प्रखर प्रतिभा के धनी थे नन्दन जी / रूपसिंह चंदेल
आठवें दशक के मध्य की बात है. धर्मयुग के किसी अंक में हृदयखेड़ा के एक सज्जन पर केन्द्रित रेखाचित्र प्रकाशित हुआ था. हृदयखेड़ा मेरे गांव से तीन मील की दूरी पर दक्षिण की ओर पाण्डुनदी किनारे बसा गांव है, जहां मेरी छोटी बहन का विवाह 1967 में हुआ था. वर्ष में दो-तीन बार वहां जाना होता. रेखाचित्र जिसके विषय में था उन्हें मैं नहीं जानता था, लेकिन उसके लेखक के नाम से परिचित था. वह धर्मयुग के सहायक सम्पादक कन्हैंयालाल नन्दन थे. तब नन्दन जी के नाम से ही परिचित था, लेकिन उस रेखाचित्र ने मुझे इतना प्रभावित किया कि उसने नन्दन जी के प्रति मेरी उत्सुकता बढ़ा दी. मैंने बहनोई से पूछा. उन्होंने इतना ही बताया कि नन्दन जी उनके पड़ोसी गांव परसदेपुर के रहने वाले हैं. परसदेपुर का हृदयखेड़ा से फासला मात्र एक फर्लांग है. कितनी ही बार मैं उस गांव के बीच से होकर गुजर चुका था. मेरे गांव से उसकी दूरी भी तीन मील है....बीच में करबिगवां रेलवे स्टेशन....यानी रेलवे लाइन के उत्तर मेरा गांव और दक्षिण परसदेपुर.
इस जानकारी ने कि नन्दन जी मेरे पड़ोसी गांव के हैं उनके बारे में और अधिक जानने की इच्छा मेरे मन में उत्पन्न कर दी . उन दिनों मैं मुरादनगर में था और साहित्य से मेरा रिश्ता धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बनी और सारिका आदि कुछ पत्रिकाएं पढ़ने तक ही सीमित था. मैंने नन्दन जी के बारे में अपने बड़े भाई साहब से पूछा.
‘‘तुम नहीं जानते ?’’ उनके प्रश्न से मैं अचकचा गया था. चुप रहा.
‘‘रामावतार चेतन के बहनोई हैं. मुम्बई में रहते हैं ...परसदेपुर में सोनेलाल शुक्ल के पड़ोसी हैं.’’ और वह करबिगवां स्टेशन में कभी हुई नन्दन जी से अपनी मुलाकात का जिक्र करने लगे.
मैं अपनी अनभिज्ञता पर चुप ही रहा. सोनेलाल शुक्ल से कई बार मिला था, क्योंकि वह मेरे गांव आते रहते थे. मेरे पड़ोसी कृष्णकुमार त्रिवेदी उनके मामा थे और चेतन जी की कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ता रहा था.
हिन्दी साहित्य की दो हस्तियां मेरे पड़ोसी गांव की थीं, इससे मैं गर्वित हुआ था.
नन्दन जी से यह पहला परिचिय इतना आकर्षक था कि मैं उनसे मिलने के विषय में सोचने लगा, लेकिन यह संभव न था. कई वर्ष बीत गए. एक दिन ज्ञात हुआ कि नन्दन जी ‘सारिका’ के सम्पादक होकर दिल्ली आ गए हैं, लेकिन मित्रों ने उनकी व्यस्तता और महत्व का जो खाका खींचा उसने मुझे हतोत्साहित किया. मैं उनसे मिलने जाने की सोचता तो रहा, लेकिन कुछ तय नहीं कर पाया. तभी एक दिन एक मित्र ने बताया कि नन्दन जी मुरादगर आए थे.....कुछ दिन पहले.
‘‘किसलिए ?’’
‘‘हमने काव्य गोष्ठी की थी उसकी अध्यक्षता के लिए.’’
‘‘और मुझे सूचित नहीं किया !’’
मित्र चुप रहे. शायद मुझे सूचित न करने का उन्हें खेद हो रहा था.
‘‘मैं मिलना चाहता था. ’’ मैंने शिथिल स्वर में कहा था.
