प्रगतिशील लेखकों से कुछ बातें / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
1983 में ताशक़ंद में एफ्ऱो-एशियाई लेखक संघ की रजत जयंती के मौक़े पर आयोजित सम्मेलन में फ़ैज़ ने यह ऐतिहासिक व्याख्यान दिया था।
‘हमारा इस बात में दृढ़ विश्वास है कि साहित्य बहुत गहराई से मानवीय नियति के साथ जुड़ा है, कि स्वतंत्रता और राष्ट्रीय सार्वभौमिकता के बिना साहित्य का विकास संभव नहीं है, कि उपनिवेशवाद और नस्लवाद का समूल नाश साहित्य की सृजनात्मकता के संपूर्ण विकास के लिए बेहद ज़रूरी है।’
एफ्ऱो-एशियाई लेखकों की पहली कान्फ्ऱेंस के समापन पर जारी अंतिम घोषणापत्र के ये कुछ शुरुआती शब्द हैं। यह 1958 का वर्ष था और लगभग इन्हीं दिनों हम अनेक भव्यताओं से घिरे इस शहर ताशक़ंद में इकट्ठा हुए थे। धूप ख़ुशगवार थी, फलों के पकने का मौसम था, फसलें खलिहानों में आ चुकी थीं और जाती हुई गर्मियों में गुनगुनापन बाक़ी था।
घोषणापत्र तथा इससे जुड़े प्रस्तावों को एक मत से स्वीकार करने के साथ ही एफ्ऱो-एशियाई लेखक संघ का जन्म हुआ। यह कुछ उत्साही साहित्यकारों के द्वारा किया गया कोई अप्रत्याशित कारनामा नहीं था। इसके उलट, यह उस विचार का फलना- फूलना था जो वर्षों से एशियाई और अफ्ऱीकी लेखकों-बुद्धिजीवियों के दिमाग़ में बीज की तरह अंकुरा रहा था। चौंतीस देशों से हम दो सौ लोग उस मौक़े पर यहां इकट्ठा हुए थे। यह हमारे उस सपने का पूरा होना था जिसे हमने औपनिवेशिक ग़्ाुलामी की लंबी काली रात में देखा था। यह उन पुराने दोस्तों का, पुरातन प्रेमियों का मिलन महोत्सव था जो इससे पहले कभी नहीं मिले थे। और इस सपने को पूरा करने के लिए, इस मुलाक़ात की अवर्णनीय ख़ुशी के लिए हम इस ताशक़ंद शहर, उज़्बेक नागरिकों और तुम्हारे कामरेड शरफ़ रशीदोव तुम्हारे ऋणी हैं और हार्दिक रूप से कृतज्ञता से भरे हैं। पांच वर्ष पहले भी, हम अपने संगठन की बीसवीं सालगिरह का उत्सव मनाने के लिए आपके ही इस ख़ुशनुमा आकाश के तले मिले थे और अब हमारी रजत जयंती ने हमें फिर इकट्ठा होने, और एक बार फिर प्यारे मेज़बानों, आपके प्रति हमारे प्रेम और आभार को अभिव्यक्त करने का मौक़ा दे दिया है।
हममें से वे जो पच्चीस बरस पहले भी सितारों से भरे इस जमावड़े में मौजूद थे और जो किसी तरह आज भी जीवित बचे हुए हैं, उनके लिए हमारे पुनर्मिलन की यह ख़ुशी, थोड़ी शोकग्रस्त भी है। शोक, उन प्यारे दोस्तों की स्मृतियों का जो अब हमारे बीच नहीं हैं निकलाई तिखानव, अलेक्सेय सुर्कोव, कंस्तांतीन सिमोनोव, मुख़्तार अवेज़ेव, मूसा ऐबक, बदरी केरबाबायेव, मिर्ज़ो तरसुनज़ादे, नाज़िम हिक़मत, सज्जाद ज़हीर, कृष्णचंदर, माओतुन ये सभी उनमें से कुछ एक नाम हैं। आज के दिन हम उनकी स्मृतियों के लिए एक बार फिर अपनी श्रद्धा के फूल अर्पित करते हैं।
हम जब अपने अतीत की ओर देखते हैं तो ऐसा भी नहीं है कि 1958 में पहली बार साहित्य और समाज के अंतर्संबंध, हमारे समय की बुराइयों से संघर्ष में अच्छाइयों और न्याय के पक्ष में खड़े होने और इस तरह दुनिया को बदलने में सहायक होने की लेखकीय जिम्मेदारी, जैसी स्वयंसिद्ध बातें हमने खोज निकालीं थी। लेकिन यह पहली बार हुआ था कि स्पष्ट रूप से परिभाषित इन लक्ष्यों के लिए अफ्ऱो-एशियाई लेखकों का यह मंच अस्तित्व में आया।
