प्रकाश स्तम्भ: डॉ. महाराज कृष्ण जैन / सुकेश साहनी
मैं भी उन असंख्य भाग्यशाली लोगों में से एक हूँ, जिनको डॉ. साहब का भरपूर स्नेह और मार्गदर्शन मिला। उनकी पुण्य तिथि पर उन्हें स्मरण करते हुए उनके कार्याँ को आगे बढ़ाने का संकल्प लेना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी, अतीत की जुगाली करते रहने से डॉ. जैन को चिढ़ थी-
दिनांक 5.1.94
भाई सुकेश जी,
नव वर्ष पर आपने हमें स्मरण किया। कृतज्ञता स्वीकारें।
जीवन का बहुत बड़ा अंश हम अतीत की जुगाली करने में निकाल देते हैं। यदि वर्तमान के प्रत्येक क्षण को हम नई कल्पना, नए लक्ष्यों, नये उपक्रमों, नए आयोजनों सहित जीने का संकल्प लें तो यह वास्तव में बहुत सुन्दर हो जाए।
हमारी हार्दिक मंगल कामनाएँ।
आपका
म.कृ.जैन
तारिका के माध्यम से न जाने कितने लेखकों को प्रकाश में लाने का श्रेय उन्हें जाता हैं। हम मित्रो के बीच, डॉ. जैन द्वारा किसी रचना को प्रकाशनार्थ स्वीकृत करना उस रचना के स्तरीय होने की पहचान बन गई थी। वे कमजोर रचना को लौटाने में देर नहीं करते थे, वहीं स्तरीय रचना की दिल खोलकर प्रशंसा करते हुए लेखक को प्रोत्साहित भी करते थे-
दिनांक 12.7.92
भाई सुकेश जी,
10 दिन के प्रवास से लौटने पर फाइल में आपका पत्र व रचनाएँ मिली। रचनाओं में आपके विषय चयन का मेरी दृष्टि में ऐतिहासिक महत्त्व माना जाएगा। शिक्षाकाल में आपने शिल्प में भी नया प्रयोग किया है। लघुकथा को आपकी देन अविस्मरणीय रहेगी। मैं इन दोनों कथाओं को टिप्प्णी सहित एक साथ छापूँगा, शीघ्र। साधुवाद स्वीकारें। आपके दर्शनों की इच्छा और बलवती हो रही है कभी आइए न! आपकी तारिका गुम होने का राज समझ से बाहर है, संदेहजनक तो है ही। वैसे इस बार तो 20 के लगभग प्रतियाँ बिना रैपर वापिस आ गई पुनः भेज रहे हैं। क्षमा करें। काम्बोज जी को अभिवादन कहें।
सस्नेह
आपका
म.कृ.जैन रचना वापसी के साथ उनका यह पत्र भी देखें-
दिनांक 10.2.01
प्रिय श्री सुकेश जी,
लम्बे अर्से से आपसे सम्पर्क नहीं हो पाया है। आप सोचते होंगे कहानी की बाबत हम चुप क्यों हो गए। चुप होने वाली बात नहीं है। इस बार सर्दी यहाँ बहुत भीषण रही। कुछ मुझे ठंड अधिक परेशान करती है। पेट की तकलीफ ने भी बहुत दुखी रहा। इसी से कुछ काम नहीं हो सका। बमुश्किल तारिका छापते रहे।
उर्मि अब लगभग स्वस्थ है। बीस ड्रिप पूरे हो गए हैं। आगे के लिए डॉक्टर ने उन पर छोड़ दिया है। सोचते हैं कि चार-छह हफ्तों के अंतर से कुछ ड्रिप और लगवा लें। यह स्वास्थ्य पर निर्भर होगा। कुल मिलाकर चिकित्सा सफल रही।
आपकी कहानी कल पढ़ पाया। आपने बिल्कुल नया विषय उठाया है। इस ख्याल से महत्त्वपूर्ण है;
किन्तु कथा तत्व की दृष्टि से उतनी ऊँची नहीं लगी। अतः इसे लौटा रहा हूँ। कृपया कोई और रचना दें।