‘‘इसमें मुश्किल क्या है! कभी भी उनके घर-दफ्तर में जाकर मिल लो. बहुत ही आत्मीय व्यक्ति हैं. मैं दो बार उनसे उनके घर मिला हूं ......’’
मित्र से नन्दन जी के घर का फोन नम्बर और पता लेने के बाद भी महीनों बीत गए. मैं नन्दन जी से मिलने जाने के विषय में सोचता ही रहा था.
अंततः अप्रैल 1979 के प्रथम सप्ताह मैंने एक दिन आर्डनैंस फैक्ट्री के टेलीफोन एक्सचैंज से नन्दन जी को फोन किया, अपना परिचय दिया और मिलने की इच्छा प्रकट की.
‘‘किसी भी रविवार आ जाओ .’’ धीर-गंभीर आवाज कानों से टकराई.
‘‘इसी रविवार दस बजे तक मैं आपके यहां पहुंच जाऊंगा.’’ मैंने कहा. ‘‘ठीक है ....आइए.’’
नन्दन जी उन दिनों जंगपुरा (शायद एच ब्लॉक) में रहते थे. मैं ठीक समय पर उनके यहां पहुंचा. पायजामे पर सिल्क के क्रीम कलर कुर्ते में उनका व्यक्तित्व भव्य और आकर्षक था. सब कुछ बहुत ही साफ-सुथरा ....आभिजात्य. नन्दन जी सोफे पर मेरे बगल में बैठे और भाभी जी हमारे सामने. हम चार धण्टों तक अबाध बातें करते रहे. गांव से लेकर शिक्षा, प्राध्यापकी, पत्रकारिता, साहित्य आदि पर नन्दन जी अपने विषय में बताते रहे. शायद ही कोई विषय ऐसा था जिस पर हमने चर्चा न की थी. जब उन्होंने बताया कि उन्होंने ‘भास्करानंद इण्टर कॉलेज’ नरवल’ से हाईस्कूल किया था तब मेरी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा था. मैंने उन्हें बताया कि मैंने भी उसी कॉलेज से हाईस्कूल किया था.
बीच-बीच में नन्दन जी फोन सुनने के लिए उठ जाते, लेकिन उसके बाद फिर उसी स्थान पर आ बैठते. बीच में एक बार लगभग आध घण्टा के लिए वह चले गए तब भाभी जी से मैं बातें करता रहा, जिन्हें दिल्ली रास नहीं आ रही थी. वह मुम्बई की प्रशंसा कर रही थीं, जहां लड़कियां दिल्ली की अपेक्षा अधिक सुरक्षित अनुभव करती थीं.
उस दिन की उस लंबी मुलाकात की स्मृतियां आज भी अक्ष्क्षुण हैं.
यह वह दौर था जब मैं कविता में असफल होने के बाद कहानी पर ध्यान केन्द्रित कर रहा था. मेरी पहली कहानी मार्क्सवादी अखबार ‘जनयुग’ ने प्रकाशित की, और लिखने और प्रकाशित होने का सिलसिला शुरू हो गया था. एक कहानी ‘सारिका’ को भेजी और कई महीनों की प्रतीक्षा के बाद सारिका कार्यालय जाने का निर्णय किया. तब तक मैं दिल्ली शिफ्ट हो चुका था.
मिलने के लिए चपरासी से नन्दन जी के पास चिट भेजवाई. तब सारिका के सम्पादकीय विभाग के किसी व्यक्ति से मेरा परिचय नहीं था, इसलिए चपरासी के बगल की कुर्सी पर बैठकर प्रतीक्षा करने लगा. दस मिनट की प्रतीक्षा के बाद नन्दन जी ने मुझे बुलाया. कंधे पर लटकते थैले को गोद पर रख मैं उनके सामने किसी मगही देहाती की भांति बैठ गया था.
‘‘कहें ?’’ फाइलों पर कुछ पढ़ते हुए नन्दन जी ने पूछा. ‘‘यूं ही दर्शन करने आ गया.’’ मेरी हर बात पर देहातीपन प्रकट हो रहा था, जिसे नन्दन जी कब का अलविदा कह चुके थे....शायद गांव से निकलते ही.
