प्रगतिकामी परम्परा के अनुशीलक / देवशंकर नवीन
मायानन्द मिश्र (सन् 1934-2013) को इसी विशेषण में समेटा जा सकता है। कुल सन् 1960 के दशक में स्थगन का शिकार हुई मैथिली कथा को ललित और राजकमल के साथ उन्होंने न केवल अपूर्व समृद्धि दी, बल्कि नया क्षितिज भी दिया।
विदित है कि लिखते वक्त लेखक को जो कुछ हाथ लग जाए, सब सार्थक ही नहीं होता और जो कुछ छूट जाए, सारा निरर्थक ही नहीं होता। ऐतिहासिक विकास, वैज्ञानिक प्रगति और सामाजिक परिवर्तन के क्रम में विरोधी शक्तियों के पारस्परिक संघर्ष से जिन्दगी के नवल-नूतन आयाम परिलक्षित होते रहे हैं। परिवर्तन की इस सहज धारा में ऐसे ढेरो सामाजिक अन्तर्विरोध उठते हैं जो ध्यातव्य होते हैं, व्याख्येय होते हैं। स्वाधीनता के तत्काल बाद का समय, अर्थात छठे दशक का प्रारम्भ, मैथिली कथा के लिए विचित्रता का समय था। मैथिली की सम्पूर्ण कथाधारा, हास्य-करुण रस की सरिता में डूबी हुई थी, मिथिला के वैवाहिक पाखण्ड में जकड़ी हुई थी। इसी दौरान ललित-राजकमल-मायानन्द जैसे सबल कथाकारों की टीम मैथिली में क्रियाशील हुई। समेकित रूप से मैथिली में इन्हें ‘त्रिपुण्ड’ नाम से जाना गया। भाषाई प्रवाह, शिल्प की नूतनता और विषय के चमत्कारपूर्ण अनुसन्धान के क्रम में मायानन्द के अभिव्यक्ति की आन्तरिक-धारा पर हरिमोहन झा, मनमोहन झा और बंगला के शरदचन्द्र चट्टोपाध्याय का गहरा असर था। पर वह कोई दोष नहीं है। सामाजिक और पारिवारिक सम्बन्धों के तनाव, पाखण्ड, विसंगति को बेपर्द करने में प्रतिबद्धता के साथ लगे रहे।
कवि, कथाकार, उपन्यासकार, विचारक मायानन्द को ‘मन्त्रपुत्र’ उपन्यास के लिए साहित्य अकादेमी सम्मान के अलावा ग्रियर्सन सम्मान तथा सम्पूर्ण प्रबोध सम्मान से सम्मानित किया गया।
हरिमोहन झा, यात्री, कांचीनाथ झा ‘किरण’, उपेन्द्रनाथ झा ‘व्यास’ के बाद मैथिली उपन्यास लेखन को पूरे दम-खम से समृद्ध करनेवाले गिने-चुने उपन्यासकारों में से एक मायानन्द मिश्र ने अपनी खास जीवन-दृष्टि से सृजनशीलता के नए रास्ते विकसित किए। इतिहास, समाज, भाषा (खासकर मातृभाषा), संस्कृति और मानवीय आचरण के जरिए उनके मन में प्रवेश मायानन्द के चिन्तन-मनन का प्रिय क्षेत्र रहा। उनकी कहानियों का पहला संग्रह ‘भाँगक लोटा’ (1951) हास्यपूर्ण कहानियों का संकलन था। पर उस हास्य में भी युग-यथार्थ और जीवन-यापन की विसंगतियाँ ठाँव-ठाँव अपना गर्वोन्नत सिर उठाए हुए है, वह बेवश नहीं है, जोश, होश और साहस से तना हुआ है।
उन्नत चेतना के साथ स्वातन्त्र्योत्तरकालीन मिथिला समाज को गम्भीरतापूर्वक रेखांकित करते हुए मैथिली साहित्य में जिस प्रखर प्रतिभाशाली टीम का आगमन हुआ था, उसमें मायानन्द मिश्र का नाम अगली कतार में सुरक्षित है। आज का मैथिली साहित्य यदि अपनी तीक्ष्ण नजरों से परिवेश में बहुत कुछ सूक्ष्मता से देख पा रहा है, तो इसका श्रेय इन पूर्वजों के प्राथमिक उत्थान को ही जाता है। तथ्य है कि मैथिली कविता और कहानी में राजनीतिक चेतना का उदय पहली बार मायानन्द के यहाँ ही हुआ। बीसवीं शताब्दी के छठे दशक से ही मायानन्द मिश्र मिथिला के आम नागरिक के मन में गम्भीरता से झाँकने लगे थे, उन सबके मानसिक उद्वेलन को उनके मौलिक व्यवहारों से जोड़ने लगे थे। व्यवस्था और समाज के पाखण्ड को उजागर करना उनके लेखन का मुख्य लक्ष्य था। शिल्प की ताजगी, चित्रत्मकता, काव्यात्मकता और लयात्मकता उनके लेखकीय कौशल की मौलिक विशिष्टता है, जो एक साथ उनकी रचनात्मकता में व्यंग्यात्मक बिम्ब का चमत्कार भी भरती थी और भावकों को रोचकता का लोभ भी देती थी। उनकी प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ हैं मैथिली में कहानी-संग्रह — ‘आगि मोम आ पाथर’ (1960), ‘चन्द्रबिन्दु’ (1983), ‘अभिनन्दन’ (2013); उपन्यास — ‘बिहारि, पात पाथर’ (1960), ‘खोंता आ चिड़ै’ (1965), ‘मन्त्रपुत्र’ (1986), सूर्यास्त (2004); कविता-संग्रह — ‘दिशान्तर’ (1966), ‘अवान्तर’ (1988); संस्मरण — ‘अकथ कथा’ (2004); शोध-ग्रन्थ — ‘भारतीय परम्पराक भूमिका’ (2005), ‘मैथिली साहित्यक इतिहास’ (2014); हिन्दी में उपन्यास — ‘माटी के लोग सोने की नैया’ (1967), ‘प्रथमं शैल पुत्री च’ (1990), ‘मन्त्रपुत्र’ (1990), ‘पुरोहित’ (1999), ‘स्त्रीधन’ (2007)। इनके अलावा उन्होंने नवीन भावधारा के मैथिली काव्यान्दोलन को मुखर स्वर देने वाली पत्रिका ‘अभिव्यंजना’ का सम्पादन-प्रकाशन सन् 1960 में पटना से शुरू किया। सातवें दशक तक आते-आते समाज-व्यवस्था की विडम्बनाओं पर नजर रखते हुए उन्हें लगने लगा कि कहानी-उपन्यास के प्रचलित शिल्प सम्भवतः समाज को सचेत करने में सफल नहीं हो रहा है, इसलिए वे इतिहास और मानव सभ्यता के दुर्ग में प्रविष्ट हुए। मानव-सभ्यता के इतिहास पर केन्द्रित चार उपन्यास लिखने की योजना बनाई। दो उपन्यास मैथिली में लिखे — ‘प्रथमं शैल पुत्री च’ और ‘मन्त्रपुत्र’। ‘मन्त्रपुत्र’ प्रकाशित भी हुआ, उस कृति के लिए उन्हें साहित्य अकादेमी सम्मान भी दिया गया! पर मैथिली के पाठकों उस पर राय जानकर निराश हुए; दोनों खण्डों को फिर से हिन्दी में लिखा और इस शृंखला की अगली दोनों कृतियाँ हिन्दी में ही लिखी। चारो कृतियाँ आज भी हिन्दी में प्रकाशित प्रशंसित हैं।
मातृभाषा में विलक्षण रचना-कौशल और घनीभूत प्रतिभा के स्वामी मायानन्द मिश्र का हिन्दी में समर्थ पदार्पण ‘माटी के लोग सोने की नैया’ (उपन्यास, राजकमल प्रकाशन) के साथ हुआ और पाठकों ने बड़ी आत्मीयता से उनका सम्मान किया। सृजनशीलता में अपनी मिट्टी की सोंधी महक के साथ ‘रेणु’ और ‘नागार्जुन’ की भाँति मायानन्द समादृत हुए। एक दीर्घ अन्तराल के बाद साहित्य और इतिहास की दीवार तोड़ती कृतियों की शृंखला के साथ उनकी नई रचना-धारा से पाठकों का परिचय हुआ। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के तीन और उपन्यास — ‘प्रथम शैलपुत्री च’, ‘मन्त्रपुत्र’ तथा ‘पुरोहित’ — प्रकाशित हुए तो पाठक-वर्ग अचम्भित हो उठा। दरअसल ‘माटी के लोग सोने की नैया’ और ‘प्रथमं शैलपुत्री च’, ‘मन्त्रपुत्र’ एवं ‘पुरोहित’ में एक तात्त्विक अन्तर है। शिल्प और विषय का ऐसा परिवर्तन देखकर पाठक-समाज का चौंक जाना कुछ असहज भी नहीं था। वैसे यह अन्तर भी अलग से विवेच्य हो सकता है। बाद के दिनों में फिर उनके इतिहासपरक कथाक्रम का चौथा उपन्यास ‘स्त्रीधन’ प्रकाशित हुआ। ‘माटी के लोग सोने की नैया’, उपन्यास की पृष्ठभूमि ग्रामांचल है, जबकि शेष चार मानव सभ्यता के विकास से प्रारम्भ हुई शृंखला की कथात्मक प्रस्तुति है। पर उनका वास्तविक मूल्यांकन उनके द्वारा बीजारोपित रचना-सूत्रों की पड़ताल से होगा। ज्योतिरीश्वर से लेकर आज तक मैथिली साहित्य की परम्परा सुदृढ़ स्थिति में चलती रही, सभी भाषाओं के साहित्य में दृष्टि-सम्पन्न साहित्येतिहास लिखा जाता है, मैथिली में किसी तार्किक दृष्टि का साहित्येतिहास आज तक नहीं लिखा गया। खास कर काल-विभाजन की तो यहाँ कोई दृष्टि ही नहीं दिखी। मायानन्द मिश्र उस पहले व्यक्ति का नाम है, जिन्होंने काल-विभाजन पर सुनियोजित दृष्टि से सोचा। उनसे मजबूत तार्किकता और सुचिन्तिति से मैथिली साहित्य का काल-निर्धारण अभी तक और कोई नहीं कर सका है। ∙ ∙ ∙ इतिहास और ऐतिहासिक तथ्यों की आधारशिला पर हिन्दी में अनेक कथात्मक कृतियाँ आती रही हैं। हिन्दी के विविध कहानीकारों एवं उपन्यासकारों ने इस विषय पर साहित्य सृजन किया और यथायोग्य प्रसिद्धि पाई। ऐसी कृतियों में लेखक की इतिहास-दृष्टि और सृजन-कौशल का बड़ा महत्त्व होता है। ‘प्रथमं शैलपुत्री च’, ‘मन्त्रपुत्र’ तथा ‘पुरोहित’ और ‘स्त्रीधन’ के रचनाकार मायानन्द उक्त दोनों दृष्टियों में औरों से भिन्न हैं। इतिहासपरक अधिकांश कृतियों के वस्तु उपस्थापन में लेखकों ने या तो पूरी तरह खुद को स्वतन्त्र कर लिया है और कपोल कल्पना के आश्रय से कृति की ऐतिहासिकता समाप्त कर दी है या फिर कपोलकल्पना से कुछ सीमा तक बचे भी हैं तो उनका आधार रामायण, महाभारत अथवा किंवदन्तियाँ ही रहा है। नरेन्द्र कोहली, भगवान सिंह अथवा वृन्दावन लाल वर्मा का भी नाम एक सीमा तक लिया जा सकता है। जबकि मायानन्द अपने इन चारो उपन्यासों में इतिहास की विश्वसनीयता के प्रति पूरी तरह सचेष्ट और निष्ठावान दिखते हैं। ऐतिहासिक सन्दर्भों की सुरक्षा का हर सम्भव प्रयास लेखक ने किया है। उल्लेख असंगत न होगा कि इतिहास के प्रति अतिरिक्त आग्रह ने उनकी सृजनशीलता पर अतिरिक्त तनाव डाला है और इस कारण कथात्मक स्रोत को जीवन्त रखने में रचनाकार को अत्यधिक परेशानी हुई है।
