प्रचार, प्रार्थना और बॉक्स ऑफिस / जयप्रकाश चौकसे
प्रचार, प्रार्थना और बॉक्स ऑफिस
प्रकाशन तिथि : 05 सितम्बर 2012
आजकल फिल्म निर्माता, निर्देशक, नायक, नायिका और यूनिट के सदस्य तथा उनके रिश्तेदार सब मिलकर धार्मिक स्थानों पर प्रदर्शन पूर्व फिल्म की सफलता के लिए प्रार्थना करने जाते हैं। इन लोकप्रिय लोगों को मंदिर के पुजारी और दरगाह के अधिकारी खूब महत्व देते हैं और उस समय आम जनता को ऊपरवाले के दरबार में भी न्याय नहीं मिलता। असमानता के अध्याय वहीं से प्रारंभ होते हैं। यह सामूहिक प्रार्थना कुछ उसी तरह है, जैसे प्रदर्शन पूर्व प्रचार के लिए टेलीविजन के सारे कार्यक्रमों में सितारे मौजूदगी दर्ज कराते हैं। अत: प्रदर्शन पूर्व प्रचार का ही एक हिस्सा धार्मिक स्थलों पर जाकर प्रार्थना करना भी है। प्रचार और प्रार्थना का इस तरह से मिल जाना अजब-गजब भारत की ही विशेषता हो सकती है। सितारों के हमेशा पीछे लगे रहने वाला इलेक्ट्रॉनिक मीडिया प्रार्थना स्थलों में प्रवेश कर जाता है। उनके ईश्वर तो सितारे ही हैं। अपने काम में सफलता पाने की इच्छा स्वाभाविक है और सभी लोग यह करते हैं। इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं है। काबिले-एतराज केवल प्रार्थना को तमाशे में बदलना है। तमाशेबाजी के आलम में धर्मस्थल के प्रमुख भी सज-धज के बैठते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि कुछ ही दिनों में उन्हें मेकअपमैन और हेयर ड्रेसर इत्यादि की आवश्यकता भी पड़े। दूल्हा-दुल्हन भी विवाह पूर्व घंटों ब्यूटी पार्लर में गुजारते हैं या सौंदर्य को बढ़ाने वाले उनके घर आकर यह काम करते हैं।
यह भी आम बात हो गई है कि एक सितारा रात तीन बजे घर से बाहर निकलता है, क्योंकि वह पैदल सिद्धि विनायक मंदिर जाना चाहता है और मीडिया उसके घर के बाहर उस समय भी मौजूद रहता है, क्योंकि सितारे के सचिव ने उन्हें पूर्व सूचना दी है। प्रदर्शनप्रियता और तमाशेबाजी के दायरे फैलते जा रहे हैं। फिल्म उद्योग धर्मभीरु है, क्योंकि उनके व्यवसाय में अजूबे घटते हैं। वे आम व्यक्ति की पसंद के अनुरूप फिल्म बनाते हैं, परंतु इस पसंद का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता। एक प्रकार से यह उद्योग तराजू पर मेंढक तोलने की तरह है, जो निरंतर पलड़ा बदलते रहते हैं। जीवन ही अनिश्चय से शासित है। सदियों से एक निजाम सक्रिय रहा है मनुष्य को उसकी अपार क्षमताओं से अनभिज्ञ रखने के लिए और पटकथा ऐसी बुनी गई है कि उसके परिश्रम का श्रेय भी एक अदृश्य शक्ति को जाता है। मनुष्य को हमेशा उसकी लघुता का अहसास कराया जाता है और उसकी विराटता को उभरने ही नहीं दिया जाता, क्योंकि ऐसा होने पर आडंबर का एक बड़ा व्यवसाय ठप हो सकता है। सारांश यह कि जीवन के अनिश्चय को भी व्यवसाय बना दिया गया है। मनुष्य की ईश्वर में आस्था होना एक अलग बात है और उसका व्यवसायीकरण अलग बात है।
बहरहाल, इस पहलू पर भी विचार करना चाहिए कि धार्मिक स्थान पर सितारों के जाने से फिल्म का कितना प्रचार सार्थक होता है- यहां बात ऊपरवाले की कृपा से सफल होने की नहीं की जा रही है। दरअसल मंदिर में जाने से हिंदू दर्शक प्रभावित नहीं होता, जैसे दरगाह पर सितारे के जाने से मुस्लिम दर्शक प्रभावित नहीं होता। दर्शक पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष होता है। उसके फिल्म चुनने के तरीके अलग हैं। फिल्म बनाने वालों को जितना अनुभव बनाने का है, उतना ही अनुभव दर्शक को फिल्म देखने और चुनने का है। अगर जीवन के अन्य सभी क्षेत्रों में जीन्स का असर मनुष्य पर माना जाता है तो फिल्म देखने का क्षेत्र उससे अछूता कैसे रह सकता है? हॉलीवुड की वेस्टर्न श्रेणी की फिल्में अमेरिका में पीढिय़ों द्वारा देखी जा रही हैं। जॉन वेन और क्लिंट ईस्टवुड को पीढिय़ों ने सराहा है। अमेरिका में सिनेमा ही उनकी मायथोलॉजी है। भारतीय सिनेमा के प्रारंभिक दशक में बनी तमाम ९१ फिल्में मायथोलॉजिकल थीं और आज भी जीन्स पहने नायक की विचार-शैली और माइंडसैट पौराणिक ही है।
यह पूरा प्रकरण आस्तिक या नास्तिक होने का नहीं है, वरन मन से की गई प्रार्थना और उसके आडंबर का है। इतना ही नहीं, व्यावसायिकता तथा प्रचार तंत्र के तौर-तरीकों का भी है। व्यवसाय करना भी काम है, उसमें परिश्रम और प्रतिभा की आवश्यकता है, परंतु व्यावसायिकता इससे भिन्न है। व्यावसायिकता एक दृष्टिकोण है, हर अवसर से लाभ कमाने का तरीका है। भावनाओं के आधार पर शोषण भी व्यावसायिकता ही है। कुछ संस्थाएं कर्मचारी को सारा जीवन घर का आदमी कहकर लूटती हैं। उस पर इतनी दया बरसाई जाती है कि वह कभी अपना अधिकार नहीं मांगता। उसके हिस्से में सिर्फ काम है।
बहरहाल, कुछ धार्मिक स्थानों ने सितारों के अपनी फौज के साथ केवल फिल्म प्रदर्शन के अवसर पर आने को प्रतिबंधित कर दिया है। आप सारे समय सामन्य रूप से आ सकते हैं, परंतु अपनी फिल्म के प्रचार के लिए नहीं आ सकते। 'हाथी मेरे साथी' के निर्माता एक मंदिर विशेष में स्थापित देवता को अपना बराबरी का हिस्सेदार मानते थे और मुनाफे का पचास प्रतिशत मंदिर में देते थे। यह संभव है कि कभी उन्होंने लागत का पचास प्रतिशत भी मंदिर के चढ़ावे से लिया हो।