प्रकृति की छाया में / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुबह जागकर जब चारपाई से नीचे पैर रखते हैं, तो धरती का स्पर्श होता है, तब मुँह से अनायास निकल पड़ता है-

समुद्रवसने देवि! पर्वतस्तनमण्डिते।

विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व में। (समुद्र रूपी वस्त्रों को धारण करने वाली, पर्वतरूपी स्तनवाली, हे भगवान् विष्णु की पत्नी वसुधा मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ। तुम मेरे पादस्पर्श को क्षमा करो।)

इस श्लोक में बहुत बड़ी बात कह दी गई है। जिनकी अन्तरात्मा प्रकृति से जुड़ी है, उन सबके लिए धरती माता तुल्य है। जागते ही हर कोई इसी माता पर पाँव टिकाता है। पर्वतों से बहकर आने वाली नदियाँ ही हमारा पोषण करती हैं, जैसे जन्मदायिनी माता के दुग्धपान से हर शिशु पलता है। उसी माता को प्रणाम करने से हमारा दिन प्राम्भ होता है।

वेदों का ॠषि प्रकृति से जुड़ा था, गर्भनाल से जुड़े शिशु की तरह। हवा, पानी, बादल सभी में जीवन का माधुर्य घुला होता था। जीवन का माधुर्य इनके बिना सम्भव भी नहीं। वेद के इन दो मन्त्रों की गहनता पर विचार करें कि प्रकृति का किस प्रकार का माधुर्य मानव को वांछित है-

मधु वाता ॠतायते, मधु क्षरन्ति सिन्धव:।

माध्वीर्न: सन्त्वोषधी:॥ 1. 14. 90. 6.

मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रज:।

मधु द्यौरस्तु न: पिता॥॥ 1. 14. 90. 7.

(शाश्वत सत्य व्यवहार चाहने वालों के लिए वायु मन्द–सुगन्ध हो अर्थात् सरस होकर बहे, नदियाँ जिस प्रकार माधुर्य की वर्षा करती हैं, उसी प्रकार सोमलता अन्नादि माधुर्य के विशिष्ट परिचायक हों।)

हमारे लिए रात्रि और उषाकाल माधुर्य से युक्त हों, पृथिवी में सभी भूमिकण माधुर्य से ओतप्रोत हों तथा पालन करने वाली सूर्य की आभा स्बके लिए मधुरिम हो।)

यही कारण है कि प्रकृति की अन्तरंगता के कारण शुभकामनाओं से भरे ये भाव वेद ॠचाओं से नि: सृत होने लगते हैं–

शन्नो वात: पवतां शन्नस्तपतु सूर्य:।

शन्न: कनिक्रदद्देव पर्जन्यो अभिवर्षतु।

'हे प्रभु! हमारे लिए वायु शुभगति से संचरण करे, सूर्य हमें यथाकाम्य सुखप्रद ताप प्रदान करे, शब्दायमान् मेघ हमारे लिए कल्याणकारी हों और सब ओर से सुखद वर्षा करें।

इस मन्त्र में जो कामना कि गई है वह समष्टि ('न:' =हमारे लिए) के लिए है। प्रत्येक ॠतु हमारे लिए सुखद हो। आँधियाँ और भीषण गर्मी हमें पीड़ित न करे। बादल सुखद वर्षा ही करें। अनावृष्टि और अतिवृष्टि का प्रकोप न हो। वैदिक ॠषि का प्रकृति के प्रति यह नितान्त आत्मीय भाव सिद्ध करता है कि उसकी तन्मयता और पावनता के मूल में प्रकृति का महत्त्वपूर्ण अवदान है; लेकिन प्रकृति का यह सामंजस्य, यह मांगलिक रूप मानव के शुभ कर्म पर ही आधारित है। हमारी भावना ही वसुधा को कुटुम्ब का रूप दे सकती है। गीता के चौथे अध्याय में कहा है-

