प्यार की जीत / कुबेर
आखों की नीयत भांपने का औरतों में ईश्वर प्रदŸ गुण होता है। अतः देवीजी की नजरों में मैं एक सद्चरित्र व्यक्ति हूँ, ऐसा दावा करने की मुझमें हिम्मत नहीं। यह अलग बात है कि सामाजिक तौर पर मेरा चरित्र कभी लांक्षित नहीं हुआ है।
देवीजी का चारित्रिक पहलू मेरे लिये सदैव रहस्यमय रहा है। अनेक अवसरों पर उनके व्यवहार की असामान्यता और उनकी आँखों से छलकता प्यार मुझे अभिसार हेतु आमंत्रित करता प्रतीत होता है। मेरा यह आकलन मेरा वहम भी हो सकता है।
मेरी एक स्थापित दुनिया है, जिसके प्रति निष्ठावान होना न सिर्फ मेरा कर्तव्य है, अपितु मेरा सामाजिक दायित्व भी है। सामाजिक मान्यताओं और विश्वासों का उलंघन मेरे लिये आत्महत्या के प्रयास जैसा है। यही परिस्थितियाँ शायद देवीजी के भी समक्ष आती होंगी। यही वजह है कि हम दोनों के लिये एक दूसरे के चाक्ष्विक आमंत्रण का अभिप्रेत समझने का प्रयास करना भी शिष्टता का उलंघन करने जैसा है।
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उस दिन देवी जी काफी प्रसन्न दिख रही थी। व्यवहार सहज और सरल था। प्रसन्नता प्रकृति का दिया हुआ वह अनुपम श्रृँगार है जिससे, अंग-अंग निखरकर, अलौकिक सौंदर्य की सृष्टि होता है। चेहरे पर उषाकाल में सद्यविकसित शीतसिक्त गुलाब की ताजगी और उसके परागकोशों से निकलने वाली मीठी-मीठी महक की प्रतीति हो रही थी। मुस्कुराते हुए उसने कहा - “कविजी, आज तो आप काफी खुश नजर आ रहे हैं।”
शायद वह मेरी नहीं, अपनी खुशी की बात कर रही थी। सुख या दुख की स्थिति में व्यक्ति संसार रूपी दर्पण में अपने ही मनःस्थिति की प्रतिच्छाया देखता है। उसके रूप सौंदर्य की मायाजाल में उलझा मैं, इस प्रश्न से बौखला सा गया। मैंने सोचा, देवी जी को छेड़ने का इससे बेहतर अवसर फिर नहीं मिलेगा। स्वयं को संयत करते हुए मैंने कहा - “हाँ, रात में सुंदर सपना जो देखा है।”
“सपना और आप?” उसने हँसकर कहा - “किसी नई कहानी का प्लाट तो नहीं सोचा।”
“सचमुच का सपना। क्या मुझसे सपनों को अदावत है?”
“सपने आते हों तो ठीक है, लेकिन देखें जाय, यह ठीक नहीं है। खैर सुनाइये अपनी खुशी का राज।” उसने कहा।
“तो सुनिये,” मैंने कहा - “मैं रेल में सफर कर रहा था, किसी अज्ञात मंजिल की ओर। सब कुछ वैसा ही था जैसा भारतीय रेलों में होने चाहिए। मसलन भीड़, धक्कम-धक्का, तू-तू मैं-मैं, सीट के लिये मारामारी, भिखारी, गंदगी आदि। रेल अपनी पूरी गति से दौड़ रही थी। मेरे हाथों में पुश्किन की कहानियों की एक अनूदित रचना थी। परन्तु काफी प्रयास करने पर भी ध्यान किताब में केन्द्रित नहीं हो पा रहा था।