‘‘हुंह.’’ उस दिन मेरे सामने बैठे नन्दन जी घर वाले नन्दन जी न थे. हर बात का बहुत ही संक्षिप्त उत्तर ....और कभी-कभी वह भी नहीं. लगभग पूरे समय फाइल में चेहरा गड़ाए वह कुछ पढ़ते-लिखते रहे. मेरे लिए चाय मंगवा दी और, ‘‘मैंने अभी पी थी’’ मुस्कराते हुए उन्होंने कहा, ‘‘आप पियें ...तब तक मैं कुछ काम कर लूं.’’ वह फाइल में खो गए थे.
इसी दौरान अवधनारायण मुद्गल वहां आए. नन्दन जी से उन्होंने कुछ डिस्कस किया और उल्टे पांव लौट गए. नन्दन जी के संबोधन से ही मैंने जाना था कि वह मुद्गल जी थे.
मैंने उठने से पहले अपनी कहानी की चर्चा की.
‘‘देखूंगा.....’’ फिर चुप्पी.
‘अब मुझे उठ जाना चाहिए.’ मैंने सोचा और ‘‘अच्छा भाई साहब.’’ खड़े हो मैंने हाथ जोड़ दिए.
नन्दन जी ने चेहरा उठा चश्में के पीछे से एक नजर मुझ पर डाली, मुस्कराए, ‘‘ओ.के. डियर .’’
सारिका को भेजी कहानी पन्द्रह दिनों बाद लौट आयी और उसके बाद मैंने वहां कहानी न भेजने का निर्णय किया. इसका एक ही कारण था कि मैं दोबारा कभी किसी कहानी के विषय में नन्दन जी से पूछने से बचना चाहता था और वहां हालात यह थे कि परिचितों की रचनाएं देते ही प्रकाशित हो जाती थीं, जबकि कितने ही लेखकों को उनकी रचनाओं पर वर्षों बाद निर्णय प्राप्त होते थे. एक बार रचनाओं के ढेर में वे दबतीं तो किसे होश कि उसे खंगाले. नन्दन जी तक रचना पहुंचती भी न थी.
और नन्दन जी के कार्यकाल में मैंने कोई कहानी सारिका में नहीं भेजी. सारिका में जो एक मात्र मेरी कहानी प्रकाशित हुई वह ‘पापी’ थी, जिसे मुद्गल जी ने उपन्यासिका के रूप में मई,1990 में प्रकाशित किया था और इस कहानी की भी एक रोचक कहानी है, जो कभी बाद में लिखी जाएगी।
फरवरी 1983 या 1984 की बात है. कानपुर की संस्था ‘बाल कल्याण संस्थान’ ने उस वर्ष बालसाहित्य पुरस्कार का निर्णायक नन्दन पत्रिका के सम्पादक जयप्रकाश भारती को बनाया था. 1982 से उन्होंने मुझे संस्थान का संयोजक बना रखा था. प्रधानमंत्री इंदिरा जी के निवास में 19 नवम्बर,1982 को अपने संयोजन में मैं संस्थान का एक सफल आयोजन कर चुका था और केवल उसी कार्यक्रम का संयोजक था, लेकिन संस्थान दिल्ली से जुड़े मामलों का कार्यभार ‘‘मैं संस्था का संयोजक हूं...इसे संभालूं’’ कहकर मुझे सौंप देता.
उस अवसर पर भी दिल्ली के साहित्यकारों से संपर्क करना, एकाध के लिए रेल टिकट खरीदना आदि कार्य मुझे करने पड़े थे. जयप्रकाश भारती ने पुरस्कार के लिए जिन लोगों को चुना वे उनके निकटतम व्यक्ति थे, लेकिन सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह कि संस्थान के बड़े पुरस्कार के लिए उन्होंने नन्दन पत्रिका,जिसके वह सम्पादक थे, सुधा जैन का चयन किया था. यह पुरस्कार बहुत विवादित रहा था. सुधा जैन और भारती जी को लेकर अनेक प्रकार की चर्चाएं थीं, लेकिन जिस बात के लिए मैंने इस प्रसंग की चर्चा की वह नन्दन जी से जुड़ी हुई है .
कार्यक्रम कानपुर के चैम्बर ऑफ कामर्स में हुआ था. नन्दन जी कालका मेल से ठीक समय पर वहां पहुंचे. अध्यक्षता की और जब वह अध्यक्षीय भाषण दे रहे थे तब उन्होंने कहा, ‘‘मैं जयप्रकाश भारती जी को संस्थान द्वारा उनकी पत्नी को पुरस्कृत किए जाने के लिए बधाई देना चाहता हूं.’’