अन्नाद् भवन्ति भूतानि, पर्जन्यादन्नसम्भव:।

यज्ञाद् भवति पर्जन्यो, यज्ञ: कर्मसमुद् भव:॥ 4. 14

[सारे प्राणी अन्न पर आश्रित हैं और अन्न मेघ की शुभ वर्षा पर निर्भर है। वर्षा का आधार है यज्ञ और यज्ञ, कर्म पर आधारित है।]

हमारे कर्म पूरी प्रकृति में व्याप्त हैं। एक ओर प्रकृति हमको प्रभावित करती है, तो दूसरी ओर हमारे कर्म प्रकृति को प्रभावित करते हैं। मनुष्य के कर्म प्रकृति का सन्तुलन बिगाड़ते हैं तो प्रतिक्रिया स्वरूप प्रकृति भी मानव–जीवन को अपने प्रकोप से छिन्न–भिन्न करती है। परस्पर आत्मीयता और सांमजस्य का अभाव तमाम उत्पातों की जड़ है। गीता के सातवें अध्याय में सारे ज्ञान के साथ कृष्ण जी पंचमहाभूत के लिए भी ध्यान आकृष्ट करते हैं-

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो:।

प्रणव: सर्ववेदेषु शब्द: खे पौरुषं नृषु॥8॥

पुण्यो गन्ध: पृथिव्याँ च तेजश्चास्मि विभावसौ।

जीवन सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु॥9॥

[हे अर्जुन! मैं जल का स्वाद हूँ चन्द्रमा और सूर्य का प्रकाश हूँ, सब वेदों में ओंकार हूँ, आकाश में शब्द हूँ तथा मनुष्य में सामर्थ्य हूँ। 8.

मैं पृथिवी में मूल सुगन्ध और अग्नि की ऊष्मा हूँ। मैं सब प्राणियों में जीवन और सब तपस्वियों में तप हूँ॥9॥]

इस प्रकार जल (रस) , आकाश (शब्द) , पृथिवी (आद्य गन्ध) , अग्नि (तेज / रूप) का अस्तित्व ही जीवन है।

प्रकृति के सौन्दर्य और आत्मीयता का संस्कृत साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलं, मेघदूत, भवभूति के उत्तररामचरित और बाणभट्ट की कादम्बरी इसके उत्तम उदाहरण हैं।

अभिज्ञान शाकुन्तलं, के चतुर्थ अंक में काश्यप ॠषि के शकुन्तला कि विदाई के समय के ये शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण हैं और शकुन्तला के प्रकृति प्रेम का सबसे बड़ा उदाहरण है कि स्वयं पानी पीने से पहले पौधों को पानी देती थी, अलंकार प्रिय होने पर भी एक भी पत्ती नहीं तोड़ती थी–

पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्मास्वपीतेषु या

नादत्ते प्रियमण्डनोऽपि भवतां स्नेहेन या पल्लवम्।

इस प्रकृति–प्रेम का प्रत्युत्तर विदाई के समय इस प्रकार मिलता है-

उद्गलित्दर्भकवल मृग्य: परित्यक्तनर्तना मयूरा:

अपसृतपाण्डुपत्रा मुञ्चन्त्यश्रूणीव लता:। 4. 12.

[मृगियों ने कुशा के ग्रास उगल दिए हैं, मोरों ने नाचना छोड़ दिया है और लताएँ पीले पत्तों का त्यागकर मानों अपने आँसू बहा रही हों।]

यही नहीं जिस अनाथ मृगशावक कुशा से घायल मुख में इंगुदी का तेल लगाकर शकुन्तला ने उपचार किया था, जिसको पुत्रवत् स्वीकृत कर पाला था वह भी प्रस्थान के समय उसका रास्ता रोक लेता है।

प्रकृति को असन्तुलित करने के लिए हिरन का शिकार करने वाले या उनकी खाल की तस्करी करने वाले इस तरह का प्यार या आत्मीयता नहीं पा सकते।