प्राचीन भारत पर लेखक की कथा-योजना का पहला कृति-क्रम ‘प्रथमं शैलपुत्री च’, दूसरा ‘मन्त्रपुत्र’, तीसरा ‘पुरोहित’ और चौथा ‘स्त्रीधन’ है। पहले में ईसा पूर्व बीस हजार से ईसा पूर्व अट्ठारह सौ तक के कालखण्ड को कथा-सूत्र में बाँधने का प्रयास किया गया है। मनुष्य द्वारा ‘हाथ और माथ’ का एक साथ उपयोग, आग का सन्धान और संग्राहक संस्कृति का आविर्भाव — ये तीन मानव जाति की बड़ी उपलब्धियाँ हैं, जो हजारो लाखों वर्षों के संघर्ष से प्राप्त हुई। ‘प्रथमं शैलपुत्री च’ इन उपलब्धियों की विकास परम्परा को काफी ईमानदारी और निष्ठा के साथ प्रस्तुत करता है।
पेड़ पर रहने वाले, फिर धरती पर विचरण करने वाले आदिम मानवों ने अपनी सुविधा के लिए ‘हाथ और माथ’ का एक साथ उपयोग शुरू किया, जो उत्तरोत्तर विकसित हुआ; पन्द्रह हजार ई.पू. के आस-पास हथियार निर्माण के सूक्ष्मतर शिल्प आ गए थे। लेकिन उस काल में ही ‘आग का सन्धान’ और उसकी उपयोग-परम्परा का विकास हुआ। दस हजार ई.पू. के आसपास विश्वव्यापी जलवायु एवं वातावरण परिवर्तन का समय है, इसके बाद ही मानवों में ‘संग्राहक संस्कृति’ का प्रादुर्भाव हुआ, लोग भविष्य के लिए बचा रखने को तत्पर रहने लगे — हजारों-लाखों वर्षों के संघर्ष ने मानव जाति को ये तीन उपलब्धियाँ दीं। मायानन्द का उपन्यास इसी क्रम को कथात्मकता के साथ उपस्थापित करता है, जहाँ एक ओर ऐतिहासिक तथ्यों के साक्ष्य हैं, दूसरी ओर लेखक की कल्पनाशीलता का उत्कर्ष। प्रकृति और मानव के संघर्ष को उपन्यासकार ने इतिहास सम्मत प्रामाणिकता और तर्क-सम्मत काल्पनिकता के साथ एक आकर्षक कथा-शैली दी है। प्रारम्भिक पन्द्रह हजार वर्षों की कहानी को लेखक ने बड़ी तेजी से खींचा है, जबकि मानव-प्रकृति संघर्ष इसी कालखण्ड में तीक्ष्ण रहे...। लेकिन, एक दूसरी बात सामने आती है कि प्राचीन इतिहास की मन्थर-गति-जीवन-प्रक्रिया में कथात्मकता भरना दुसाध्य काम है। बगैर किसी महत्त्वपूर्ण घटना के कोरी काल्पनिकता ठूँसना कृति को मूल्यहीन करता है। इसी बात को ध्यान में रखकर लेखक ने इस कालखण्ड को शीघ्रता से खींचा है और ‘आदिम शिकार-युग की संग्राहक संस्कृति से लेकर पशुपालन, कृषि, उद्योग एवं वाणिज्य-युग की उत्पादन संस्कृति की विशेषताओं को रेखांकित’ करने के निमित्त पाँच हजार ई.पू. से लेकर अठारह सौ ई.पू. तक की कथा रच-रच कर कही है। सम्पूर्ण कथा-सूत्र में लेखक अपनी अनूठी शैली के साथ पाठकों के सहयात्री बने रहते हैं। निश्चित रूप से यह उपन्यास हमारे प्राचीन इतिहास को जानने-समझने का प्रयोगधर्मी शिल्प है, जहाँ तथ्यबोध और रसबोध साथ-साथ जमा है।
प्राचीन समय से व्याप्त मातृसत्तात्मक (मैट्रियार्कल) समाज को कृषि व्यवस्था द्वारा विवाह-प्रथा एवं पारिवारिक स्थिरता देने की प्रेरणा, देश-विदेश के व्यावसायिक सम्बन्ध, द्रविड़ सभ्यता की मूर्तियों और नग्न-मूर्तियों की दीर्घ परम्परा, मोहर, लिपि, शिव, गणेश, कृष्ण आदि की परम्परा, हड़प्पा की अत्यन्त विकसित सभ्यता पर आर्यों के आक्रमण एवं हड़प्पा के पतन आदि की वैज्ञानिकता एवं प्रामाणिकता खोजने का हरेक प्रामाणिक एवं हृद्य प्रयास लेखक ने इन कृतियों में किया है।
ऐतिहासिक प्रमाणिकता के अलावा औपन्यासिक कौशल में भी पग-पग पर लेखकीय दायित्व का भी निर्वाह ऐतिहासिक प्रतिबद्धता के साथ दिखता है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि यह उपन्यास हमें प्राचीन काल के मानव-इतिहास को जानने-समझने की बेसब्र प्रेरणा देता है। मानव-सभ्यता की विकास परम्परा की यह अपूर्व गाथा है और यह प्रमाणित करता है कि एक दीर्घ अन्तराल के बाद लेखक की कृति पूरी तरह नए स्वाद के साथ आई है, नई दृष्टि और प्रांजल सृजनशीलता के साथ पाठकों के बीच समादृत हो रही है। पूरी कृति में ऐसा प्रतीत होता है कि हर समय लेखक अपनी पंक्ति से बोलते रहते हैं, अपने शिल्प में उपस्थित रहकर पाठकों का हमसफर बने रहते हैं। मानव-इतिहास के इन तमाम पहलुओं को जानने-समझने का यह प्रयोगधर्मी शिल्प ही है कि पाठकों को इस तरह आकृष्ट करता है।