समकालीन साहित्य समाचार में लघुकथा गोष्ठी में आपके नाम का ससम्मान उल्लेख पढ़ा। अच्छा लगा।
अपने समाचार दे।
आपका
म.कृ.जैन
डॉ. जैन सभी से बहुत सहज होकर मिलते थे, अपने से छोटों को भी भरपूर सम्मान देते थे। मैं और भाई रामेश्वर काम्बोज उनसे मिलने गए थे। वे और उर्मि जी बहुत प्रेम से मिले, खूब साहित्य-चर्चा हुई. इतना स्नेह मिला कि हमें स्टेशन पर तीन चार घंटे बर्बाद करने का पछतावा हुआ। लौटने पर डॉ. साहब का पत्र मिला- दिनांक 6.11.92
भाई सुकेश जी
रचना मिली। रामेश्वर जी का पत्र भी आया है। उस दिन आप लोगों से मिलकर बहुत अच्छा लगा। समय की कमी अखर गई. फिर कभी एक दो दिन को आएँ। तारिका मिलने लगी है। हमारा सौभाग्य है। नया अंक शायद ऑफसैट पर दें।
'स्कूल' देखने भर को लघुकथा है वरना यह एक पूरी गाथा ही अपने भीतर समेटे है। मैं आपकी लेखनी पर, आपकी दृष्टि पर मुग्ध हूँ। कथा हम छापेंगे। मेरा पुनः निवेदन है कि आप कहानियाँ भी लिखें।
म.कृ.जैन
शुभ तारिका एवं विभिन्न कार्यशालाओं को लेकर उनकी दृष्टि बिल्कुल साफ थी। ऋषिकेश शिविर में शिक्षक के रूप में भाग लेने हेतु मुझे निमंत्रण मिला था-
दिनांक 22.4.94
भाई सुकेश जी,
पिछले पत्र के क्रम में कार्यशाला का निमंत्रण संलग्न है। बिल्कुल नए लघुकथा लेखकों की दृष्टि से कुछ बिन्दु सोच रखें। कोरी सैद्धांतिक चर्चा या लघुकथा का इतिहास या खेमेबाजी से हमें बचना होता है। बिल्कुल व्यावहारिक ठोस सुझाव चाहिए. ये यथासंभव प्रतिभागियों की कथाओं पर ही दृष्टांत बना कर लेते हैं।
तारिका का नया अंक एक-दो दिन तक भेज रहे हैं।
सानन्द होंगे।
आपका
म.कृ.जैन ऋषिकेश शिविर में चार दिन तक डॉ. जैन के सत्संग में रहने का अवसर मिला। आँखों के आगे एक चित्र बार-बार आ रहा है...शाम का समय, आश्रम में गंगा किनारे बैठे डॉ. जैन, उर्मि जी और मैं...नदी में डुबकियाँ लगाते सैन्नी अशेष। प्रकृति की अद्भुत छटा को मानो आँखों के माध्यम से ही अपने भीतर समा लेना चाहते थे डॉ. जैन। रात में जैन साहब दवा लेकर जल्दी सो जाते थे। एक दूसरे की रचनाएँ सुनने सुनाने का सिलसिला देर तक चलता था, जिसकी कमान उर्मि जी ने थामी होती थी-
दिनांक 4.7.94
भाई सुकेश जी,
आपका प्यारा पत्र मिला। जितनी मीठी आप बातें करते हैं वैसा ही।
शिविर में आप से मिलकर बहुत अच्छा लगा। भेंट तो पहले भी हुई थी, तब अधिक बातें नहीं हो पाई. मैं पत्र लिखता किन्तु 18 जून को लौटा। कुछ दिन थकान उतारने और तबीयत को सम्भालने में लग गए. कार्यशाला में आपके योगदान के लिए मात्र धन्यवाद कहकर क्षण मुक्त नहीं हुआ जा सकता।
वहाँ मिलन शिविर का विचार सामने आया था। इस पर गौर करें। पत्र दें।
आपका
म.कृ.जैन