तमाम युद्धों के अंत की तरह, लड़े गये पहले महायुद्ध के बाद सामाजिक, नैतिक और साहित्यिक बूर्जुआ मान्यताओं और वर्जनाओं के टूटने और समृद्धि के एक संक्षिप्त दौर में विजेताओं के दिमाग़ में अहं का उन्माद उफनने लगा था। ख़ुदा आसमान पर था और धरती पर सब कुछ मज़े में चल रहा था। नतीजतन ज़्यादातर पश्चिमी और कुछ उपनिवेशों के साहित्य ने उसे आदर्श के रूप में अपना लिया। बड़े पैमाने पर शुद्ध रूपवाद के आनंद का सम्मोहन, अहं केंद्रित चेतना की रहस्यात्मकता से लगाव, रूमानी मिथकों और कल्पित आख्यानों के बहकावों के साथ ‘कला, कला के लिए’ के उद्बोधक सौंदर्यशास्त्रिायों द्वारा अभिकल्पित गजदंती मीनारों का निर्माण होने लगा।
लेकिन, बमुश्किल एक दशक ही बीता था कि पूंजीवादी और औपनिवेशिक दुनिया को पहली बार, वैश्विक स्तर पर आर्थिक मंदी ने घेर लिया और हर ओर पूरब से पश्चिम तक, गुएर्निका से मुकदेन तक फ़ासीवाद का प्रेत, तबाही पर आमादा हो उठा। सिक्के के दूसरे पहलू पर, साथ ही साथ उकेरे जा रहे बोल्ड रिलीफ़ की तरह, दुनिया ने अक्तूबर की महान समाजवादी क्रांति को देखा। उसके साथ एक लगभग अकल्पनीय सामाजिक दिवास्वप्न जीवित सचाई में बदल चुका था। राजनीतिक रूप से दुनिया भर के साम्राज्यवादियों की सम्मिलित ताक़तों पर क्रांतिकारी ताक़तों की विजय और सभी के लिए राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार की उद्घोषणा ने एशिया और अफ्ऱीका के अधिकांश देशों में स्वतंत्रता और सामाजिक मुक्ति के आंदोलनों को एक प्रेरक उत्साह से भर दिया।
इसी समय फ़ासीवाद के उदय ने दुनिया भर के बौद्धिकों को इसके संभावित ख़तरों के विरुद्ध एक मंच पर लाकर खड़ा कर दिया। इन सामाजिक-राजनीतिक सच्चाइयांे और इनसे उभरती नयी वैचारिक सुर संगतियों से सृजनात्मक और मूल्यांकनपरक साहित्य में एक नयी गुणात्मक और मात्रात्मक अभिवृद्धि हुई। सृजनात्मक क्षेत्रा में यथार्थवादी कथा साहित्य और सामाजिक टिप्पणियों से ओतप्रोत कविताएँ रची गयीं। गद्य, पद्य तथा नाट्य साहित्य में अनेक उल्लेखनीय नाम सोवियत संघ, यूरोप, अमेरिका तथा तीसरी दुनिया के कई साक्षर मुल्कों से हमारे सामने आये। एक लंबी और उत्तेजक बहस के बाद मूल्यांकन के क्षेत्रा में साहित्यिक आलोचना को राजनीति, नीतिशास्त्रा और साहित्य के ग़ैरसाहित्यिक उपादानों के साथ एक अपरिवर्तनीय रिश्ते में पुनः जोड़ा गया। इसने समकालीन साहित्यिक सृजनधर्मिता को अपने सामाजिक और ऐतिहासिक मूल से जोड़ा और चारण, भाट, लोक गायक, किस्सागो, पुजारी, जादूगर, ओझा जैसे तमाम लोगों की आदिम भूमिका की पड़ताल, न सिर्फ़ शब्दों के कारीगर की तरह, बल्कि जीवन और उसके शृंगार की प्रक्रिया में सामाजिक हिस्सेदारों की तरह की। और फिर गजदंती मीनारों का ध्वंस प्रारंभ हुआ और भारतीय प्रगतिशील लेखकों के महान आंदोलन की तरह गंभीर राजनीतिक चेतना और प्रगतिशीलता की ओर उन्मुख अनेक साहित्यिक आंदोलन खड़े हुए। इन आंदोलनों ने अपनी मूल अंतर्वस्तु और रूपरेखा दो निर्णायक तत्वों से प्राप्त की। पहली तो वह राजनीतिक प्रेरणा है जो इन्हें सोवियत समाजवादी क्रांति से मिली और दूसरे मार्क्सवादी विचारों से मिला विचारधारात्मक दिशा-निर्देश।