आलोच्य उपन्यास में न केवल गहन वन-प्रान्तरों, अभेद्य गुफाओं, सुविस्तृत नदी-तटों और दुर्गम पर्वतों से गुज़रते आदिम भारतीय की सांस्कृतिक भावधारा, मिथक-प्रतीक आदि का ज्ञान होता है बल्कि आज की संस्कृति में व्याप्त अनेक किंवदन्तियों के उत्स खोजने का भी अच्छा अवसर मिल जाता है। यह उपन्यास, लेखन के क्षेत्र में एक अद्भुत कथा-शैली का प्रयोग भी माना जाएगा, जहाँ लेखक हर बिन्दु पर, तथ्य, कल्पनाशीलता और पाठक के विश्वास-सूत्र को समन्वित रखने के लिए सचेत हैं।
प्राचीन भारत पर लेखक का दूसरा कृति-क्रम है ‘मन्त्रपुत्र’। इस पुस्तक की कथाभूमि की चर्चा करते हुए लेखक ने इसे सरस्वती से यमुना तक के प्रसार की गाथा कही है, जो ‘महाभारत’ से लगभग सौ वर्ष पहले के घटना-क्रम पर आधारित है। महाभारत से उत्तर वैदिक काल का प्रारम्भ माना जाता है। इस प्रकार मन्त्रपुत्र में आर्यावर्त की जन्म-कथा है।’ इनकी अनूठी इतिहास-दृष्टि और विलक्षणता के कारण ही अन्य सारे ऐतिहासिक और इतिहास प्रसूत उपन्यासों से ये उपन्यास भिन्न हैं। यूँ, अपनी इतिहास-दृष्टि के प्रति प्रतिबद्धता के कारण ही, ये सदैव सामान्य पाठकों से चैंके भी रहते हैं। ‘मन्त्रपुत्र’ में उन्होंने ऋग्वेद की स्पिरीट को पूरा-पूरा रखने की चेष्टा की है। उपन्यास का कथा-क्रम-विभाजन मण्डलों में तो किया ही है, इन मण्डलों में सांस्कृतिक विकास का संयोजन-क्रम भी उन्होंने ऋग्वेद के तर्ज पर ही यथासम्भव रखने का प्रयास किया है। और इस सन्दर्भ में एक विडम्बना है कि सामान्य पाठकों के लिए तथ्य जानने का सबसे नजदीकी और विश्वस्त स्रोत पुराण होता है, जो ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं माना जाता। ऋग्वेद कालीन संस्कृति को सच्चे रूप में जानने के लिए ऋग्वेद के सिवा जो कुछ उपलब्ध है, वह पौराणिकता के आवरण से ढका हुआ है। तथ्य और आरोपण की इसी विडम्बना को ‘मन्त्रपुत्र’ निरस्त करता है और आज की स्थापनाओं का उत्स खोजता है। सरस्वती से यमुना तट तक आर्यों एवं आर्य-संस्कृति के प्रचार-प्रसार की प्रक्रिया और आर्य-अनार्य के सहज मिलन की घटना को चित्रित करने के लिए उपन्यासकार ने एक आकर्षक शैली अपनाई है, जो एक प्रखर कथा शिल्पी के श्रेष्ठ कौशल का परिचायक है।
प्राचीन इतिहास और ऋग्वेद से उस काल-खण्ड की स्थितियों की प्रमुख बातें सामने आती हैं। कबीलाई जीवन के सामाजिक सिद्धान्तों के आधार पर राजा का निर्वाचन, निष्कासन अथवा पुनराभिषेक होता था। राजा भूमि का स्वामी नहीं होता था। राजस्व प्रथा नहीं थी। समाज पितृसत्तात्मक हो गया था। ऋग्वेद के अन्तिम भाग में विवाह संस्कार की भी चर्चा है। कृषि-कार्य के प्रचार हुए। कर्मानुसार वर्ण-विभाजन की चर्चा होने लगी। यमुना तट की ओर आजाश, शिग्रु, सिम्यु, किरात, निषाद, कीकट तथा नाग आदि जातियों से भरे भूभाग में कुरु-पांचाल बसाना वस्तुतः एक समस्या थी, लेकिन ई०पू० तेरह सौ के आस-पास हमारे गौण जन ऐसा करने लगे। ढेर सारी समस्याओं, वैचारिक संघर्षों के बीच तद्युगीन संस्कृति का यथायोग्य विकास होता रहा। उसी विकास परम्परा में ब्राह्मणों की क्षणिक अहंतुष्टि नहीं होने पर उग्र क्रोध, फिर दान आदि प्राप्त होने के बाद क्रोध शमन, पारम्परिक स्थापना के खण्डन से उग्र क्रोध, खास ब्राह्मण समूह की धार्मिक कट्टरता में लोभ, परम्पराभंजक प्रवृत्ति, नई पीढ़ी की प्रगतिशीलता के आगे पुरानी पीढ़ी की रूढ़िवादिता का पराजय, सामाजिक रीति-रिवाज, नारी-जीवन के विस्तृत परिचय, आर्य-अनार्य के सम्बन्धों का व्याकरण आदि आते हैं; जिसके मनोरम कथात्मक स्वरूप हमें ‘मन्त्रपुत्र’ में मिलते हैं। जीवन के इन पहलुओं का ऐसा आकर्षक चित्रण न केवल आह्लादित करता है, बल्कि हमारी आज की जीवन-पद्धतियों की बहुरंगी व्यवस्था का उत्स वहाँ से ढूँढ लाने में सहायक होता है।