भारती जी और सुधा जैन मंच पर ही थे. मैं भी मंच पर नन्दन जी के बगल में बैठा हुआ था. नन्दन जी के यह कहते ही भारती जी का चेहरा फक पड़ गया था और सुधा जैन, जो अपने संगमरमरी शरीर और सौन्दर्य के लिए आकर्षण का केन्द्र थीं, ने नन्दन जी की ओर फुसफुसाते हुए कहा था, ‘‘आपने यह क्या कहा ?’’
भारती जी भी कुछ बुदबुदाए थे, जो किसी ने नहीं सुना था, क्योंकि दर्शक-श्रोता तो नहीं, लेकिन उपस्थित साहित्यकारों के ठहाकों में उनकी आवाज दब गई थी.
नन्दन जी प्रत्युत्पन्नमति व्यक्ति थे. तुरंत बोले, ‘‘मेरा आभिप्राय भारती जी की पत्नी स्नेहलता अग्रवाल जी से है...जिन्हें कुछ दिन पहले एक संस्थान ने...’’ कुछ रुककर बोले, ‘‘ एन.सी.आर.टी. ने बालसाहित्य के लिए पुरस्कृत किया है.’’ (नन्दन जी उस पुरस्कार के निर्णायक मंडल में थे ). बात आई गई हो गई. लेकिन इसने सिद्ध कर दिया कि नन्दन जी की नजर हर ओर हरेक की गतिविधि पर रहती थी.... सही मायने में वह पत्रकार थे और एक प्रखर पत्रकार थे. इसी भरोसे टाइम्स समूह ने उन्हें सारिका के बाद पराग और फिर दिनमान का कार्यभार सौंपा था. अपने समय के वह एक मात्र ऐसे पत्रकार थे जो एक साथ तीन महत्वपूर्ण पत्रिकाएं देख रहे थे. -0-0-0-
उसके बाद साहित्यिक कार्यक्रमों में प्रायः नन्दन जी से मुलाकात होने लगी थी.
‘‘कैसे हो रूपसिंह?’’ मेरे कंधे पर हाथ रख वह पूछते और, ‘‘ठीक हूं भाई साहब.’’ मैं कहता.
मेरा मानना है कि पत्रकारिता की दुनिया विचित्र और बेरहम होती है. कब कौन शीर्ष पर होगा और कौन जमीन पर कहना कठिन है. नन्दन जी के साथ भी ऐसा ही हुआ. एक साथ तीन महत्वपूर्ण पत्रिकाओं के सम्पादक और बड़े हालनुमा भव्य कमरे में बैठने वाले नन्दन जी को एक दिन नवभारत टाइम्स के ‘रविवासरीय’ का प्रभारी बनाकर (जो एक सहायक सम्पादक का कार्य होता है ) 10, दरियागंज से बहादुरशाह ज़फरमार्ग स्थित टाइम्स बिल्डिगं में एक केबिन में बैठा दिया गया था. निश्चित ही उनके लिए यह विषपान जैसी स्थिति रही होगी, लेकिन उन्होंने उस विष को अपने चेहरे पर शाश्वत मुस्कान बरकरार रखते हुए पी लिया. काफी समय तक वह उस पद पर रहे. सारिका से बलराम और रमेश बतरा भी उनके साथ गए थे. तब तक इन दोनों से मेरी अच्छी मित्रता हो चुकी थी.
1988 की बात है. सचिन प्रकाशन के लिए मैं ‘बाल कहानी कोष’ का सम्पादन कर रहा था, जिसके लिए दो सौ कहानियां मैंने एकत्र की थीं. नन्दन जी से कहानी मांगने के लिए मैं टाइम्स कार्यालय गया. बलराम ने नन्दन जी से कहा, ‘‘रूपसिंह मिलना चाहते हैं.’’
‘‘पिछले वर्ष मैंने तुम्हारे एक मित्र के लिए सिफारिश की थी...अब ये भी.....’’ नन्दन जी को भ्रम हुआ था.
बलराम ने उन्हें बताया, ‘‘नहीं, चन्देल किसी और काम से आए हैं.’’
