्वर ताम्रपत्र में ‘हुड़कसूना’ (हुड़क्या) शब्द का प्रयोग है अतः कोशी नदी के किनारे हवलबाग के समीप ब्रह्मपुर में हुड़का बजाया जाता था।
नैतीताल समाचार से साभार