प्रकृति काव्य: काव्य प्रकृति / अज्ञेय
(‘रूपाम्बरा’ की भूमिका)
प्रकृति की चर्चा करते समय सबसे पहले परिभाषा का प्रश्र उठ खड़ा होता है। प्रकृति हम कहते किसे हैं? वैज्ञानिक इस प्रश्न का उत्तर एक प्रकार से देते हैं, दार्शनिक दूसरे प्रकार से, धर्म-तत्त्व के चिन्तक एक तीसरे ही प्रकार से। और हम चाहें तो इतना और जोड़ दे सकते हैं कि साधारण-व्यक्ति का उत्तर इन सभी से भिन्न प्रकार का होता है।
और जब हम ‘एक प्रकार का उत्तर’ कहते हैं, तब उसका अभिप्राय एक उत्तर नहीं है, क्योंकि एक ही प्रकार के अनेक उत्तर हो सकते हैं। इसीलिए वैज्ञानिक उत्तर भी अनेक होते हैं; दार्शनिक उत्तर तो अनेक होंगे ही, और धर्म पर आधारित उत्तरों की संख्या धर्मों की संख्या से कम क्यों होने लगी?
प्रश्न को हम केवल साहित्य के प्रसंग में देखें तो कदाचित् इन अलग-अलग प्रकार के उत्तरों को एक सन्दर्भ दिया जा सकता है। साहित्यकार की दृष्टि ही इन विभिन्न दृष्टियों के परस्पर विरोधों से ऊपर उठ सकती है- उन सबको स्वीकार करती हुई भी सामंजस्य पा सकती है। किन्तु साहित्यिक दृष्टि की अपनी समस्याएँ हैं; क्योंकि एक तो साहित्य दर्शन, विज्ञान और धर्म के विश्वासों से परे नहीं होता, दूसरे सांस्कृतिक परिस्थितियों के विकास के साथ-साथ साहित्यिक संवेदना के रूप भी बदलते रहते हैं।
साधारण बोलचाल में ‘प्रकृति’ ‘मानव’ का प्रतिपक्ष है, अर्थात मानवेतर ही प्रकृति है-वह सम्पूर्ण परिवेश जिसमें मानव रहता है, जीता है, भोगता है और संस्कार ग्रहण करता है। और भी स्थूल दृष्टि से देखने पर प्रकृति मानवेतर का वह अंश हो जाती है जो कि इन्द्रियगोचर है-जिसे हम देख, सुन और छू सकते हैं, जिसकी गन्ध पा सकते हैं और जिसका आस्वादन कर सकते हैं। साहित्य की दृष्टि कहीं भी इस स्थूल परिभाषा का खंडन नहीं करती: किन्तु साथ ही कभी अपने को इसी तक सीमित भी नहीं रखती। अथवा यों कहें कि अपनी स्वस्थ अवस्था में साहित्य का प्रकृति-बोध मानवेतर, इन्द्रियगोचर, बाह्य परिवेश तक जाकर ही नहीं रुक जाता; क्योंकि साहित्यिक आन्दोलनों की अधोगति में विकृति की ऐसी अवस्थाएँ आती रही हैं जब उसने बाह्य सौन्दर्य के तत्त्वों के परिगणन को ही दृष्टि की इति मान लिया है। यह साहित्य की अन्त:शक्ति का ही प्रमाण है कि ऐसी रुग्ण अवस्था से वह फिर अपने को मुक्त कर ले सका है, और न केवल आभ्यन्तर की ओर उन्मुख हुआ है बल्कि नयी और व्यापकतर संवेदना पाकर उस आभ्यन्तर के साथ नया राग-सम्बन्ध भी जोड़ सका है।
राग-सम्बन्ध अनिवार्यतया साहित्य का क्षेत्र है। किन्तु राग-सम्बन्ध उतने ही अनिवार्य रूप से साहित्यकार की दार्शनिक पीठिका पर निर्भर करते हैं। यदि हम मानते हैं-जैसा कि कुछ दर्शन मानते रहे-कि प्रकृति सत् है, मूलत: कल्याणमय है, तब उसके साथ हमारा राग-सम्बन्ध एक प्रकार का होगा-अथवा हम चाहेंगे कि एक प्रकार का हो। यदि हम मानते हैं कि प्रकृति मूलत: असत् है, तो स्पष्ट ही हमारी राग-वृत्ति की दिशा दूसरी होगी। यदि हम मानते हैं कि प्रकृति त्रिगुण-मय है किन्तु अविवेकी है, तो हमारी प्रवृत्ति और होगी : और यदि हमारी धारणा है कि प्रकृति सदसद् से परे है तो हम उसके साथ दूसरे ही प्रकार का राग-सम्बन्ध चाहेंगे-अथवा कदाचित् यही चाहेंगे कि जहाँ तक प्रकृति का सम्बन्ध है हम वीतराग हो जाएँ! विभिन्न युगों के साहित्यकारों के प्रकृति के प्रति भाव की पड़ताल करने में हम उन भावों में और साहित्यकार के प्रकृति-दर्शन में स्पष्ट सम्बन्ध देख सकेंगे।
