प्रकाशिका / आचार्य कुबेरनाथ राय

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

'झूठा भय और मिथ्या अभिमान' शीर्षक पुस्तिका में स्वामी जी ने भूमिहार ब्राह्मण समाज को पुरोहिती पेशे को ग्रहण करने की प्रेरणा दी है। भूमिहार ब्राह्मण पुरोहिती नहीं करते क्योंकि उनके मन में कुशिक्षा और अंधा संस्कार के कारण एक धार्मिक 'भय' है कि जिस काम को बाप-दादों ने कभी नहीं किया उसे करने में कोई क्षति न हो जावे, अथवा उनके मन में मिथ्या अभिमान है कि हम तो भू-स्वामी या उच्च पदस्थ हैं, हम ऐसे पेशे को क्यों ग्रहण करें जिसकी प्रथम शर्त ही दान लेना है और शास्त्र भी कहता है 'पुरोहिती कर्म अति मंदा!' स्वामी जी ने इस पुस्तिका में दोनों प्रकार की मनोवृत्तियों की असारता को बताते हुए भूमिहार ब्राह्मण युवावर्ग का आवाहन किया है कि वे निर्भीक हो कर पूरे स्वाभिमान के साथ पुरोहिती करें और इसकी तैयारी के रूप में संस्कृत भाषा और संस्कृत-शास्त्र का अध्ययन करें! तर्क और शास्त्र प्रमाण जो कहें परंतु शेष जनसामान्य के मन में यह समीकरण दृढ़तापूर्वक बैठ गया है कि ब्राह्मण वही है जो पूजा-पाठ करे और पुरोहिती करावे। अत: आवश्यकता है अपने को भी उसी जनविश्‍वास के अनुकूल बनाने की। 'झूठा भय और मिथ्या अभिमान' की संक्षेप में यही 'थीम' है। इसी बात को स्वामी जी ने अपने भाषण में जो 'महासभा के कर्तव्य' शीर्षक से छपा है, पुन: दोहराया है : 'कोई समय था, जब पुरोहिती न करने में गर्व था - इसे न करने की महत्ता हिंदू समाज सामान्यत: और ब्राह्मण मात्र विशेषत: समझते थे। साथ ही, पुरोहिती को निंदित समझ त्याग करनेवाले नौकरी, सूदखोरी, जालसाजी, चापलूसी, वकालत, मुखतारी, मुकदमे की पैरवी आदि घृणित उपायों द्वारा धन-संग्रह का नाम भी लेना महापाप समझते थे। इसके साथ ही उन्हें वेदशास्त्र पढ़ाने और पढ़ने एवं शिल, उछ, कृषि आदि का गर्व था। एक बात और भी थी। वह यह कि पुरोहिती ब्राह्मणता के गले में बाँध कर लटकाई नहीं गई थी। यह नहीं था कि जो पुरोहिती न करे वह ब्राह्मण ही नहीं। मगर आज यह सब बातें उलटी हैं। आज ब्राह्मणों का जो समाज पुरोहिती से शून्य हो वह ब्राह्मण माना ही नहीं जा सकता। ब्राह्मणता का एकमात्र चिह्न यही रह गया है। चाहे कोई ब्राह्मण ऐसा न भी करता हो, परंतु यदि समय पर ऐसा न कर ले या करने को तैयार न हो जावे तो वह ब्राह्मणता से अलग कर दिया जावेगा। यही हिंदू-समाज की आज धारणा है और आप में शक्‍ति नहीं कि इसे बदल सकें-कम से कम तब तक जब तक कि आप स्वयं पुरोहिती न कर लें। साथ ही, पूर्व सैकड़ों पतित और घृणित उपायों से जब आप धनार्जन करने में जरा भी नहीं हिचकते जो ब्राह्मणों के लिए कभी भी उचित नहीं है, तो फिर आपको यह कहने का मुख नहीं हो सकता कि हम पुरोहिती नहीं कर सकते, वह नीच कर्म है। क्योंकि पुरोहिती तो अन्ततोगत्वा ब्राह्मण का ही धर्म है, फिर वह चाहे आपत्तिकाल के ही लिए क्यों न हो ओर इससे बढ़ कर आपत्तिकाल और क्या हो सकता है? यहाँ आपकी जाति की रक्षा ही इसी से हो सकेगी। आपको शास्त्र के पढ़ने-पढ़ाने का गर्व भी अब कहाँ है? वह भी तो इसी पुरोहिती के साथ चला गया। यदि आप फिर उस अभिमान को लाना चाहते हैं, तो अपने समाज में पुरोहिती को स्थान दीजिए।'

स जातो येन जातेन
याति वंश: समुन्नतिम्।

परिवर्तिनि संसारे
मृत: को वा न जायते॥