प्रचारतंत्र और गुणवत्ता की खाई / जयप्रकाश चौकसे

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प्रचारतंत्र और गुणवत्ता की खाई
प्रकाशन तिथि :02 फरवरी 2017


कुछ दिन पूर्व शाहरुख खान ने अपनी फिल्म 'रईस' के प्रचार के लिए मुंबई से दिल्ली की यात्रा अगस्त क्रांति मुंबई एक्सप्रेस में की और वडोदरा स्टेशन पर हुई भगदड़ में एक व्यक्ति की मृत्यु हुई और कुछ लोग घायल हुए। रेलमंत्री ने इस दुर्घटना की जांच के आदेश दिए हैं, जिसकी रिपोर्ट जाने कब आएगी। हमारे देश में अनेक जांच कमीशन बैठाए गए हैं परंतु अभी तक कोई परिणाम नहीं आया है। हजारों पृष्ठ रंगे जाएंगे परंतु नतीजा कुछ नहीं निकलेगा। इस तरह की कसरत के कारण भारत में गणतंत्र व्यवस्था नए ढंग से परिभाषित हुई है कि यह न्यूनतम द्वारा न्यूनतम लोगों की व्यवस्था है। आश्चर्य यह भी है कि शाहरुख खान की ओर से मरने वाले के परिवार को किसी सहायता की घोषणा नहीं हुई, जबकि फिल्म सितारे इस तरह के मामलों के प्रति सजग रहते हैं।

सरकार की ओर से भी भविष्य में इस तरह के प्रचार की आज्ञा नहीं दी जाएगी, ऐसा कोई फरमान नहीं आया है। प्राय: इस तरह की दुर्घटना में सितारे द्वारा की गई पहल उसकी फिल्म का प्रचार ही करती है। कई वर्ष पूर्व शाहरुख खान ने मुंबई के नानावटी अस्पताल में बच्चों के वार्ड के लिए दान राशि उपलब्ध कराई थी। सलमान खान मुंबई के गरीब मरीजों को सहायता देते हैं और कुछ गरीब बच्चों की स्कूल की फीस भी देते हैं। अक्षय कुमार ने भी हाल ही में सेना की विधवाओं की सहायता की पहल की है। भारत में दान का महिमामंडन किया गया है। इसका यह अर्थ भी निकाला जा सकता है कि समाज में सदैव असमानता बनी रहेगी। दरअसल ऐसे समाज की रचना, जिसमें किसी भी व्यक्ति को दान आधारित जीवन नहीं जीना पड़े परम आदर्श होना चाहिए। दान परम्परा को महिमामंडित करने का अर्थ ही असमानता को स्वीकार करने की तरह है और उस पर धर्म की मुहर भी लगा दी गई है। दान देने को इस तरह भी प्रस्तुत किया है मानो ऐसा करने से स्वर्ग में स्थान पक्का हो जाता है, जबकि शैलेंद्र लिख चुके हैं, 'आदमी है आदमी की जीत पर यकीं कर, अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीं पर।' स्वर्ग और नर्क आकल्पन स्थिति को जस का तस बनाए रखे की एक चेष्टा है। धरती इतना देती है कि सब संतुष्ट हो परंतु इसके उत्पादन पर मुट्‌ठी भर लोगों का कब्जा हमेशा रहा है।

फिल्म के साथ ही तमाम उत्पाद का प्रचार किया जाता है और इसका बजट भी बहुत अधिक है। अगर प्रचार बजट कम कर दें या समाप्त कर दें तो सभी चीजें सस्ती हो सकती हैं, क्योंकि प्रचार का खर्च उत्पादन के खर्च में जोड़कर उस पर लाभ तय किया जाता है। सच तो यह है िक उत्पाद खर्च से कहीं अधिक है प्रचार का खर्च। चुनाव प्रचार पर खर्च राशि कभी ईमानदारी से बताई नहीं जाती है और काले धन की गंगोत्री चुनाव ही है। चुनाव में प्रचार नीति और उसका खर्च अत्यंत महत्वपूर्ण है। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार 'शाइनिंग इंडिया' प्रचार नारे के कारण ही चुनाव हार गई, क्योंकि असमानता के अंधकार में रहने वाले अनगिनत लोगों को यह अपमानजनक लगा था।

जो फिल्म निर्माता प्रचार के दम पर अपनी फिल्म की सफलता की आधारशिला रखता है, उसकी फिल्में प्राय: असफल भी हो जाती है। प्रचार बजट गुणवत्ता का पर्याय कभी नहीं बन सकता। जेपी दत्ता की 'लाइन ऑफ कंट्रोल' एलओसी मंे दो दर्जन सितारे थे और भव्य प्रचार बजट भी था परंतु उसी समय प्रदर्शित 'मुन्नाभाई' अत्यंत सफल रही, जिसमें संजय दत्त ने अभिनय किया था, जो कभी भी बड़ा सितारा नहीं था। सच तो यह है कि 'मुन्नाभाई' के निर्माता शाहरुख खान को लेना चाहते थे परंतु कुछ गलतफहमी के कारण यह संभव नहीं हुआ तो उन्होंने संजय दत्त को लिया, जिसके पास काम भी कम था और मेहनताना भी कम था। निर्माता विधु विनोद चोपड़ा और निर्देशक राजकुमार हिरानी को अपनी पटकथा पर भरोसा था। विधु विनोद चोपड़ा किसी का भी अहंकार सहने वाले व्यक्ति कभी नहीं रहे हैं और न ही भव्य दावतें देते हैं। विधु विनोद चोपड़ा का भाई वीर चोपड़ा अर्थशास्त्र में आक्सफोर्ड से इम्तहान पास है और उन्होंने एक किताब ऐसी भी लिखी है, जो सांसदों पर खर्च होने वाली राशि की अर्थहीनता को रेखांकित करती है।

ज्ञातव्य है कि संसद के कैन्टीन में शुद्ध, स्वादिष्ट भोजन नाममात्र मूल्य पर मिलता है, उन्हें मुफ्त में रेलयात्रा की सुविधा भी प्राप्त है तथा अनेक सुविधाएं दी जाती हैं। कुछ सांसद तो स्वयं को आवंटित निवास का एक भाग किराये प भी देते हैं परंतु इसे सिद्ध करना मुश्किल है, क्योंकि इस तरह के कार्य के अनुबंध नहीं होते। सच तो यह है कि जिस देश में चालीस प्रतिशत आबादी ने पूरे जीवन एक संपूर्ण भोजन नहीं किया है, उस देश के सांसदों को नाममात्र मूल्य पर स्वादिष्ट भोजन उपलब्ध कराना मानवता के खिलाफ जघन्य अपराध है। कितने ही सांसद पांच वर्ष में बमुश्किल पांच मिनट संसद में बोलते हैं, जबकि भारत एक वाचाल देश है। वे केवल चुनाव प्रचार सभा में खूब बोलते हैं, वादे करते हैं, जिन्हें उन्हें कभी पूरा नहीं करना है- यह बात बोलते समय भी वे जानते हैं।