शाश्वती, ऋजिष्वा, सोमाश्व मन्त्राक्ष और राजा असंग — इस उपन्यास की विशाल छत के ये चारो सबल स्तम्भ हैं, इन्हीं स्तम्भों पर वीतिहोत्र के निष्क्रमण से उत्पन्न समस्या को सुलझाने के लिए कथा का निर्माण हुआ है। वीतिहोत्र इस उपन्यास का अदृश्य किन्तु महत्त्वपूर्ण पात्र है, जो पूरी कथाभूमि से लुप्त रहकर भी हर जगह विद्यमान है। इसी पात्र के जीवन को तुला का टेक मानकर कथानक को सन्तुलित किया गया है, इसी पात्र के प्रसंगों को याद कर कथानक को माँसल बनाया गया है। भासुर वाशिष्ठ जैसे मनोरंजक पात्र के अलावा अन्य सारे गौण-पात्र पुस्तक की इमारत को बुनियादी मजबूती देते हैं। सरस्वती नदी से यमुना तक के प्रसार की कथा को आर्यावर्त की कथा कहते हुए मायानन्द ने ‘मन्त्रपुत्र’ को पूर्व वैदिक युग के उत्तरार्द्ध के अन्तिम चरण-काल की कथा कही है।
इतिहासपरक इस शृंखला का तीसरा उपन्यास ‘पुरोहित’ है। इस उपन्यास की काल सीमा उत्तर वैदिक युग का पूर्व ब्राह्मण काल अर्थात् ई.पू. बारह सौ से ई.पू. एक हजार है। इस काल खण्ड के भारतीय समाज का रेखांकन ही इस उपन्यास का अभिपे्रत रहा है। आर्य-अनार्य की संस्कृति की मिलन-प्रक्रिया को दर्शाने के लिए मृत्तिका-मूर्ति की कल्पना, इसी दौरान सरस्वती नदी के सूख जाने से सरस्वती पूजन के प्रारम्भ की तार्किकता ढूँढना और इन्हें सहमति की सीमा तक सम्पे्रषित करना, इस उपन्यास की बड़ी विशेषता है। लेखक मानते हैं कि परवर्ती भारत की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक जीवन परम्परा का शिलान्यास पूर्व-उत्तर वैदिक काल के सन्धि संक्रमणकालीन ब्राह्मण युग में ही हुआ है। बल्कि यह भी कहा जाता है कि भारतीय इतिहास इसी कालखण्ड की ऊर्वर गतिशीलता और उपलब्धियों के कारण महत्त्वपूर्ण भी रहा है। भारतवर्ष की ‘आत्मा’ का जन्म इसी ‘ब्राह्मण काल’ में हुआ। भारत में भौतिकता का विकास-क्रम हो अथवा आध्यात्मिकता का उत्कर्ष-क्रम — वह देन इसी ब्राह्मण काल की है। सामाजिक स्थिरता के लिए उपनिषदीय चिन्तन तथा दैवी सिद्धान्त पर आधारित मौलिक राजतन्त्र की ही देन है, जिससे भारत के स्वरूप को कालान्तर में मूर्त रूप दिया जा सका। यहाँ औद्योगिक विकास, भौतिक समृद्धि, वैचारिक चिन्तन आदि को महत्त्व दिया गया। सामाजिक ढाँचे को सुस्पष्ट करने हेतु, दायित्व बोध के निमित्त वर्ण-व्यवस्था तथा सन्तुलित सामाजिक विकास के लिए आश्रम-व्यवस्था इसी कालखण्ड में कायम हुई। ‘पुरोहित’ उपन्यास उस कालखण्ड के शिक्षा-कर्म, पौरोहित्य-कर्म, कृषि-कर्म, राज-काज और मानवीय जीवन-दर्शन का स्पष्ट चित्र खींचता है। मेधा और कुशबिन्दु का पे्रम प्रसंग बार-बार हजारीप्रसाद द्विवेदी की रैक्व कथा और आंग्ल भाषा के पे्रमपरक गाथाओं की कोमलता, निष्कलुषता की याद दिलाता रहता है। आचार्य श्रुतिभव, आचार्य गालब, अथर्वण ऋताश्व, आचार्य चक्रायण आदि महत्त्वपूर्ण पात्रों की जीवन-साधना को रेखांकित करने में मायानन्द की सफलता प्रशंसनीय है। इस मनोरम कथाकृति से पाठकों को तद्युगीन आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन की जटिल गुत्थियों को सुलझाने में एक दृष्टि मिलेगी।
आम तौर पर ऐसी कृतियों को लोग ऐतिहासिक उपन्यास कह देते हैं। इन तीनों उपन्यासों के बारे में ऐसा कहना किंचित अन्याय ही होगा। ये कृतियाँ वस्तुतः ऐतिहासिक तथ्यों को कथात्मक रूप में प्रस्तुत करने की नई शैली है। तथ्य की वास्तविकता मायानन्द ने पुराणों और किंवदन्तियों में नहीं खोजकर इतिहास और वेद में खोजी है।
हिन्दी और मैथिली — दोनों भाषाओं में मायानन्द अपनी भाषा-शैली और शब्द-योजना के कारण अनूठे साबित हुए हैं। ओजपूर्ण भाषा शैली के कारण ही उनकी कथात्मकता पाठकों को बाँध पाती है। हालाँकि ‘मन्त्रपुत्र’ के नवमे मण्डल में इसका अभाव है। यूँ शिल्प के स्तर पर, इस नाते लेखक का कौशल प्रशंसनीय है कि अत्यन्त प्राचीन काल की कथा को आधुनिकतम शब्दों में ढालने में अन्यतम सफलता उन्हें मिली है। भाषा सहजता और कथोपकथन की मार्मिकता ने कथासूत्र को और रोचक बनाया है।
