प्रकृति ही परमात्मा / ओशो

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रवचनमाला

मैं प्रकृति में ही परमात्मा को देखता हूं। प्रतिक्षण, प्रतिघड़ी उसका मुझे अनुभव हो रहा है। एक श्वास भी ऐसी नहीं आती-जाती है, जब उससे मिलना न हो जाता हो। जहां भी आंख पड़ती है, देखता हूं कि वह उपस्थित है और जहां भी कान सुनते हैं, पाता हूं कि उसका ही संगीत है।

वह तो सब जगह है, केवल उसे देखने भर की बात है। वह तो है, पर उसे पकड़ने के लिए आंख चाहिए। आंख के आते ही सब दिशाओं में और सब समय उपस्थित हो जाता है।

रात्रि में आकाश जब तारों से भर जाए, तो उन तारों को सोचों मत, देखो और केवल देखो। विचार न हो और मात्र दर्शन हो, तो एक बड़ा राज ,खुल जाता है और प्रकृति के द्वार से उस रहस्य में प्रवेश होता है, जो कि परमात्मा है। प्रकृति परमात्मा के अवतरण से ज्यादा कुछ भी नहीं है और जो उसके घूंघट को उठाना जानते हैं, वे ही केवल जीवन के सत्य से परिचित हो पाते हैं।

सत्य का एक युवा खोजी किसी सद्गुरु के पास था। उसने जाकर पूछा,

'मैं सत्य को जानना चाहता हूं, मैं धर्म को जानना चाहता हूं। कृपा करें और मुझे बतायें कि मैं कहां से प्रारंभ करूं?'

सद्गुरु ने कहा,

'क्या पास ही पर्वत से गिरते जलप्रपात की ध्वनि सुनाई पड़ रही है?'

युवक ने कहा,

'मैं तो उसे भली-भांति सुन रहा हूं।'

सद्गुरु बोले,

'तब वहीं से प्रारंभ करो, वहीं से प्रवेश करो। वही द्वार है।'

सच ही प्रवेश द्वार इतना ही निकट है- पहाड़ से गिरते झरनों में, हवाओं में डोल रहे वृक्षों के पत्तों में, सागर पर नाच रही सूरज की किरणों में। पर हर प्रवेश द्वार पर पर्दा है और बिना उठाये वह उठता नहीं है। वस्तुत: वह पर्दा प्रवेश-द्वारों पर नहीं है, वह हमारी दृष्ट पर ही है और इस भांति एक परदे ने अनंत द्वारों पर परदा कर दिया है।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)