कवियों के प्रकृति-वर्णन अथवा निरूपण की चर्चा में उनके आधारभूत दार्शनिक विचारों अथवा धर्म-विश्वासों तक जाना यहाँ कदाचित अनपेक्षित होगा। उतने विस्तार के लिए यहाँ स्थान भी नहीं है। किन्तु कवि के संवेदन पर उसकी दार्शनिक अथवा धार्मिक आस्था के प्रभाव की अनिवार्यता को स्वीकार करके हम प्रकृति-वर्णन की परम्परा का अध्ययन कर सकते हैं। वैदिक कवि-मन्त्रद्रष्टा को कवि कहना उसकी अवहेलना नहीं है-प्रकृति की सत्ता का सम्मान करता था और मानता था कि उसकी अनुकूलता ही सुख और समृद्धि का आधार है। सुखी और सम्पूर्ण जीवन का जो चित्र उसके सम्मुख था उसमें मनुष्य की और प्रकृति की शक्तियों की परस्पर अनुकूलता आवश्यक थी। प्राकृतिक शक्तियों को वह देवता मानता था, किन्तु देवता होने से ही वे अनुकूल हो जाएँगी ऐसा उसका विश्वास नहीं था-उनकी अनुकूलता के लिए वह प्रार्थी था। कहा जा सकता है कि उसकी दृष्टि में ये शक्तियाँ सदसद् से परे ही थीं किन्तु उन्हें अनुकूल बनाया जा सकता था।
यथा द्यौश्च पृथ्वी च न विभीतो न रिष्यत : एवा मे प्राण मा बिभै : यथाऽहश्च रात्री च न विभीतो न रिष्यत: एवा मे प्राण मा बिभै:
यह प्रार्थना करने वाला व्यक्ति जहाँ यह कामना करता था कि प्रकृति की शक्तियों के प्रति उसके प्राण भय रहित हों, वहाँ यह भी मानता था कि वे शक्तियाँ भी राग-द्वेष से परे हैं। इतना ही नहीं, मध्य युग की पाप-पुण्य की भावना भी उसमें नहीं थी-हो भी नहीं सकती थी जब तक कि वह प्रकृति को पापमूलक न मान लेता-और उसके निकट दिन और रात, प्रकाश और अन्धकार, सत्य और असत्य, सभी एक से निर्भय थे। वह अपनी प्रार्थना में यह भी कहता था कि-
यथा सत्यं चाऽनृतं च न विभीतो न रिष्यत: एवा मे प्राण मा बिभै: ॥
यह कहने का साहस मध्य काल के कवि को नहीं हो सकता था-पाप की परिकल्पना कर लेने के बाद यह सम्भावना ही सामने नहीं आती कि अनृत भी सत्य के समान ही निर्भय हो सकता है।
वैदिक कवि क्योंकि प्रकृति को न सत् मानता है न असत्, इसलिए प्रकृति के प्रति उसका भाव न प्रेम का है न विरोध का। वह मूलत: एक विस्मय का भाव है।
हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे
यह उसके भव्य विस्मय की ही उक्ति है। और यदि वह आगे पूछता है-
कस्मै देवाय हविषा विधेम?
तो यह किंकर्तव्यता भी आतंक का नहीं, शुद्ध विस्मय का ही प्रतिबिम्ब है। उषा-सूक्त में उषा के रूप का वर्णन, पृथ्वी-सूक्त में पृथ्वी से पृथ्वी-पुत्र मनुष्य के सम्बन्ध का निरूपण, इन्द्र और मरुत के प्रति उक्तियाँ- काव्य की दृष्टि से ये सभी वैदिक मानव के विस्मय भाव को ही प्रतिबिम्बित करती हैं-उस शिशुवत् विस्मय को जिसमें भय का लेश भी नहीं है। ऋग्वेद का मण्डूक-सूक्त इस विस्मयाह्लाद का उत्तम उदाहरण है।
वाल्मीकि के रामायण में प्रकृति का काव्य-रूप बहुत कुछ बदल गया है। वाल्मीकि के राम यद्यपि तुलसीदास के मर्यादा-पुरुषोत्तम से भिन्न कोटि के नायक हैं, तथापि मर्यादा का भाव वाल्मीकि में अत्यन्त पुष्ट है। बल्कि यह भी कहना अनुचित न होगा कि जिस घटना से आदि-काव्य का उद्भव माना जाता है वह घटना ही एक मर्यादा अंकित करती है। वास्तव में क्रौंच-वध वाली घटना में जो लोग शुद्ध कारुण्य देखते हैं वे थोड़ी-सी भूल करते हैं। आदि-कवि ने क्षुब्ध होकर निषाद को जो शाप दिया था, उसके मूल में शुद्ध जीव-दया की अपेक्षा मर्यादा-भंग के विरोध का ही भाव अधिक था। पक्षी मात्र को मारने का विरोध वाल्मीकि ने नहीं किया। परिस्थिति-विशेष में पक्षी के वध को अधर्म मानकर ही उन्होंने व्याध की शाश्वत अप्रतिष्ठा की कामना की। उस परिस्थिति में कोई भी प्राणी अवध्य है, यही विश्वास महाभारत में भी पाया जाता है जो मृगया के वृत्तान्तों से भरा हुआ है। पांडु की मृत्यु जिस दारुण परिस्थिति में हुई उसका कारण भी मृगया नहीं थी-मृगया तो राज-धर्म का अंग था-किन्तु परिस्थिति-विशेष में मृग पर बाण छोडऩे का अधर्म अथवा मर्यादा-भंग ही राजा के प्राणान्त का कारण हुआ। यह भी उल्लेख्य है कि क्रौंच की कथा में क्रौंच-युगल को शापग्रस्त मुनि-युगल सिद्ध करना आवश्यक नहीं समझा गया : वाल्मीकि की करुणा पक्षी को पक्षी मान कर ही दी गयी। किन्तु महाभारत में राजा के प्राण मृग के प्राण से कदाचित् अधिक मूल्यवान समझे गए, इसलिए अपराध और दंड में सामंजस्य लाने के लिए मृग-युगल को मुनि-युगल सिद्ध करना पड़ा। जो हो, यहाँ भी जीव-दया का आत्यन्तिक आदर्श नहीं है, बल्कि जीव-वध की मर्यादा का ही निर्देश है।