यह दौर दूसरे महायुद्ध की भयावह छाया में पला-बढ़ा, इस पर बहुत ज़ोर देने की ज़रूरत नहीं है। सिर्फ़ एक इशारा ही काफ़ी होगा कि इसी भयानक समय में प्रतिरोध के साहित्य की मशाल उठायी गयी और प्रतिबद्ध साहित्य के स्पष्ट मानदंड भी निर्धारित होते चले गये। अब हम ज़रा अपने निकट अतीत को देखें। युद्ध के बाद का हमारा समय, विराट अंतर्विरोधों से ग्रस्त हमारा युग, विजयोल्लास और त्रासदियों से भरा युग, उत्सवों से भरा और हृदयविदारक युग, बड़े सपनों और उनसे बड़ी कुंठाओं का ज़माना। तीसरी दुनिया की जनता के लिए, एशियाई, अफ्ऱीकी और लातीनी अमेरिकी लोगों के लिए, कम से कम इनकी एक बड़ी आबादी के लिए, किसी को तत्काल ही चार्ल्स डिकेंस के शब्द याद आ जायेंगे ‘वह बेहतरीन वक़्त था, वह बदतरीन वक़्त था।’ अपने दो-दो विश्वयुद्धों से थके हुए साम्राज्यवाद का कमज़ोर पड़ते जाना, सोवियत सीमाओं के पार विस्तार लेता और एकजुट होता समाजवादी ख़ेमा, संयुक्त राष्ट्र संघ का जन्म, राष्ट्रीय स्वतंत्राता और सामाजिक मुक्ति के आंदोलनों का उदय और उनकी सफलताएं, सभी कुछ एक ऐसी साहसी नयी दुनिया का वादा कर रहे थे जहां हमें स्वतंत्राता, शांति और न्याय उपलब्ध हो सकता था। पर हमारी बदक़िस्मती से ऐसा नहीं था।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, युद्ध में बंदूकों के ख़ामोश होने से पहले, हिरोशिमा और नागासाकी को क़त्लो-ग़ारत और विनाश के लिए मानवीय युद्धों के इतिहास में सर्वाधिक मारक युक्ति के विकराल प्रदर्शन के लिए चुन लिया गया। आणविक हथियारों के जिन्न को बंद बोतल से आज़ाद करते हुए अमेरिका ने समाजवादी खेमे को भी ऐसा ही करने के लिए आमंत्राण दे दिया। उस दिन से आज तक हमारी दुनिया की समूची सतह पर विनाश के डरावने साये की एक मोमी परत चढ़ी है और आज जितने ख़तरनाक तरीक़े से हमारे सामने वह झूल रही हैं, उतनी पहले कभी न थी। दूसरे, इस घटना को अभी कुछ ही दिन बीते थे कि अमेरिका ने कोरियाई जन के खि़लाफ़ हथियारबंद हमले की शुरुआत की। जैसा कि कुछ लोगों ने हिसाब लगाया है, युद्ध की समाप्ति के बाद से हर चौदह महीनों में एक बार अमेरिकन एजेंसियों ने एशिया, अफ्ऱीका और लातीनी अमेरिका में उन सरकारों को उखाड़ फेंकने, नष्ट करने या अस्थिर करने की कोशिशें की हैं जो साम्राज्यवाद के नवउपनिवेशवादी इरादों की कठपुतली बनने से इंकार करती हैं या अपने मुल्कों के भीतर अप्रासंगिक हो चुकी प्रतिक्रियावादी सामाजिक व्यवस्था को बदलना चाहती हैं। स्वतंत्रा विश्व के नाम पर संभवतः हमारे इतिहास के घोर अयथार्थ ढोल नगाड़ों के शोर के साथ अमेरिकन शासन तंत्रा ने यहां वहां ढेर सारे निरंकुश राजाओं-सुल्तानों, ख़ून