बाहर आकर बलराम ने मुझे यह बात बताई और हंसने लगे. दरअसल नन्दन जी उन दिनों हिन्दी अकादमी दिल्ली के सदस्य थे और शायद पुरस्कार चयन समिति में थे. बलराम के जिस मित्र की शिफारिश की बात उन्होंने की थी, वह मेरे भी मित्र थे. उन्हें 1987 में हिन्दी अकादमी का पुरस्कार मिला था. शायद नंदन जी ने उसी का जिक्र बलराम से किया था. खैर, मैं नन्दन जी से मिला. एक बार पुनः आत्मीय मुलाकात. उन्होंने ड्राअर से निकालकर अपनी बाल कहानी ‘आगरा में अकबर’ मेरी ओर बढ़ा दी थी.
दुर्भाग्य कि वह ‘बाल कहानी कोष’ आज तक प्रकाशित नहीं हुआ, क्योंकि दिवालिया हो जाने के कारण सचिन प्रकाशन बन्द हो गया था और पाण्डुलिपि की कोई प्रति मैंने अपने पास नहीं रखी थी.
इस घटना के कुछ समय बाद ही नन्दन जी सण्डे मेल के सम्पादक होकर चले गए थे. उन्होंने उसे स्थापित किया. उनके साथ टाइम्स समूह के अनेक पत्रकार भी गए थे. 1991 में मेरे द्वारा सम्पादित लघुकथा संकलन ‘प्रकारान्तर’ किताबघर से प्रकाशित हुआ. हिन्दी में तब तक जितने भी लघुकथा संग्रह या संकलन प्रकाशित हुए थे, सामग्री और साज-सज्जा की दृष्टि से ‘प्रकारातंर’ अत्यंत आकर्षक था. यह संकलन मैंने तीन लोंगो- कन्हैयालाल नन्दन, हिमांशु जोशी, और विजय किशोर मानव को समर्पित किया था.
नन्दन जी की प्रति देने मैं सण्डे मेल कार्यालय गया. नन्दन जी प्रसन्न, लेकिन उस दिन भी वह मुझे उतना ही व्यस्त दिखे, जितना सारिका में मेरी मुलाकात के समय दिखे थे. यह सच है कि वह समय के साथ चलने वाले व्यक्ति थे....अतीत को लात मारकर भविष्य की सोचते और वर्तमान को जीते ....और भरपूर जीते थे.
सण्डेमेल की उस मुलाकात के बाद गाहे-बगाहे ही उनसे मिलना हुआ. मुलाकात भले ही कम होने लगी थी, लेकिन कभी-कभार फोन पर बात हो जाती थी. बात उन दिनों की है जब वह गगनांचल पत्रिका देख रहे थे. मेरे एक मित्र उनके लिए कुछ काम कर रहे थे. उन दिनों मैंने (शायद सन् 2000 में) कमलेश्वर जी का चालीस पृष्ठों का लंबा साक्षात्कार किया था. उसका एक लंबा अंश मेरे मित्र ने गगनाचंल के लिए ले लिया. ले तो लिया, लेकिन अंश का बड़ा होना उनके लिए समस्या था. ‘‘मैं नन्दन जी से बात कर लेता हूं’’ मैंने मित्र को सुझाव दिया. फोन पर मेरी बात सुनते ही नन्दन जी बोले, ‘‘रूपसिंह , पूरा अंश छपेगा..... उसे दे दो. कमलेश्वर के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूं.’’
6 जनवरी 2001 को कनॉट प्लेस के मोहन सिंह प्लेस के इण्डियन कॉफी हाउस’ में विष्णु प्रभाकर की अध्यक्षता में कमलेश्वर जी का जन्म दिन मनाया गया. हिमांशु जोशी जी ने मुझे फोन किया. वहां बीस साहित्यकार-पत्रकार थे. नन्दन जी भी थे और बलराम भी. कार्यक्रम समाप्त होने के बाद नन्दन जी ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर पूछा, ‘‘रूपसिंह क्या हाल हैं ?’’
‘‘ठीक हूं भाई साहब.’’