रात काफी हो चुकी थी। बगल वाली सीट पर अंत्याक्षरी खेलने वाला परिवार और दूर वाली सीट पर राजनीति से धर्मनीति तक वाद-विवाद करने वाले बुद्धिजीवी सज्जनों की मंडली बिखर चुकी थी। सभी लोग सो चुके थे। सिर्फ अकेली उस महिला के जो दूर वाली सीट पर बैठी थी और न जाने कब से मुझे घूर रही थी। कुछ देर सब कुछ सामान्य रहा। चोर निगाहों से यदाकदा मैं भी उसकी ओर देख लेता। परंतु काफी समय बीत जाने के बाद भी जब उसका मुझे घूरना उसी तरह जारी रहा तो मुझे दहशत होने लगी। उनकी बेधती हुई निगाहों से बचने के लिये मैं सोने का प्रयास करने लगा, परन्तु आँखों से नींद गायब थी।
वह अभी भी मुझे अपलक घूरे जा रही थी। हिम्मत बटोरकर मैं भी उसे घूरने का प्रयास करने लगा। उसके चेहरे पर न तो कुँआरेपन की ताजगी थी, न माथे पर सुहाग की निशानी और न ही व्यक्तित्व पर वैधव्य की नीरसता। उसका चेहरा भाव शून्य था। परन्तु वह अत्यंत रूपवती थी। उसके व्यक्तित्व में अजब सा आकर्षण था।”
सपने की विस्मृत कड़ियों को मिलाने का मिथ्या अभिनय करते हुए थोड़ी देर के लिये मैं चुप हो गया। मेरे सपनों की इस कहानी को देवी जी शायद पूर्ण मनोयोग और तन्मयतापूर्वक सुन रही थी। मेरा एकाएक इस तरह चुप हो जाना उसे अच्छा नहीं लगा होगा। उसने अपनी जिज्ञासा को छिपाते हुए कहा - “फिर क्या हुआ?”
मैंने कहा - “शायद उसके मायावी आकर्षण के खिंचाव का प्रतिरोध मैं नहीं कर पा रहा था। मैं स्वयं को असहज और असहाय महसूस कर रहा था और उसकी ओर खिंचता चला गया। मुझे अपने पास पाकर उसने हँस कर कहा - “आखिर आपने मुझे पहचान ही लिया।”
उसकी वाणी में मधु की मधुरता, मय की मादकता और फूलों की कोमलता थी। वह मुझसे प्रश्न कर रही थी अथवा अपने कथन की पुष्टि चाह रही थी, मैं समझ न सका। हड़बड़ाहट में मैंने कहा - “आपको गलतफहमी हुई है। अब से पहले हम कभी नहीं मिले हैं।”
“गलतफहमी और मुझे? नहीं, नहीं .....।” उसके चेहरे पर अवसाद की रेखाएँ उभर आई। लेकिन उसने पहले से भी दृढ़ परन्तु कातर स्वर में कहा - “क्या सब कुछ भूल गये।”
“सब कुछ? बकवास बंद करो और सो जाओ। रात काफी हो चुकी है।” मैंने बौखलाकर कहा।
परंतु जैसे उसने मेरी बातें सुनी ही नहीं। बोलते-बोलते वह शून्य में कहीं खोती चली गई। अब उसकी आवाज जैसे दूर, बहुत दूर, क्षितिज पार से आ रही हो। वह बोल रही थी - “दोष आपका नहीं, समय का है, समय का। याद करो, मैं हूँ तुम्हारी पत्नी परिणीता और तुम हो मेरे पति, परेश। याद करो, याद करो।”
जिस विश्वास और दृढ़ता से वह अपनी बातें मुझ पर प्रक्षेपित कर रही थी, मेरा मन उनकी बातों को शायद स्वीकार कर भी लेता। परंतु मैं जानता था कि हकीकत से इन बातों का कोई वास्ता नहीं है, हो ही नहीं सकता था। दृढ़तापूर्वक मैं अपने उस विचार को झटक कर दूर फेंकने का प्रयास करने लगा और बड़ी मुश्किल से ही सही, अंततः अपने प्रयास में सफल भी हुआ। मैंने कहा - “आप होश में तो हैं? न मैं आपका पति हूँ और न ही आप मेरी पत्नी।”
परंतु न जाने वह किस दुनिया में खोई हुई थी, कुछ भी नहीं सुन रही थी। और “याद करो, याद करो, पिछले जन्म में आप मेरे पति थे और मैं आपकी पत्नी। अपने कदमों में मुझे थोड़ी सी जगह दे दो, बस थोड़ी सी।” कहते हुए वह मेरे कदमों में गिर पड़ी।
“.............?”