के प्यासे अधिनायक-तानाशाहों, बेदिमाग़ दुस्साहसी सेनापतियों और हवा-हवाई क़िस्म के राजनीतिज्ञों, जिस पर भी वे हाथ रख सकें, को सत्ता के सिंहासन पर बैठाने की कोशिशें की हैं और बैठाया भी है। यह कार्रवाई वियतनाम से बड़ी बदनामी के बाद हुई अमेरिकन विदाई के साथ कुछ वक़्त के लिए रुक सी गयी थी। फिर रोनाल्ड रीगन के ज़माने से हम अमेरिकनों और उनके नस्लवादी साथियों को यहां-वहां भौंकते शिकारी कुत्तों की तरह इन तीन महाद्वीपों में जैसे बिखरे बारूद के ढेरों के आसपास देख रहे हैं। तीसरे, जहां पुराने साम्राज्यवादी मालिकों का गिरोह अपने क़ब्ज़े में रहे उपनिवेशों के संसाधनों का दोहन कर रहा था, वहां अब उनकी जगह अंतर्राष्ट्रीय एकाधिकार पूंजी के वित्तीय माफ़िया और नव उपनिवेशवाद के संरक्षकों ने ले ली है। अपने साम्राज्यवादी पूर्वजों की तरह ही, तीसरी दुनिया के मुल्कों में उद्योग-व्यापार का उनके लिए एक ही मतलब होता है अमीर का और अमीर होते चले जाना और ग़रीब का और ग़रीब होते होते मर जाना। पुराने ज़माने के शाइलॉक की तरह वे तीसरी दुनिया की सरकारों के तमाम यथास्थितिवादी ख़र्चों के लिए अपने अनुदान और ऋण के उदार प्रस्तावों के साथ हर वक़्त तैयार नज़र आते हैं, बस उन्हें उनके हिस्से का गोश्त गिरवी रखना है।
कोई पूछ सकता है, और उसे ठीक ही पूछना चाहिए कि इस सबका अफ्ऱो-एशियाई लेखकों या साहित्य मात्रा से आखि़र क्या लेना-देना है? जवाब है सब कुछ! सबसे पहले तो एक लेखक के तौर पर, एक नागरिक के तौर पर और मनुष्य होने के नाते वह संयुक्त राज्य अमेरिका के द्वारा मानवीय अस्तित्व के सामने आवाणिक हथियारों के ज़रिये लगातार खड़ी की जा रही भीषण चुनौती को न तो अनदेखा कर सकता है और न ही निष्क्रिय होकर बैठा रह सकता है। दूसरे, तीसरी दुनिया के अनेक देशों में एक लेखक, एक नागरिक के तौर पर उसने पाया है कि राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलनों और राजनीतिक स्वतंत्राता के इस दौर में उसकी और उसके लोगों की मुक्ति नहीं हुई है। विदेशी शोषकों के आधिपत्य की समाप्ति के बाद दरअसल उसे और भी अधिक निर्दयी निरंकुश एक घरेलू निज़ाम मिला है। बतौर एक नागरिक उसकी ईमानदारी और बतौर एक लेखक उसकी निष्ठा, बार-बार अग्निपरीक्षा से गुज़र कर चूर-चूर हुई जाती है। अब और ज़्यादा क्या कहा जाये दुनिया के कुछ हिस्सों में नस्लवादी शासकों के द्वारा राजनीतिक स्वतंत्राता का मूलभूत अधिकार भी नहीं दिया जा रहा है और अभी भी गांव-क़स्बों के गली-मुहल्लों में स्वाधीनता सेनानियों का ख़ून बहे चला जा रहा है। फिलस्तीन में, इज़राइलियों के द्वारा हथियाये गये अरब इलाक़ों पर, दक्षिण अफ्ऱीका और नामीबिया में यही हालात हैं। तीसरी बात है कि तीसरी दुनिया में जारी राजनीतिक दुरभिसंधियों और आर्थिक संसाधनों की लूट के साथ ही एक ऐसा सोचा-समझा विनाशक संहार जारी है जो उसके सांस्कृतिक मूल्यों को नष्ट करने के बाद उसकी पारंपरिक पहचान को भी समाप्त कर देगा।