शुभ तारिका से जुडे लोगों को डॉ. जैन अपने परिवार का अंग मानते थे। उनके सुख-दुख, सफलता-असफलता में जहाँ तक बन पड़ता था, साथ देते थे। रमेश बतरा और मैंने 'किस्सा' नामक मासिक पत्रिका निकालने का निर्णय लिया था। इस निर्णय से मैंने ड़ॉ। साहब को भी अवगत कराया था, जिस पर उनकी दो टूक राय मिली थी-
दिनांक-1.4.94
भाई सुकेश जी,
रमेश जी को मुझे पत्र लिखना ही था। जया का पत्र आया था। यह मैंने लिख दिया है। इनकी ओर से मैं चितिंत हूँ रमेश को अधिक व्यावहारिक और यर्थावादी होना चाहिए. 'किस्सा' ज़रूर निकले। आप और रमेश जो निकालेंगे, वह अवश्य पठनीय होगा; पर फिलहाल रमेश को नई आजीविका को प्राथमिकता देनी चाहिए. ऐसा मैं सोचता हूँ। पत्र देते रहें।
आपका
म.कृ.जैन
यह उन दिनों की बात है जब मैं कतिपय कारणों से डॉ. साहब के कुछ खतों के उत्तर नहीं दे सका था। 31.8.99 के अपने खत में उन्होंने मुझे लिखा-'एक लम्बे समय से आपकी ओर से कोई पत्र नहीं आ रहा। याद नहीं पड़ता कि मैं आपके रुष्ट होने लायक कोई दोष किया हो, ऐसा हो तो क्षमा करें।' ये पंक्तियाँ डॉ. साहब जैसा महान व्यक्ति ही लिख सकता था। पत्र पढ़कर मैं इतना शर्मिन्दा हुआ कि मैंने पत्नी और बच्चों के सामने उठक-बैठक लगाई और उन्हें यह भी बताया कि किस बात की सज़ा में खुद को दे रहा हूँ। डॉ. साहब को पत्रोत्तर देते समय यह बात भी मैंने उन्हें लिख दी थी, जिस पर उनका बहुत प्यारा खत मिला। प्रस्तुत हैं उसका प्रमुख अंश-
दिनांक-17.9.99
प्रिय सुकेश जी,
बहुत लम्बे अंतराल के बाद आपका प़त्र मिला। कई स्तरों पर यह अच्छा लगा। इस पत्र से झलकती आत्मीयता और सादगी तो मन-मोहक है ही, खुद अपने ऊपर व्यंग्य करने की दुर्लभ प्रतिभा भी इसमें व्यक्त हुई है। फिर आपने टेलीफ़िल्म से लेकर कहानी के अनुवाद तक के उपलब्धियों के सुसमाचार दिए. हाँ, रोशनी का कैसेट उपलब्ध हो सके तो ज़रूर देखना चाहूँगा। या फिर आप दूरदर्शन की तिथि और समय लिखें।
शुभ तारिका के विशेषांक में ठंडी रजाई की समीक्षा छपी है। आपने देख ली होगी। समीक्षा विकेश ने लिखी है, वह आपकी कथाओं की खूब तारीफ करते रहे। एक कथा उपचार भी इसी अंक में छपी है। पृष्ठ 37 पर। आपके लिए अतिरिक्त प्रति भिजवा रहा हूँ। अब रही उठक-बैठक वाली बात सो इससे मुझे ज़रूर खेद हुआ कि मैं इसका निमित्त बना। पर आप तो अभी और भी सजा माँग रहे हैं। इस मद में इतना ज़रूर सूझता है कि अपनी पत्नी का शान में जब कभी आप कोई गुस्ताखी करें तो वे आपको यही सजा दिया करें। पर अब आप यह सुझाव उन्हें बताएँगे ही क्यों।
मैं इधर कुछ समय से हंस नहीं ले रहा। मैग्मा की फोटो कापी उपलब्ध हो तो भिजवाएँ।
नया क्या कुछ लिख रहे हैं। पत्र देते रहें। आपका
म.कृ.जैन
उर्मि जी के स्वास्थ्य को लेकर वे काफी चिन्तित थे; किन्तु मेरी अस्वस्थता के बारे में पता चलते ही उन्होंने मुझे कई लम्बे खत लिखे, डीन आर्निश की महत्त्वपूर्ण पुस्तक उपलब्ध कराई. खुद परेशानी में होने के बावजूद कोई दूसरे के लिए इतना कैसे कर सकता है? यह डॉ. साहब जैसे व्यक्ति के लिए ही सम्भव था।