‘‘तुम्हे जब भी मेरी आवश्यकता हो याद करना.’’ लंबी मुस्कान बिखेरते हुए वह बोले, ‘‘यह घोड़ा बूढ़ा बेशक हो गया है, लेकिन बेकार नहीं हुआ....’’ उन्होंने बलराम की ओर इशारा करते हुए आगे कहा, ‘‘उससे पूछो.’’
मैं बेहद संकुचित हो उठा था. कुछ कह नहीं पाया, केवल हाथ जोड़ दिए थे. नन्दन जी मेरे प्रति बेहद आत्मीय हो उठे थे और उनकी यह आत्मीयता निरंतर बढ़ती गई थी. शायद उन्हें इस बात का अहसास हो गया था कि कानपुर के नाम पर उनसे बहुत कुछ पा जाने वाले या पाने की आकांक्षा रखने वाले लोगों जैसा यह शख्श नहीं है. उनके प्रति इस शख्श का आदर निःस्वार्थ है. बीस-बाइस वर्षों के परिचय में इसने उनकी सक्षम स्थिति से कुछ पाने की चाहत नहीं की. और यह सब कहते हुए भी वह जानते थे कि यह व्यक्ति शायद ही कभी किसी बात के लिए उनसे कुछ कहेगा. वह सही थे. और यही कारण था कि उनका प्रेम मेरे प्रति आगे निरतंर बढ़ता गया था.
न्यूयार्क में होने वाले विश्व हिन्दी सम्मेलन की स्मारिका के सम्पादन का कार्य उन्हें करना था. एक पत्र मिला, जिसमें डॉ. शिवप्रसाद सिंह के उपन्यास ‘अलग-अलग वैतरिणी’ पर निश्चित तिथि तक आलेख मुझे लिख भेजने के लिए उन्होंने लिखा था. उन दिनों मैं लियो तोल्स्तोय के उपन्यास ‘हाजी मुराद’ के अनुवाद को अंतिम रूप दे रहा था. मेरे पास शिवप्रसाद जी के उपन्यास ‘नीला चांद’ पर अच्छा आलेख था. मैंने नन्दन जी को लिखा कि ‘अलग -अलग वैतरिणी’ के बजाय मैं ‘नीला चांद’ पर लिख भेजता हूं. उनका तुरंत पत्र आया, ‘‘एक सप्ताह का अतिरित समय ले लो, लेकिन लिखो ‘अलग-अलग वैतरिणी’ पर ही.’’ मुझे उनकी आज्ञा का पालन करना ही पड़ा था. बाद में एक दिन शाम सवा पांच बजे उनका फोन आया, ‘‘रूपसिंह कैसे हो ?’’
‘‘आपका आशीर्वाद है भाई साहब..बिल्कुल ठीक हूं.’’
कुछ इधर-उधर की बातें और अंत में, ‘‘आज तुम पर प्रेम उमड़ आया...तुम्हें प्रेम करने का मन हुआ .....’’ और एक जबर्दस्त ठहाका. मैं भी ठहाका लगा हंस पड़ा था.
‘‘अच्छा प्रसन्न रहो.’’ आशीर्वचन.
और उनके पचहत्तरहवें जन्म दिन का निमंत्रण. इण्डिया इण्टरनेशनल सेण्टर में आयोजन था. लगा पूरी दिल्ली के साहित्यकार-पत्रकार उमड़ आए थे. नन्दन जी के कुछ मित्र बाहर से भी आए थे. उस दिन नन्दन जी बहुत ही बूढ़े दिखे थे. बीमारी ने उन्हें खोखला कर दिया था. डायलिसिस पर रहना पड़ रहा था. 1933 में परसदेपुर (जिला - फतेहपुर (उत्तर प्रदेश ) में जन्मे इस प्रखर पत्रकार-साहित्यकार ने 25 सितम्बर, 2010 को नई दिल्ली के रॉकलैण्ड अस्पताल में तड़के तीन बजकर दस मिनट पर 77 वर्ष की आयु में इस संसार को अलविदा कह दिया था.
अत्यंत सामान्य परिवार में जन्में नन्दन जी का जीवन बेहद उथल-पुथलपूर्ण रहा. प्रेमचंद से प्रेरित हो उन्होंने अंतर्जातीय विवाह किया था, जिसके बारे में उन्होंने अपने एक आलेख में लिखा था. उनके जाने से पत्रकारिता और लेखन जगत को अपूरणीय क्षति हुई है.