यह स्वाभाविक ही है कि इन घृणित योजनाओं को चुनौती दी जाये। इसीलिए युद्धोत्तर काल में कई प्रगतिशील आंदोलनों का जन्म हुआ। इनमें विश्वशांति और आपसी समझदारी को बढ़ाने के लिए, अंतर्राष्ट्रीय एकता के लिए, स्त्री के अधिकारों के लिए, मज़दूर संगठनों के लिए आंदोलन चल रहे हैं। और अब यह अफ्ऱो-एशियाई लेखकों का आंदोलन है। ऊपर उठाये गये राजनीतिक मुद्दों की बात के अलावा लेखकों से आवाहन किया गया था कि इनके साथ ही वे अपने व्यवसाय की ज़िम्मेदारियों और समस्याओं के बारे में भी अपने बीच संवाद क़ायम करें। हमारे समय के लेखकों और कलाकारों से अपेक्षा है कि वे औपनिवेशिक काल के अवशेषों से विकृत और धूलधूसरित अपने अतीत के खंडहरों से स्वयं को मुक्त करें और अपनी पहचान के जीवित तत्वों की खोज करें। काल की निरंतरता के बीच अपने अनुभव सत्य और समय की वास्तविकताओं की प्रस्थापना करें।
इस प्रक्रिया में उन्होंने एक ओर साम्राज्यवादियों द्वारा मिटा दिये गये अपने एशियाई और अफ्ऱीकी पड़ोसियों के साथ अतीत के सांस्कृतिक संबंधों की फिर से खोज की। वहीं पीड़ा और अपमान झेल रहे समाजों में संघर्ष और मुक्ति के रास्ते तलाशते दो महाद्वीपों की जनता के दिलोदिमाग़ को भी आपस में जोड़ दिया। और इस तरह युद्धोत्तर काल में पहले एक मनोवेग और फिर एक सपने ने जन्म लिया और सोवियत लेखक संघ के आमंत्रण और ताशक़ंद की दिलनवाज़ मेहमाननवाज़ी को धन्यवाद कि सपना सच हुआ और एफ्ऱो-एशियाई लेखक संघ का जन्म हुआ। जन्म बिना किसी तकलीफ़ के हुआ और ख़ुशी से भरा दिन था। लेकिन बच्चे का बड़ा होना? जैसा कि हम सब जानते हैं, उसकी अपनी मुसीबतें हैं। नतीजतन आज पच्चीस बरस बाद भी, जो कुछ किया जाना चाहिए था उसके बहुत बड़े हिस्से पर कुछ भी नहीं हो सका है। कई योजनाएं-परियोजनाएं जिन्हें पहली ही कांफ्रेंस में तय किया गया था और बाद में भी जिन पर लगभग हर बार जो दिया जाता रहा, आज भी काग़ज़ों पर ही हैं।
आज बहुत से अधूरे रहे आये कामों को कोई भी गिना सकता है। मसलन, एफ्ऱो-एशियाई साहित्य के लिए एक प्रकाशन गृह की स्थापना, एफ्ऱो-एशियाई लेखकों की जीवनी सहित संपर्क-संदर्भ-कोश, एफ्ऱो-एशियाई क्लासिक्स का बड़ी यूरोपियन भाषाओं में अनुवाद, राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों में एफ्ऱो-एशियाई साहित्य विभागों की स्थापना, वग़ैरह-वग़ैरह। ज़ाहिर है कि इन महत्वाकांक्षी परियोजनाओं को तभी हाथ में लिया जा सकता था जब हमारे पास पर्याप्त कर्मचारी, सुसज्जित संसाधन, हर परियोजना के लिए एक वित्त पोषित संगठन, और राष्ट्रीय समितियों के साथ नज़दीकी संपर्क के लिए एक केंद्रीय मुख्यालय होता। लेकिन हम इनमें से कुछ भी नहीं जुटा पाये। वजह सभी को मालूम है। संगठन का पहला मुख्यालय पहले सम्मेलन के बाद कोलंबो में स्थापित किया गया और वह निराशाजनक ढंग से असफल हो गया। इसके बाद एक सुव्यवस्थित और सक्रिय केंद्र की काहिरा में स्थापना करने और वहां काम शुरू करने में क़रीब आठ बरस लग गये। यह भी कैंप-डेविड षड्यंत्र का शिकार हुआ और तब से हमारा कैंप केंद्रीय मुख्यालय अपने महासचिव के साथ-साथ बेघर-बेपता और बेसरोसामान है।