दिनांक 9.9.00
प्रिय श्री सुकेश जी,
आपने फोन पर जो जानकारी दी थी उससे हमें निर्णय लेने में बहुत सहायता मिली और हम परसों 7 तारीख को उर्मि को चिकित्सा के लिए लुधियाना ले गए थे। वहाँ लगभग 10 रोगियों को ड्रिप लग रहा था और सभी कह रहे थे कि उन्हें लाभ है। डॉक्टर ने बहुत बारीकी से उर्मि का रिकार्ड देखा और चेकअप किया। उसका डायग्नोसिस बहुत अच्छा था। पर अभी उसने इंजेक्शन शुरू नहीं किए. बल्कि कई तरह के टेस्ट लिखकर दिए हैं। जो आज करा लिए हैं। इन्हें देखकर वह अपनी मशीन से एन्जियोंग्राफी लेगा और फिर इसके आधार पर इलाज शुरू करेगा।
सफलता का रेट 80 और 90 प्रतिशत के बीच कहता है। पहले 10 ड्रिपों में जिसे लाभ न हो, उसे आगे इलाज नहीं देता। यानी उसे यह थैरेपी काम नहीं करती। ये बात उसने भी कहीं कि इस रोग में 90 प्रतिशत कारण मानसिक और भावनात्मक होता है। दस प्रतिशत ही शारीरिक कारण होता है। डॉक्टर शरीफ और ईमानदार लगा। होशियार तो है ही। ऐसा ही एक क्लीनिक चंडीगढ़ में चल रहा है वहाँ भी होकर आने का विचार है। क्योंकि चंडीगढ़ पास पड़ता है। जो भी करेंगे, मैं आपको खबर देता रहूँगा।
डीन आर्निश की किताब का नाम है डॉ.डीन आनिर्शिज प्रोग्राम फार रिवसिंग हार्ट डिज़ीस"। यानी यह केवल थ्यौरी नहीं बल्कि प्रोग्राम है। एक तरह की व्यावहारिक गाइड। इसके तीन खंड हैं। तीसरे खंड में केवल ह्नदय रोगियों के लिए आहार और सैकड़ों व्यंजन है। यह खंड हम लोगों के लिए बेकार-सा है। पहले खंड में इस पद्धति की भूमिका है। यानी यहाँ तक वह कैसा पहुँचा। दूसरा खंड सबसे महत्त्वपूर्ण है। इसमें भावनागत स्वास्थ्य प्राप्त करने के व्यावहारिक रास्ते लिए गए हैं। कुछ भाग में व्यायाम और कुछ और चीजें आई हैं। यह पुस्तक ह्नदय रोगी ही नहीं, मनुष्य मात्र के लिए स्वास्थ्य की गीता जैसी है। पहली बार भावनाओं और स्वास्थ्य के सम्बंध को आर्निश ने पकड़ा और स्पष्ट किया है। बल्कि उसके रास्ते भी सुझाए हैं।
बहुत लिख गया हूँ।
अब इसकी फीस भेजिए. यानी कोई अच्छी-सी रचना।
खबर ज़रूर दे दिया करें।
आपका
म.कृ.जैन अप्रैल 2001 में जब डॉ. साहब का खत मिला था, तो मैंने सोचा भी नहीं था कि यह उनका मुझे लिखा जाने वाला अंतिम खत होगा। डॉ. साहब अपनी विरासत में बहुत कुछ छोड़ गए हैं। इस प्रकाश स्तम्भ ने देश के तमाम गाँवों, कस्बों और शहरों में अनगिनत चिराग रोशन कर दिए हैं। निराशा की कोई बात नहीं है। डॉ । महाराज कृष्ण जैन के शब्दों में हम संकल्प लें कि हम प्रत्येक क्षण को नई कल्पना, नए लक्ष्यों, नए उपक्रमों, नए आयोजनों से भर देंगे।
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