किन्तु जीव-दया के आदर्श के विकास का अध्ययन हमारा विषय नहीं है। हम प्रकृति के प्रति वाल्मीकि के राग-भाव की, और वैदिक कवि के भाव से उसके अन्तर की चर्चा कर रहे थे। काव्य-युग में यह अन्तर और भी स्पष्ट हो जाता है-दूसरे शब्दों में मानवीय दृष्टि के विकास की एक और सीढ़ी परिलक्षित होने लगती है। शास्त्रीय शब्दावली में यदि कहा जाए कि प्रकृति काव्य का आलम्बन न रहकर क्रमश: उद्दीपन होती जाती है, तो यह कथन असंगत तो न होगा, किन्तु बात इतनी ही नहीं है। एक तो प्रकृति-वर्णन का उद्दीपन के लिए उपयोग वाल्मीकि ने भी किया-किष्किन्धा-कांड का शरद-वर्णन यद्यपि प्रकृति की दृष्टि से सच्चा और खरा है तथापि उसके वहाँ होने का मुख्य काव्यगत कारण राम के पत्नी-विरह को उद्दीपित रूप में हमारे सम्मुख लाना ही है। यही कारण है कि वह वर्णन जो बिम्ब हमारे सम्मुख उपस्थित करता है वे सभी शृंगार-भाव से अनुप्राणित हैं। दूसरे, काव्य युग के महारथियों ने प्रकृति को केवल उद्दीपन रूप में देखा हो, ऐसा भी नहीं है। बल्कि कालिदास का प्रकृति-पर्यवेक्षण और अध्ययन तथा उनका प्रकृति-प्रेम भारतीय काव्य-परम्परा में अद्वितीय है।
वास्तव में अन्तर को ठीक-ठीक समझने के लिए जो प्रश्न पूछना होगा वह यह नहीं है कि प्रकृति के उपयोग में क्या अन्तर आ गया। प्रश्न यह पूछा चाहिए कि जिस प्रकृति की ओर कवि आकृष्ट था वह प्रकृति कैसी थी?
कालिदास का प्रकृति-प्रेम वाल्मीकि से कम हार्दिक नहीं है। न उनका काव्य आलम्बन के रूप में प्रकृति को आदि-कवि की रचनाओं से कम महत्त्व देता है। फिर भी उसमें वाल्मीकि की सी सहजता नहीं है। न वैदिक कवि का विस्मय भाव ही है। कालिदास की प्रकृति अपेक्षया अलंकृत है। कवि जितना प्रकृति से परिचित है उतना ही प्रकृति-सम्बन्धी अनेक कवि-समयों से भी-अर्थात् वह अपने काव्य की परम्परा से भी परिचित है और उस परिचय की अवज्ञा नहीं करता है। कवि-समय को सत्य वह नहीं मानता, क्योंकि उसका अनुभव उन्हें मिथ्या सिद्ध करता है; किन्तु फिर भी उन समयों का वह व्यवहार करता है क्योंकि काव्य-सौन्दर्य के लिए परम्परा से काम लेने का यह भी एक साधन है। ऋतुसंहार के ऋतु-वर्णन अथवा कुमारसम्भव के हिमालय-वर्णन में परम्परागत कवि-समयों का कवि के निजी अनुभव के साथ ऐसा अभिन्न योग हुआ है कि इन तत्त्वों का विश्लेषण सौन्दर्य को नष्ट किये बिना हो ही नहीं सकता।
आवश्यक परिवर्तन के साथ यही बात भवभूति के प्रकृति-वर्णन के विषय में भी कही जा सकती है।
वास्तव में काव्य-युग का कवि जो प्रकृति को केवल आलम्बन के रूप में अपने सम्मुख नहीं रख सका, और न ही उसे निरे उद्दीपन के रूप में एक उपकरण का स्थान दे सका, उसका कारण यही था कि प्रकृति से उसका सम्बन्ध भिन्न प्रकार का हो गया था। व्यवस्थित और निरापद जीवन में उसके लिए यह आवश्यक नहीं रहा था कि प्रकृति की शक्तियों को वैसे आत्यन्तिक और मानवीकृत अथवा देवतावत् रूपों में देखे जैसे रूप वैदिक कवि के उद्दिष्ट रहे। दूसरी ओर प्रकृति से उसका सम्बन्ध वैसा उच्छिन्न भी नहीं हो गया था जैसा रीतिकालीन कवियों का, जिनके निकट प्रकृति केवल एक अभिप्राय रह गयी थी, और प्रकृति का चित्रण केवल प्रकृति-सम्बन्धी कवि-समयों की एक न्यूनाधिक चमत्कारी सूची। काव्य-युग के संस्कृत कवि के लिए प्रकृति शोभन, रम्य और स्फूर्तिप्रद थी। प्राकृतिक शक्ति के रूप में उसे मानव का प्रतिपक्ष माना जा सकता था, किन्तु अपने इस नये रूप में वह मानव की सहचरी हो गयी थी।