हिन्दी साहित्य पर दृष्टिपात करें तो शुद्ध रूप में प्रकृति चित्रण के दर्शन कम ही होते हैं। सूर काव्य में कृष्ण के विरह में गायों की व्याकुलता का मार्मिक चित्रण है, रीति काव्य में प्रकृति उद्दीपन रूप में है या लताओं, फूलों के नाम गिनाने तक सीमित हैं। निराला, पन्त और प्रसाद के काव्य में प्रकृति का मनोरम रूप निखरकर सामने आया है। बाद के कवियों में इसे और गहराई से उकेरा गया है, जिनमें अज्ञेय, भवानी प्रसाद मिश्र, गिरिजा कुमार माथुर, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन केदार नाथ सिंह की नूतन उद्भावनाएँ मुग्ध करती हैं।

हिन्दी के हाइकु साहित्य का अवगाहन किया जाए तो डॉ भगवत शरण अग्रवाल, डॉ सुधा गुप्ता, नलिनी कान्त, नीलमेन्दु सागर के प्रकृति-चित्रण का वैविध्य एक ताज़गी का आभास कराता है। इसके बाद की पीढ़ी में डॉ भावना कुँअर, डॉ हरदीप सन्धु, कमला निखुर्पा, डॉ ज्योत्स्ना शर्मा, रचना श्रीवास्तव, डॉ जेन्नी शबनम आदि ने गहन अनुभूतिमय चित्र प्रस्तुत किए हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि अन्य कवियों ने प्रकृति विषयक हाइकु नहीं लिखे हैं; लेकिन वह लेखन उनके सम्पूर्ण लेखन का एक बहुत छोटा अंश है। कुछ ने केवल परम्परागत वर्णन को लिया है तो कुछ केवल साधारण वर्णन या नामपरिगणनात्मक हाइकु की दीवार नहीं लाँघ पाए हैं। आलम्बन रूप में प्रकृति–चित्रण के लिए सूक्ष्म पर्यवेक्षण की आवश्यकता है।

डॉ सुधा गुप्ता के हाइकु-काव्य का अवगाहन करने पर एक महत्त्वपूर्ण तथ्य उभरकर सामने आया, जो आह्लादकारी होने के साथ चौंकाता है। वह तथ्य है प्रकृति का वैविध्यपूर्ण चित्रण। आलम्बन रूप में संचित इनके हाइकु में मनोरम चित्रों की भरमार है, जो कवयित्री के व्यापक अनुभव, गहन संवेदना और प्रकृति के प्रति रागात्मकता का प्रतिफलन है। जीवन–जगत के रोज़मर्रा के उपमान और दृश्य इनके हाइकु-चित्रण को और अधिक सजीव और विश्वसनीय बना देते हैं। प्रकृति के प्रति इनका असीम आकर्षण ही कहा जाएगा कि ये दस–पाँच हाइकु नहीं हैं, वरन् एक हज़ार से भी अधिक हैं और इनमें भी आलम्बनगत वर्णन वाले हाइकु ही अधिक हैं।

हमारी यह मान्यता है–यदि फूलों के विभिन्न रंग और सुगन्ध, पक्षियों के लुभावने रंग और उनकी चहचहाहट, जलप्रपात का संगीत, शीतल मन्द सुगन्ध समीर, खुला आकाश, सिर उठाए खड़ी गिरि शृंखलाएँ, निस्सीम आकाश में खरगोशों से कुदकते मेघ जिसके मन को मुग्ध नहीं करते, उसके लिए प्रकृति–विषयक कुछ भी लिखना गले में अटकी फाँस की तरह होगा। गौरैया को जिसने अपने चूज़ों को कीड़ों का चुग्गा देते नहीं देखा, तितली पर झपटते नहीं देखा वह तितली को शाकाहारी कह सकता है और यह उसका सच है; लेकिन जिसने देखा है वह उसका सच है। विश्वभर में तरह–तरह के तूफ़ान आते रहते हैं, समुद्री लहरों के उत्पात होते हैं। इसे वही बेहतर जान सकता है, जो वहाँ के भौगोलिक परिवेश में रहता हो और उसको समझता हो। कई देश इससे निरन्तर जूझते रहते हैं। अत: बेहतर रचनाकर्म के लिए उत्कृष्ट अध्ययन, सूक्ष्म पर्यवेक्षण का प्रयास करना बहुत ज़रूरी है।

-0-