प्रकृति : एक पाठशाला / गोवर्धन यादव

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"अकंलजी, अकंलजी, आप बडी अच्छी कविताएँ लिखते हैं, कृपया मुझे भी कविता लिखना सिखाइये न!" एक प्यारी-सी नन्ही लडकी ने चहकते हुए शहर के ख्यातनाम कवि से अपनी तुतलाती भा‍षा में कहा, कवि को सुनते ही बडा सोच हुआ कि कवि तो जन्मजात होता है, किसी को कवि बनाना इतना आसान काम तो नहीं है, लेकिन लडकी की ज़िद के आगे ्वे विवश हो गये अर उन्होंने उस लडकी से कहा: बेटा तुम बस्डि होकस्र एक बडी कवियित्री बन सकती हो, लेकिन तुम्हे थोडा धीरज रखन होगा, और जैसा मैं कहूँ, उसे पूरा करना होगा, उस नन्ही बालिका ने उनकी शज़्र्त मान ली, दूसरे दिन उस कवि ने एक पौधा खरीदकर लाया और उसे रौंपते हुए कहा कि इसे रोज़ पानी पिलाना आउर इसकी अच्छे से देख-भाल भी करती रहना, पौधा जैसे-जैसे बडा होता जाएगा, तुममें कवि के गुण आते चले जाएंगे और तुम सचमुच में एक कवियित्री बन जाओगी, जैसा उन्होने कहा था, वह लडकी रोज़ प्राणपन से उस पौधे की जडॊं में पानी डालती और उसकी देखरेख कर्ती रहती, जैसे–जैसे लडकी बडी होती गई, वैसे-वैसे पौधा भी आकाश की ओर बढता रहा, कुछ दिन बाद कई पक्षियों ने उस पेड की डाली पर अपने घोंसले बनाने शुरु किए, एक अच्छा खासा पक्षियों का परिवार वह बस गया था, वे तरह-तरह की बोलियाँ बोलते, लडकी पर इस माहौल का प्रभाव अपना रंग दिखाने लगा था और वह भावुक भी होती चली जा रही थी, और उसकी सोच का दायरा भी बढ्ता चल जा रहा था, अब वह कुछ लिखने भी लगी थी, प्रकृति की संगत में रहकर कोई भी व्यक्ति कवि तो बन ही सकता है, यह निर्विवाद सत्य है, क्योंकि प्रकृति एक पाठशाला भी तो होती है।