“फिर क्या हुआ?”
“फिर, क्या होना था, सपना ही तो था, टूट गया।”
“हाऊ ट्रैजिक। पर इसमें ऐसी तो कोई बात नहीं कि खुश हुआ जाय।”
“है देवी जी, खुश होने का पूरा कारण यहाँ है।”
“बट व्हाट?”
“यह कि उस औरत की सूरत, आपकी सूरत से हू-ब-हू मिलती थी।”
मेरी इस अप्रत्याशित टिप्पणी को सुनकर वहाँ उपस्थित सभी लोग खिलखिलाकर हँस पड़े। देवी जी का चेहरा तमतमा उठा। गुस्से से अथवा लाज से, पता नहीं।
किसी को अपमानित करने वाली टिप्पणी करना अपराध ही है। अपना अपराध स्वीकार करते हुए मैंने कहा - “माफ करना देवी जी, लेकिन वह आप नहीं हो सकती। इसके लिए चाहें तो आप मुझे सजा दे सकती हैं।”
उस दिन के बाद देवी जी ने जैसे हँसना ही छोड़ दिया था। उसने मुझसे बातें करना बंद कर दिया था। शायद मेरे लिये उसने यही सजा तय किया हो।
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काफी दिन बीत गए। मुझे दुख हुआ। देवी जी के साथ ऐसा अपमान जनक मजाक मुझे नही करना चाहिये था। देवी जी को फिर से किसी बात पर छेड़ सकँू, इतनी हिम्मत अब मुुझमें नही थी। फिर भी, ऑफिस में काम करते वक्त कभी-कभी हम लोग एक दूसरे को चोर निगाहों से देख ही लेते थे, और अपनी चोरी पकड़े जाने पर झेंप भी जाते थे। स्थिति शायद सामान्य होने लगी थी।
ऑफिस का समय समाप्त हो चुका था। सब लोग जा चुके थें वह अभी भी फाइलों में डूबी हुई थी। चपरासी अपने काम में व्यस्त था। अपने उस मजाक के लिये क्षमा मांगने का यह मुझे अच्छा अवसर लगा। उसके करीब आकर क्षमा मांगते हुए मैंने कातर स्वर में कहा - “उस मजाक के लिये क्या आप मुझे माफ नहीं करेंगी? यकीन मानिए, मैं आपका दिल दुखाना नहीं चाहता था। मुझे मालूम होता कि मेरा वह मजाक आपकी हँसी छीन लेगा तो ऐसा बेहूदा मजाक मैं हरगिज नहीं करता।”
“कविजी, एक बात पूछेँ?” चुप्पी तोड़ते हुए और दृढ़तापूर्वक मुझे घूरते हुए उसने कहा। उसका यह घूरना सपने वाली उस औरत के घूरने जैसा ही था।
“पूछिये।”
“वह मैं क्यों नहीं हो सकती?” उस दिन आपने क्यों कहा कि वह मैं नहीं हो सकती। बताइये?”
“...........।”
“बताइये मैं परिण्ीता और आप परेश क्यों नहीं हो सकते?” उनकी निगाहें शून्य में न जाने क्या तलाश कर रही थी। वह बोल रही थी - “वह सपना उस दिन केवल आपने ही नहीं, मैंने भी देखी थी। बिलकुल वही सपना। वही सपना। कवि जी, निःसंदेह आप परेश ही हैं और मैं परिणीता ही हूँ।”
“..............।”
“लेकिन इस जन्म में नहीं, पूर्व जन्म में। कविजी, आइये ईश्वर से दुआ मांगें कि अगले जन्म में मैं फिर परिणीता होऊँ और आप परेश।”
“....................।”
“पर भगवान के लिये इस जन्म में मैं देवी हूँ, मुझे देवी ही रहने दीजिये; और आप कवि हैं, आप कवि ही रहिये। इसी में हमारे प्यार की जीत है और पवित्रता भी। इसी में मुक्ति है, मेरी भी और आपकी भी।”