प्रकाश झा की फिल्म 'चक्रव्यूह' से जुड़े सवाल / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाश झा की फिल्म 'चक्रव्यूह' से जुड़े सवाल
प्रकाशन तिथि : 27 अगस्त 2012
प्रकाश झा की 'चक्रव्यूह' को रिचर्ड बर्टन और पीटर ओ टूल अभिनीत 'बैकेट' तथा इससे प्रेरित राजेश खन्ना व अमिताभ बच्चन अभिनीत 'नमक हराम' की तरह की फिल्म बताया जा रहा है, जिसमें नक्सलवादियों से मिलने के बाद उनकी तरफ से अपने मित्र से लडऩे वाले व्यक्ति की कथा है। गोयाकि दुश्मन-दोस्त या कहें कि दोस्त-दुश्मन की कथा है। दो मित्र एक ही लड़की से प्यार कर बैठते हैं, तो उनके बीच जंग की कहानी या एक-दूसरे के लिए त्याग करते हुए लड़की को फुटबॉल बनाने की कहानियां प्राय: बनती रही हैं। सलीम-जावेद की 'दोस्ताना' भी वकालत और पुलिस व्यवसाय में काम करने वाले दो ऐसे मित्रों की कहानी है, जो बाद में दुश्मन हो जाते हैं। यह पहाड़ों की तरह पुरानी कहानी है, अत: प्रकाश झा पर नकल का आरोप मिथ्या है। लंबे समय तक महात्मा गांधी के अनुयायी रहे मोहम्मद अली जिन्ना कमाल अतातुर्क की तरह आधुनिक मुस्लिम देश बनाने के ख्वाब में उनके विरोधी हो गए और आज शायद दोनों ही जहां कहीं भी हों, अपने देशों की हालत देखकर रो रहे होंगे या शायद एक-दूसरे के गले लगकर विलाप कर रहे हों।
बहरहाल, प्रेम के लिए या किसी सिद्धांत के लिए मित्र एक-दूसरे के खिलाफ हो जाएं, तो उत्तेजना जगाने वाली परिस्थितियों का जन्म होता है और इस तरह के द्वंद्व फिल्मकारों को बहुत कच्चा माल उपलब्ध कराते हैं। दर्शक की भावना का विरेचन भी होता है। दोस्त-दुश्मन तंदूर में अच्छी रोटियां सेंकी जा सकती हैं। हिंदुस्तान के नक्शे पर अगर नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्र को लाल रंग से दिखाएं तो नक्शा रक्तरंजित नजर आएगा। यह विषय अत्यंत गंभीर है और बात महज समान अवसर नहीं मिलने या शोषण तक सीमित नहीं है। उनका मानना है कि उनकी आजादी की जंग अभी जारी है, गोयाकि वे मनुष्य के समान अधिकार के सिद्धांत को अभिव्यक्त करने वाले वाक्य में १९४७ को महज अद्र्धविराम मानते हैं। वह न तो फुलस्टॉप है और न ही कोई नई सुबह। उनका यह विश्वास है कि वह सुबह कभी तो आएगी।
आदिवासी लोग आबादी का लगभग ९ प्रतिशत हैं और दलित लगभग १७ प्रतिशत। अन्य पिछड़ी जातियों के वर्ग का समावेश कर लें तो यह आबादी का लगभग आधा हिस्सा हो जाता है। नक्सलवाद के प्रभाव में लगभग २५ फीसदी आबादी है। आदिवासियों के संघर्ष का इतिहास तो आर्य-अनार्य द्वंद्व तक जा सकता है। गौरतलब यह है कि द्वंद्व उनकी जीवनशैली है। उन्हें तो सांस लेने के लिए भी संघर्ष करना होता है। हमारी महानगर-केंद्रित नीतियों ने जंगलों को साफ कर दिया, जो आदिवासियों के जीवन का आर्थिक आधार सदियों से रहा है। क्या कोई सरकार कभी उनके 'आधार' कार्ड बना पाएगी? सारी केंद्रीय और प्रांतीय सरकारें उनके प्रति उदासीन रही हैं और भेजी गई सहायता बिचौलियों ने हथिया ली है। अत: नक्सलवाद से उलझने वाले यह याद रखें कि संघर्ष उनकी जीवन शैली रही है और वे निहत्थे होकर भी लड़ सकते हैं। नक्सली हिंसा को रोकने के प्रयास के नाम पर सात-आठ वर्ष के दर्जनों अबोधों को मार दिया गया है। जहां-जहां ये रक्तबीज पड़े हैं, वहां-वहां उनके वृक्ष बनने में समय लगेगा। हमारी अंधी व्यवस्था नए किस्म का पौधारोपण कर रही है।
इस मानवीय समस्या पर गहन शोध के बाद ही फिल्म बनाई जा सकती है यह संभव है कि प्रकाश झा और उनके साथियों ने गहन अध्ययन किया हो और यह भय भी है कि उनकी 'आरक्षण' की तरह कोई सतही कृति न बन जाए। यह विषय 'दामुल' बनाने वाले प्रकाश झा की मांग करता है। सफलता स्वयं एक चक्रव्यूह है।
महाभारत के चक्रव्यूह में अभिमन्यु घुस तो गया था, पंरतु मां के पेट में इतना ही सीख पाया क्योंकि जब अर्जुन जब उसे भंग करने के गुर सिखा रहे थे, तब तक उनकी भार्या को नींद आ गई थी। चक्रव्यूह में एक घेरा जिस दिशा में गोल घूमता है, उसके भीतर वाला विपरीत दिशा में गोल घूमता है, अत: प्रवेश के लिए जगह ही नहीं बचती। इसी तरह सारी व्यवस्थाओं के दमन-चक्रों की भी बुनावट है। द्रोणाचार्य ने इसकी बुनावट बहुत बारीकी से की थी। आज शोषण करने वाले और बिचौलियों की बुनावट भी कुछ ऐसी ही है। सारे राजनीतिक दल इस मामले में समान रूप से दोषी हैं।
बहरहाल, कुछ समय पूर्व ही हॉलीवुड की 'डिसेप्शन' में भी पुलिस का एक आदमी अपराध जगत में शामिल है और अपराध जगत का एक आदमी पुलिस में रोपित किया गया है और इनके आमने-सामने आने की कथा है। यह सशक्त जमीन है एक ठोस फिल्म खड़ी करने की। इसी तरह की कथाएं नए कलाकारों को सितारा बनने का अवसर देती हैं।
हमारे दोहन और शोषण का यह हाल है कि हमने अनेक गीत भी चुराए हैं, उनके संगीत के आधार पर भी रचनाएं करके लोगों ने धन बटोरा है। उनकी परंपराओं और रीति-रिवाजों की भौंडी नकल करके नगरों में कई लोगों ने स्वयं को कला विशेषज्ञ बना लिया है। धूमिल कहते हैं- 'एक आदमी रोटी बेलता है, एक आदमी रोटी पकाता है। एक तीसरा आदमी भी है, जो न रोटी बेलता है, न पकाता है। वह तीसरा आदमी कौन है, मेरे देश की संसद मौन है।' धूमिल यह भी कहते हैं- 'लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो। उस घोड़े से पूछो, जिसके मुंह में लगाम है।'