फिर भी एक महत्वपूर्ण परियोजना जिसे मूल रूप से पहले प्रस्तावित किया गया था और जिस पर बहुत बाद में काम शुरू हुआ द लोटस पत्रिका आज भी है, हालांकि अपनी अनियमितताओं के साथ। वह बची रही क्योंकि उसे सोवियत लेखक संघ, जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक की एकता समिति और फ़िलस्तीनी मुक्ति संगठन की सहायता और सहयोग मिलता रहा। इनके साथ ही उसे कई देशों से मित्र और सहयोगी सदस्य भी मिलते रहे।
एक अन्य सकारात्मक पहलू सचिवालय अथवा राष्ट्रीय समितियों के द्वारा बड़ी संख्या में सेमिनार, परिसंवाद और साहित्यिक सम्मेलन आदि आयोजनों का है। जिनमें अनुभवों और विचारों के आदान-प्रदान से हमारे आपसी रिश्ते मज़बूत हुए और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की हमारी समझदारी बढ़ी। इन सभी मामलों पर, इसमें कोई शक नहीं कि हम महासचिव से विस्तार से सुनेंगे। मैं यहां सिर्फ़ उन कुछ मुद्दों पर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं जो इन्हीं परिस्थितियों में पिछले पच्चीस बरसों में हमारे सामने आये हैं।
पहला भौतिक मामला तो बढ़ती उम्र का है। इस आंदोलन की शुरुआत और संगठन की स्थापना के समय इसके सदस्य नेतागण और वैचारिक सहयोगी, ज़्यादातर नौजवान थे और अपनी सृजनात्मकता के शिखर पर थे। बीते वक़्त के साथ-साथ हम सामूहिक नेतृत्व में पर्याप्त संख्या में युवतर लेखकों को शामिल करते चलने का कोई रास्ता नहीं खोज पाये। नतीजतन, कुछ एशियाई और अफ्ऱीकी देशों में कई प्रतिभावान लेखक, हमसे उद्देश्यों से सहमति रखते हुए भी, हमारे संगठन की सीमाओं से बाहर रह कर ही विकसित हो रहे हैं।
दूसरे, राजनीतिक मुद्दों को प्रमुखता से उठाते रहने की वजह से प्रगतिशील लेखक और उनके संगठन, लेखकीय कौशल और सौंदर्यशास्त्रा के मुद्दों को दरकिनार करने में कुशल होते गये हैं। ठीक वैसे ही जैसे रूपवादी और पलायनवादी लेखक अपने आस-पास की दुनिया की तरफ़ से आंख मूंद लेते हैं। सिद्धांत-कथन के स्तर पर इन संगठनों की घोषणाएं, बयान और मुद्दों का प्रतिपादन, प्रकट रूप से साहित्य से निर्लिप्त राजनीतिक दलों से ज़रा भी भिन्न नहीं होता। सृजनात्मक रूप से, दूरंदेशी के बिना सृजन प्रक्रिया की जटिलताओं के प्रति एक काहिली भरा रवैया प्रगतिशील लेखन को ऐसे नीरस और बकवादी पिष्टपेषण में बदल देता है जो कभी भी न तो राजनीतिक और न ही कलात्मक रूप से मूल्यवान होता है। हमें स्वीकार करना चाहिए कि बहुत ही अच्छे इरादों से, बहुत सारे साहित्य के लिए हमने पहले तो जगह और फिर रास्ता बना दिया है। इसलिए यह ज़रूरी है कि सिद्धांत और कार्य व्यवहार में ठीक-ठीक संतुलन किया जाये, जैसा कि हर क्षेत्रा में किया जाता है। ख़ास तौर से सृजनात्मक प्रतिभाओं को विचारधारात्मक बोध से संपन्न करने के मामले में इस बात पर ध्यान देना चाहिए।
