प्रकृति के संकेत और भविष्य के संकेत / जयप्रकाश चौकसे

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प्रकृति के संकेत और भविष्य के संकेत
प्रकाशन तिथि :06 अगस्त 2015


कोई चार दशक पूर्व अंग्रेजी भाषा में बनी 'एमराल्ड फॉरेस्ट' नामक फिल्म में जनजातियों के घने जंगल से उनके ही मिजाज की एक मतवाली नदी गुजरती है और पास के महानगर के रईसों को बिजली की कमी खटकती है, अत: वे दबाव बनाकर वहीं एक बांध की योजना स्वीकृत करा लेते है। विदेश में प्रशिक्षित एक बांध विशेषज्ञ की सेवाएं लेकर प्रायवेट कंपनी बांध का काम तीव्र गति से चलाती है। जनजातियों के प्रतिनिधि बांध का विरोध करते हैं, क्योंकि बांध के कारण लाखों वृक्ष डूब जाएंगे, अनेक गांव नष्ट हो जाएंगे। जाहिर है कि इस तरह के विरोध कोई प्रभाव नहीं डालते। जनजातियां शांतिपूर्वक किए गए विरोध के बेअसर होने पर बांध विशेषज्ञ के नन्हे शिशु का अपहरण कर लेते हैं। उस शिशु की खोज व्यवस्था अपनी पूरी ताकत से करती है। इसी बीच सरकार बदलने से बांध योजना स्थगित हो जाती है। सारे मशीनी ताम-झाम हटा लिए जाते हैं।

बांध विशेषज्ञ अपनी ओर से पूरा प्रयास करता है, असफल होकर हताश शहर लौट जाता है। कोई 17 वर्ष पश्चात चुनावी लहर के करवट लेते ही पूंजीपतियों की सरकार सत्ता में आती है और बांध योजना पुन: प्रारंभ होती है। बांध विशेषज्ञ पुन: अपने बेटे को खोजने का प्रयास करता है। एक दिन श्याम वर्ण की जनजातियों के बीच एक गोरा चिट्‌टा, आसमानी आखों वाला युवा उसे दिख जाता है और तेज चलते घटनाक्रम में स्पष्ट होता है कि यह युवा वही अपहरण किया हुआ शिशु है, जो अब पूरी तरह अपने आचरण और सोच में जनजाति का हो चुका है। जनजाति का मुखिया उस युवा को इजाज़त देता है कि वह अपने पिता के साथ अपनी दुनिया में लौट जाएं परंतु इस घर वापसी के बाद वह प्रकृति की गोद में जवां हुआ युवा अपने सभ्य परिवार में अपने को समाहित नहीं कर पाता और उसके कष्ट देखकर उसका पिता उसे आज्ञा देता है कि वह चाहे तो लौट सकता। एक बार पिता उस मुखिया से मिलता है, जो मेंढ़कों को तालाब छोड़कर ऊंचाइयों की ओर जाते देखता है तो कहता है कि यह भारी बारिश का संकेत है और वह उस अभागे पिता को अपने साथ ऊंचाई पर बनी गुफा में ले जाता है और उनके सुरक्षित स्थान पर पहुंचते ही घनघोर वर्षा होती है और 'सभ्य' पिता दो दिन उस गुफा में जनजाति के लोगों के साथ गुजारता है, वहां वह अपने पुत्र की सांवली सलोनी षोडसी से भी मिलता है। वह महसूस करता है कि ये प्रकृति की गोद में पली जनजातियां कितने आनंद से रहती है और प्रकृति तथा जनजातियों का परस्पर संवाद निरंतर कायम रहता है।

कुछ दिन पश्चात आधी रात को 'सभ्य' पिता अपने बेटे को अपने शयन कक्ष में देखकर आश्चर्यचकित है कि यह भीतर कैसे आ गया। पुत्र बताता है कि तीन मंजिल की ऊंचाई चढ़ने उसके लिए आसान है और खिड़की के रास्ते आया है। पुत्र उसे बताता है कि बांध के ठेकेदार ने जनजाति की कई युवा लड़कियों का अपहरण किया है और उन्हें बेचने शहर जाने वाला है और इन लड़कियों में उसकी भावी बहू भी है। पिता-पुत्र मिलकर लड़कियों को स्वतंत्र कराते है।

कुछ दिनों के पश्चात विशेषज्ञ यह समझ लेता है कि यह बांध तबाही लाएगा। नदी के भीतर से डाले सीमेंट के पिलर धरती को दु:ख का संकेत दे रहे हैं और नाराज हो सकती है। वह यह भी जानता है कि पहाड़ी क्षेत्र में पैदा की गई बिजली महानगरों की सुविधा के लिए है और कार्य रोकने का हर प्रयास विफल कर दिया जाएगा। उसके एकमात्र पुत्र का जीवन संकट में है। वह साहसी निर्णय लेता है। एक रात अधबने बांध पर बारूद लगाकर उसे उड़ा देता है और स्वयं भी मर जाता है।

इस फिल्म की पाठशाला में संदेश स्पष्ट है कि सारी प्राकृतिक आपदाएं सचमुच प्राकृतिक नहीं हैं और उनमें मनुष्य की भूमिका भी है। यही टिहरी बांध के कारण उत्तराखंड में हुआ। गगन चुंबी इमारतों के कारण नेपाल में हुआ। हमने पांच हजार सालों में धरती का दस प्रतिशत दोहन किया था परंतु विगत डेढ़ सौ सालों में 40 प्रतिशत दोहन किया है। सच तो यह है कि विकास के मंत्र से वशीभूत लोग प्रकृति के संदेश को अनदेखा कर रहे हैं। आयुर्वेद के जानकारों को जड़ी बुटियां ही नहीं मिल रही है। सब 'डूब' में आ गई हैं।