सूत्र स्मृतिकालीन मिथिला के इतिहास पर आधारित उपन्यास स्त्रीधन मिथिला में राजतन्त्र की समाप्ति, जनक वंश के अन्तिम राजा कराल जनक के अन्याय, दुराचार, नीतिविरोधी प्रवृत्ति, स्वेच्छाचार और एक कुँवारी कन्या के साथ किए गए दुव्र्यवहार के कारण उसके पतन की कहानी है। उत्तर वैदिक काल के आरम्भ में विभिन्न जनपदों के स्वरूप स्थिर होते-होते आर्यीकरण के माध्यम से राज्यों की सीमा का विस्तार हुआ और समाज कृषि विकास से वाणिज्य की ओर उन्मुख होने लगा। नगरीकरण की प्रवृत्ति बढ़ी। वाणिज्य के लिए कैकेय से श्रावस्ती होते हुए चम्पा और राजगृह तक की यात्रा जलमार्ग तथा थलमार्ग से की जाती थी। इन्ह° ऐतिहासिक तथ्यों एवं साक्ष्यों के उपयोग से तत्कालीन राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक स्थितियों और सांस्कृतिक विकास का विवरण यहाँ प्रस्तुत किया गया है। एकपत्नीव्रत आदर्श, सामाजिक दण्ड, विवाहोपरान्त पति की सम्पत्ति में पत्नी के अंश आदि की चर्चा यहाँ प्रमुखता से की गई है। ऐतिहासिक विषय होने के बावजूद यहाँ अन्धविश्वास और पाखण्ड को बल नहीं मिलता। उपन्यास का विषय हमें अपने इतिहास में झाँकने की प्रेरणा देता है और विषय के साथ भाषा शिल्प का वर्ताव इसे साहित्यिक उत्कर्ष। ऐतिहासिक प्रामाणिकता एवं साहित्यिक उपादेयता — दोनों ही दृष्टि से यह उपन्यास महत्त्वपूर्ण है।
सूचनात्मक ज्ञान देने वाले वृ़त्तचित्र को जब कथा में पिरोया जाता है तो उसे सर्वथा और सर्वदा परिवार नियोजन अथवा एड्स-विरोध अथवा प्रदूषण-विरोध अथवा आयकर विभाग आदि के सरकारी विज्ञापन की भाँति फूहड़ हो जाने का खतरा बना रहता है। मायानन्द की इन चारो कृतियों में इससे भी ज्यादा खतरे थे। ये पुस्तकें सूचनात्मक तो हैं ही, साथ-साथ मानव सभ्यता के विकास काल से प्रारम्भ होने के कारण प्रकृति से मानव के संघर्ष से लेकर मानव सभ्यता की स्थापना, भावना और साधना की समझ विकसित करने के उद्यम, जंगली से सामाजिक होने की विकास प्रक्रिया की दीर्घ-कथा, अर्थात सामाजिक स्वरूप और मर्यादा के निर्धारण की गाथा को भी चित्रित करती है, इसलिए ये घटनाबहुल नहीं है और इसलिए इन्हें ऊब से भरी हुई होने की सारी गुंजाईशें थीं। आज के व्यस्त समय में लोग ऊबते भी जल्दी हैं। पर यह मायानन्द की रससिद्धि और उनके कौशल का उत्कर्ष ही है कि उनकी पंक्ति-पंक्ति में रोचकता बनी हुई है।
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मैथिली में गीति-काव्य की प्राचीन परम्परा है। विद्यापति से प्रारम्भ हुआ यह रचना-विधान बीच-बीच में सघन-विरल चलता रहा, पर विद्यापति के गीत में लोक-जीवन के मन को कोमल और सुकुमार भावनाओं का उत्कृष्ट प्रस्फुटन जिस तरह हो रहा था, वह बीच के दौर में लुप्त-सा हो गया था, उसका नवारम्भ फिर से मायानन्द के यहाँ ही सम्भव हो सका--‘नभ आँगनमे पवनक रथ पर कारी कारी बादल आएल’ उनकी गीति-दृष्टि का विलक्षण उदाहरण है। मायानन्द की गीत-शैली मैथिली में इस तरह लोकप्रिय हुई, कि हिन्दी के संगीतकार शैलेन्द्र तक को प्रभावित होना पड़ा।
जिन दिनों हिन्दी में प्रगतिवाद, प्रयोगवाद के बाद नई कविता, अकविता जैसा तरह-तरह का काव्यान्दोलन चल पड़ा था, मैथिली में सोमदेव ‘सहजतावाद’ को स्थापित करने में डटे हुए थे, मायानन्द उन दिनों मैथिली काव्य में अभिव्यंजनावाद की व्याख्या कर रहे थे। उनके योग्य सम्पादन में प्रकाशित पत्रिका ‘अभिव्यंजना’ में ऐसी कविताएँ प्रकाशित होती थीं। उनकी मान्यता थी कि इस प्रकार की कविताओं का केवल स्वभाव ही नया नहीं होता, उसकी अभिव्यंजना प्रणाली भी सर्वथा नई, आकस्मिक और आकर्षक होती है। बाद के दिनों में अपने काव्य-संग्रह ‘दिशान्तर’ की भूमिका में समकालीन कविता की व्याख्या उन्होंने जिस चमत्कारपूर्ण शैली में की, वह उस दौर के और प्रायः आज के पाठकों के लिए भी मैथिली की नई कविता समझने के लिए जादुई छड़ी है। राजकमल की ‘स्वरगन्धा’ (सन् 1959) के प्रकाशन के बाद कीर्तन-भजन और रति-समागम पर कविता लिखने वाले कविगण उनकी निन्दा करने लगे, पर जब उनलोगों ने मायानन्द की ‘दिशान्तर’ और सोमदेव की ‘कालध्वनि’ देखी, तो उन्हें अपनी विरोध-शक्ति पर सन्देह होने लगा। ‘दिशान्तर’ की कविताएँ जितनी महत्त्वपूर्ण हैं, उस दौर की काव्यधारा के सूत्र पकड़ने के लिए उसकी भूमिका कहीं उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।