नि:सन्देह संस्कृत काव्य-परम्परा की समवर्तिनी एक दूसरी काव्य-परम्परा भी रही जिसकी खोज में हमें प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य की ओर देखना होगा। संस्कृत और प्राकृत काव्य बराबर एक-दूसरे को प्रभावित करते रहे; और कवि समयों अथवा अभिप्रायों का आदान-प्रदान उनमें होता रहा। किन्तु विस्तार से बचने के लिए उनकी चर्चा यहाँ छोड़ दी जा सकती है। ऐसा इसलिए भी अनुचित न होगा कि इसी प्रकार का सम्बन्ध हम अनन्तर खड़ी बोली हिन्दी की कविता में तथा उसकी पृष्ठभूमि और उसके परिपाश्र्व में फैले हुए लोक-काव्य में भी देख सकते हैं। इनमें भी आदान-प्रदान निरन्तर होता रहा, किन्तु इस क्रिया की बढ़ी हुई गति आधुनिक युग की एक विशेषता मानी जा सकती है। क्यों यह आदान-प्रदान इस काल में अतिरिक्त तीव्रता के साथ होने लगा, इस प्रश्न का उत्तर भी हमें आधुनिक संवेदना के रूप-परिवर्तन में मिलेगा। मानव और प्रकृति दोनों की नयी अवधारणा ने स्वभावतया उनके परस्पर सम्बन्ध को बदल दिया और इसलिए प्रकृति के वर्णन अथव चित्रण को अनुप्राणित करने वाले राग-तत्त्व भी बदल गये।
किन्तु बीच की सीढ़ी की उपेक्षा कर जाना भ्रान्ति का कारण हो सकता है।
प्रकृति-काव्य के विवेचन में वास्तव में समूचे रीति-युग को छोड़ ही देना चाहिए, क्योंकि रीतिकालीन कवियों में से कुछ ने यद्यपि प्रकृति के सूक्ष्म पर्यवेक्षण का प्रमाण दिया है, तथापि उनके निकट प्रकृति काव्य-चमत्कार के लिए उपयोज्य एक साधन-मात्र है। प्रकृति के मानवीकरण की बात तो दूर, रीति-काल के कवि उसकी स्वतन्त्र इयत्ता के प्रति भी उदासीन हैं-उनके निकट वह केवल एक अभिप्राय है-अलंकृति के काम आ सकता है। यह प्रकृति से राग-सम्बन्ध की जर्जरता का ही परिणाम था कि रीति-कालीन कवि प्राकृतिक तत्त्वों की सूची प्रस्तुत कर देना ही उद्दीपन के लिए पर्याप्त समझने लगा। यदि उसका राग-सम्बन्ध कुछ भी प्राणवान होता, तो वह समझता कि प्रकृति-सम्बन्धी शब्दावली का ऐसा कोशवत उपयोग उद्दीपन का भी काम नहीं कर सकता क्योंकि जिस काव्य में राग का अभाव स्पष्ट लक्षित होता है वह दूसरे में राग-भाव नहीं जगा सकता, अपने अभाव को चाहे कितने ही कौशल से छिपाया गया हो। प्रकृति के बाहरी आकारों की सूची बनाने की यह प्रवृत्ति रीति-काल तक ही सीमित नहीं रही बल्कि आधुनिक काल तक चली गयी। बीसवीं शती में भी जो महाकाव्य लिखे गये वे अधिकतर प्रकृति-वर्णन की इसी लीक को पकड़े रहे और पिंगल-ग्रन्थों ने भी अभ्यासियों के लिए विभावों की सूचियाँ प्रस्तुत कीं।
वास्तव में इस जीर्ण परम्परा से विमुख होकर प्रकृति को काव्य में नये प्राण देने की प्रवृत्ति हिन्दी में पश्चिमी साहित्य के अथवा उससे प्रभावित बांग्ला साहित्य के सम्पर्क से जागी। इस कथन का अभिप्राय यह कदापि नहीं है कि खड़ी बोली का प्रकृति-वर्णन अनुकृति है, क्योंकि अनुकृति का विरोध ही तो इसकी प्रेरणा रही। अभिप्राय यह भी नहीं है कि हिन्दी कवि अपने पूर्वजों की अनुकृति छोडक़र विदेशी कवियों की अनुकृति करने लगे, क्योंकि हिन्दी की नयी प्रवृत्ति प्राचीनतर भारतीय परम्पराओं से कटी हुई कदापि नहीं थी। बल्कि उदाहरण देकर दिखाया जा सकता है कि कैसे छायावाद के और परवर्ती प्रमुख कवियों ने पूरे आत्म-चेतन भाव से संस्कृत काव्यों से और वैदिक साहित्य से न केवल प्रेरणा पायी वरन उपमाएँ और बिम्ब ज्यों के त्यों ग्रहण किये।