तीसरी बात यह कि तीसरी दुनिया के कुछ देशों में जिस तरह सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियां विकसित हो रही हैं जैसा कि पहले भी संक्षेप में कहा गया है नये शोषक वर्ग और निरंकुश तानाशाही के उदय और स्वतंत्राता मिलने के बाद वैयक्तिक और सामाजिक मुक्ति के सपनों के ढह जाने से युवा पीढ़ी मोहभंग, सनकीपन और अविश्वास की विषाक्त चपेट में आ गयी है। नतीजतन बहुत से युवा लेखक पश्चिमी विचारकों द्वारा प्रतिपादित किये जा रहे जीवित यथार्थ से साहित्य का रिश्ता तोड़ने, उसके मानवीयकरण और शैक्षणिक पक्ष को अस्वीकार करने और लेखक को तमाम सामाजिक ज़िम्मेदारियों से मुक्त होने जैसे प्रतिकियावादी विचारों और सिद्धांतों के प्रति आकर्षित हो रहे हैं। इन वैचारिक मठों और गढ़ों से रूपवाद, संरचनावाद, अभिव्यक्तिवाद और अब ‘लेखक की व्यक्तिगत स्वतंत्राता’ जैसे ऊपर से अत्यंत आकर्षक लगने वाले नारे की लगातार वकालत की जा रही है। इसका ज़ाहिर उद्देश्य लेखक को अपनी सामाजिक, राजनीतिक, विचारधारात्मक प्रतिबद्धता से दूर करना है। इस सारे विभ्रम को इसीलिए विचारपूर्ण तरीक़ों से हटाने की ज़रूरत है।
और अंत में, एफ्ऱो-एशियाई लेखकों के सामने अपने लोगों के बजाय पश्चिमी पाठकों के लिए लिखने पर ढेरों भौतिक लालच बाहें फैलाकर स्वागत कर रहे हैं। जिस एफ्ऱो-एशियाई लेखक की रचनाएं किसी एक भी यूरोपियन भाषा में प्रकाशित हो जाती हैं वह रातोंरात विश्वख्याति का हक़दार बन जाता है। दूसरी तरफ़ उसका वह साथी है जिसकी रचनाएं दस-दस एफ्ऱो-एशियाई भाषाओं में अनूदित हो रही हैं, और वह ऐसी किसी ख्याति का दावा भी नहीं कर सकता। इस विषम स्थिति का भी कोई न कोई हल हमें निकालना चाहिए।
अब अपने आंदोलन और अपने संगठन की ओर वापस लौटते हुए सभी कुछ कहे-सुने जाने के बावजूद, हमारी एक अत्यंत महत्वपूर्ण उपलब्धि से कोई इनकार नहीं कर सकता। वह उपलब्धि यह है कि एफ्ऱो-एशियाई लेखक संगठन आज भी चल रहा है, और न सिर्फ़ चल रहा है बल्कि इसने अपने जन्म से ही घोषित उद्देश्यों और इरादों को न तो छोड़ा है, न मुंह मोड़ा है। इसलिए मुझे अपनी ताशक़ंद की पहली कांफ्ऱेंस में जारी घोषणापत्रा की अंतिम पंक्तियों से अपना वक्तव्य समाप्त करने की इजाज़त दीजिए ‘हम दुनिया भर के सभी लेखकों से आवाहन करते हैं कि आप तमाम मानवीय बुराइयों के खि़लाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद करें। उन बुराइयों के खि़लाफ़ जिनका शिकार हमारा समाज और हमारे लोग हैं। उपनिवेशवाद, नस्लवाद और शोषण की बुराइयों के खि़लाफ़।
हम आपसे आग्रह करते हैं कि इसके साथ ही साथ सत्य, सौंदर्य और स्वतंत्राता की अपनी खोज, जनजीवन से जुड़े ऐसे साहित्य की रचना, जो न्याय और तर्क की सर्वोपरि स्थापना के उनके संघर्ष में सहायक हो सके, जारी रखें।’
मैं दुनिया में आज के हालात देखते हुए इस घोषणापत्र को कुछ शब्दों के ज़रिए थोड़ा सा और बढ़ाना चाहता हूं ‘मनुष्य जाति और मानवीय सभ्यता पर आणविक सर्वनाश का ख़तरा मंडरा रहा है और मनुष्यता के सामने यह सबसे बड़ा ख़तरा है। दुनिया भर के तमाम लेखको, आप अपनी आवाज़ विश्व शांति और तनाव-शैथिल्य के पक्ष में और हर क़िस्म के सैन्यवाद तथा युद्ध के खि़लाफ़ बुलंद करें।’
अनुवाद : राजेंद्र शर्मा