प्रक्षेपण / सुकेश साहनी
"रोहित, रमन अंकल के यहाँ से अखबार माँग लाओ."
"पापा...मैं वहाँ नहीं जाऊँगा..."
"क्या कहा? नहीं जाओगे!" उन्होंने गुस्से से रोहित को घूरा, "क्या वे अखबार देने से मना करते हैं?"
"नहीं...पर" पाँच वर्षीय रोहित ने झुँझलाते हुए कहा, "...मैं कैसे बताऊँ... मैं जब अखबार माँगने वहाँ जाता हूँ तो वे लोग न जाने कैसे-कैसे मेरी ओर देखते हैं।"
"किसी ने तुमसे कुछ कहा?"
सब्जी काट रही माँ हाथ रोकर बेटे की ओर देखने लगी, नीतू भी अपने छोटे भाई के नजदीक आकर खड़ी हो गई।
"कुछ कहा तो नहीं पर..." उसे चेहरे पर अपनी बात न कह पाने की बेबसी साफ दिखाई दे रही थी, "मैं जब अखबार माँगता हूँ तो वे लोग आपस में एक दूसरे की ओर इस तरह देखते हैं कि...मुझे अच्छा नहीं लगता है!"
"वे रोजाना अखबार दे देते हैं...तुझसे कभी कुछ कहा भी नहीं, फिर क्यों नहीं जाएगा?" उन्होंने आँखें निकालीं।
"नवाब साहब को अच्छा नहीं लगता! ...कामचोर!" सब्जी काटते हुए माँ बड़बड़ाई।
"पापा, ये बहुत बहानेबाज हो गया है।" नीतू भी बोली।
"अब जाता क्यों नहीं?" उन्होंने दाँत पीसते हुए रोहित की ओर थप्पड़ ताना।
रोहित डरकर रमन अंकल के घर की तरफ चल दिया। बरामदे में उनका झबरा कटोरे से दूध पी रहा था। रोहित का मन हुआ-लौट जाए। उसने पीछे मुड़कर अपने घर की ओर देखा। उसे लगा, पापा अभी भी जलती हुई आँखों से उसे घूर रहे हैं।
उसने दीर्घ निःश्वास छोड़ी उसकी आँखों की चमक मंद पड़ती चली गई. उसने बेजान कदमों से रमन अंकल के घर में प्रवेश किया।