पश्चिमी साहित्य से प्रेरणा पाने का आशय यह भी नहीं है कि यदि पश्चिम से सम्पर्क न हुआ होता तो हिन्दी साहित्य में प्रकृति की नयी चेतना न जागी होती। वास्तव में किसी भी प्रवृत्ति के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वह किसी विशेष साहित्य में कभी नहीं प्रकट होगी। जो साहित्य जीवित है-अर्थात् जिस साहित्य को रचनेवाला समाज जीवित है-उसमें समय-समय पर जीर्णता का विरोध करनेवाली नयी प्रवृत्तियाँ प्रकट होंगी ही। दूसरे साहित्यों से प्रभाव ग्रहण करने की भी एक क्षमता और तत्परता होनी चाहिए जो हर साहित्य में हर समय वर्तमान नहीं होती बल्कि विकास अथवा परिपक्वता की विशेष अवस्था में ही आती है। इसलिए किसी प्रभाव से जो रचनात्मक प्रेरणा मिली, उसे अनुकृति कहना या हेय मानना अनुचित है और बहुधा ऐसी समालोचना करने वाले के आत्मावसाद अथवा हीनभाव का ही द्योतक होता है। शिशु बोलना अनुकरण से सीखता है, किन्तु कवि-समुदाय में रख देने से ही बालक कविता नहीं करने लगता। जब वह कविता रचता है तो वह इतने भर से अनुकृति नहीं हो जाती कि वह कवियों के सम्पर्क में रहा और उनसे प्रभाव ग्रहण करता रहा। उसकी ग्रहणशीलता और उस पर आधारित रचना-प्रवृत्ति स्वयं उसके विकास और उसकी शक्ति के द्योतक हैं।
पश्चिमी काव्य के परिचय से भारतीय कवि एक बार फिर प्रकृति की स्वतन्त्र सत्ता की ओर आकृष्ट हुआ। कहा जा सकता है कि इसी परिचय के आधार पर वह स्वयं अपनी परम्परा को नयी दृष्टि से देखने लगा और उसके सार तत्त्वों को नया सम्मान देने लगा। नि:सन्देह अनुकरण भी हुआ, किन्तु जो केवल मात्र अनुकरण था वह कालान्तर में उसी गौण पद पर आ गया जो उसके योग्य था। उषा-सुन्दरी का मानवी रूप छायावादियों का आविष्कार नहीं था, और उसकी परम्परा ऋग्वेद तक तो मिलती ही है। किनतु जब कवि ने छाया को भी मानवी आकृति देकर पूछा :
कौन, कौन तुम, परिहत-वसना म्लानमना, भू-पतिता-सी?
तब उसके अवचेतन में वैदिक परम्परा उतनी नहीं रही होगी जितना अँग्रेज़ी रोमांटिक काव्य जिसमें प्राकृतिक शक्तियों का मानवीकरण साधारण बात थी। किन्तु नयापन केवल इतना नहीं था-पुरानेपन का नया सँवार-भर नहीं था। मानवीकरण केवल विषयाश्रित नहीं था। बल्कि प्रकृति के मानवीकरण का विषयिगत रूप और भी अधिक महत्त्वपूर्ण था।
मानवीकरण का यह पक्ष वास्तव में वैयक्तिकीकरण का पक्ष था। यही तत्त्व था जिसने प्रकृति-वर्णन को प्राकृतिक अभिप्रायों के वर्णन से अलग करके काव्योचित दृष्टि को रूप दे दिया। यद्यपि नये जागरण ने हिन्दी कविता का सम्बन्ध रीतिकाल के अन्तराल के पार अपभ्रंशों, प्राकृतों और संस्कृत काव्य की परम्परा से जोड़ा था, तथापि इसके आधार पर जो दृश्य-चित्र सामने आये थे नये होकर भी इस अर्थ में एक-रूप थे कि विभिन्न कवियों के द्वारा प्रस्तुत किए गये होने पर भी वे मूलत: समान थे-ऐसा नहीं था कि उस विशेष कवि के व्यक्तित्व से उन्हें अलग किया ही न जा सके। दार्शनिक पृष्ठिका के विचार से कहा जा सकता है कि सुमित्रानन्दन पन्त ने प्रकृति की कल्पना प्रेयसी के रूप में की और ‘निराला’ ने संवाहिका शक्ति के रूप में और दोनों कवियों के प्रकृति-चित्रण में समानता और अन्तर दोनों ही पहचाने जा सकते हैं। किन्तु जिस व्यक्तिगत अन्तर की बात हम कह रहे हैं वह इससे गहरा था। नि:सन्देह काव्यगत चित्रों पर कवि के व्यक्तित्व के इस आरोप का अध्ययन पश्चिमी साहित्यके सन्दर्भ में किया जा सकता है और दिखाया जा सकता है कि उसमें भी अँग्रेज़ी रोमांटिक काव्यके व्यक्तिवाद का कितना प्रभाव था। और यदि व्यक्तिवाद के विकृत प्रभावों को ही ध्यान में रखा जाए तो यह भी सिद्ध किया जा सकता है कि पश्चिमी प्रभाव यहाँ भी विकृतियों का आधार बना, जैसा कि वह पश्चिम में भी बना था। किन्तु किसी प्रभाव का केवल उसकी विकृतियों के आधार पर मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। और रोमांटिक व्यक्तिवाद का स्वस्थ प्रभाव यह था कि उसने प्रकृति के चित्रों को एक नयी रागात्मक प्रामाणिकता दी। जो तथ्य था और सबका ‘जाना हुआ’ था उसे उसने एक व्यक्ति का ‘पहचाना हुआ’ बनाकर उसे सत्य में परिणत कर दिया। जहाँ यह व्यक्तिगत दर्शन केवल असाधारणत्व की खोज हुआ-और यह प्रवृत्ति पश्चिम में भी लक्षित हुई जैसी कि हिन्दी के कुछ नये कवियों में-वहाँ उत्तम काव्य का निर्माण नहीं हुआ। जैसा कि रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है :