मंच-माध्यम से मैथिली भाषा की अस्मिता के लिए जिस तरह का आन्दोलनात्मक रुख मायानन्द ने खड़ा किया, वह भी उल्लेखनीय है। ऐसे भाषानुरागी, ऐसे गीतकार, मैथिली के ऐसे सिपाही, इतिहास-दृष्टि और काव्य-दृष्टि से सम्पन्न मायानन्द मिश्र का कथा संसार कुल मिला कर मध्यवित परिवार के आर्थिक-मानसिक तनाव और पीढ़ियों के द्वन्द्व पर केन्द्रित रहा है। बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक का अन्त आते-आते उनकी कथादृष्टि ने एक बार फिर अंगड़ाई ली, अर्थात राजनीतिक सूक्ष्मता और राजनीतिक जोड़-तोड़ के गुणसूत्र उनके यहाँ व्याख्यायित होने लगे। पर उससे पहले की उनकी कहानियाँ दाम्पत्य जीवन के कटु-मधु स्मृतियों और पुरानी पीढ़ी के अतीत स्मरण की व्याख्या करती हैं।
‘चन्द्रबिन्दु’ कहानी के पण्डित लक्ष्मीकान्त झा ने अपने दोनों पुत्रों, रमाकान्त और निशिकान्त को उच्च शिक्षा देकर उच्च पदस्थ कर दिया, देश-दुनिया बदल गई, लोगों का जीवन-क्रम बदल गया, पर लक्ष्मीकान्त झा अपना खूँटा बदस्तूर गाड़े रहे, अपनी पुरानी और जड़ मान्यताओं के साथ जीते रहे। पीढ़ियों का यही संघर्ष उनकी ‘उत्तरचरित’ कहानी में भी व्याप्त है। धरणीधर झा अपने बालसखा काशीकान्त के साथ बैठकर जब वार्तालाप करते हैं, तब दोनों अपने-अपने बेटे-बहू द्वारा की गई सेवा-पूजा की प्रशंसा में पुल बाँधते हैं, पर भीतर-भीतर खुद को भाग्यहीन कहते रहते हैं। एक दूसरे के झूठ को सत्य समझते हैं और दोनों अपने-अपने सत्य को झूठ बनाकर अभिव्यक्त करते हैं। चकित करनेवाली बात यह है कि पीढ़ियों के इस अन्तराल की ऐसी मार्मिक व्याख्या भावकों को हिला देने में और दोनों पीढ़ियों के पाठकों को नए ढंग से प्रशिक्षित करने में सफल हुई है। दो में से किसी भी पीढ़ी की बदमाशी कहीं नहीं दिखती। नई पीढ़ी को पुरानी पीढ़ी के प्रति पर्याप्त आदर है, पुरानी पीढ़ी को नई पीढ़ी के प्रति पर्याप्त प्रेम है, पर दोनों अपने-अपने समय की मान्यताओं के साथ जीना चाहता है। नई पीढ़ी पाखण्ड त्याग रही है, पर पुरानी पीढ़ी रूढ़ियों को अपनी परम्परा और धर्म मानकर थामे हुए है। नई पीढ़ी पुराने के साथ यथासाध्य समझौता कर अपनी मान्यताओं के साथ आगे जाना चाहती है, पर पुरानी पीढ़ी अपने पुराने पिजड़े में वापस जाना चाहती है। ऐतिहासिक विकासक क्रम में यही अन्तर्विरोध मनुष्य को जीवन-यापन में नए-नए आयामों का दर्शन कराता है, मायानन्द ने इस अन्तर्संघर्ष की व्याख्या में सार्थक और सफल योगदान दिया है।
उनकी दूसरी कोटि की कहानियों में दाम्पत्य जीवन का तनाव रेखांकित होता है। पर यह हिन्दी की नई कहानी का दाम्पत्य तनाव नहीं है। यह तनाव शुद्ध मैथिली और शुद्ध मिथिला का है, जहाँ चिनुबारे पर रखी देगची (पेन्दे की गोलाई के कारण) लेश मात्र के टक्कर से भी हिल जाती है और थोड़ी देर हिल कर फिर आप से आप स्थिर हो जाती है। अर्थाभाव, मनोरथ की अभिव्यक्ति, श्रमजन्य थकान, छोटी-छोटी लालसाओं की अपूर्ति, साड़ी, चप्पल, गहना आदि के ठोकर से दाम्पत्य जीवन की यह देगची उनकी कहानियों में हिल उठती है और स्वयमेव थिर हो जाती है। दाम्पत्य जीवन का यह वृत्त किसी भी तरह रहस्यात्मक नहीं है। यहाँ कोई रहस्य है भी, तो वह ‘ओपेन टु ऑल’ है, पति-पत्नी को जीवन जीने की लालसा है, दोनों को एक दूसरे पर प्रेम लुटाने की लालसा है, कर्म करने की लालसा है, अधिकार के लिए नारा लगाने का न तो प्रयोजन है, न लालसा। आज नारीवाद के नाम पर भारतवर्ष में खूब नारेबाजी हो रही है, जिसने यहाँ के पारिवारिक जीवन को तहस-नहस कर दिया, इस विकराल परिस्थिति में यदि मिथिला का पारिवारिक सम्बन्ध और मानवीयता बची रहेगी, तो उसमें मायानन्द की इस कोटि की कहानियों के कारण; फ्रांस से उठे सिमोन द’ बुआ के नारे से प्रभावित कोई छद्म नारीवादी स्त्री-पुरुषों के कारण नहीं। ‘हँसीक बजट’, ‘काल रेत’, ‘गाड़ीक पहिया’ आदि इसी कोटि की कहानियाँ हैं, जहाँ अल्प वेतनभोगी परिवार की सम्पूर्ण लालसा को अपना फैलाव सिकोड़ना पड़ता है। पूरे महीने मन ही मन लालसाएँ बाँटते दाम्पत्य को जब मास के अन्त में छोटी-सी रकम हाथ आती है, तो ओछे पड़े चादर की तरह वह अपनी लालसा को एँड़ी से चोटी तक ढक नहीं पाता, फिर घुटना मोड़कर वह अपनी लम्बाई घटा लेता है। अर्थतन्त्र की इस चाक पर दाम्पत्य जीवन की मिट्टी आकार ग्रहण करती है। पूरी कहानी में पत्नी की छोटी-छोटी लालसाओं और पति की बड़ी-बड़ी विवशताओं का द्वन्द्व चलता रहता है, ठीक उसी तरह पति-पत्नी के बीच भी द्वन्द्व चलता रहता है और अन्त में दोनों एक दूसरे की सुख-शान्ति के लिए, एक दूसरे की तृप्ति के लिए, एक दूसरे की पूर्णता के लिए समागमरत जोड़ी की तरह एकाकार हो जाते हैं।