‘केवल असाधारणत्व-दर्शन की रुचि सच्ची सहृदयता की पहचान नहीं है।’ किन्तु जहाँ व्यक्तिगत दर्शन ने उस पर खरी अनुभूति की छाप लगा दी वहाँ उसके देखे हुए बिम्ब और दृश्य अधिक प्राणवान और जीवनस्पन्दित हो उठे। यह भी रामचन्द्र शुक्ल का ही कथन है कि :
‘वस्तुओं के रूप और आस-पास की वस्तुओं का ब्यौरा जितना ही स्पष्ट या स्फुट होगा उतना ही पूर्ण बिम्ब ग्रहण होगा और उतना ही अच्छा दृश्य-चित्रण कहा जाएगा।’
और यह व्यक्तिगत दर्शन या निजी अनुभूति की तीव्रता ही है जो वस्तुओं के रूप को ‘स्पष्ट या स्फुट’ करती है। प्रकृति के जो चित्र रीति-काल के कवि प्रस्तुत करते थे, वे भी यथातथ्य होते थे। उस काव्य की समवर्तिनी चित्र-कला में शिकार इत्यादि के जो दृश्य आँके जाते थे वे भी उतने ही रीतिसम्मत और यथातथ्य होते थे। किन्तु व्यक्तिगत अनुभूति का स्पन्दन उनमें नहीं होता था और इसीलिए उनका प्रभाव वैसा मर्मस्पर्शी नहीं होता था। बाँसों के झुरमुट पहले भी देखे गए थे, किन्तु सुमित्रानन्दन पन्त ने जब लिखा-
बाँसों का झुरमुट सन्ध्या का झुटपुट हैं चहक रही चिडिय़ाँ: टी-वी-टी-टुट्-टुट्।
तब यह एक झुरमुट बाँसों के और सब झुरमुटों से विशिष्ट हो गया, क्योंकि व्यक्तिगत दर्शन और अनुभूति के खरेपन ने उसे एक घनीभूत अद्वितीयता दे दी। इस प्रकार के उदाहरण ‘निराला’और पन्त की कविताओं से अनेक दिये जा सकते हैं। परवर्ती काव्य में भी वे प्रचुरता से मिलेंगे, भले ही उनके साथ-साथ निरे असाधारणत्व के मोह के भी अनेक उदाहरण मिल जाएँ। जब हम दृश्य-चित्रण की परम्परा का अध्ययन इस दृष्टि से करते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि छायावाद ने प्रकृति को एक नया सन्दर्भ और अर्थ दिया, जो उसे न केवल उससे तत्काल पहले के खड़ी बोली के युग से अलग करता है बल्कि खड़ी बोली के उत्थान से पहले के सभी युगों से भी अलग करता है। सुमित्रानन्दन पन्त और सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ इस नये पथ के शलाका-पुरुष हैं, किन्तु इसके पूर्व संकेत श्रीधर पाठक और रामचन्द्र शुक्ल के प्रकृति काव्य में ही मिलने लगते हैं।
नयी कविता, जहाँ तक प्रकृति-चित्रों के अनुभूतिगत खरेपन की बात है, छायावाद से अलग दिशा में नहीं गयी है। असाधारण की खोज के उदाहरण उसमें अधिक मिलेंगे और तन्त्र का कच्चापन अथवा भाषा का अटपटापन भी कहीं अधिक। बल्कि भाषा के विषय में एक प्रकार की अराजकता भी लक्षित हो सकती है, जिसका विस्तार ‘लोक-साहित्य की ओर उन्मुखता’ या ‘लोक के निकटतर पहुँचने के लिए बोलियों से शब्द ग्रहण करने की प्रवृत्ति’ की ओट लेने पर भी छिप नहीं सकता। पल्लव की भूमिका में पन्त ने जिस सूक्ष्म शब्द-चेतना का परिचय दिया था, भाषा के व्यवहार के प्रति वैसा जागरूक भाव नयी कविता के बिरले कवियों में ही मिलेगा (छायावाद-युग में भी ऐसे कवि कम विरल नहीं थे; अराजकता ऐसी नहीं थी)। ये दोष उन नयी प्रवृत्तियों का ऋण पक्ष हैं जो कि नये काव्य को अनेक समानताओं के बावजूद छायावाद के काव्य से पृथक् करती हैं।
किन्तु जहाँ तक प्रकृति-वर्णन और प्रकृति-चित्रण का प्रश्न है, नयी कविता की विशिष्ट प्रवृत्तियाँ सब ऋण-मूलक ही नहीं हैं, न उसका धन पक्ष छायावाद से सर्वथा एकरूप। उसकी विशिष्टता को ठीक-ठीक पहचानने के लिए हमें फिर अपने तत्सम्बन्धी प्रश्न के सही निरूपण पर बल देना होगा। प्रकृति के उपयोग में क्या अन्तर आया, यह प्रश्न भी अप्रासंगिक नहीं है; पर मूल्यों को ठीक-ठीक समझने के लिए इससे गहरे जाकर फिर यही प्रश्न पूछना चाहिए कि जिस प्रकृति की ओर कवि आकृष्ट है वह प्रकृति कैसी है?
स्पष्ट है कि आज का कवि जिस प्रकृति से परिचित होगा वह उससे भिन्न होगी जो आरण्यक कवियों की परिचित रही। यह नहीं कि वन-प्रदेश आज नहीं है, या झरने नहीं बहते, या मृग-छौने चौकड़ी नहीं भरते, या ताल-सरोवरों में पक्षी किलोलें नहीं करते। पर आज के कस्बों और शहरों में रहने वाले कवि के लिए ये सब चित्र अपवाद-रूप ही हैं। केवल इन्हीं का चित्रण करने वाला लेखक एक प्रकार का पलायनवादी ही ठहरेगा-क्योंकि वह अपने अनुभूत के मुख्यांश की उपेक्षा में एक अप्रधान अंश को तूल दे रहा होगा। इतना ही नहीं, अनेकों के लिए तो गाँव-देहात के दृश्य भी इनकी अपेक्षा कुछ ही कम अपरिचित होंगे, और उन्हें ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है!’ जैसे वर्णन न केवल काव्य की दृष्टि से घटिया लगेंगे बल्कि उनकी अनुभूति भी चेष्टित और अयथार्थ लगेगी। भारत का कृषि-प्रधानत्व अब भी मिटा नहीं है और इसलिए यह प्राय: असम्भव है कि किसी भारतीय कवि ने खेत देखे ही न हों, पर ‘खेत देखे हुए’ होने और ‘देहाती प्रकृति का अनुभव रखने’ में अन्तर वैसा नगण्य नहीं है।
अनुभव-सत्यता पर-व्यक्तिगत अनुभूति के खरेपन पर जो आग्रह छायावाद ने आरम्भ किया था-काव्य के परम्परागत अभिप्रायों और ऐतिहासिक पौराणिक वृत्त को ही अपना विषय न मान कर, अनुभूति-प्रत्यक्ष और अन्तश्चेतन-संकेतित को सामने लाना छायावादी विद्रोह का एक रूप रहा-यह नयी कविता में भी वर्तमान है। पर कृतिकारत्व जब समाज के किसी विशिष्ट सुविधा-सम्पन्न अंग तक सीमित नहीं रहा है, तब यह सच्चाई का आग्रह ही कवि के क्षेत्र को मर्यादित भी करता है। जिस गिरि-वन-निर्झर के सौन्दर्य को संस्कृत का कवि किसी भी प्रदेश में मूर्त कर सकता था, उसे यथार्थ में प्रतिष्ठित करने के लिए आज कवि पहले आपको मसूरी की सैर पर ले जाता है या नैनीताल की झील पर, या कश्मीर या दार्जिलिंग; जिस ग्राम-सुषमा का वर्णन खड़ी बोली के कवि इस शती के आरम्भ में भी इतने सहज भाव से करते थे, उसे सामने लाने से पहले कवि अपने प्रदेश अथवा अंचल की सीमा-रेखा निर्धारित करने को बाध्य होता है-क्योंकि वह जानता है कि प्रत्येक अंचल का ग्राम-जीवन विशिष्ट है और एक का अनुभव दूसरे को परखने की कसौटी नहीं देता-और यही कारण है कि नयी कविता के प्रकृति-वर्णन में ऐसे दृश्यों का वर्णन अधिक होने लगा है जो किसी हद तक प्रादेशिकता से पूरे हो सकते हैं-जो प्रकृति-क्षेत्र की ‘आत्यन्तिक’ घटनाएँ हैं-सूर्योदय, सूर्यास्त, बरसात की घटा, आँधी...इतना ही नहीं, उसमें गोचर अनुभवों का विपर्यय भी अधिक होता है। यथा, ‘दृश्य’ को ‘मूर्त’ करने के लिए वह जो अनुभूति ‘चित्र’ हमारे सम्मुख लाता है। उसका आधार दृष्टि (अथवा घ्राण) न हाकर स्पर्श हो जाता है-अर्थात् वह ‘दृश्य’ रहता ही नहीं। वसन्त के वर्णन में फूलों-कोपलों का ‘स्पष्ट और स्फुट ब्यौरा’ देने चलते ही एक प्रदेश अथवा क्षेत्र के साथ बँध जाना पड़ता, और यही बात गन्धों की चर्चा से होती; पर वसन्त को यदि केवल धूप की स्निग्ध गरमाई के आधार पर ही अनुभूति-प्रत्यक्ष किया जा सके तो प्रादेशिक सीमा-रेखाएँ क्यों खींची जाएँ?
नि:सन्देह अति कर जाने पर यही प्रवृत्ति स्वयं अपनी शत्रु हो जा सकती है और अनुभूति-सत्यता तथा व्यापकता का द्विमुख आग्रह फिर ऐसी स्थिति ला सकता है जिसमें कविता यन्त्रवत् कुशलता के साथ बने-बनाये अभिप्रायों का निरूपण, रक्त-माँस-हीन बिम्बों और प्रतीकों का सृजन हो जाए। प्रतीक ही नहीं, बिम्ब भी कितनी जल्दी प्रभावहीन, निष्प्राण अभिप्राय-भर हो जाते हैं, समकालीन साहित्य में नागफनी, कैक्टस और गुलमोहर की छीछालेदर इसका शिक्षाप्रद उदाहरण है? पर अभी तो खतरा अधिकतर सैद्धान्तिक है, और अभी नयी कविता के सम्मुख अपने को अपनी प्रकृति के अनुरूप बनाने के प्रयत्न के लिए काफ़ी खुला क्षेत्र है। बल्कि अभी तो व्यापक प्रतीकों की इस खोज की और अल्पसंख्य कवि ही प्रवृत्त हुए हैं, और प्रामाणिकता का आग्रह आँचलिक, प्रादेशिक अथवा पारिवेशिक प्रवृत्तियों में ही प्रतिफलित हो रहा है।
नयी काव्य प्रवृत्तियों को सामने रख कर एक अर्थ में कहा जा सकता है कि प्रकृति-काव्य अब वास्तव में है ही नहीं। एक विशिष्ट अर्थ में यह भी कहा जा सकता है कि छायावाद का प्रकृति-काव्य अपनी सीमाओं के बावजूद अन्तिम प्रकृति-काव्य था; यदि छायावादी काव्य मर गया है तो उसके साथ ही प्रकृति-काव्य की अन्त्येष्टि भी हो चुकी है। किन्तु ऊपर के निरूपण से यह स्पष्ट होना चाहिए कि ऐसा एक विशिष्ट अर्थ में ही कहा जा सकता है; और यह विशेषता नये प्रकृति-काव्य का शील-निरूपण करने में सहायक होती है।
छायावाद के लिए ‘प्रकृति’ मानवेतर यथार्थ का पर्याय नहीं थी, मानव के साथ मानव-निर्मिति को छोडक़र शेष जगत भी उसकी प्रकृति नहीं था। बल्कि इस शेष में जो सुन्दर था, जो सौष्ठव-सम्पन्न था, जो ‘रूप’-सम्पन्न था, वही उसका लक्ष्य था। शास्त्रीय (क्लासिकल) दृष्टि में प्रकृति की हर क्रिया और गति-विधि एक व्यापक नियम अथवा ऋतु की साक्षी है; छायावाद की दृष्टि ऋतु की अमान्य नहीं करती थी, पर उसका आग्रह रूप-सौष्ठव पर था। नयी कविता के रूप का आग्रह कम नहीं है, पर उसने सौष्ठव वाले पक्ष को छोड़ दिया है, तद्वत्ता पर ही वह बल देती है। ‘व्यवस्थित संसार’ के स्थान में ‘सुन्दर संसार’ की प्रतिष्ठा हुई थी; अब उसके स्थान में ‘तद्वत संसार’ ही सामने रखा जाता है। इतना ही नहीं, मानव-निर्मिति को भी उससे अलग नहीं किया जाता-क्योंकि ऐसी असम्पृक्त प्रकृति अब दीखती ही कहाँ है!
इस प्रकार प्रकृति-वर्णन का वृत्त कालिदास के समय से पूरा घूम गया है। कालिदास ‘प्रकृति के चौखटे में मानवी भावनाओं का चित्रण’ करते थे; आज का कवि ‘समकालीन मानवीय संवेदना के चौखटे में प्रकृति’ को बैठाता है। और, क्योंकि समकालीन मानवीय संवदेना बहुत दूर तक विज्ञान की आधुनिक प्रवृत्ति से मर्यादित हुई है, इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि आज का कवि प्रकृति को विज्ञान की अधुनातन अवस्था के चौखटे में भी बैठाता है। ऋतु का स्थान वैज्ञानिक शोध ने ले लिया है। किन्तु ऋतु सनातन और आत्यन्तिक था, वैज्ञानिक शोध के दिङ्मान बदलते हैं... फलत: ‘प्रकृति का सान्निध्य’ नये कवि को पहले का-सा आश्वस्त भाव नहीं देता, उसकी आस्थाओं को पुष्ट नहीं करता-इसके लिए वह नये प्रतीकों की खोज करता है। पर प्रतीकों की रचना के-उनकी अर्थवत्ता के विकास और ह्रास के-अन्वेषण का क्षेत्र, चेतन और अवचेतन के सम्बन्धों का क्षेत्र है; जो जोखम-भरा भी है और केवल प्रकृति-काव्य के रूप-परिवर्तन के वर्णन के लिए अनिवार्य भी नहीं है, अत: उसमें भटकना असामयिक होगा।
किन्तु प्रस्तुत संकलन-ग्रन्थ के प्रणयन की मूल प्रेरणा को ध्यान में रखते हुए कदाचित् इतना कहना उचित होगा कि यदि इस विशेष अर्थ में छायावाद वस्तुत: अन्तिम प्रकृति-काव्य था, तो सुमित्रानन्दन पन्त स्वभावत: युग-कवि रहे। अथवा-ऐसा श्लेष इस प्रसंग में क्षन्तव्य हो तो-यह कहा जाए कि पन्त और ‘निराला प्रकृति-काव्य के अन्तिम युग के युग-कवि रहे। हमारे सौभाग्य से दोनों ही कवि हमारे मध्य में रहे हैं, यद्यपि छायावाद का युग बीत चुका माना जाता है। किन्तु युग-कवि का युग को अतिक्रान्त करना ही स्वाभाविक है। सुमित्रानन्दन पन्त की अद्यतन रचनाएँ उन प्रकृतियों के प्रतिकूल नहीं हैं जिनकी हम उनकी रचनाओं से परवर्ती काल के लिए उद्भावना करते, यह उनकी दृष्टि के खरेपन का ही प्रमाण है।