उनकी तीसरी कोटि की कहानियाँ शुद्ध मानवीयता और सम्बन्ध-निर्वाह में त्याग के महत्त्व की व्याख्या है। ‘टुटैत कीलक जाँत’, ‘एकटा सुखी लोकक डायरी’ इसी कोटि की कहानियाँ हैं। सूक्ष्मता से देखें तो ये दोनों एक ही कहानी के दो खण्ड हैं। पहले में जहाँ केन्द्रीय शक्ति की अनुपस्थिति में भी जाँता भली-भाँति अपने दायित्व का निर्वाह करता जा रहा है, वहीं दूसरी कहानी में अकेला कील दूरस्थ घूमते जाँता को शक्ति दे रहा है। दोनों ही कहानियों के केन्द्रीय और परिधीय पात्र वैयक्तिक लालसा, लोभ, लिप्सा, ऐश-आराम को तिलांजलि देते हुए अपने-अपने दायित्व निर्वाह में एक दुर्धर्ष संघर्ष में जुटा है। सम्पूर्ण अभाव और लिप्साविहीन जीवन जी लेने की सफलता में ये कहानियाँ उत्कट मानवीय प्रवृत्ति का सन्देश छोड़ती हैं। ‘सतदेवक कथा’ आ ‘ट्रान्सफर’ प्राचीन परिपाटी के शिल्प में लिखी कहानियाँ हैं, इनमें सन्देश तो विलक्षण है, पर इनका शिल्प इतना व्याख्यात्मक और एक सीमा तक उबाऊ है कि इसकी प्रभावान्विति आते-आते थकान होने लगती है। अपंगता, गरीबी और अशिक्षा के कारण बचपन से उपेक्षित कोई व्यक्ति किस सीमा तक अक्खड़, अहंकारी और बाद में प्रेम करनेवालों के प्रति घृणा-भाव से ग्रस्त हो जाता है और अन्ततः आदर मिलने पर आत्महत्या कर लेता है, इसका मार्मिक विवरण ‘सतदेवक कथा’ में और परिश्रम, प्रेम, निष्ठा, व्यापार, प्रतिष्ठा, सरकारी विसंगति आदि के प्रभाव से उत्पन्न विकृत स्थिति का चित्रण ‘ट्रान्सफर’ में हुआ है।
‘रंग उड़ल मुरुत’ युग परिवर्तन का प्रतिनिधित्व करनेवाली कहानी है। तुलनात्मक रूप से यह ललित की ‘रमजानी’ कहानी की तरह है, पर ललित का नायक जहाँ अपने सम्पूर्ण मण्डल के साथ आधुनिकता और प्रगति के प्रति आग्रही है, वहीं मायानन्द की पुरानी पीढ़ी अपनी रूढ़ियों पर कायम रहती है। पर सचाई है कि स्वयं मायानन्द का झुकाव नई पीढ़ी के साथ है। यद्यपि इस कथा में कथाकार तटस्थ रहते हैं, अर्थात् जब अर्जुन पण्डित प्लास्टिक के खिलौने कुँएँ में फेक आया, वहीं कहानी का अन्त कर देते, तो यहाँ परिवर्तन का संघर्ष कुछ अधिक निखार पाता। प्लास्टिक का खिलौना यदि प्रगति का परिचायक है, तो ‘माटिक मुरुत’ पारम्परिक कला का। पारम्परिक कला की सुरक्षा का दायित्व भी साहित्यसेवियों का ही है। सम्पूर्ण कहानी में मायानन्द ने सांस्थानिक शिक्षा के दारुण अभाव के बावजूद लोक-कला को जिस तरह वंशानुगत विकसित किया है, वह कहानी के अन्त आते-आते तनिक दब जाता है।
आठवाँ दशक भारत की राजनीति में उथल-पुथल का दशक था। मायानन्द अपनी पीढ़ी के ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होंने गद्य-पद्य दोनों में रचनाएँ कीं; उनका रचना-काल अपनी पीढ़ी के अन्य रचनाकारों से बड़ा रहा और इस कारण समयानुसार अपनी जीवन-दृष्टि और समय-बोध को वे सतत धारदार बनाते रहे। अलग से कहने का प्रयोजन नहीं कि मैथिली में राजनीतिक बोध भली-भाँति पहली बार कविता और कहानी में मायानन्द के यहाँ ही आया। आठवें दशक की राजनीतिक हलचल के दुष्प्रभाव ने मैथिल युवकों को डरपोक और भविष्य के प्रति निराश तथा शंकित कर दिया, प्रौढ़ पीढ़ी को बेईमान और बुजुर्ग पीढ़ी को शुक्राचार्य (कुकृत्य का ज्ञानदाता) बना दिया। यह स्थिति, मायानन्द की कहानी ‘भय प्रगट कृपाला’, ‘दीन दयाला’, ‘कौशल्या हितकारी’, ‘माध्यम’, ‘भैरव’, ‘हर्रे लगे न फिटकिरी’, ‘जिंजीर’ आदि कहानियों में देखा जा सकता है।
मैथिली कथा-साहित्य के लिए यह दुखद प्रसंग है कि ऐसे प्रगतिकामी, विकासमुखी और पुरानी उम्र में भी खुद को बदल सकने की इच्छा रखनेवाले कथाकार मायानन्द मिश्र का साथ छूट गया। गतिशील भाषा, जनपदीय शब्दावली और विवरणात्मक शिल्प के कारण मंच से साहित्य तक, सामाजिक वार्तालाप से अध्यापन तक प्रशंसित मायानन्द आज हमारे बीच नहीं हैं, पर उनकी प्रेरणा अपने लेखन द्वारा दिए गए उनके दिशा-संकेत हैं, आगे के रचनाकारों के लिए वह पाथेय होगा। उनके छूटे हुए कामों को आगे बढ़ाना उनके लिए सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी।